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भारतीय स्वतंत्रता दिवस पर भाषण | SPEECH ON INDIAN INDEPENDENCE DAY | 2018


स्वतंत्रता दिवस - 15 अगस्त
[भाषण]
सत्यमेव जयति नानृतम, सत्येन पन्था विततोदेवयानः|
येनाक्रमंती ऋषियो हि आप्तकामा, यत्र तत्र सत्यस्य परमम् निधानम ||

आज पन्द्रह अगस्त स्वतंत्रता दिवस की इस पावन बेला में उपस्थित हमारे विद्यालय के आदरणीय प्रधानाचार्य महोदय, विद्यालय के सभी सम्माननीय शिक्षकगण, भारतीय गरिमा-महिमा-कृति-कीर्ति के भविष्य का भार अपनी तेजोमय भुजाओं में उठाने वाले मेरे सभी विद्यार्थीगण तथा जिज्ञाषा भाव से पधारे अन्य सभी श्रोताओं !

 यह देश ऋषियों का देश रहा है, यह देश संत-महात्माओं का देश रहा है, यह जो देश है मित्रों! सदैव प्रकाश में रत रहने वाला देश है इसीलिए इसका जो नाम है, क्या है ? भारत है , ऋषियों ने कहा भारत जो है सदैव प्रकाश में ही रत रहता है वह अँधेरे में कभी नहीं रहता | भारत शब्द में भा का अर्थ प्रकाश से है और रत का अर्थ रहने से है अतः भारत जो है वह प्रकाश में जीता है और पूरी दुनिया को भी अपने योगत्व प्रकाश से प्रकाशित  करता था, करता है और आगे भी करता रहेगा | 15 अगस्त 1947 की स्वतंत्रता इसी सत्य की शक्ति की ओर इंगित भी करता है |

मेरे मित्रों ! आज आजादी के 71 वर्ष पुरे होने के बाद 72वां स्वतंत्रता दिवस हम सभी मना रहे हैं | सोने की चिड़ियाँ कही जाने वाली इस भारत की धरती पर सम्पूर्ण विश्व की नजर है | यह देश अनेकता में एकता का महान सन्देश प्रदान करती रही है | एकता के बदौलत ही जातिवाद से पृथक होकर हमारे देश के नौजवानों ने, वरीय संतों ने तथा सभी नर-नारी, बूढ़े-बचे मिलकर देश को आजाद कराया | अंग्रेजों के चंगुल से बाहर निकालकर हम सभी को एक नया स्वतंत्र भारत दिया | हम भूले नहीं उन शहीदों को, हम भूले  नहीं उन जवानों को, हम भूले नहीं उन किसानों को, हम भूले नहीं उन संतो को जिन्होंने अपना पूरा जीवन ही देश की आजादी में न्योछावर कर दिया था | हम सभी आज उन सभी की याद में स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए यहाँ पर उपस्थित हुवे हैं |

मेरे मित्रों ! प्रत्येक वर्ष हम स्वतंत्रता की इस महान बेला पर अनेक भाषण एवं अभिभाषण सुनते है लेकिन केवल भाषण सुनाने से और सुनने से क्या होगा जब तक हम उसे अपने अंतरतर में नहीं उतारेंगे | देश तो आजाद हो गया, देश तो स्वतंत्र हो गया, लेकिन केवल अंग्रेजों से, अंग्रेजियत से नहीं | हमारे देश से अंग्रेज तो चले गए लेकिन अपनी अग्रेजियत छोड़ गए , जिसकी चपेट में हम ऐसे बंधते चले गए कि अपनी संस्कृति ही भूल गए, अपने संस्कार ही भूल गए, अपनी गरिमा ही भुलाने लगे |

अतः आज आवश्यकता है कुरीतियों के बंधन से स्वतंत्र होने की, आज आवश्यकता है भेद भाव के जाल से अलग होने की, आज आवश्यकता है अंधविश्वासों से, बैमानियत से, अधर्म से, पाप से, वैमनस्व से, व्यभिचार से अगल होने की |  स्वतंत्रता दिवस की इस महान बेला पर हम सभी अपने भीतर भी परिवर्तन लाने का संकल्प लें | यह आजादी का दिन बड़े दुर्लभ से हमें प्राप्त हुवा है इसका सभी मिलकर सम्मान करें |

वह सेवक वर धन्य है, देश कि चिंता होय |
हर बाधा अरु विघ्न में, अडिग रहे डर खोय ||
                                              - सनियात

जय हिन्द ! जय भारत !!


उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचन्द | Upanyaas Samraat - Munshi Premchand

उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचन्द


आज प्रेमचन्द की तुलना दुनिया के चोटी के साहित्यकार मोरित्ज, गोर्की, तुर्गनेव, चेखब और टॉल्स्टोय  आदि के साथ करते हुए हमें उन पर गर्व होता है। प्रेमचन्द की नाम-यात्रा धनपत राय से नवाब राय और फिर प्रेमचन्द पर आकर टिक जाती है और वह साहित्य के काल-पात्र में एक अनूठी स्मृति-धरोहर बन जाती है। हंगेरियन विद्वान् डॉ एवा अरादी ने उनकी तुलना ‘मोरित्ज‘ से की। एक बार बनारसी दास चतुर्वेदी ने उनसे पूछा- दुनिया का सबसे बड़ा कहानीकार आप किसे मानते हैं? प्रेमचन्द ने सहज ढंग से कहा- चेखब को ! और यह भी एक सुखद आश्चर्य ही है कि रूस के प्रसिद्ध विद्वान् ‘ए0 पी0 बरान्निकोव’ ने भी उनकी तुलना चेखब से की । सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ नामवर सिंह के शब्दों में - ‘‘1907 से 1936 तक के भारतीय जीवन का गहराई से किया गया चित्रण यदि किसी एक व्यक्ति में है-तो वे प्रेमचन्द हैं।’’ आचार्य केसरी कुमार के अनुसार- ‘‘पे्रमचन्द की कथा-यात्रा का अन्तिम सोपान है ‘कफन’ कहानी और ‘गोदान’ उपन्यास, जिसमें पूरा भारतीय समाज, पात्रता पा गया है। सत्य आरोपित न होकर घटित है। यह अपने आदर्श से नहीं स्वरूप से संवेद्य है।’’ सचमुच हिन्दी कहानी और उपन्यास जगत् में प्रेमचन्द का आविर्भाव एक युगान्तकारी घटना है। इसलिए आज भी प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट् और अमर कहानीकार के रूप में साहित्य-जगत् में प्रतिष्ठित हैं।

इस कालजयी महान् उपन्यासकार और कहानीकार की जीवन-यात्रा के कुछ मोड़ों को जानना भी आवश्यक है। 31 जुलाई 1880 को बनारस से चार मील दूर लमही ग्राम में पिता मुंशी अजायब लाल और माता श्रीमती आनन्दी देवी की चैथी सन्तान के रूप में जन्म। पिता ने प्यार से नामकरण किया ‘धनपत राय’ और ताऊ ने पुकार का नाम रखा ‘नवाब राय’। बचपन में मौलवी द्वारा फारसी तथा उर्दू की शिक्षा प्राप्त हुई। मात्र सात वर्ष की अवस्था में माता का निधन। विमाता घर में आई और उनका प्यार प्रेमचन्द को नहीं मिल सका। वे उन्हें चाची कह कर ही पुकारते रहे।

गोरखपुर मिशन स्कूल से आठवीं कक्षा पास करने के बाद 1895 में क्वींस काॅलेज वाराणसी में नामांकन और यहीं से 1898 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।  नौवीं में थे-तभी 1896 में शादी और तीन वर्षों के बाद 1899 में ही पिता जी का देहावसान। यह भी एक विचित्र-संयोग है कि उस समय के कई महान् पुरुषों  की शादी अल्प वय में ही हुई थी। भारतेन्दु जी की शादी 13 वर्ष की आयु में। महात्मा गाँधी की शादी 12 वर्ष की आयु में। प्रेमचन्द की शादी पन्द्रह वर्ष की आयु में हो गई थी। विमाता और पत्नी के सम्बन्धों में खटास ने प्रेमचन्द के जीवन को और दुःखमय बना दिया था।

पन्द्रह साल के धनपत राय पर पूरे परिवार का बोझ आ गया। मिशन स्कूल, चुनार गढ़ में मात्र 8 रुपये मासिक वेतन पर सरकारी अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। फिर 20 रुपये माहवार पर बहराइच जिला स्कूल में पाँचवें शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए। इसी समय से लेखन की ओर झुकाव हुआ। सन् 1901 में धनपत राय के नाम से ‘हम खुर्मा-ओ-हम सबाव’ उर्दू में लिखा, जिसका हिन्दी अनुवाद ‘प्रेमा’ के नाम से हुआ। 1902 में विद्यालय से अवकाश लेकर इलाहाबाद के गवर्नमेंट ट्रेनिंग स्कूल में दो वर्षीय कोर्स के लिए प्रविष्ट हुए। इसी बीच 1903 में ‘नवाब राय बनारसी’ के नाम से उर्दू पत्रकारिता में प्रवेश किए। सन् 1904 में इलाहाबाद माॅडल स्कूल के हेडमास्टर बने। कानपुर के प्रख्यात उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’ में लिखने लगे। 1909 में ‘जमाना’ में ही पहली कहानी ‘संसार का सबसे अनमोल रत्न’ धनपत राय के नाम से प्रकाशित हुई।

सन् 1908 में उर्दू-कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ नवाब राय के नाम से प्रकाशित। 1908 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह सम्पन्न हुआ। इसी वर्ष डिप्टी इन्सपेक्टर ऑफ स्कूल्स का पदभार महोबा में ग्रहण किया। ‘जमाना’ में ‘सोजे वतन’ का विज्ञापन भी छापा गया। इस ‘सोजे वतन’ में देशपे्रम से भरी पाँच कहानियाँ थी। अचानक एक दिन जिलाधीश की बुलाहट पर गये तो देखा कि उनके टेबुल पर ‘सोजे वतन’ की प्रतियाँ रखी थी। यहीं पर नवाब राय का भेद खुल गया । ‘सोजे वतन’ जब्त कर ली गई। ‘जमाना’ के प्रकाशक श्री दयानारायण निगम की सलाह पर ‘प्रेमचन्द’ के नाम से लिखने लगे  और यही छद्म नाम उनका वास्तविक साहित्यिक नाम बन गया।

पहली बार प्रेमचन्द  उपनाम से ‘जमाना’ में ही उनकी पहली हिन्दी- कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ छपी जिसने हिन्दी कहानी को एक नया आयाम दिया। सन् 1913 में पुत्री कमला का और 1916 में ज्येष्ठ पुत्र श्रीपत राय का जन्म। इसी बीच 1916 में इंटर की परीक्षा और 1919 में बी0ए0 की परीक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय से पास की। 1919 में दूसरे पुत्र मन्नू का जन्म। मगर साल भर बाद ही उसकी मृत्यु। 1921 में तीसरे पुत्र अमृत राय का जन्म। 1923 में सरस्वती प्रेस की स्थापना और कई पुस्तकों का प्रकाशन।

सन् 1916 से गोरखपुर के नार्मल स्कूल में सहायक शिक्षक के पद पर आये। यहीं पर उन्हें एक नये मित्र महावीर प्रसाद पोद्दार मिले, जिनकी कलकत्ते में हिन्दी पुस्तकों की एजेन्सी थी। यही महावीर प्रसाद पोद्दार जब कलकत्ता जाते थे तो प्रेमचन्द की कोई पुस्तक शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय को पढ़ने के लिए दिया करते थे। एक दिन जब वे शरत् बाबू से मिलने गए तो उनकी बैठक में टेबुल पर ‘सेवा-सदन’ रखी हुई थी और वे भीतर मकान में गये हुए थे। महावीर बाबू उस प्रति को अचानक ही उठाकर देखने लगे। तभी उनकी दृष्टि एक जगह ठहर गई। शरद बाबू ने उस पुस्तक के पन्ने पर पाश्र्व में एक जगह लिखा - ‘उपन्यास सम्राट्‘ और बस उसी समय से  प्रेमचन्द के साथ एक और उपनाम महावीर प्रसाद पोद्दार ने जोड़ दिया - ‘उपन्यास सम्राट्‘।

गोरखपुर में उनकी भेंट रघुनाथ सहाय फिराक से हुई। और वहीं उनका सम्पर्क लाहौर के रहने वाले ‘इम्तियाज अली ताज’ से भी हुई जिन्होंने प्रेमचन्द की अनेक रचनाओं का उर्दू में प्रकाशन किया। दोनों में पत्र-व्यवहार चलता रहा। दोनों एक-दूसरे के प्रशंसक भी बन गये । फिराक उस समय इलाहाबाद के म्योर कॉलेज के छात्र थे और छुट्टियों में गोरखपुर आने पर कहा करते थे- ‘‘प्रेमचन्द जी का घर मेरे लिए अपना ही दूसरा घर हो गया है।’’ यहीं से उनके जीवन में एक नया मोड़ आया।

1919 में जलियाँवाला बाग काण्ड में आप मर्माहत हो उठे। गाँधीजी का 1921 में गोरखपुर का दौरा हुआ। असहयोग आन्दोलन का रंग चढ़ने लगा और आपने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। 15 फरवरी 1921 को आपका इस्तीफा मंजूर हो गया। इस तरह करीब 20 वर्षों की नौकरी छोड़कर आप असहयोग आन्दोलन और चर्खे के प्रचार में जोर-शोर से लग गये। इसके बाद कानपुर में मारवाड़ी स्कूल में हेडमास्टर नियुक्त हो गये। मगर वहाँ से त्यागपत्र देकर 1922 में काशी विद्यापीठ में आ गये। 1923 में बनारस में ‘सरस्वती प्रेस’ की स्थापना की। सरस्वती प्रेस घाटे में चलने लगा। इसी बीच माधुरी के भी सम्पादक बने।

