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साहित्यकारों के साहित्यकार - शिवपूजन सहाय | SAAHITYAKAARON KE SAAHITYAKAAR SHIVPUJAN SAHAY

साहित्यकारों के साहित्यकार - शिवपूजन सहाय

 
भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि उनके जीवन के संध्याकाल में सन् 1960 में दिया मगर हिन्दी-जगत् ने और विशेष रूप से निराला जी ने तो उन्हें बहुत पहले से ही ‘साहित्य भूषण’ की उपाधि दे दी थी। उनके लिए साहित्य-जगत् की कोई भी उपाधि शायद छोटी पड़ जाती है। इसलिए किसी ने उन्हें ‘साहित्यिक संत’ कहा तो किसी ने उन्हें ‘अपरिमेय आत्मीयता के अवतार’ से सम्बोधित किया। किसी ने उन्हें ‘सम्पादकाचार्य’ कहा तो किसी ने ‘विनयमूर्ति’ कहकर उनका मान बढ़ाया। मगर ऐसे अनन्य हिन्दी-सेवी और हिन्दी के सजग प्रहरी के लिए सारे विशेषण गौण पड़ जाते हैं और ‘शिवजी’ ही मुख्य बन जाते हैं।

हिन्दी-साहित्य में देश की आजादी के पूर्व अनेक यशस्वी साहित्यकार हुए, जो हिन्दी-नभ में नक्षत्र की भाँति देदीप्यमान हैं। मगर एक ऐसे ध्रुवतारे भी हुए, जिन्होंने न केवल खुद लिखा बल्कि दूसरों से भी लिखवाया और दूसरों की लिखी हुई रचनाओं को अपने भाषा-कौशल से सँवारा भी। एक साथ जिनमें साहित्यिक चेतना के साथ-साथ वाङ्मय-चेतना का भी पूर्ण समावेश था, सहज और परिष्कृत शैली का मणि-कांचन योग था , एक यथार्थवादी लेखक होने के साथ-साथ एक कुशल सम्पादक के रूप में जो पूज्य थे, सशक्त भाषा के जो प्रतिमान थे, विनम्रता की जो प्रतिमूर्ति थे, ऐसे ‘शिवजी’ सचमुच हिन्दी-गगन के चमकते ध्रुवतारे की तरह संयमित और स्थिर भी थे।

ऐसे साहित्य-शिल्पी का जन्म बिहार प्रान्त के तत्कालीन शाहाबाद जिले के अन्तर्गत [अब बक्सर जिला] के उनवाँस ग्राम में 9 अगस्त 1893 को हुआ था। पिता श्री बागीश्वरी दयाल अत्यन्त धार्मिक स्वभाव के थे। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही हुई। के0 जे0 एकेडमी आरा से मैट्रिक की परीक्षा सन् 1913 में उत्तीर्ण की। पिता का साया 1906 में ही उठ गया था। मात्र 14 वर्ष की अवस्था में पहला विवाह सन् 1907 में हुआ। मगर दो-तीन महीने बाद ही पत्नी चल बसी। फिर सन् 1908 में ही दूसरी शादी हुई। सब कुछ यथावत् चलता रहा। जीवन में अर्थाभाव के चलते बनारस की कचहरी में नकल बनाने का कार्य करना पड़ा। मगर कुछ ही दिनों बाद आरा के के0 जे0 एकेडमी में ही शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए। सन् 1917 में आरा के ख्याति प्राप्त टाउन स्कूल में हिन्दी-शिक्षक बने। इस सरकारी स्कूल को भी छोड़ कर गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन ख्1920-21, में कूद पड़े। जीवन एक नई दिशा की ओर चल पड़ा। 