माधुरी के लिए पहली बार जैनेन्द्र जी ने अपनी कहानी भेजी तो प्रेमचन्द ने इसे यह लिख कर लौटा दिया कि कहीं यह अनुवाद तो नहीं है? मगर उनकी ही दूसरी कहानी ‘अंधों का भेद’ विशेषांक के लिए चुन ली गई और इसके साथ ही जैनेन्द्र जी से उनका सम्बन्ध प्रगाढ़ होता गया।

जयशंकर प्रसाद जी के प्रोत्साहन से उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका प्रारम्भ की, जिसका पहला अंक मार्च 1930 में निकला। ‘माधुरी‘ के सम्पादक-मंडल के सम्मानित सदस्य वे तब भी बने रहे। मगर ‘हंस’ का प्रकाशन भी शासकीय हस्तक्षेप के कारण 1932 में बन्द कर देना पड़ा। अब विनोदशंकर व्यास से उन्होंने ‘जागरण’ ले लिया। प्रेमचन्द जी के सम्पादकत्व में 22 अगस्त 1932 को  ‘जागरण’ का नया अंक निकला । ‘हंस’ का प्रकाशन भी पुनः दिसम्बर 1932 से निकलने लगा। वे बाम्बे भी गए। बाद में उनके उपन्यास पर सिनेमा भी बने। मगर बाम्बे उन्हें रास नहीं आया। वहाँ साहित्य की कोई पूछ नहीं थी। सब कुछ कृत्रिम और छिछला था। उन्होंने अपने एक पत्र में इन्द्रनाथ मदान को लिखा-‘‘सिनेमा में साहित्यिक व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है।’’ शायद उनका  यह मन्तव्य आज भी प्रासंगिक है। इसलिए वे 3 अप्रैल 1935 को मुम्बई से विदा होकर फिर बनारस आ गये।

जब वे ‘जागरण‘ के सम्पादक थे तो जैनेन्द्र जी ने हीरानन्द सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ख्जो उस समय जेल में थे, की दो कहानियाँ उनके पास भेजी। उन्होंने पूछा कि ये कहानियाँ तो अच्छी हैं मगर लेखक का नाम नहीं है। इसके लेखक आखिर कौन है? इस पर जैनेन्द्र जी ने कहा कि समझिए कि लेखक ‘अज्ञेय‘ है। उन दोनों कहानियों को ‘अज्ञेय’ के नाम से ही छाप दिया गया। बस यहीं से वात्स्यायन जी के नाम के आगे एक और उपनाम ‘अज्ञेय’ जुड़ गया। इस तरह अज्ञेय जी इस उपनाम को पाने के बाद प्रेमचन्द के और करीब आ गये।

प्रेमचन्द ने उस समय कितने ही नवयुवक लेखकों- जैनेन्द्र, अज्ञेय, अश्क, श्री राम शर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी आदि को न केवल प्रोत्साहन दिया बल्कि उनसे अन्तरंगता भी बढ़ायी। अपने जीवन के प्रारम्भिक चरण में वे आर्य- समाज से प्रभावित हुए तो जीवन के अन्तिम चरण में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ को भी प्रोत्साहन दिया। कुछ लोग उन्हें गाँधीवाद से जोड़ना चाहते थे तो कुछ साम्यवाद से भी। मगर वे किसी वाद से नहीं बँधे थे। प्रेमचन्द ने अपने युग का सही चित्रण और साहित्य को जीवन से जोड़ दिया। अपने साहित्य में जनसाधारण को प्रतिबिम्बित किया। भारतीय किसान की व्यथा का चित्रण जैसा प्रेमचन्द ने किया - वैसा किसी ने नहीं किया। मनुष्य के अन्दर जो भी सुन्दर, उदात्त और आनन्दमय है, साहित्य उसी का मूर्त रूप है और इसीलिए प्रेमचन्द का साहित्य सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् का पर्याय है। उनकी रचनाओं में यथार्थ और आदर्श का सुन्दर समन्वय है।

18 जून 1936 को मैक्सिम गोर्की के निधन पर आयोजित श्रद्धांजलि सभा में ‘आज’ के कार्यालय बनारस में अस्वस्थता के बावजूद गये। लौटने पर बीमारी बढ़ी। पत्नी के पूछने पर कि अस्वस्थ होने पर भी वहाँ क्यों गये-प्रेमचन्द ने धीरे से कहा- ‘‘गोर्की जैसा आदमी रोज-रोज तो मरता नहीं।’’ धीरे-धीरे बीमारी बढ़ती गई। बनारस से इलाज के लिए लखनऊ आये। दयानारायण निगम भी उन्हें देखने आये। हकीम की दवा से भी आराम नहीं हुआ। वे फिर बनारस आ गये।

1 अक्टूबर 1936 को निराला जी ने ‘भारत’ में एक लेख लिखकर प्रेमचन्द के स्वास्थ्य पर चिन्ता जतायी और अन्त में लिखा- हे भगवन् ! दो वर्ष और।’’ मगर शायद भगवान् ने उनकी बात नहीं सुनी। 7 अक्टूबर 1936 को जैनेन्द्र से ही आदर्शवाद पर बातें हुई। मगर 8 अक्टूबर 1936 की सुबह, मौत का पैगाम लेकर आ गई, और प्रेमचन्द ने सदा के लिए आँखें मूँद ली।

लमही खबर पहुँची। बिरादरी वाले भी आ गये। प्रेमचन्द जी का शव मणिकर्णिका घाट की ओर कुछ लोग ले जा रहे थे। रास्ते में लोग आपस में बातें कर रहे थे-‘किसी मास्टर जी की लाश है’। यह था-उस महान् लेखक के प्रति श्रद्धांजलि विवेक। उसी समय शान्तिनिकेतन में इस खबर को सुनकर रवीन्द्रनाथ टैगोर विचलित हो उठे। उन्होंने रुँधे स्वर में कहा-‘‘एक रतन था, वह भी खो गया।’’

प्रेमचन्द नहीं रहे मगर उनकी कृतियों में वे आज भी जीवित हैं। उनका साहित्य जन-जीवन की गीता है, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की त्रिवेणी है। उनके प्रमुख उपन्यास रंगभूमि, कर्मभूमि, निर्मला, सेवा-सदन, प्रेमाश्रम, कायाकल्प, प्रतिज्ञा, वरदान, गबन और गोदान उन्हें उपन्यास सम्राट् कहलाने के लिए काफी हैं। कहानी-संग्रह में मानसरोवर, सप्त सरोज, नव निधि, पाँच फूल, प्रेरणा, प्रेम-पूर्णिमा, प्रेम-प्रसून, पे्रम पचीसी, पे्रम प्रतिज्ञा आदि उन्हें अमर कहानीकार के रूप में आज भी प्रतिष्ठित करने में सक्षम है।

प्रेमचन्द की अन्तिम और अपूर्ण कृति ‘मंगल सूत्र’ है। शायद यह कोई नयी दिशा देता । नजीर बनारसी ने उनके बारे में लिखा -
‘‘पर्द था, पर्द से कारवाँ बन गया
एक था, एक से इक जहाँ बन गया,
ऐ बनारस तेरा एक मुश्ते गुबार
उठ के हमारे हिन्दोस्ताँ बन गया।
मरने वाले के जीने का अन्दाज देख,
देख काशी की मिट्टी एजाज देख।’’

सचमुच प्रेमचन्द के प्रति इससे बढ़कर श्रद्धांजलि के शब्द नहीं हो सकते। प्रेमचन्द सही मायने में भारत की आत्मा के प्रतीक बन गये थे। उनके व्यक्तित्व पर शब्दों का मुलम्मा चढ़ाने की कोई जरूरत नहीं। वे सदियों तक इसी तरह ‘उपन्यास सम्राट्’ और ‘अमर कहानीकार’ के रूप में श्रद्धा और विश्वास के साथ याद किये जाते रहेंगे।
यह भी कितने आश्चर्य की बात है कि वर्ष 1936 में ही प्रख्यात साहित्यकार मैक्सिम गोर्की और शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय का भी निधन हुआ। इसे विधि की विडम्बना कहें या एक संयोग मात्र।

सरल, स्पष्ट और जीवन्त शैली के स्रष्टा प्रेमचन्द हमलोगों के बीच नहीं रहे मगर आज भी प्रेमचन्द जीवित हैं- अपने साहित्य के माध्यम से, अपने पात्रों के माध्यम से, अपने संवादों के माध्यम से। आज भी होरी और धनिया में, रूपा और सोना में, सूरदास और पं0 दातादीन में वे भारतीय मानस के प्रतिनिधि वक्ता के रूप में हमें झकझोरते रहे हैं। जैनेन्द्र के शब्दों में- ‘‘प्रेमचन्द को मैं साहित्य-निर्माता से अधिक देश-निर्माता मानता हूँ। उनकी साहित्य-रचना का स्रोत देश-प्रेम और मानव-प्रेम है।’’

प्रेमचन्द ने अपने 36 वर्षों के साहित्यिक जीवन में करीब तीन सौ कहानियाँ, एक दर्जन उपन्यास, चार नाटक और अनेक निबन्धों के साथ विश्व के महान् साहित्यकारों की कुछ कृतियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया और उनकी यह साहित्य-साधना निश्चय ही उन्हें आज भी अमरता के शीर्ष-बिन्दु पर बैठाकर उनकी प्रशस्ति का गीत गाते हुए उन्हें आज भी ‘उपन्यास सम्राट्’ और कहानीकार की उपाधि से विभूषित कर रही है। प्रेमचन्द सही मायने में आज भी सच्ची भारतीयता की पहचान हैं।
 
 
Sukhnandan singh Saday
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Ref. Article source from Apani maati Apana chandan, Author-Sukhnandan singh saday. picture source from Hindustantimes.com. keywords munshi premchand kon the, Upanyaas Samraat.

महाप्राण निराला | SURYAKANT TRIPATHI NIRALA

महाप्राण निराला - मैं अकेला निराला

किसी ने उस युग-कवि को ‘महाप्राण निराला’ कहा तो किसी ने उसे ‘मतवाला’ कहा। किसी ने उसे छायावादी युग का ‘कबीर ’कहा तो किसी ने उन्हें ‘मस्तमौला’ कहा । किसी ने उन्हें  सांस्कृतिक नवजागरण का ‘बैतालिक’ कहा तो किसी ने उन्हें सामाजिक-क्रान्ति का ‘विद्रोही कवि’ कहा । एक साथ उनके नाम के साथ इतना वैविध्य और वैचित्रय जुटता गया कि इनका जीवन और काव्य दोनों विरोधाभास के रूपक बनते गए। मगर ‘निराला’ सचमुच निराला ही बने रहे। लोगों के द्वारा दिये गये विशेषणों की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। वे एक साथ दार्शनिक भी थे, समाज-सुधारक भी थे, विद्रोही भी थे, स्वाभिमानी भी थे, अक्खड़ भी थे, फक्कड़ भी थे, उदारचेता भी थे और सबसे बढ़कर ‘महामानव’ थे। हमारे आत्मीय मित्र और हिन्दी-साहित्य के प्रख्यात कवि स्वर्गीय बालकवि आर्य ने निराला के रूप-वैविध्य का चित्रण करते हुए लिखा था-

काव्य गगन का सूर्य निराला,
छन्दों का था तूर्य निराला
झंकृत-स्वर का गान निराला,
नाद-शाक्ति की तान निराला
महाकाल का काल निराला,
तमक गया विकराल निराला
शान्त हुआ तो मोम निराला,
ठंडाया हरिओम् निराला।
हिन्दी का सिरमौर निराला,
स्वाभिमान में और निराला
भावों की वह घटा निराला,
अनुप्रासों की छटा निराला।।

स्व0 बालकवि जी की कविता के कुछ उद्धृत अंश शायद ‘निराला’ के रूप-वैविध्य को बहुत हद तक चित्रित करने में सफल हुए हैं। आखिर उनके व्यक्तित्व की इस विविधता का रहस्य क्या है ?