सन् 1917 में वे आरा नागरीप्रचारिणी सभा में सहकारी मंत्री बने। जिस लगन और तत्परता से उन्होंने नागरीप्रचारिणी सभा का कार्य किया , वह वहाँ की प्रबुद्ध जनता द्वारा मुक्त-कंठ से सराहा गया। सभा द्वारा ’हरिऔध’ अभिनन्दन ग्रंथ और ‘राजेन्द्र’ अभिनन्दन ग्रंथ अर्पित किया गया था, जिसके सम्पादक शिवजी थे। सन् 1920 में आरा के टाउन स्कूल से त्याग-पत्र देकर आप असहयोग आन्दोलन से जुड़े और साथ ही स्वतन्त्र लेखन का कार्य प्रारम्भ किये। आरा में ही हर प्रसाद जालान के प्रयास से निकलने वाला मासिक पत्र ‘मारवाड़ी सुधार’ के सम्पादक के रूप में कार्य करते हुए आपने अपनी साहित्यिक प्रतिभा का अद्भुत परिचय दिया। आरा के उस समय के प्रतिष्ठित साहित्यकार पं0 ईश्वरी प्रसाद शर्मा से परिचय के सूत्र में काफी दृढ़ होते गये और उन्हीं के अनुरोध पर आप कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र ‘मतवाला’ के सम्पादकीय परिवार में शामिल हो गये। आपकी लेखनी से सँवर कर ‘मतवाला’ सचमुच उस समय का एक लोकप्रिय पत्र बन गया।

 ‘शिव जी’ अब साहित्यकारों में एक नक्षत्र की भाँति अपनी पहचान बना चुके थे। सन् 1929 में इन्हें लखनऊ से बुलावा आया और वहाँ पर आप ‘माधुरी’ के सम्पादकीय परिवार में शामिल हो गये। ‘माधुरी’ अपने नये कलेवर में चमक उठी। लखनऊ में ही प्रेमचन्द के चर्चित उपन्यास ‘रंगभूमि’ का सम्पादन किया। मगर लखनऊ भी उन्हें रास नहीं आया। फिर लखनऊ में दंगा हो जाने की वजह से उन्हें वहाँ से आना पड़ा। वे काफी दुःखी थे। फिर वे ‘मतवाला’ के आकर्षण में बँधे कलकत्ता आ गये। यहीं पर साहित्य मनीषी ’निराला जी’ और मतवाला-मंडल के सहयोगी मुंशी नवजादिक लाल से घनिष्ठता बढ़ी। मतवाला के मालिक महादेव प्रसाद सेठ थे और वे साहित्यकारों का बहुत सम्मान करते थे। करीब दो वर्षों तक मतवाला-मंडल की मित्र-मंडली में सबको हँसते-हँसाते साहित्य को नई दिशा देते रहे। फिर सन् 1926 में लहेरियासराय ख्दरभंगा, के पुस्तक-भंडार में आ गये, जिसके स्वामी आचार्य रामलोचन शरण जी थे। 

लहेरिया सराय का पुस्तक-भंडार आपकी उपस्थिति में महमहा उठा और चोटी के साहित्यकारों का यहाँ जुटाव होने लगा। ‘शिवजी’ से मिलने वालों में श्री हवलदार त्रिपाठी, श्री बेनीपुरी जी, श्री अच्युतानन्द जी, श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी, श्री हरि मोहन झा जी, श्री कलक्टर सिंह ‘केसरी’ सहित अनेक नवोदित कवि-लेखक थे। उस समय ऐसा लगता था कि लहेरियासराय का पुस्तक-भंडार सचमुच  साहित्यकारों के लिए एक तीर्थ-स्थल बन गया है। ‘शिवजी’ की दूसरी धर्मपत्नी सबके आतिथ्य के लिए प्रसन्न मुद्रा में ‘चैका’ सम्भालती थी। मगर विधि का विधान कौन टाल सकता है? नवम्बर 1926 में दूसरी पत्नी का भी देहान्त हो गया। शिवजी पर मानो वज्रपात हो गया। मगर वे फौलाद के बने हुए थे। कुसुम के समान मृदुल हृदय में वज्र के समान तेज बल था। साहित्य-साधना की आराधना में वे पूर्ववत् लगे रहे। वे एक कठोर-कर्मा साहित्यिक मनीषी थे। 

पुस्तक-भंडार का काशी में भी बहुत बड़ा कार्यालय था। लहेरियासराय से आकर आप काशी में कार्यरत हो गये। दंडपाणि मंदिर के पास वाले मकान में रहते थे। यहीं पर दूसरी पत्नी का निधन हुआ । मगर समय-चक्र अपनी गति से चलता रहता है और हमें भी उसी के साथ पैर मिलाकर चलना पड़ता है। पत्नी की मृत्यु के समय ‘शिवजी’ की अवस्था मात्र 33 वर्ष थी। मित्र-मंडली के आग्रह से और परिवारवालों के दबाव से आपकी तीसरी शादी 21 मई 1928 को सम्पन्न हुई। पूरी साहित्य-मंडली ही बारात गई। महाप्राण निराला बारात का नेतृत्व कर रहे थे। रामवृक्ष बेनीपुरी जी, नवजादिक लाल, पांडेय बेचन शर्मा उग्र सहित अनेक बुजुर्ग और युवा साहित्यकार इस विवाह-मंडली में शामिल हुए थे।