कवि अपने समय की पग-ध्वनि के साथ अपनी कविता के तार को जोड़ता है। समय की धड़कन उसकी रचना-धर्मिता में प्रतिबिम्बित होती है। कभी-कभी समय के थपेड़े से आहत होकर वह विद्रोही भी बन जाता है तो कभी-कभी सृजन की आग उसके चिन्तन को प्रकाशित करती है। विभिन्न सामाजिक और राष्ट्रीय परिस्थितियों से साहित्यकार कभी कटा नहीं रह सकता और समय के स्वर उसके शब्दों में मुखर हो उठते हैं। युग की पीड़ा और समय का दंश निराला के हृदय को भी सालता रहा और उनके भीतर से शब्द का लावा फूटता रहा। उनके शब्द कहीं अंगार बनकर निकले तो कहीं इन्द्रधनुष बनकर उतरे। इस महान् कवि की जीवन-यात्रा भी फूल और अंगारे के बीच से होकर चलती रही। एक सतत संघर्ष की कहानी उनके जीवन की निशानी बनकर रह गई।

‘निराला’ जी के पिताश्री [स्व०]  रामसहाय त्रिपाठी अपने पैतृक स्थान अवध को छोड़कर मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक स्थान पर जीविका की खोज में आ बसे थे। इसी महिषादल में सन् 1896 की बसन्त पंचमी के दिन ख्जनवरी महीने में, सूर्य कुमार का जन्म हुआ। वाणी का वरदपुत्र वाग्देवी वीणा-पाणि के पूजन के दिन ही बंगाल की धरती पर आया। पिता की नौकरी महिषादल रियासत में सिपाही के पद पर थी और पदोन्नति प्राप्त कर वे जमादार बन गये थे। उस समय के लिए यह एक सम्मानप्रद पद था। 

‘सूर्य कुमार’ के जन्म के तीन वर्ष बाद ही उनकी माताजी का निधन हो गया। जीवन में प्रथम आघात यहीं से शुरू हुआ। प्रारम्भिक पढ़ाई के लिए एक बंगला-पाठशाला में नाम लिखाया गया। तीन-चार वर्षों के बाद महिषादल के हाईस्कूल में पढ़ाई शुरू हुई। यहाँ बंगला के साथ-साथ अंग्रेजी की भी पढ़ाई होने लगी। मगर हिन्दी पढ़ने का अवसर नहीं मिल पा रहा था। परिवार में पैतृक गाँव से आये लोगों के माध्यम से रामचरित मानस का पाठ सुनने में बालक को अत्यधिक आनन्द आने लगा। धीरे-धीरे बंगला, अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत इन चार भाषाओं को वे सीखने लगे। उनकी प्रतिभा शनैः शनैः निखरने लगी। संगीत के प्रति भी अभिरुचि जगी। कुश्ती का भी अभ्यास करने लगे।

अभी चैदह वर्ष की अवस्था ही हुई थी कि इनकी शादी सुसंस्कृत विदुषी मनोहरादेवी के साथ हो गई। पत्नी को हिन्दी-ज्ञान बहुत अच्छा था। निराला जी हिन्दी सीखने के लिए अत्यधिक जागरूक रहने लगे। उनके भीतर की प्रतिभा जाग उठी। अब तो वे कविता भी करने लगे। स्कूल की पढ़ाई आगे नहीं बढ़ सकी। घर पर ही अब उनकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी। स्वाध्याय का क्षेत्र भी बढ़ता गया।

अभी उनकी अवस्था 23 वर्ष की भी नहीं हुई थी कि एक दूसरा आघात आ पहुँचा और उनकी पत्नी का एक महामारी में मैके में ही सन् 1919 में निधन हो गया। सूर्य कुमार का मन बिल्कुल टूट गया। समय-चक्र क्रूर बनकर सामने खड़ा हो गया। युवक सूर्य कुमार हतप्रभ से सब कुछ व्यथित हृदय से देखते रहे। समय का आघात यहीं रुका नहीं। एक वर्ष बाद अचानक पिताजी भी चल बसे। यह एक वज्राघात था। एक पुत्र रामकृष्ण त्रिपाठी और एक पुत्री सरोज के पिता होने के साथ सारे संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी भी कंधे पर आ गई। समय थम-सा गया। जीवन की सहज धारा में एक बहुत बड़ा व्यवधान आ कर खड़ा हो गया।

परिजनों, मित्रों के बहुत आग्रह करने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। पिता के स्थान पर महिषादल रियासत में मिली नौकरी पर्याप्त नहीं थी और साथ ही लेखनवृत्ति में भी बाधक थी। स्वाभिमानी सूर्य कुमार ने इस नौकरी को भी छोड़ दिया। जीविका की जटिल समस्या मुँह बाये सामने खड़ी थी। अब केवल साहित्य-साधना ही साथ रह गई थी। नये लेखक को अपनी पहचान बनाने में समय लगता है। इनके साथ भी ऐसा ही हुआ।

इसी समय आपका परिचय हिन्दी-साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से हुआ। उन्होंने इनकी प्रतिभा को पहचाना। सूर्य कुमार भी जीवन के संग्राम में विजयी भाव में बढ़कर कविताएँ लिखने लगे। अब इस कवि का नाम हो गया - पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’।

समय के सोपान पर कवि की रचनाएँ अपनी स्पष्ट छाप छोड़ने लगी। शायद ही ऐसा होता है कि किसी कवि की प्रारम्भिक रचनाएँ और अन्तिम रचनाएँ समान रूप से समादृत हों। लेकिन निराला जी की कविताओं में कुछ ऐसा ही लगता है। कहा जाता है कि उन्होंने मात्र 20 वर्ष की अवस्था में सन् 1916 में ‘जूही की कली’ की रचना की, जो उनकी एक अजेय कृति है। वैसे उनका प्रथम आलेख ‘बंगभाषा का उच्चारण’ सन् 1920 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी  की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ। यह भी माना जाता है कि ‘जूही की कली’ सर्वप्रथम सन् 1923 में ‘मतवाला’ के अठारहवें अंक में प्रकाशित हुई थी। कुछ विद्वान् ऐसा भी मानते हैं कि ‘मतवाला‘ में यह कविता बाद में छपी और इसके पहले ‘माधुरी’ के प्रथम वर्ष के अंक में ही यह छप गई थी। तथ्य जो भी हो मगर ‘जूही की कली’ से हिन्दी-जगत् में एक भूचाल आ गया। छन्द-मुक्त कविता को एक नया आयाम मिला, एक नया आसमान मिला और ‘जूही की कली’ के पंखों पर चढ़ कर वह मुक्त-गगन में विचरण करने लगी। 

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सौजन्य से श्री रामकृष्ण मिशन की पत्रिका ‘समन्वय’ के सम्पादन का कार्य मिला। यहीं पर आप स्वामी विवेकानन्द के जीवन-दर्शन से अत्यन्त प्रभावित हुए। भारतीय संस्कृति का स्वाभिमान, धार्मिक आख्यानों का मर्म उन्हें स्पन्दित करने लगा। उन्होंने कई बंगला-भाषा की कृतियों का अनुवाद किया। मगर यहाँ भी वे एक वर्ष ही रह सके। सन् 1923 में निराला जी कलकत्ता से सेठ महादेव प्रसाद द्वारा प्रकाशित ‘मतवाला’ में आ गए और इतना मस्त रहने लगे कि लोग इन्हें भी मतवाला कहने लगे। सेठ जी की निराला से आत्मीयता बढ़ती गई। निराला जी का लेखन ऊँचाइयाँ छूने लगा। विद्वत्-जनों में कहीं प्रशंसा तो कहीं आलोचना के स्वर भी उठने लगे। मगर इस कवि को किसी बात की चिन्ता नहीं थी। ये तो बस अपनी धुन में लगे रहते थे।

हिन्दी-साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ लेखक प्रेमचन्द, प्रख्यात कवि सुमित्रानन्दन पन्त के साथ कई साहित्य-प्रेमियों ने इन्हें हृदय से सम्मान दिया और वे नयी साहित्यकार-पीढ़ी के प्रेरणास्रोत बन गए। समय-चक्र एक बार फिर घूम गया। शरीर अस्वस्थ रहने लगा। सन् 1926 से सन् 1928 का काल अस्वस्थता और अभाव में ही बीता मगर वे कभी हारे नहीं। लेखन-कार्य व्यवधान के बावजूद भी चलता रहा। प्रथम काव्य-संग्रह ‘अनामिका’ तब तक छप चुका था। सन् 1929 में निराला जी लखनऊ आ गए और वहाँ के प्रकाशक ‘गंगा पुस्तक माला’ के कार्यालय में कार्य करने लगे। इसके साथ ही ‘सुधा’ का सम्पादन भी करने लगे। सन् 1930 में ‘गंगा पुस्तक माला’ से ही ‘परिमल’ का प्रकाशन हुआ। हिन्दी-कविता ‘परिमल’ के नाम पर नक्षत्र-मंडल की आभा को ओढ़कर मुस्कराने लगी। कवि हृदय हिन्दी-साहित्य की अन्य विधाओं में भी झाँक कर उसे अपनी प्रतिभा से अलंकृत करने लगा। उपन्यास, कहानी, आलेख और संस्मरण की दुनिया में वे कीर्तिमान गढ़ने लगे। सर्वत्र वे चर्चा का विषय बन गये। हिन्दी-साहित्य में एक स्वर्णिम नाम के रूप में लोग इन्हें जानने लगे। युग-कवि अब अपने उफान पर था। 

इसी बीच पुत्री सरोज की शादी की बात चली। फिर एक बार समय साथ नहीं दिया। समाज का विकृत चेहरा सामने आने लगा। पुत्री के विवाह को लेकर चिंतित रहने लगे। आखिर हार कर कोलकाता में ही एक परिचित नवयुवक श्री शिवशेखर द्विवेदी से सरोज की शादी कर दी। कोई सामाजिक औपचारिकता नहीं थी। एक बार समय-चक्र फिर क्रूर हो उठा। शादी के करीब पाँच वर्ष बाद ही सन् 1935 में सरोज भी इस दुनिया से चल बसी। उसके इलाज के लिए कवि-सम्राट् पैसा भी नहीं जुटा सके। उनका हृदय विदीर्ण हो उठा। एक जगह  पर उन्होंने लिखा है-‘‘मुझे यह नहीं मालूम कि मैंने अपने पिछले जन्म में कौन-से पाप किये थे कि मेरे जन्म लेते ही मेरी प्यारी माँ स्वर्ग सिधार गईं। फिर पिता के प्रेम को भी पूरा-पूरा नहीं पा सका। मेरी पत्नी भी यौवन-काल में मुझे अकेला छोड़ कर चली गईं। अपनी निशानी एक पुत्र और एक पुत्री छोड़ गई । पुत्री भी युवावस्था प्राप्त करते-करते मुझसे कट गई।’’ सरोज के निधन से उनका हृदय घायल हो गया था।

निराला की साहित्य-साधना फिर भी चलती रही। उनके गद्य-पद्य की अनेक कालजयी कृतियाँ प्रकाश में आईं। ‘अनामिका’ और ‘परिमल’ के बाद ‘गीतिका’, ‘तुलसीदास’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘अणिमा’, ‘राम की शक्ति-पूजा’ जहाँ काव्य के आकाश में चमकने लगे वहीं उपन्यास के क्षेत्र में ‘अप्सरा’, ‘अलका’, ‘प्रभावती’, ‘निरुपमा’, ‘कुल्लीभाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ भी युग के हस्ताक्षर बन गए तथा कहानी-संग्रह में ‘लिली’, ‘सखी’, ‘देवी’ आदि और आलेख के क्षेत्र में ‘रवीन्द्र कविता-कानन’, ‘प्रबन्ध पद्य’, ‘प्रबन्ध प्रतिमा’ आदि भी प्रकाशित हो गये। यह काल-खंड सन् 1928 से सन् 1942 तक का रहा जब वे लखनऊ में रहकर साहित्य-सृजन करते रहे। मगर यहाँ भी वे स्थिर नहीं रह सके।

मित्रों के आग्रह पर साहित्यकारों के शहर इलाहाबाद में सन् 1942 में आ गये। यहाँ पर उस समय के स्थापित तथा प्रतिष्ठित साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी से भी मित्रता बढ़ी। पंत और प्रेमचन्द जी से तो पहले से मित्रता थी ही। इलाहाबाद में साहित्यकारों का जमघट इनके घर पर लगने लगा। कवि-सम्मेलन से लेकर काव्य-पाठ का दौर चलने लगा। कवि की वाणी, और धारदार हो गई। सामाजिक यथार्थवाद, स्वतन्त्रता आन्दोलन और सामाजिक विषमता के स्वर, और तेज होकर कवि की वाणी में मुखरित होने लगे। 

इलाहाबाद में लिखे गये ‘अपरा’, ‘नये पत्ते’, ‘बेला’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’, ‘गीतकुंज’ और ‘कवि श्री’ जहाँ काव्य-जगत् की एक धरोहर बन गए वहीं  कहानी के क्षेत्र में ‘चतुरी चमार’ और ‘सुकूल की बीबी’ का भी अग्रगण्य स्थान रहा। उपन्यास के क्षेत्र में इलाहाबाद से ही ‘चोटी की पकड़’ और ‘काले कारनामे’ प्रकाशित हुए। इसी काल-खंड में ‘पन्त और पल्लव’, ‘चाबुक’ और ‘चयन’ निबन्ध साहित्य की अमूल्य निधि बन गए। रामायण ख्विनय खंड, और ‘भारत में विवेकानन्द’ अनुवाद साहित्य में सर्वोपरि रहे। इस तरह इलाहाबाद में साहित्य-सृजन और प्रकाशन तो खूब हुआ  मगर ‘निराला’ का निरालापन भी बढ़ता गया। प्रकाशन से जो भी आय हो उसे किसी जरूरतमंद के बीच बाँट देना और अपने फटेहाल रहना उनके जीवन की नियति बन गई। किसी के दुःख-दर्द को अपने ऊपर ले लेना और स्वयं पीड़ा को ओढ़ लेना उनका सहज स्वभाव हो गया। वे युग के कबीर बन गये।  

साहित्यकारों में वे स्वाभिमान की शिक्षा देते थे। वे बंगाल में रह चुके थे और स्वामी विवेकानन्द तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रसंशक थे। कहा जाता है कि एक बार हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में अध्यक्षता कर रहे महात्मा गाँधी ने कह दिया था-‘‘हिन्दी में कौन है, जो रवीन्द्रनाथ टैगोर से टक्कर ले सकें ?’’इसके बाद जब गाँधी जी लखनऊ आये तो निराला जी उनसे आदरपूर्वक मिले और अपनी कई रचनाएँ सुनाने के बाद बोले- आप ने यह कैसे कह दिया कि हिन्दी में कौन है रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसा ?’’ ऐसे स्वाभिमानी थे निराला जी ।

उनकी फक्कड़ता और दानशीलता के बारे में भी कई कथाएँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि किसी प्रकाशक से मिली रायल्टी की रकम लेकर आ रहे थे। रास्ते में एक बुढ़िया भीेख माँग रही थी। उसे सारी रकम देकर बोले-‘‘माँ अब आगे से भीख मत माँगना।’’ यह थी उनकी दयालुता और सदाशयता।