तीसरी पत्नी बच्चन देवी मानो ‘शिवजी’ की ‘पार्वती’ ही थी। साहित्यकारों की भीड़ काशी में फिर जमने लगी। आखिर शिव की नगरी में ‘शिवजी’ का सम्मान तो होना ही चाहिए। इस साहित्यिक-मंडली में जयशंकर प्रसाद, पे्रमचन्द, रामकृष्ण दास, विनोदशंकर व्यास आदि थे। इस पत्नी से प्रथम पुत्र आनन्द मूर्ति ख्1929, और दो पुत्रियाँ सरोजिनी और बिनोदिनी ख्1933, का जन्म काशी में ही हुआ। सबसे छोटे पुत्र मंगल मूर्ति का जन्म लहेरियासराय में सन् 1937 में हुआ। आचार्य शिवपूजन सहाय जी ने अपने काशी-निवास में वहाँ के वातावरण को साहित्यिक रंग में सराबोर कर दिया।

उस समय के मूर्धन्य साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी, रामकृष्ण दास जी, विनोदशंकर व्यास जी, महाप्राण निराला जी,  बेचन शर्मा उग्र जी, रामचन्द्र सुमन जी, प्रेमचन्द जी और आचार्य शिवजी की साहित्यिक मंडली अक्सर मिला करती थी और कभी-कभी गोष्ठी में पूरी रात बीत जाती थी। आतिथ्य का भार कभी जयशंकर प्रसाद जी पर तो कभी शिवपूजन सहाय जी पर ही प्रायः रहता था। शिवजी ही साहित्यकारों के बीच संयोजक का कार्य करते थे। उस समय के प्रख्यात साहित्यकार श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी के आग्रह पर आपने ‘बालक’ का सम्पादन किया। 

‘बालक’ अपने  समय का एक सशक्त साहित्यिक मासिक पत्र था। इसी बीच बिहार के सुल्तानगंज से एक मासिक पत्र ‘गंगा’ निकालने की योजना बनी। इसके सम्पादक श्री रामगोविन्द त्रिवेदी जी ने अपने अभिन्न मित्र जयशंकर प्रसाद जी से एक सह-सम्पादक के लिए परामर्श मांगा। प्रसाद जी ने अपने पत्र में श्री शिवपूजन सहाय जी का नाम सुझाते हुए लिखा-‘‘शिवपूजन सहाय जी आजकल काशी में ही हैं। वे समर्थ लेखक और सबल साहित्यकार हैं। बिहार में इनका-सा दक्ष, निपुण और प्रौढ़ सहायक सम्पादक कौन मिलेगा ?’’ इस प्रकार प्रसादजी के सुझाव और त्रिवेदीजी के आग्रह पर शिवजी ‘गंगा’ के सम्पादकीय परिवार में शामिल हो गये और सन् 1931 के दिसम्बर तक सुल्तानगंज, भागलपुर में रहकर ‘गंगा’ का सम्पादन किए। ‘गंगा’ निखर उठी। गंगा का साहित्यिक निनाद कल-कल करता हुआ सतत आगे बढ़ता रहा।