इलाहाबाद में महादेवी वर्मा उनकी देख-रेख करने लगीं। उनकी अवढरदानी की भूमिका से वे भी परेशान हो जाती थी। महादेवी वर्मा जी के ही शब्दों में- ‘‘एक बार संयोग से उन्हें कहीं से तीन सौ रुपये मिले जो मेरे पास जमा करके उन्होंने मुझे खर्च का बजट बना देने का आदेश दिया।............अस्तु नमक से लेकर नापित तक और चप्पल से लेकर मकान के किराये का जो जो अनुमान-पत्र मैंने बनाया वह निराला जी को पसन्द आ गया। मुझे अपने अर्थशास्त्र के ज्ञान पर गर्व हुआ, पर दूसरे ही दिन से मेरे गर्व की व्यर्थता सिद्ध होने लगी।......तीसरे दिन तक उनका जमा किया हुआ रुपया दूसरों की मदद करने में समाप्त हो गया।........एक सप्ताह में मैंने समझ लिया कि यदि ऐसे अवढरदानी को न रोका गया तो वह मुझे भी अपनी स्थिति में पहुँचा कर दम लेंगे।’’ महादेवी जी की यह अनुभूति निराला जी के मानवीय पक्ष पर यथेष्ट प्रकाश डालती है। कई बार अपने सारे वस्त्र उन्होंने गरीबों को दे दिया और स्वयं एक लंगोटी पहने घर आ गये। कुछ लोग उन्हें विक्षिप्त की संज्ञा भी देने लगे। इतने महान् त्यागी पुरुष का इस प्रकार से आकलन करना हमारी सोच की संकीर्णता को ही चित्रित करता है। इसलिए निराला सामान्य व्यक्ति नहीं थे , वे तो महाप्राण थे।

निराला जी के बारे में यह घटना काफी प्रसिद्ध हो चुकी थी कि जब उत्तर प्रदेश की सरकार ने निराला जी की एक पुस्तक पर 2100 रुपये ख्इक्कीस सौ, का पुरस्कार दिया तो अपनी आवश्यकता को किनारे करके उन्होंने अपने एक मित्र की विधवा के नाम पर वह रकम बैंक में जमा करवा दिया। निराला की सचमुच कोई बराबरी नहीं कर सकता।

निराला का कवि-हृदय किसी गरीब का दुःख देखकर पिघल उठता था और कभी-कभी जाड़े की रात में ठिठुरते व्यक्ति को फुटपाथ पर जाकर अपनी रजाई या अपना कम्बल ओढ़ा आते थे तथा अपने जाड़े में ठिठुरते रहते थे। वे हमेशा दूसरों के दुःख की चिन्ता में डूबे रहते थे- अपने सुख की तिलांजलि देकर। अभावग्रस्तता अब उनकी सहचरी बन गई थी।

निराला एक युग-कवि थे। उनकी कृति के बारे में विद्वानों के विचारों में भी एकरूपता नहीं हैं। कोई दार्शनिक कवि के रूप में उनकी प्रशस्ति करता है तो कोई उन्हें छायावाद और रहस्यवाद से जोड़ कर प्रफुल्लित होता है। किसी को उनकी कृति में यथार्थवादी रोमांटिकतावाद दिखलाई पड़ता है तो कोई उन्हें जनवादी बनाकर आत्म-सन्तुष्टि प्राप्त करता है। मेरी दृष्टि में ऐसे महान् कवि किसी एक विचार के खूँटे से अपने को बाँध कर नहीं चलते। उन्हें जब जो जैसा लगता है, उसे भावों में उतार देते हैं। 


इसलिए डा0 रामदरश मिश्र के शब्दों में निराला का कुछ सही मूल्यांकन दिखता है, जब वे कहते हैं- ‘‘निराला का जीवन संघर्षमय तथा लोक-सम्पृक्त रहा है। इसलिए स्वभावतः वे प्रेम-सौन्दर्य के बोध के साथ-साथ जीवन के अन्य अनुभवों को अपने में समेटे हुए हैं। .......लोक-जीवन में सुख-दुःख की यातना और संघर्ष को गहराई से उभारते हैं।’’

निराला अपने काव्य में सांस्कृतिक नवजागरण के पुरोधा हैं तो वे राष्ट्रीय चेतना के मुखर स्वर भी हैं। वे सामाजिक विषमता को देखकर विद्रोह की ज्वाला भी बन जाते हैं तो प्रकृति के सौन्दर्य से अभिभूत भी हो जाते हैं। कवि की संकेत भरी भाव-भंगिमा कभी हमें झकझोर कर रख देती हैं तो कभी हमें भाव-उद्रेक में रुला देती है। महाकवि अपनी पुत्री सरोज के निधन पर ‘सरोज-स्मृति’ में मानो अपनी कथा-व्यथा चन्द पंक्तियों में खोल कर रख देते हैं -

‘‘दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज जो नहीं कही!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण, 
कर, करता मैं तेरा तर्पण।’’

शायद जीवन-पर्यन्त ये पंक्तियाँ उनके साथ बँधी रही। दुःख ही उनके जीवन की कथा रही। मगर साहित्य-सृजन में वह बाधक नहीं बन सकीं।
कुछ सामान्य चिन्तक ऐसा मानते हैं कि जब देश स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ रहा था , उसमें निराला के स्वर ने अग्नि नहीं बरसायी मगर जो गहराई में जा कर कवि-कृति को देखते हैं तो उसमें राष्ट्रीयता की धधकती ज्वाला का दर्शन होता है। महाकवि की वाणी का हुंकार क्या किसी से कम है, जब वे लिखते हैं -

‘‘जागो फिर एक बार
समर सूर, क्रूर नहीं
काल चक्र में हो दबे
आज तुम राज कुँवर,
समर सरताज !
मुक्त हो सदा ही तुम
बाधा-विहीन बंध छंद ज्यों
डूबे आनन्द में सच्चिदानन्द रूप ।’’

एक जागरण का संदेश, स्वतन्त्रता का आह्वान, परतन्त्रता की पीड़ा, आत्मा की मुक्ति का शाश्वत चित्रण, सब कुछ तो इन पंक्तियों में समाहित है। निराला के काव्य में भारतीय दर्शन की भी अनुगूंज है। निराला की ‘तुम और मैं’ कविता में आत्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व की ही अभिव्यंजना है -

‘‘तुम तुंग-हिमालय शृंग
और मैं चंचल गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छ्वास
और मैं कान्त-कामिनी-कविता।’’

इस सृष्टि के संचालन में जो शक्ति कार्य कर रही है, वह रहस्यमयी है फिर भी कवि की दृष्टि उस ओर भी जाती है और उसकी ओर इंगित करते हुए वे बोल पड़ते हैं -

‘‘कौन तम के  पार? ख्रे, कह,
अखिल-पल के स्रोत, जल-जग,
गगन घन-घन धार  ख्रे, कह, ।’’

इस तरह निराला के चिन्तन में भारतीय संस्कृति की भाव-धारा प्रखरता के साथ प्रवाहित है। इसीलिए तो स्वामी विवेकानन्द की याद आते ही वे स्वयं कहने लगते हैं-‘‘मैंने स्वामी विवेकानन्द जी का सारा कार्य हजम कर लिया है। जब इस प्रकार की बात मेरे अन्तर से निकलती है तो समझो कि विवेकानन्द बोल रहे हैं।’’
निराला के काव्य में दर्शन के साथ सामाजिक चेतना के स्वर, और अधिक धारदार होकर मुखरित हुए हैं। सामाजिक दरिद्रता को दूर करने के लिए महाकवि अपनी ‘अर्चना’ में माँ से प्रार्थना करते हैं -

‘‘माँ अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-वास से वारो।
विपुल दिशा विधि शून्य वर्ग-जन,
व्याधि-शयन जर्जर मानव-मन,
ज्ञान गगन से निर्जर जीवन,
करुणा करो उतारो तारो।’’

उनकी ‘भिक्षुक’ कविता में सामाजिक दुर्गति का जो चित्र है वह पाठक को रुला देती है, हृदय सचमुच दो टूक हो जाता है।
‘‘वह आता-
दो टूक कलेजे को करता पछताता पथ पर आता ।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी-भर दाने को भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता-
दो टूक कलेजे को करता पछताता पथ पर आता।’’

एक भिक्षुक की दैन्यपूर्ण स्थिति का यह चित्र सारे समाज पर एक प्रहार भी करता है और उसे झकझोर कर कुछ सोचने के लिए विवश भी करता है। किसानों की पीड़ा से भी वे पूर्ण परिचित हैं। इसीलिए अपने ‘बादल राग’ में किसानों की व्यथा को चित्रित करते हुए कहते हैं -

‘‘जीर्ण बाहु है शीर्ण शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार!’’

किसानों को, गरीबों को सहारा देने के लिए कवि का मन छटपटा कर रह जाता है। ‘कुकुरमुत्ता’ में तो दलितों, शोषितों का दबा स्वर एक विद्रोह कर देता है-
‘‘अबे, सुन बे गुलाब,
भूल मत गर पायी खुशबू, रंगो आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट।
कितनों को तूने बनाया है गुलाम
माली कर रखा सहा या जाड़ा घाम।’’

गुलाब इतरा रहा कैपिटलिस्ट बनकर। समाज में भी ऐसा ही हो रहा है। महाकवि इलाहाबाद के पथ पर एक मजदूरिन को देखकर कह उठता है -
‘‘वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर ।
कोई न छायादार पेड़
वह किसके तले बैठी स्वीकार,
श्याम-तन भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्मरत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार ।’’

कवि की सामाजिक मानवीय चेतना इन पंक्तियों में साकार हो उठी है। भारत के हर कोने में आज भी वह पत्थर तोड़ती नजर आती है। अट्टालिकाओं के झरोखे से कुछ लोग उसे देखते रहते हैं-पर वह अपने कर्मनिष्ठ जीवन में स्वेद बिन्दुओं को पोछ-पोछ कर अपने दुर्भाग्य पर पछताती रहती है। आज भी जनतंत्र के प्रहरी उसके नाम को बेच कर खा रहे हैं।

अन्त में अपनी कविता ‘अणिमा’ में कवि की करुणा जाग उठती है और ईश्वर से दीन-दुखियों की दया सुधारने के लिए प्रार्थना करते हुए कहते हैं-
‘‘दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु, तुम्हारी शक्ति अरुणा।’’

निराला छायावाद के युग-प्रवर्तक कवि भी कहे जाते हैं। छायावाद के चार महान स्तम्भ- प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा अपने युग की विभूति हैं। ‘छायावाद’ प्रकृति के मानवीकरण में युग-चेतना की अभिव्यक्ति है। छायावाद में भाषा और छन्द के क्षेत्र में भी नये प्रयोग हुए हैं। निराला जी के काव्य में छायावाद की झलक अपनी समग्रता के साथ विद्यमान है। ‘संध्या-सुन्दरी’ में वे लिखते हैं -

‘‘दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे धीरे धीरे।’’

‘‘कितना सजीव चित्रण है ‘संध्या सुन्दरी’ का। इसी तरह ‘जूही की कली’ भी कवि की पंक्तियों में जीवन्त हो उठती है -
‘‘विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल-कोमल-तनु तरुणी-जूही की कली
दृग बन्द किए, शिथिल-पत्रांक में।’’

निराला जी ने अपनी ‘बादल’ कविता में प्रकृति का चित्रांकन झूम-झूम कर किया है -

‘‘झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर
राग अमर अम्बर में भर निज रोर,
झर-झर निर्झर गिरि सर में
धर मरु तरु मर्मर सागर में,
सरित तड़ित गति चकित पवन में
मन में विजन गहन कानन में,
आनन-आनन  में रव घोर कठोर,
राग अमर अम्बर में भर नित रोर।’’

निराला जी स्वयं कहते हैं-‘‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है।’’ निराला ने मुक्त-छन्द में अनेक रचनाएँ की। उस समय के कई दिग्गज विद्वान् उनके इस मुक्त-छंद-विधान से सहमत नहीं थे। प्रारम्भ में कई रचनाएँ वापस आ गईं। निराला को इस स्थिति में खुद कहना पड़ा -

‘‘लिखता अबाध गति मुक्त छन्द, पर सम्पादकगण निरानन्द।
वापस कर देते पढ़ सत्वर, दो एक पंक्ति में दे उत्तर।।’’

निराला के मुक्त-छन्द में रचना-कौशल की नवीनता है मगर कुछ विद्वानों को इसमें दुरुहता दिखलाई पड़ती है तो कुछ को भाव समझने में अस्पष्टता का बोध भी होता है। कविता केवल गद्य की तरह अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उसमें भाव-प्रवाह का एक विधान भी होता है। इसलिए जिस तरह गद्य की भाषा सहज ढंग से समझ ली जाती है, वैसे काव्य की भाषा कुछ अर्थ अपने आस-पास भी रखती है, जिसे हमें समझना होता है। शायद कविता का यह एक गुण भी है। इस गुणात्मक बोध को दुरूहता की या अस्पष्टता की संज्ञा देना ठीक नहीं है।

निराला ने हिन्दी में नये छन्दों और नये लय-ताल के साथ ‘गीत’ भी लिखा, जिसमें नये विचारों की अभिव्यक्ति मुखरित हुई है। इन गीतों में नये बिम्बों का प्रयोग हुआ है। उनका गीत ‘वर दे, वीणा वादिनी वर दे’ में जहाँ एक ओर माँ सरस्वती का स्तुति-गान है, वहीं भारत माता को अज्ञान, दासता और अन्धकार से मुक्त करने का आह्वान भी है। सारे जग को जगमग कर देने की अभीप्सा है- इस गीत में -

‘‘वर दे, वीणा वादिनी वर दे!
प्रिय स्वतन्त्र रव अमृत-मन्त्र नव
भारत में भर दे !
काट बन्ध उर के बन्धन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।’’