गंगा में आप ‘भट्ट’ नाम से आलोचना लिखा करते थे और कभी-कभी ‘छद्म’ नाम से व्यंग-विनोद भी लिख दिया करते थे। मगर ‘काशी’ का आकर्षण उन्हें सदैव बाँधे रहता था। वे फिर काशी आ गये और पाक्षिक ‘जागरण’ का सम्पादन करने लगे। कभी काशी और कभी लहेरियासराय उनके आवास के नाम से जुड़ा रहा था। लहेरियासराय में रहकर पुस्तकों के प्रकाशन के साथ ‘बालक’ का सम्पादन भी करते रहे। गंगा के सम्पादन के क्रम में उनकी सिद्धहस्तता को देखकर श्री रामगोविन्द त्रिवेदी जी ने उनके बारे में लिखा- ‘‘शिवजी लेखों का सम्पादन बड़ी सतर्कता से करते थे। किसी लेख के खटकने वाले वाक्यांशों अथवा वाक्यों को हटाकर नये , अनूठे और प्रभावशाली शब्दों, वाक्यांशों अथवा वाक्यों को रखकर लेख में नगीना जड़ देते थे। किसी लेख के अनगढ़ और लंगड़े पैराग्राफ को काटकर और उस स्थान पर चमत्कारपूर्ण पैरा जोड़कर लेख को मणि-माणिक्य समन्वित कर देते थे। किसी-किसी लेख को तो कलेवर बदलकर उसे ऐसी जानदार और शानदार भाषा में लिख डालते थे कि तबियत फड़क उठती थी।’’ ‘गंगा’ के द्वारा वे कई प्राचीन लेखकों को प्रकाश में लाये और कई नये लेखकों को अवसर प्रदान किया। ‘गंगा’ के स्वामी कुमार कृष्णनन्द सिंह बहादुर और उनके सचिव पंडित गौरीनाथ झा व्याकरणतीर्थ ‘शिवजी’ को बहुत सम्मान देते थे। 

इसी समय राजेन्द्र कॉलेज छपरा की कार्य-समिति ने ‘शिवजी’ से वहाँ प्राध्यापक के रूप में कार्य करने का अनुरोध किया। वहाँ के प्राचार्य महान् साहित्यकार मनोरंजन प्रसाद सिंह थे और हिन्दी विभागाध्यक्ष जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ जी थे जो हिन्दी-जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र थे। यद्यपि शिवजी की शैक्षणिक योग्यता केवल मैट्रिक पास थी, मगर काशी विश्वविद्यालय के दो दिग्गज प्रोफेसर बाबू श्यामसुन्दर दास और पं0 रामचन्द्र शुक्ल की संस्तुति पर शिवजी प्राध्यापक के पद पर राजेन्द्र कॉलेज, छपरा के लिए चयनित हो गये। उस समय राजेन्द्र कॉलेज में हिन्दी-विभाग में श्रद्धेय द्विज जी और शिवजी की उपस्थिति से वहाँ का साहित्यिक वातावरण उल्लसित हो उठा। बाद में द्विज जी के औरंगाबाद चले जाने से शिवजी वहाँ के विभागाध्यक्ष हो गये। आप 15 नवम्बर 1939 को छपरा राजेन्द्र कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक के रूप में आये और वहाँ के वातावरण को हिन्दी की सुगन्ध से आप्लावित करते हुए कॉलेज से छुट्टी लेकर आप 21 अगस्त 1945 को फिर लहेरियासराय आ गये-‘हिमालय’ का सम्पादन करने। इसी बीच दुर्भाग्य भी आपका पीछा करता रहा और तीसरी पत्नी का देहान्त भी 16 नवम्बर 1940 को हो गया। 

इस बार पुस्तक-भंडार ख्लहेरियासराय, में ‘हिमालय’ के सम्पादक के रूप में वे सचमुच हिमालय की ऊँचाई को छूने लगे। अब वहाँ प्रायः रोज ही महान् साहित्यकारों और साहित्य-प्रेमियों की भीड़ जुटने लगी। सर्वश्री नलिन विलोचन शर्मा, राम खेलावन पाण्डेय, नवलकिशोर गौड़, दिवाकर प्रसाद, प्रेमचन्द जी, गुलेरी जी, चण्डी प्रसाद, हृदयेश, द्विज जी, उग्र जी, नवजादिक लाल श्रीवास्तव और बाबू श्यामसुन्दर प्रसाद आदि की साहित्यिक कृतियों पर चर्चा होती। एक तरह से हिन्दी-साहित्य का सारा आकाश ‘शिवजी’ के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ नजर आता था। मगर वे हमेशा सामान्य ही बने रहे।