वे गीत ही नहीं ‘नवगीत’ की भी नींव हैं। कहा जाता है कि ‘गीत’ का विकास ही ‘नवगीत’ में हुआ है। निराला जी का यह ‘गीत’ तो ‘नवगीत’ के सृजन का स्रोत है -

बाँधो न नाव  इस ठाँव, बन्धु,
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु।
यह घाट वहीं जिस पर हँस कर,
वह कभी नहाती थी धँस कर,
कँपते थे दोनों पाँव, बन्धु,
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु।

इस प्रकार निराला जी से ‘नवगीत’ को भी नई दिशा मिली। निराला हिन्दी-साहित्य में एक क्रान्तिकारी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए जो छायावाद, प्रयोगवाद और प्रगतिवाद के स्तम्भ बनकर भी कहीं बँधे नहीं। अपनी स्वच्छन्दता और मुक्त-छंद-विधान के बारे में वे स्वयं ‘परिमल’ में एक जगह कहते हैं -

‘‘मुक्त छन्द, सहज प्रकाशन वह मन का 
निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र’’

निराला केवल एक युग-कवि ही नहीं थे, वे एक महान् गद्यकार, एक निष्पक्ष आलोचक और एक स्वतन्त्र विचारक भी थे। निराला के उपन्यास और कहानी में गाँव का दुःख-दर्द समाया हुआ है। इसमें देशभक्ति और आत्मत्याग  की भावना भी मुखरित हुई है। उनके उपन्यास अप्सरा [1931] अलका [1933], निरुपमा [1936] , कुल्लीभाट [1939], चतुरी चमार [1941] बिल्लेसुर बकरिहा [1941] में जहाँ भारतीय गाँव ही केन्द्र-बिन्दु में हैं, वहीं उनके कहानी संग्रह में लिली [1933], सखी [1935], देवी [1945] तथा अन्य रचनाओं में भी गाँव का दर्द है।

इसके साथ ही सामाजिक अन्याय, सामन्ती व्यवस्था और औपनिवेशिक उत्पीड़न के चित्रण के साथ उनके प्रति विद्रोह के स्वर भी इन गद्य-रचनाओं में प्रखर रूप से मुखरित हुए हैं।

निराला के आलेख में समालोचना के तेज स्वर भी हैं मगर वे पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं। उनके अधिकांश लेखों में आधुनिक कविता के सिद्धान्तों का प्रतिपादन के साथ उस पर होने वाले प्रहारों का प्रतिकार भी है। महाकवि रवीन्द्र की कविता पर उनका आलेख जहाँ ज्ञानवर्द्धक था वहीं साहित्यकारों के लिए उत्साहवर्द्धक भी। अपने मित्र सुमित्रानन्दन पन्त के ‘पल्लव’ कविता-संग्रह की भूमिका भी उन्होंने लिखी। उन्होंने ‘महाभारत’ का संक्षिप्त रूप भी तैयार किया। उन्होंने कई सामाजिक और साहित्यिक लेख लिखे जो समय की शिला पर अपना पदचिन्ह छोड़ गए।

अब हिन्दी की सेवा करते करते यह युग-कवि कुछ थक-सा गया था। लगता था-जीवन की सांध्य-बेला की आहट कवि को मिल चुकी थी। इसलिए उनकी कविता के स्वर में अकेलापन उभर आया। उन्होंने ‘मैं अकेला’ में लिखा-

‘‘मैं अकेला
देखता हूँ आ रही,
मेरे दिवस की सांध्य बेला
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे
 चाल मेरी मन्द होती जा रही है।’’

फिर तो यह महाकवि रोग-शैय्या पर पड़ गया। कवि की पीड़ा बढ़ती गई । एक दिन तो अपने आत्मीय मित्र श्री ख्स्व0, जे0पी0 शुक्ला से उन्होंने कहा- ‘‘मैंने जिन्दगी भर बहुत दुःख झेला और लोग मुझे यह देख कर और दुःख देते रहे।........ये लोग मृत्यु के बाद भी मुझे बिना जलाये नहीं रखेंगे।........पर यदि मुझे जलाया ही जाये तो मेरी राख देश के चारों कोनों में बिखेर दी जाय। इसलिए नहीं कि लोग तिलक लगायें, वरन् इस हेतु कि लोग उसे अपने पैरों से खूब रौंदें, कुचलें पर हिन्दी को गलत मत समझें।’’ कितनी मर्मांतक पीड़ा है इन शब्दों में पढ़कर आत्मा विचलित हो उठती है। आँखों में आँसू बरबस उतर आते हैं।

महाकवि के रूप में अभी भी तरह-तरह की झूठी-सच्ची किंवदन्तियों की चर्चा आम लोगों में होती रहती थी। हवाएँ पहले भी उनके किस्से-कहानियों से गर्म रहती थी और अब उनके जीवन के अन्तिम पड़ाव पर वह थम नहीं रही थी।

कुछ लोग एक किस्सा सुनाते हैं कि एक बार पंडित श्रीराम शर्मा के साथ लखनऊ में रास्ते पर ही एक साँड़ से भिड़न्त हो गई। निराला भिड़ गये तो फिर साँड़ को ही भागना पड़ा। शर्मा जी तत्काल बोल उठे-‘‘कौन कहता है कि आप रहस्यवादी हैं या छायावादी हैं। आप तो बिल्कुल कायावादी हैं।’’

ऐसा ही एक और वाकया कहा जाता है कि जब वे लखनऊ के कैसर बाग स्टुडियों में फोटो खिंचवाने गये तो वहाँ दंड-बैठक करने लगे और फोटो ग्राफर हैरान हो गया। बहुत मान-मनौव्वल पर किसी तरह फोटो खिंचवाए।
निराला जी के सम्बन्ध में एक और वाकया महादेवी वर्मा के शब्दों में-

‘‘उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए निराला जी से पूछ बैठी थी कि आपको किसी ने राखी नहीं बाँधी?’’ इस पर निराला जी ने कहा था-‘‘कौन बहन हम जैसे भुक्खड़ को भाई बनायेगी?’’ लेकिन महादेवी जी से राखी बँधवाने वे हर वर्ष रक्षाबन्धन के दिन जरूर आते थे। वे शान से रिक्शे पर बैठकर आते थे। एक बार आते ही महादेवी से कहे-‘‘पहले दो रुपये उधार दो।’’ महादेवी दो रुपये देकर पूछीं-‘‘आखिर किसलिए ये रुपये चाहिए?’’ ’हँसते हुए निराला जी बोले-‘‘एक रुपया रिक्शा वाले को देने के लिए और एक रुपया तुम्हें राखी बँधाई देने के लिए।’’ महादेवी जी इस घटना को जीवन-पर्यन्त याद कर अपने भाई के भोलेपन पर हँसती भी थी और उनकी इस फक्कड़ स्थिति को देखकर उनकी आँखों में आँसू भी उमड़ आते थे।

कहा जाता है कि सन् 1947 में निराला जी के जीवन के 50 वर्ष पूरा होने पर आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी और डा0 राम विलास शर्मा के प्रयत्न से उनकी स्वर्ण जयन्ती मनाई गई तो उस अवसर पर बोलते हुए ‘दिनकर’ जी ने कहा था -‘‘रिश्ते में निराला जी प्रगतिवाद और प्रयोगवाद दोनों के पिता हैं। यह सुनते ही निराला जी मंच पर ही बोल उठे-‘‘तुम जो कह रहे हो, वह बात लोग लिखते क्यों नहीं ? ऐसी थी निराला जी की निश्छलता !

एक और घटना का जिक्र किया जाता है कि काशी नागरीप्रचारिणी की अर्द्ध शताब्दी पर जब वे कवि-सम्मेलन में गए तो किसी ने उनसे कह दिया कि आपकी परिस्थिति देखकर विशेष रूप से पारिश्रमिक दिया जायेगा। यह सुनते ही निराला जी उखड़ गये और कहने लगे कि मैं पारिश्रमिक के लिए नहीं आया हूँ । अब मैं पुरस्कार लूँगा तो एक हजार से कम नहीं। आखिर संयोजक के बहुत आग्रह पर भी उन्होंने कविता पाठ नहीं किया। ऐसे स्वाभिमानी थे निराला!

कहा जाता है कि महाकवि निराला और पं0 ज्योति प्रसाद ‘निर्मल’ में अक्सर नोंक-झोंक चलती रहती थी। एक दिन ‘निर्मल’ जी ने कहा कि अपने नाम के पहले ये ‘निर’ क्या लगा रखे हैं? निराला जी चुटकी लेते हुए बोले - ‘‘मेरे नाम के पहले ‘निर’ हट जायेगा तो भी मैं ‘आला’ रहूंगा, लेकिन आपके नाम के पहले ‘निर’ हट जायेगा तो फिर आप केवल ‘मल’ होकर रह जायेंगे।’’.... इस पर जोरों का ठहाका लगा।

एक और किस्सा मशहूर है कि मेरठ वाले एक बार महाकवि को तुलसी-जयन्ती के अवसर पर आमन्त्रित किए। उन्होंने शर्त रख दी कि जब मैं काव्य पाठ करूँगा तो सबको खड़ा हो जाना पड़ेगा। सभापति को भी खड़ा होना न पड़े इसके लिए इन्हीं को सभापति बना दिया गया। शर्त पूरी हो गयी।

इस तरह की कुछ सच्ची और कुछ सुनी-सुनाई तथा मन से बनाई गई बातें भी महाकवि के बारे में उछाली जाती रहीं मगर उसकी उन्हें चिन्ता नहीं थी। अपने पास कुछ नहीं रहने पर भी जो कुछ है वह सब दान दे देने वाला व्यक्ति ‘निराला’ को छोड़ कर कोई और नहीं हो सकता। निराला जी का निरालापन बढ़ता जा रहा था। अब उनकी मनःस्थिति भी ठीक नहीं चल रही थी। खान-पान में तो पहले भी वैष्णव नहीं थे। अब तो खान-पान पर भी कुछ ध्यान नहीं रहता था। सूर्य अस्ताचल की ओर भागा जा रहा था।

जीवन के अन्तिम दिन में कभी भिखारियों के बीच बैठे हुए, कभी सड़क पर फटेहाल कपड़ों में लिपटी एक आकृति को चलते हुए लोगों ने देखा और सन्न रह गये- अरे ! ये तो निराला जी हैं। रोग-शय्या पर पड़े तो चिकित्सा की भी पूरी व्यवस्था नहीं हो पायी। हिन्दी-साहित्य का वह सूर्य 15 अगस्त 1967 को सदा के लिए अस्त हो गया। अब सूर्यकान्त अँधेरे में कहीं खो गये। अपने देश के किसी महान् व्यक्ति के मरने के बाद उनकी महानता याद आती है। बड़े-बड़े लोगों के शोक-सन्देश आने लगे। तमाम चर्चित लोगों ने आँसू बहाये। प्रयाग के पावन तट पर पार्थिव शरीर जला दिया गया और प्रयाग की निराला-परिषद् द्वारा संगम में अस्थि-भस्म प्रवाहित कर दी गई। उनकी राख भी इस परिषद् द्वारा देश के कोने-कोने में पहुँचा दी गई-बिखेरने के लिए। महाकवि की अन्तिम इच्छा शायद पूरी हो गई-अस्थि भस्म के देशव्यापी विसर्जन से। महाकवि के करीबी मित्र सुमित्रानन्दन पन्त की ‘अनामिका के कवि’ में दी गई श्रद्धांजलि उस हिन्दी-साहित्य के सूर्य को नमन है -

‘‘छंद बद्ध ध्रुव तोड़ फाड़ कर पर्वत कारा
अचल रूढ़ियों की, कवि तेरी कविता धारा
मुक्त, अबाध, अमंद, रजत निर्झर-सी निःसृत,
गलित ललित आलोक शशि, चिर अकुलिष, अविजित,
स्फटिक शिलाओं से तूने वाणी का मन्दिर
शिल्पि, बनाया ज्योति-कलश निज यश का धर चिर
अमृत-पुत्र कवि, यशः काय, तव जरा मरण जित
स्वयं भारती से तेरी हृतंत्री झंकृत।’’

पंत की श्रद्धांजलि की ध्वनि पता नहीं महाकवि के कानों तक पहुँची या नहीं? वैसे ‘निराला’ जैसा महाकवि कभी मरता नहीं। उनकी ध्वनि में ‘ध्वनि’ कविता कुछ कानों में कह जाती है -

‘‘अभी न होगा मेरा अन्त!
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त!’’

सचमुच ‘निराला’ का कभी अन्त नहीं होने वाला है। जब तक हिन्दी- साहित्य जीवित रहेगा, ‘निराला’ भी जीवित रहेंगे-अपने साहित्य-सृजन के संसार के साथ। हिन्दी-साहित्य के प्राण ‘महाप्राण निराला’ युग-कवि के रूप में सदैव जीवित और पूजित रहेंगे।
Sukhnandan singh Saday
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1. विहंगम योग एक विहंगम दृष्टि 

2. विहंगम योग एक वैज्ञानिक दृष्टि 

3. राष्ट्रभाषा हिन्दी अतीत से वर्त्तमान तक 


4. हिन्दी सेवा 

5. प्राकृतिक चिकित्सा एक सहज जीवन पद्धत्ति 

6. अध्यात्म और विज्ञान का यथार्थ 

7. आध्यात्मिक यात्रा 

8  हिन्दी में सब काम हो 

9.  हर दिन हिन्दी दिवस हो 

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साहित्यकारों के साहित्यकार - शिवपूजन सहाय | SAAHITYAKAARON KE SAAHITYAKAAR SHIVPUJAN SAHAY

साहित्यकारों के साहित्यकार - शिवपूजन सहाय

 
भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि उनके जीवन के संध्याकाल में सन् 1960 में दिया मगर हिन्दी-जगत् ने और विशेष रूप से निराला जी ने तो उन्हें बहुत पहले से ही ‘साहित्य भूषण’ की उपाधि दे दी थी। उनके लिए साहित्य-जगत् की कोई भी उपाधि शायद छोटी पड़ जाती है। इसलिए किसी ने उन्हें ‘साहित्यिक संत’ कहा तो किसी ने उन्हें ‘अपरिमेय आत्मीयता के अवतार’ से सम्बोधित किया। किसी ने उन्हें ‘सम्पादकाचार्य’ कहा तो किसी ने ‘विनयमूर्ति’ कहकर उनका मान बढ़ाया। मगर ऐसे अनन्य हिन्दी-सेवी और हिन्दी के सजग प्रहरी के लिए सारे विशेषण गौण पड़ जाते हैं और ‘शिवजी’ ही मुख्य बन जाते हैं।

हिन्दी-साहित्य में देश की आजादी के पूर्व अनेक यशस्वी साहित्यकार हुए, जो हिन्दी-नभ में नक्षत्र की भाँति देदीप्यमान हैं। मगर एक ऐसे ध्रुवतारे भी हुए, जिन्होंने न केवल खुद लिखा बल्कि दूसरों से भी लिखवाया और दूसरों की लिखी हुई रचनाओं को अपने भाषा-कौशल से सँवारा भी। एक साथ जिनमें साहित्यिक चेतना के साथ-साथ वाङ्मय-चेतना का भी पूर्ण समावेश था, सहज और परिष्कृत शैली का मणि-कांचन योग था , एक यथार्थवादी लेखक होने के साथ-साथ एक कुशल सम्पादक के रूप में जो पूज्य थे, सशक्त भाषा के जो प्रतिमान थे, विनम्रता की जो प्रतिमूर्ति थे, ऐसे ‘शिवजी’ सचमुच हिन्दी-गगन के चमकते ध्रुवतारे की तरह संयमित और स्थिर भी थे।

ऐसे साहित्य-शिल्पी का जन्म बिहार प्रान्त के तत्कालीन शाहाबाद जिले के अन्तर्गत [अब बक्सर जिला] के उनवाँस ग्राम में 9 अगस्त 1893 को हुआ था। पिता श्री बागीश्वरी दयाल अत्यन्त धार्मिक स्वभाव के थे। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही हुई। के0 जे0 एकेडमी आरा से मैट्रिक की परीक्षा सन् 1913 में उत्तीर्ण की। पिता का साया 1906 में ही उठ गया था। मात्र 14 वर्ष की अवस्था में पहला विवाह सन् 1907 में हुआ। मगर दो-तीन महीने बाद ही पत्नी चल बसी। फिर सन् 1908 में ही दूसरी शादी हुई। सब कुछ यथावत् चलता रहा। जीवन में अर्थाभाव के चलते बनारस की कचहरी में नकल बनाने का कार्य करना पड़ा। मगर कुछ ही दिनों बाद आरा के के0 जे0 एकेडमी में ही शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए। सन् 1917 में आरा के ख्याति प्राप्त टाउन स्कूल में हिन्दी-शिक्षक बने। इस सरकारी स्कूल को भी छोड़ कर गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन ख्1920-21, में कूद पड़े। जीवन एक नई दिशा की ओर चल पड़ा। 

सन् 1917 में वे आरा नागरीप्रचारिणी सभा में सहकारी मंत्री बने। जिस लगन और तत्परता से उन्होंने नागरीप्रचारिणी सभा का कार्य किया , वह वहाँ की प्रबुद्ध जनता द्वारा मुक्त-कंठ से सराहा गया। सभा द्वारा ’हरिऔध’ अभिनन्दन ग्रंथ और ‘राजेन्द्र’ अभिनन्दन ग्रंथ अर्पित किया गया था, जिसके सम्पादक शिवजी थे। सन् 1920 में आरा के टाउन स्कूल से त्याग-पत्र देकर आप असहयोग आन्दोलन से जुड़े और साथ ही स्वतन्त्र लेखन का कार्य प्रारम्भ किये। आरा में ही हर प्रसाद जालान के प्रयास से निकलने वाला मासिक पत्र ‘मारवाड़ी सुधार’ के सम्पादक के रूप में कार्य करते हुए आपने अपनी साहित्यिक प्रतिभा का अद्भुत परिचय दिया। आरा के उस समय के प्रतिष्ठित साहित्यकार पं0 ईश्वरी प्रसाद शर्मा से परिचय के सूत्र में काफी दृढ़ होते गये और उन्हीं के अनुरोध पर आप कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र ‘मतवाला’ के सम्पादकीय परिवार में शामिल हो गये। आपकी लेखनी से सँवर कर ‘मतवाला’ सचमुच उस समय का एक लोकप्रिय पत्र बन गया।

 ‘शिव जी’ अब साहित्यकारों में एक नक्षत्र की भाँति अपनी पहचान बना चुके थे। सन् 1929 में इन्हें लखनऊ से बुलावा आया और वहाँ पर आप ‘माधुरी’ के सम्पादकीय परिवार में शामिल हो गये। ‘माधुरी’ अपने नये कलेवर में चमक उठी। लखनऊ में ही प्रेमचन्द के चर्चित उपन्यास ‘रंगभूमि’ का सम्पादन किया। मगर लखनऊ भी उन्हें रास नहीं आया। फिर लखनऊ में दंगा हो जाने की वजह से उन्हें वहाँ से आना पड़ा। वे काफी दुःखी थे। फिर वे ‘मतवाला’ के आकर्षण में बँधे कलकत्ता आ गये। यहीं पर साहित्य मनीषी ’निराला जी’ और मतवाला-मंडल के सहयोगी मुंशी नवजादिक लाल से घनिष्ठता बढ़ी। मतवाला के मालिक महादेव प्रसाद सेठ थे और वे साहित्यकारों का बहुत सम्मान करते थे। करीब दो वर्षों तक मतवाला-मंडल की मित्र-मंडली में सबको हँसते-हँसाते साहित्य को नई दिशा देते रहे। फिर सन् 1926 में लहेरियासराय ख्दरभंगा, के पुस्तक-भंडार में आ गये, जिसके स्वामी आचार्य रामलोचन शरण जी थे। 

लहेरिया सराय का पुस्तक-भंडार आपकी उपस्थिति में महमहा उठा और चोटी के साहित्यकारों का यहाँ जुटाव होने लगा। ‘शिवजी’ से मिलने वालों में श्री हवलदार त्रिपाठी, श्री बेनीपुरी जी, श्री अच्युतानन्द जी, श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी, श्री हरि मोहन झा जी, श्री कलक्टर सिंह ‘केसरी’ सहित अनेक नवोदित कवि-लेखक थे। उस समय ऐसा लगता था कि लहेरियासराय का पुस्तक-भंडार सचमुच  साहित्यकारों के लिए एक तीर्थ-स्थल बन गया है। ‘शिवजी’ की दूसरी धर्मपत्नी सबके आतिथ्य के लिए प्रसन्न मुद्रा में ‘चैका’ सम्भालती थी। मगर विधि का विधान कौन टाल सकता है? नवम्बर 1926 में दूसरी पत्नी का भी देहान्त हो गया। शिवजी पर मानो वज्रपात हो गया। मगर वे फौलाद के बने हुए थे। कुसुम के समान मृदुल हृदय में वज्र के समान तेज बल था। साहित्य-साधना की आराधना में वे पूर्ववत् लगे रहे। वे एक कठोर-कर्मा साहित्यिक मनीषी थे। 

पुस्तक-भंडार का काशी में भी बहुत बड़ा कार्यालय था। लहेरियासराय से आकर आप काशी में कार्यरत हो गये। दंडपाणि मंदिर के पास वाले मकान में रहते थे। यहीं पर दूसरी पत्नी का निधन हुआ । मगर समय-चक्र अपनी गति से चलता रहता है और हमें भी उसी के साथ पैर मिलाकर चलना पड़ता है। पत्नी की मृत्यु के समय ‘शिवजी’ की अवस्था मात्र 33 वर्ष थी। मित्र-मंडली के आग्रह से और परिवारवालों के दबाव से आपकी तीसरी शादी 21 मई 1928 को सम्पन्न हुई। पूरी साहित्य-मंडली ही बारात गई। महाप्राण निराला बारात का नेतृत्व कर रहे थे। रामवृक्ष बेनीपुरी जी, नवजादिक लाल, पांडेय बेचन शर्मा उग्र सहित अनेक बुजुर्ग और युवा साहित्यकार इस विवाह-मंडली में शामिल हुए थे।

तीसरी पत्नी बच्चन देवी मानो ‘शिवजी’ की ‘पार्वती’ ही थी। साहित्यकारों की भीड़ काशी में फिर जमने लगी। आखिर शिव की नगरी में ‘शिवजी’ का सम्मान तो होना ही चाहिए। इस साहित्यिक-मंडली में जयशंकर प्रसाद, पे्रमचन्द, रामकृष्ण दास, विनोदशंकर व्यास आदि थे। इस पत्नी से प्रथम पुत्र आनन्द मूर्ति ख्1929, और दो पुत्रियाँ सरोजिनी और बिनोदिनी ख्1933, का जन्म काशी में ही हुआ। सबसे छोटे पुत्र मंगल मूर्ति का जन्म लहेरियासराय में सन् 1937 में हुआ। आचार्य शिवपूजन सहाय जी ने अपने काशी-निवास में वहाँ के वातावरण को साहित्यिक रंग में सराबोर कर दिया।

उस समय के मूर्धन्य साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी, रामकृष्ण दास जी, विनोदशंकर व्यास जी, महाप्राण निराला जी,  बेचन शर्मा उग्र जी, रामचन्द्र सुमन जी, प्रेमचन्द जी और आचार्य शिवजी की साहित्यिक मंडली अक्सर मिला करती थी और कभी-कभी गोष्ठी में पूरी रात बीत जाती थी। आतिथ्य का भार कभी जयशंकर प्रसाद जी पर तो कभी शिवपूजन सहाय जी पर ही प्रायः रहता था। शिवजी ही साहित्यकारों के बीच संयोजक का कार्य करते थे। उस समय के प्रख्यात साहित्यकार श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी के आग्रह पर आपने ‘बालक’ का सम्पादन किया। 

‘बालक’ अपने  समय का एक सशक्त साहित्यिक मासिक पत्र था। इसी बीच बिहार के सुल्तानगंज से एक मासिक पत्र ‘गंगा’ निकालने की योजना बनी। इसके सम्पादक श्री रामगोविन्द त्रिवेदी जी ने अपने अभिन्न मित्र जयशंकर प्रसाद जी से एक सह-सम्पादक के लिए परामर्श मांगा। प्रसाद जी ने अपने पत्र में श्री शिवपूजन सहाय जी का नाम सुझाते हुए लिखा-‘‘शिवपूजन सहाय जी आजकल काशी में ही हैं। वे समर्थ लेखक और सबल साहित्यकार हैं। बिहार में इनका-सा दक्ष, निपुण और प्रौढ़ सहायक सम्पादक कौन मिलेगा ?’’ इस प्रकार प्रसादजी के सुझाव और त्रिवेदीजी के आग्रह पर शिवजी ‘गंगा’ के सम्पादकीय परिवार में शामिल हो गये और सन् 1931 के दिसम्बर तक सुल्तानगंज, भागलपुर में रहकर ‘गंगा’ का सम्पादन किए। ‘गंगा’ निखर उठी। गंगा का साहित्यिक निनाद कल-कल करता हुआ सतत आगे बढ़ता रहा।

गंगा में आप ‘भट्ट’ नाम से आलोचना लिखा करते थे और कभी-कभी ‘छद्म’ नाम से व्यंग-विनोद भी लिख दिया करते थे। मगर ‘काशी’ का आकर्षण उन्हें सदैव बाँधे रहता था। वे फिर काशी आ गये और पाक्षिक ‘जागरण’ का सम्पादन करने लगे। कभी काशी और कभी लहेरियासराय उनके आवास के नाम से जुड़ा रहा था। लहेरियासराय में रहकर पुस्तकों के प्रकाशन के साथ ‘बालक’ का सम्पादन भी करते रहे। गंगा के सम्पादन के क्रम में उनकी सिद्धहस्तता को देखकर श्री रामगोविन्द त्रिवेदी जी ने उनके बारे में लिखा- ‘‘शिवजी लेखों का सम्पादन बड़ी सतर्कता से करते थे। किसी लेख के खटकने वाले वाक्यांशों अथवा वाक्यों को हटाकर नये , अनूठे और प्रभावशाली शब्दों, वाक्यांशों अथवा वाक्यों को रखकर लेख में नगीना जड़ देते थे। किसी लेख के अनगढ़ और लंगड़े पैराग्राफ को काटकर और उस स्थान पर चमत्कारपूर्ण पैरा जोड़कर लेख को मणि-माणिक्य समन्वित कर देते थे। किसी-किसी लेख को तो कलेवर बदलकर उसे ऐसी जानदार और शानदार भाषा में लिख डालते थे कि तबियत फड़क उठती थी।’’ ‘गंगा’ के द्वारा वे कई प्राचीन लेखकों को प्रकाश में लाये और कई नये लेखकों को अवसर प्रदान किया। ‘गंगा’ के स्वामी कुमार कृष्णनन्द सिंह बहादुर और उनके सचिव पंडित गौरीनाथ झा व्याकरणतीर्थ ‘शिवजी’ को बहुत सम्मान देते थे। 