शिवपूजन सहाय जी हिन्दी के एक ऐसे स्वनामधन्य प्रकाश-स्तम्भ बन गये कि प्रायः हर बड़े आयोजनों में आपके सभापति बनने के लिए आग्रह होने लगा। हिन्दी के प्रति उनका ऐसा प्रेम था कि हर परिस्थिति में वे आग्रह को टाल नहीं पाते थे। 15 फरवरी 1942 को उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य परिषद्’ बरहज ख्गोरखपुर, का सभापतित्व किया तो साहित्य परिषद् सूर्यपुरा, आरा का सभापतित्व 16 मई 1942 को किया। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की जब भी कोई पुस्तक तैयार होती तो शिवपूजन बाबू सूर्यपुरा आकर उनकी पाण्डुलिपि अपने साथ ले जाकर उसकी शुद्धि करके ही छपाई कराते। उस समय के सभी प्रख्यात लेखक अपनी पांडुलिपियाँ शिवजी को देकर निश्चिन्त हो जाते थे। 

कहा जाता है कि जयशंकर प्रसाद जी की ‘कामायनी’ की पांडुलिपि को भी शिवजी ने ही देखा था और उनके द्वारा देख लेने के बाद ही इसकी छपाई हुई थी। दिनकर जी ने अपनी पहली कृति ‘रेणुका’ के प्रकाशन के बारे में लिखा है-‘‘कवि के रूप में लोग मुझे थोड़ा-बहुत पहले भी जान चुके थे। किन्तु पुस्तक-लेखक के रूप में मुझे पेश करने का काम शिवपूजन बाबू ने किया। उन्हीं की संगति से मुझे यह भान हुआ कि शुद्ध हिन्दी लिखने का दावा करना बड़ा ही जोखिम का काम है। और उन्हीं की संगति से मैंने यह शिक्षा भी ली कि कवियों को उनकी भूल दिखानी हो तो यह काम अत्यन्त सहृदयता के साथ करना चाहिए। सचमुच शिवजी अद्भुत भाषा-परिमार्जक के साथ-साथ अद्वितीय प्रूफ-संशोधक और उच्चतम सम्पादक थे।

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के जयपुर अधिवेशन का 25 सितम्बर 1944 को आपने सभापतित्व किया, जिसमें देश के चोटी के साहित्यकार पधारे थे। इसी बीच एक और महती कार्य उन्होंने किया पुस्तक- भंडार के ‘जयन्ती स्मारक ग्रंथ’ के सम्पादन का, जो सन् 1942 में प्रकाशित हुआ। आचार्य शिवपूजन सहाय जी के अथक परिश्रम और कुशल सम्पादन में जो ‘जयन्ती स्मारक ग्रंथ’ निकला वह आज भी बिहार के लिए एक साहित्यिक दस्तावेज है। पुस्तक-भंडार के मालिक आचार्य रामलोचन शरण ख्मास्टर साहब, के द्वारा प्रकाशित मासिक पत्र ‘बालक’ और ‘हिमालय’ का भी सम्पादन शिवजी ने ही किया था। ‘हिमालय’ में तो उस समय के जाने-माने साहित्यकारों के साथ-साथ जयप्रकाश बाबू की भी कुछ कहानियाँ छपी थीं। ‘हिमालय’ अपने समय के सर्वोत्तम सम्पादकत्व का परिचायक था। 

सन् 1947 में बसन्त पंचमी के दिन काशी में ‘निराला स्वर्ण जयन्ती महोत्सव’ धूम-धाम से मनाया गया। हिन्दी-जगत् के मूर्धन्य साहित्यकारों का अद्भुत समागम देखने को मिला। शिवपूजन बाबू और निराला जी हमेशा साथ-साथ ही दिख रहे थे। आयोजकों में समीक्षा-परिषद् की बैठक का सभापतित्व शिवपूजन बाबू ने ही किया। इस बैठक में उद्भट वक्ता थे- डा0 रामविलास शर्मा, पं0 नन्ददुलारे बाजपेयी, प्रो0 जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री , प्रो0 पद्मनारायण आचार्य , पं0 विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि। 

समीक्षा-चर्चा मंे कभी-कभी कुछ कटु शब्द भी उभर आते थे। मगर अपने अध्यक्षीय भाषण में शिवजी ने सबका समाहार प्रस्तुत किया। सारा वातावरण आह्लादित हो उठा। डा0 राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का भी उन्होंने मनोयोगपूर्वक सम्पादन किया। राजेन्द्र कॉलेज से छुट्टी लेकर भी उन्होंने आत्मकथा की छपाई की देख-रेख की और इसके लिए उन्हें प्रयाग [इलाहाबाद] जाकर भी रहना पड़ा। ‘हिमालय’ के सम्पादन के लिए भी उन्हें राजेन्द्र कॉलेज से छुटटी लेना पड़ता था। फरवरी 1948 तक उन्होंने ‘हिमालय’ का सम्पादन किया और किसी कारणवश वहाँ से त्यागपत्र देकर फिर राजेन्द्र कॉलेज में आ गये।