इसी समय राजेन्द्र कॉलेज छपरा की कार्य-समिति ने ‘शिवजी’ से वहाँ प्राध्यापक के रूप में कार्य करने का अनुरोध किया। वहाँ के प्राचार्य महान् साहित्यकार मनोरंजन प्रसाद सिंह थे और हिन्दी विभागाध्यक्ष जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ जी थे जो हिन्दी-जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र थे। यद्यपि शिवजी की शैक्षणिक योग्यता केवल मैट्रिक पास थी, मगर काशी विश्वविद्यालय के दो दिग्गज प्रोफेसर बाबू श्यामसुन्दर दास और पं0 रामचन्द्र शुक्ल की संस्तुति पर शिवजी प्राध्यापक के पद पर राजेन्द्र कॉलेज, छपरा के लिए चयनित हो गये। उस समय राजेन्द्र कॉलेज में हिन्दी-विभाग में श्रद्धेय द्विज जी और शिवजी की उपस्थिति से वहाँ का साहित्यिक वातावरण उल्लसित हो उठा। बाद में द्विज जी के औरंगाबाद चले जाने से शिवजी वहाँ के विभागाध्यक्ष हो गये। आप 15 नवम्बर 1939 को छपरा राजेन्द्र कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक के रूप में आये और वहाँ के वातावरण को हिन्दी की सुगन्ध से आप्लावित करते हुए कॉलेज से छुट्टी लेकर आप 21 अगस्त 1945 को फिर लहेरियासराय आ गये-‘हिमालय’ का सम्पादन करने। इसी बीच दुर्भाग्य भी आपका पीछा करता रहा और तीसरी पत्नी का देहान्त भी 16 नवम्बर 1940 को हो गया। 

इस बार पुस्तक-भंडार ख्लहेरियासराय, में ‘हिमालय’ के सम्पादक के रूप में वे सचमुच हिमालय की ऊँचाई को छूने लगे। अब वहाँ प्रायः रोज ही महान् साहित्यकारों और साहित्य-प्रेमियों की भीड़ जुटने लगी। सर्वश्री नलिन विलोचन शर्मा, राम खेलावन पाण्डेय, नवलकिशोर गौड़, दिवाकर प्रसाद, प्रेमचन्द जी, गुलेरी जी, चण्डी प्रसाद, हृदयेश, द्विज जी, उग्र जी, नवजादिक लाल श्रीवास्तव और बाबू श्यामसुन्दर प्रसाद आदि की साहित्यिक कृतियों पर चर्चा होती। एक तरह से हिन्दी-साहित्य का सारा आकाश ‘शिवजी’ के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ नजर आता था। मगर वे हमेशा सामान्य ही बने रहे।

शिवपूजन सहाय जी हिन्दी के एक ऐसे स्वनामधन्य प्रकाश-स्तम्भ बन गये कि प्रायः हर बड़े आयोजनों में आपके सभापति बनने के लिए आग्रह होने लगा। हिन्दी के प्रति उनका ऐसा प्रेम था कि हर परिस्थिति में वे आग्रह को टाल नहीं पाते थे। 15 फरवरी 1942 को उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य परिषद्’ बरहज ख्गोरखपुर, का सभापतित्व किया तो साहित्य परिषद् सूर्यपुरा, आरा का सभापतित्व 16 मई 1942 को किया। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की जब भी कोई पुस्तक तैयार होती तो शिवपूजन बाबू सूर्यपुरा आकर उनकी पाण्डुलिपि अपने साथ ले जाकर उसकी शुद्धि करके ही छपाई कराते। उस समय के सभी प्रख्यात लेखक अपनी पांडुलिपियाँ शिवजी को देकर निश्चिन्त हो जाते थे। 

कहा जाता है कि जयशंकर प्रसाद जी की ‘कामायनी’ की पांडुलिपि को भी शिवजी ने ही देखा था और उनके द्वारा देख लेने के बाद ही इसकी छपाई हुई थी। दिनकर जी ने अपनी पहली कृति ‘रेणुका’ के प्रकाशन के बारे में लिखा है-‘‘कवि के रूप में लोग मुझे थोड़ा-बहुत पहले भी जान चुके थे। किन्तु पुस्तक-लेखक के रूप में मुझे पेश करने का काम शिवपूजन बाबू ने किया। उन्हीं की संगति से मुझे यह भान हुआ कि शुद्ध हिन्दी लिखने का दावा करना बड़ा ही जोखिम का काम है। और उन्हीं की संगति से मैंने यह शिक्षा भी ली कि कवियों को उनकी भूल दिखानी हो तो यह काम अत्यन्त सहृदयता के साथ करना चाहिए। सचमुच शिवजी अद्भुत भाषा-परिमार्जक के साथ-साथ अद्वितीय प्रूफ-संशोधक और उच्चतम सम्पादक थे।

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के जयपुर अधिवेशन का 25 सितम्बर 1944 को आपने सभापतित्व किया, जिसमें देश के चोटी के साहित्यकार पधारे थे। इसी बीच एक और महती कार्य उन्होंने किया पुस्तक- भंडार के ‘जयन्ती स्मारक ग्रंथ’ के सम्पादन का, जो सन् 1942 में प्रकाशित हुआ। आचार्य शिवपूजन सहाय जी के अथक परिश्रम और कुशल सम्पादन में जो ‘जयन्ती स्मारक ग्रंथ’ निकला वह आज भी बिहार के लिए एक साहित्यिक दस्तावेज है। पुस्तक-भंडार के मालिक आचार्य रामलोचन शरण ख्मास्टर साहब, के द्वारा प्रकाशित मासिक पत्र ‘बालक’ और ‘हिमालय’ का भी सम्पादन शिवजी ने ही किया था। ‘हिमालय’ में तो उस समय के जाने-माने साहित्यकारों के साथ-साथ जयप्रकाश बाबू की भी कुछ कहानियाँ छपी थीं। ‘हिमालय’ अपने समय के सर्वोत्तम सम्पादकत्व का परिचायक था। 

सन् 1947 में बसन्त पंचमी के दिन काशी में ‘निराला स्वर्ण जयन्ती महोत्सव’ धूम-धाम से मनाया गया। हिन्दी-जगत् के मूर्धन्य साहित्यकारों का अद्भुत समागम देखने को मिला। शिवपूजन बाबू और निराला जी हमेशा साथ-साथ ही दिख रहे थे। आयोजकों में समीक्षा-परिषद् की बैठक का सभापतित्व शिवपूजन बाबू ने ही किया। इस बैठक में उद्भट वक्ता थे- डा0 रामविलास शर्मा, पं0 नन्ददुलारे बाजपेयी, प्रो0 जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री , प्रो0 पद्मनारायण आचार्य , पं0 विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि। 

समीक्षा-चर्चा मंे कभी-कभी कुछ कटु शब्द भी उभर आते थे। मगर अपने अध्यक्षीय भाषण में शिवजी ने सबका समाहार प्रस्तुत किया। सारा वातावरण आह्लादित हो उठा। डा0 राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का भी उन्होंने मनोयोगपूर्वक सम्पादन किया। राजेन्द्र कॉलेज से छुट्टी लेकर भी उन्होंने आत्मकथा की छपाई की देख-रेख की और इसके लिए उन्हें प्रयाग [इलाहाबाद] जाकर भी रहना पड़ा। ‘हिमालय’ के सम्पादन के लिए भी उन्हें राजेन्द्र कॉलेज से छुटटी लेना पड़ता था। फरवरी 1948 तक उन्होंने ‘हिमालय’ का सम्पादन किया और किसी कारणवश वहाँ से त्यागपत्र देकर फिर राजेन्द्र कॉलेज में आ गये।

‘बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना सन् 1919 में ही हो गई थी और उसका प्रथम अधिवेशन सोनपुर में हुआ था। इसमें बिहार के चोटी के साहित्यकार भाग लिये थे। इसके बाद सन् 1925 में इसका विराट् अधिवेशन दरभंगा में हुआ था, जिसका सभापतित्व डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने किया था। डा0 राजेन्द्र प्रसाद के साथ ही आचार्य शिवपूजन सहाय और उनके गुरु-तुल्य मित्र पं0 ईश्वरी प्रसाद शर्मा लहेरियासराय के पुस्तक-भंडार के भवन में एक साथ ही ठहरे थे। 

श्री बेनीपुरी जी और श्री शिवपूजन सहाय जी पूरे अधिवेशन में छाये रहे। सन् 1940 के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बिहार प्रान्त का अधिवेशन 5-6 फरवरी 1941 को पटना में हुआ, जिसका सभापतित्व श्री शिवपूजन सहाय जी ने किया। सम्मेलन की पत्रिका ‘साहित्य’ के सम्पादन का भार भी उन्हीं पर दिया गया और अपने जीवन के अन्तिम काल तक वे इस दायित्व को बखूबी निभाते रहे। 11 अप्रैल 1947 को बिहार विधान सभा ने राष्ट्रभाषा परिषद् की स्थापना के लिए प्रस्ताव स्वीकृत किया। मगर 12 अप्रैल 1949 को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह के कार्य-काल में सरकारी आदेश जारी हुआ और पं0 छविनाथ पाण्डेय को परिषद् की व्यवस्था का भार सौंपा गया। अब एक योग्य मंत्री की जरूरत थी, कई सुझाव आने लगे। डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी जो उन दिनों शान्ति निकेतन में थे, उनके नाम का भी प्रस्ताव आया। 

बिहार के शिक्षामंत्री उस समय आचार्य बद्रीनाथ वर्मा जी थे। उन्होंने आचार्य श्री शिवपूजन सहाय के नाम की संस्तुति की, जो उस समय राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। तभी कहीं से दिनकर जी का भी नाम उछला। अन्ततः 19 जुलाई 1950 को आचार्य श्री शिवपूजन सहाय ने हिन्दी साहित्य परिषद् के मंत्री का पद संभाल लिया। कॉलेज से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। हिन्दी साहित्य परिषद् में एक नयी जान आ गई। 11 और 12 मार्च 1951 को तत्कालीन राज्यपाल माधव श्रीहरि अणे के करकमलों द्वारा परिषद् का उद्घाटन समारोह भव्यता के साथ सम्पन्न हुआ। 1 अप्रैल 1956 से आचार्य शिवजी का पद मंत्री से संचालक का हो गया। उन्होंने 31 अगस्त 1959 तक परिषद् की उल्लेखनीय और अनुकरणीय सेवा की। उनके कार्य-काल में परिषद् को पंख लग गये। उनके समय में परिषद् ने साठ गौरव-ग्रंथ प्रकाशित किए। अनुसंधान पुस्तकालय का गठन कराकर उसमें दस हजार दुलर्भ पुस्तकें मंगवायी। अपने कार्य-काल में उन्होंने अनेक चोटी के विद्वानों की भाषण-माला आयोजित करवायी। इस भाषण माला में डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल, आचार्य विनय मोहन शर्मा, डा0 जनार्दन मिश्र, महामहोपाध्याय गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी आदि चोटी के विद्वानों ने भाग लिया। 

शिवजी के समय में नौ वयोवृद्ध साहित्यकारों को साहित्य-सम्मान पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके पुरस्कार योजनाओं से पुराने और नये लेखकों को सम्मानित किया गया। बिहार के साहित्यिक इतिहास का लेखन और सम्पादन करके शिवजी ने एक अत्यन्त महान् कार्य किया। ‘‘हिन्दी साहित्य और बिहार’’ ख्प्रथम खंड, में आपने बिहार के साहित्यकारों का परिचय एवं उनकी कृतियों का विवेचन प्रस्तुत कर एक श्लाघनीय कार्य किया। इसका दूसरा खंड भी वे लिख चुके थे मगर उनके निधन के बाद ही वह प्रकाशित हुआ। इस इतिहास को चार खण्डों में प्रकाशित करने की उनकी योजना थी, पर दुर्भाग्य से बीच में ही विधि ने उन्हें हमसे छीन लिया।

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के मंत्री के रूप में उन्होंने ‘राजेन्द्र अभिनन्दन ग्रंथ’ का सम्पादन किया। डा0 राजेन्द्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बन चुके थे। इस अभिनन्दन ग्रंथ में देश के चोटी के विद्वानों से लेख लिखवाकर शिवपूजन सहाय जी ने इसे सचमुच अभिनन्दनीय बना दिया था। हमेशा साधारण रह कर ही उन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया ।

उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए जितना किया उतना उन्हें सम्मान नहीं दिया गया। वे सम्मान की आशा में काम करते भी नहीं थे। उन्होंने हिन्दी के लिए जो कुछ भी किया उसे अपना समझ कर किया। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के तृतीय वार्षिकोत्सव में 22 अप्रैल 1954 को आचार्य नरेन्द्रदेव द्वारा उन्हें ‘वयोवृद्ध साहित्यकार’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया और उन्हें ताम्रपत्र के साथ पुरस्कार राशि के रूप में डेढ़ हजार रुपये दिये गये। उन्होंने पुरस्कार की यह राशि बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन को अपनी तीसरी पत्नी की पुण्य स्मृति में ‘श्रीमती बच्चन देवी साहित्य-गोष्ठी’ चलाने के लिए दे दी। इस गोष्ठी का विधिवत् उद्घाटन 4 जुलाई 1954 को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन द्वारा किया गया। परिषद् द्वारा सन् 1956 से 1959 तक ‘शिवपूजन रचनावली’ के चार खंड प्रकाशित किए गये।

सन् 1954 में शिवजी के बड़े पुत्र आनन्द मूर्ति के विवाह में देश के चोटी के साहित्यकार के साथ बड़े-बड़े नेता भी शामिल हुए। सम्पादकाचार्य पराड़कर जी, कलाविद् रामकृष्ण दास, पं0 विनोदशंकर व्यास, डा0 मोतीचन्द्र, डा0 वासुदेवशरण अग्रवाल, श्री रामचन्द्र वर्मा आदि के साथ श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी भी थे। यह भी एक मंगलमय साहित्यिक आयोजन बन गया था। 1 सितम्बर 1959 को बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के निर्देशक के पद से आप सेवा-निवृत्त हो गये, मगर हिन्दी-सेवा के कार्य से वे जीवन-पर्यन्त निवृत्त नहीं हुए।

 बिहार के साहित्यिक इतिहास के दो खंड वे लिख गये थे, इसे ही वे अपने जीवन का अन्तिम और एक मात्र कार्य कहते थे। मगर दो भाग प्रकाशित हो पाये और लिखने वाला ही हमारे बीच से चला गया। 26 जनवरी 1960 को भारत सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से विभूषित किया गया। उस समय उन्होंने अपनी डायरी में लिखा-‘‘आज अखबारों में खबर छपी कि मुझे भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ की उपाधि दी है। बंगला के यशस्वी कवि नजरुल इस्लाम और हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ को भी यही उपाधि मिली है। यह राम जी की कृपा का ही फल है। मेरे समान अकिंचन के लिए यह  उपाधि वस्तुतः उपाधि ही है।’’ कितनी साफगोई है इस युक्ति में! सचमुच वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे।

9 अगस्त 1961 को उनकी 68वीं वर्ष गाँठ पर पटना नगर निगम द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। अपने भाषण में उन्होंने अनन्य हिन्दी-सेवी का परिचय दिया। 3 मार्च 1962 को भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें मानद डि0 लिट्0 की उपाधि प्रदान की गई। इसी अवसर पर महापंडित राहुल सांकृत्यायन, जयप्रकाश नारायण, रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ और लक्ष्मीनारायण सुधांशु जी को भी भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा डि0 लिट्0 की मानद उपाधि दी गई। इसी वर्ष माननीय जयप्रकाश जी के अनुरोध पर स्वास्थ्य में गिरावट आने पर भी उन्होंने डा0 राजेन्द्र प्रसाद को समर्पित होने वाले अभिनन्दन ग्रंथ ‘बिहार की महिलाएँ‘ का सम्पादन स्वीकार कर लिया। शरीर साथ नहीं दे रहा था। कई बीमारियाँ घेरा डाल चुकी थी। 

इसी बीच साहित्य के सहयोगी सम्पादक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का भी देहावसान हो गया। उनकी स्मृति में नवम्बर 1962 के साहित्य का ‘नलिन स्मृति अंक’ प्रकाशित हुआ। शिवजी की आँखें भी अब जवाब दे चुकी थी। उसी समय उन्होंने 29 मार्च 1962 के एक पत्र में लिखा- ‘‘आँखों ने ज्ञान के द्वार बन्द कर दिये, किसी तरह स्मरण-शक्ति के सहारे ‘साहित्य’ की टिप्पणियाँ लिख लेता हूँ, नहीं तो सारा काम मेरे आदरणीय मित्र नलिन जी ही करते हैं।’’ फिर नलिन जी भी चले गये और देखते-देखते 21जनवरी 1963 की ब्रह्मबेला में 3ः15 बजे ‘शिवजी’ ने भी सदा के लिए अपनी आँखें मूंद ली। बिहार में साहित्यिक वीरानता छा गई। पटना श्रीहीन हो गया। पटना के बाँस घाट पर उनकी अन्त्येष्टि में सारा पटना उमड़ पड़ा था।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी श्रद्धांजलि में लिखा-’’शिवजी के अभाव में पटना शून्य-सा प्रतीत होने लगा है। शिवजी और नलिनजी पटना की विभूति थे। पटना जाने का मुख्य आकर्षण उनके दर्शन का हुआ करता था। न जाने विधाता ने पटना को श्रीहीन करके कौन-सा उद्देश्य सिद्ध किया है।’’

डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी भाव-भीनी श्रद्धांजलि में उन्हें हिन्दी-साहित्य का मूक सेवक कहा था। उन्होंने यह भी कहा- ‘‘मेरे ऊपर तो सदा उनका बहुत स्नेह रहा। और उनके निधन से समस्त हिन्दी-जगत् को बड़ी क्षति पहुँची है।’’

शिवपूजन सहाय जी ने करीब 40 वर्षों तक हिन्दी की अनवरत सेवा की। अपनी साहित्यिक साधना में उन्होंने करीब तेरह पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादक बनकर उसे सँवारा था और अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। उनकी ‘मुण्डमाल’ कहानी और ‘कहानी का प्लाट’ आज भी हिन्दी-जगत् की श्रेष्ठतम कहानियों में गिनी जाती हैं। ‘देहाती दुनिया’ उपन्यास में आँचलिकता की मर्मस्पर्शी छाप है। जैसे गुलेरी जी की कहानी ‘उसने कहा था’ अब भी जीवन्त लगती है, जैसे पे्रमचन्द की ‘बूढ़ी काकी’ अभी भी आँखों में समा जाती है, जैसे राजा राधिकारमण-प्रसाद की कहानी ‘कानों में कंगना’ अभी भी कानों में आकर कुछ कह जाती है, उसी तरह शिवजी की ‘कहानी का प्लाट’ अभी भी एक चिरनवीन कहानी के रूप में याद की जाती है और सम्भवतः आगे भी याद की जाती रहेगी। शिवजी का बहुआयामी व्यक्तित्व था और उनके पास अपने युग का साहित्यिक इतिहास था।

प्रख्यात कहानीकार और उपन्यासकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ने शिवजी को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए लिखा-‘‘आज रह-रह कर मुझे लगता है कि शिवजी के स्नेह का वह अनुदान न होता तो क्या आज इस लेखनी में वह जान आ पाती-वह शैली-शिल्प का अभियान आ पाता? मुझे साहित्य की ज्योतिर्मयी पंक्ति में बैठाने वाले शिवजी ही हैं।’’

      फादर कॉमिल बुल्के ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा-‘‘परलोक में पहुँचने पर मुझे अपनी जन्म-भूमि के कम लोगों से मिलने की उत्सुकता रहेगी, क्योंकि वहाँ के कम लोगों से ही मेरा निकट का सम्पर्क हो पाया है। अपनी नई मातृभूमि भारत के बहुत से अच्छे-अच्छे लोगों का मुझे परिचय प्राप्त हो सका है, और उनमें एक शिवपूजन जी हैं। परलोक में पहुँच कर मुझे उनसे मिलकर अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव होगा और मैं उनके सामने नतमस्तक होकर उनको धन्यवाद भी दूँगा कि उनसे मैंने जान लिया था कि विनय का वास्तविक स्वरूप क्या है। ’’
हिन्दी के महान् सेवक सेठ गोविन्ददास ने उनके बारे में लिखा-‘‘बिहार की इस विभूति के सान्निध्य-संपर्क में आकर अनेक बार यह निर्णय करने में नितान्त असमर्थ हो जाते हैं कि शिवपूजन सहाय जी अपने व्यक्तिगत रूप से बड़े हैं अथवा अपने कृतित्व रूप से। यही उनकी बड़ाई थी, जिसका आज के साहित्य के साहित्यकार को अनुसरण करना चाहिए।’’

श्री रंजन सूरिदेव ने उन्हें सम्पादकाचार्य की उपाधि से अलंकृत करते हुए उनके निधन पर श्रद्धांजलि के रूप में लिखा था-‘‘आचार्य शिवजी हिन्दी-साहित्य  के जीवन्त जंगम ऐतिहासिक विश्वकोश थे। जब वे अतीत के साहित्य-सर्जकों की मृदुल-मधुर स्मृतियाँ उरेहने लगते, तब सुनने वाले आप्यायित-आप्लावित हो उठते। और तभी उनके सदाशयी हृदय का पता चलता।’’

उस समय के प्रख्यात साहित्यकार छविनाथ पाण्डेय ने शिवजी के बारे में लिखा -‘‘उन्होंने अपनी हड्डियों को घिस-घिस कर राष्ट्रभाषा के मस्तक पर तिलक लगाया। शिवजी सच्चे साहित्य-सेवी थे। बल्कि यों कहना चाहिए कि साहित्य-सेवियों के वे आदर्श थे।’’

शिवजी के साहित्यिक मित्र रामगोविन्द त्रिवेदी जी ने उनके सम्बन्ध में लिखा-‘‘उनकी प्रत्येक धमनी और हरेक नाड़ी में हिन्दी का अनन्य अनुराग अनुस्यूत था। हिन्दी की सेवा के नशे में वे आकंठ और आपाद निमग्न थे। इस लिए दुर्दम्य दुःख को झेलकर और हिन्दी के चरणों में सभी कारुणिक कष्टों को अर्पित कर वे नये जोश-खरोश से हिन्दी-सेवा में पुनः लग जाते थे।’’

भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र माधव ने उनके बारे में लिखा-‘‘साहित्य के क्षेत्र में शिवजी का वही स्थान था और रहेगा, जो राजनीति के क्षेत्र में देशरत्न राजेन्द्र बाबू का है।’’

शिवपूजन सहाय जी के निधन पर अश्रुपूरित नेत्रों से हिन्दी-साहित्य के प्रायः सभी महान् साहित्यकार, राष्ट्र के महान् नेता और शिक्षाविदों ने अपनी श्रद्धांजलि दी। लगता था हिन्दी-साहित्य के आकाश में अँधेरा छा गया है। शिवजी का शिवत्व सबको कुछ लिखने के लिए बाध्य कर रहा था। 

साहित्य-लेखन के सम्बन्ध में शिवजी कहा करते थे-‘‘साहित्य युग का आइना है। वह पूर्ण सावधानी से रचा जाना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियाँ उसकी भूल पर उँगली न उठा सके।’’ इस प्रकार की रचना-धर्मिता के लिए उनके जैसी एक पवित्र ईमानदारी चाहिए।

वे गंगा की तरह पवित्र और निश्छल थे। अपने छोटे भाई देवनन्दन सहाय को नसीहत देते हुए उन्होंने कहा था-‘‘अपने से बलवान् से भी डरो मत और न अपने से कमजोर को डराओ! कभी प्रतिष्ठित बनने की या ऊँचा बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। प्रतिष्ठा और ऊँचाई स्वतः अच्छे कर्म से प्राप्त होती है। परिवार में जो गिरा हुआ है, सदा उसको ऊपर उठाने की कोशिश करनी चाहिए! अपने लाभ के लिए कभी किसी का बुरा मत सोचो ! किसी की उन्नति से प्रसन्न होना सीखो, ईर्ष्या कभी मत करो ! बिना बुलाये किसी सभा या उत्सव में मत जाओ ! सभा में सदा सोच-समझ कर ही बोलना चाहिए।’’ मैं समझता हूँ कि इस नसीहत में उनके व्यक्तित्व की गंगा का पूरा दिग्दर्शन हो जाता है। 

डा0 विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में-‘‘वे यश नहीं चाहते थे, दूसरों को यश देना चाहते थे। वे स्वयं बहुत लिख सकते थे और उनकी सहज अभिव्यक्ति कथाकार के रूप में, निबन्धकार के रूप में आज भी प्रतिमान है, परन्तु उन्होंने अपना समय दूसरों के प्रकाशपुंज बढ़ाने में लगा दिया।’’ शायद कम-से-कम शब्दों में ‘शिवजी’ का यह साहित्यिक तपस्वी का परिचय हृदय को छू जाता है। सच कहें तो हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के योग्य बनाने का श्रेय शिवपूजन सहाय जी जैसे साहित्य-सेवियों को ही जाता है।

 वे हिन्दी के तपस्वी मनीषी थे, मनस्वी चिन्तक थे और यशस्वी साहित्य-सेवी थे। विनय और शील के मूर्तमान् रूप, हिन्दी-साहित्य-मन्दिर के निष्ठावान् पुजारी, एक साहित्यिक संत और साहित्य मनीषी तथा हिन्दी की संजीवनी शक्ति के प्रतीक ‘शिवजी’ जैसा व्यक्तित्व युग का प्रतिबिम्ब बन जाता है। उनकी रचना का संसार भले ही आकाश का विस्तार नहीं पा सका हो, मगर उसमें आकाश की ऊँचाई और सागर की गहराई अवश्य है। शिवजी हिन्दी के सच्चे प्रहरी के रूप में सदैव याद किए जायेंगे। साहित्य-कर्म को समर्पित ऐसे हिन्दी-साहित्य के मनीषी को शत-शत नमन! मेरा भी कवि-मन उनके सम्मान में कुछ कहने के लिए आतुर हो उठा है। तो लीजिए, लेख की समाप्ति अपनी स्वरचित कविता की कुछ पंक्तियों से ही कर रहा हूँ

बहुत कुछ लिखा भी, पर दूसरों से खूब लिखाया,
स्वयं की चिन्ता नहीं की, दूसरों का घर सजाया,
अनन्य हिन्दी-सेवी बनकर, मान हिन्दी का बढ़ाया,
शिव-सा स्वयं गरल पीकर, हिन्दी को अमृत पिलाया।
विनय मूर्ति, उदार चेता, हिन्दी के थे सजग प्रहरी,
हर विधा में सिद्ध थे, थी विज्ञ-दृष्टि जिनकी गहरी,
शुद्ध-हिन्दी, प्रबुद्ध-हिन्दी, ग्राम्य-हिन्दी और शहरी,
उनके हाथों से उठी औ गगन में जाके वो ठहरी।
‘पद्म भूषण’ भी बने पर ‘हिन्दी-भूषण’ मन को भाया,
बने परिषद् के निदेशक ‘अहं’ पर किंचित् न आया,
दिया सबको बहुत पर अपने कहीं से कुछ न पाया,
किया अभिनन्दन सभी का शब्द की दे मृदुल छाया।
थे तपोधन, और मन से किए हिन्दी को वरण वे,
शब्द के शंृगार से सज्जित किए हिन्दी-चमन वे,
यज्ञ-ज्योति-सा जले औ कर दिए खुद को हवन वे,
कीर्ति के आलोक से चमका दिए हिन्दी-गगन वे।

साहित्यकारों के इस यशस्वी साहित्यकार को शत-शत नमन!
 
Sukhnandan singh Saday
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