‘बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना सन् 1919 में ही हो गई थी और उसका प्रथम अधिवेशन सोनपुर में हुआ था। इसमें बिहार के चोटी के साहित्यकार भाग लिये थे। इसके बाद सन् 1925 में इसका विराट् अधिवेशन दरभंगा में हुआ था, जिसका सभापतित्व डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने किया था। डा0 राजेन्द्र प्रसाद के साथ ही आचार्य शिवपूजन सहाय और उनके गुरु-तुल्य मित्र पं0 ईश्वरी प्रसाद शर्मा लहेरियासराय के पुस्तक-भंडार के भवन में एक साथ ही ठहरे थे। 

श्री बेनीपुरी जी और श्री शिवपूजन सहाय जी पूरे अधिवेशन में छाये रहे। सन् 1940 के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बिहार प्रान्त का अधिवेशन 5-6 फरवरी 1941 को पटना में हुआ, जिसका सभापतित्व श्री शिवपूजन सहाय जी ने किया। सम्मेलन की पत्रिका ‘साहित्य’ के सम्पादन का भार भी उन्हीं पर दिया गया और अपने जीवन के अन्तिम काल तक वे इस दायित्व को बखूबी निभाते रहे। 11 अप्रैल 1947 को बिहार विधान सभा ने राष्ट्रभाषा परिषद् की स्थापना के लिए प्रस्ताव स्वीकृत किया। मगर 12 अप्रैल 1949 को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह के कार्य-काल में सरकारी आदेश जारी हुआ और पं0 छविनाथ पाण्डेय को परिषद् की व्यवस्था का भार सौंपा गया। अब एक योग्य मंत्री की जरूरत थी, कई सुझाव आने लगे। डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी जो उन दिनों शान्ति निकेतन में थे, उनके नाम का भी प्रस्ताव आया। 

बिहार के शिक्षामंत्री उस समय आचार्य बद्रीनाथ वर्मा जी थे। उन्होंने आचार्य श्री शिवपूजन सहाय के नाम की संस्तुति की, जो उस समय राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। तभी कहीं से दिनकर जी का भी नाम उछला। अन्ततः 19 जुलाई 1950 को आचार्य श्री शिवपूजन सहाय ने हिन्दी साहित्य परिषद् के मंत्री का पद संभाल लिया। कॉलेज से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। हिन्दी साहित्य परिषद् में एक नयी जान आ गई। 11 और 12 मार्च 1951 को तत्कालीन राज्यपाल माधव श्रीहरि अणे के करकमलों द्वारा परिषद् का उद्घाटन समारोह भव्यता के साथ सम्पन्न हुआ। 1 अप्रैल 1956 से आचार्य शिवजी का पद मंत्री से संचालक का हो गया। उन्होंने 31 अगस्त 1959 तक परिषद् की उल्लेखनीय और अनुकरणीय सेवा की। उनके कार्य-काल में परिषद् को पंख लग गये। उनके समय में परिषद् ने साठ गौरव-ग्रंथ प्रकाशित किए। अनुसंधान पुस्तकालय का गठन कराकर उसमें दस हजार दुलर्भ पुस्तकें मंगवायी। अपने कार्य-काल में उन्होंने अनेक चोटी के विद्वानों की भाषण-माला आयोजित करवायी। इस भाषण माला में डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल, आचार्य विनय मोहन शर्मा, डा0 जनार्दन मिश्र, महामहोपाध्याय गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी आदि चोटी के विद्वानों ने भाग लिया। 

शिवजी के समय में नौ वयोवृद्ध साहित्यकारों को साहित्य-सम्मान पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके पुरस्कार योजनाओं से पुराने और नये लेखकों को सम्मानित किया गया। बिहार के साहित्यिक इतिहास का लेखन और सम्पादन करके शिवजी ने एक अत्यन्त महान् कार्य किया। ‘‘हिन्दी साहित्य और बिहार’’ ख्प्रथम खंड, में आपने बिहार के साहित्यकारों का परिचय एवं उनकी कृतियों का विवेचन प्रस्तुत कर एक श्लाघनीय कार्य किया। इसका दूसरा खंड भी वे लिख चुके थे मगर उनके निधन के बाद ही वह प्रकाशित हुआ। इस इतिहास को चार खण्डों में प्रकाशित करने की उनकी योजना थी, पर दुर्भाग्य से बीच में ही विधि ने उन्हें हमसे छीन लिया।

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के मंत्री के रूप में उन्होंने ‘राजेन्द्र अभिनन्दन ग्रंथ’ का सम्पादन किया। डा0 राजेन्द्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बन चुके थे। इस अभिनन्दन ग्रंथ में देश के चोटी के विद्वानों से लेख लिखवाकर शिवपूजन सहाय जी ने इसे सचमुच अभिनन्दनीय बना दिया था। हमेशा साधारण रह कर ही उन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया ।

उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए जितना किया उतना उन्हें सम्मान नहीं दिया गया। वे सम्मान की आशा में काम करते भी नहीं थे। उन्होंने हिन्दी के लिए जो कुछ भी किया उसे अपना समझ कर किया। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के तृतीय वार्षिकोत्सव में 22 अप्रैल 1954 को आचार्य नरेन्द्रदेव द्वारा उन्हें ‘वयोवृद्ध साहित्यकार’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया और उन्हें ताम्रपत्र के साथ पुरस्कार राशि के रूप में डेढ़ हजार रुपये दिये गये। उन्होंने पुरस्कार की यह राशि बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन को अपनी तीसरी पत्नी की पुण्य स्मृति में ‘श्रीमती बच्चन देवी साहित्य-गोष्ठी’ चलाने के लिए दे दी। इस गोष्ठी का विधिवत् उद्घाटन 4 जुलाई 1954 को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन द्वारा किया गया। परिषद् द्वारा सन् 1956 से 1959 तक ‘शिवपूजन रचनावली’ के चार खंड प्रकाशित किए गये।

सन् 1954 में शिवजी के बड़े पुत्र आनन्द मूर्ति के विवाह में देश के चोटी के साहित्यकार के साथ बड़े-बड़े नेता भी शामिल हुए। सम्पादकाचार्य पराड़कर जी, कलाविद् रामकृष्ण दास, पं0 विनोदशंकर व्यास, डा0 मोतीचन्द्र, डा0 वासुदेवशरण अग्रवाल, श्री रामचन्द्र वर्मा आदि के साथ श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी भी थे। यह भी एक मंगलमय साहित्यिक आयोजन बन गया था। 1 सितम्बर 1959 को बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के निर्देशक के पद से आप सेवा-निवृत्त हो गये, मगर हिन्दी-सेवा के कार्य से वे जीवन-पर्यन्त निवृत्त नहीं हुए।

 बिहार के साहित्यिक इतिहास के दो खंड वे लिख गये थे, इसे ही वे अपने जीवन का अन्तिम और एक मात्र कार्य कहते थे। मगर दो भाग प्रकाशित हो पाये और लिखने वाला ही हमारे बीच से चला गया। 26 जनवरी 1960 को भारत सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से विभूषित किया गया। उस समय उन्होंने अपनी डायरी में लिखा-‘‘आज अखबारों में खबर छपी कि मुझे भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ की उपाधि दी है। बंगला के यशस्वी कवि नजरुल इस्लाम और हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ को भी यही उपाधि मिली है। यह राम जी की कृपा का ही फल है। मेरे समान अकिंचन के लिए यह  उपाधि वस्तुतः उपाधि ही है।’’ कितनी साफगोई है इस युक्ति में! सचमुच वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे।

9 अगस्त 1961 को उनकी 68वीं वर्ष गाँठ पर पटना नगर निगम द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। अपने भाषण में उन्होंने अनन्य हिन्दी-सेवी का परिचय दिया। 3 मार्च 1962 को भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें मानद डि0 लिट्0 की उपाधि प्रदान की गई। इसी अवसर पर महापंडित राहुल सांकृत्यायन, जयप्रकाश नारायण, रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ और लक्ष्मीनारायण सुधांशु जी को भी भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा डि0 लिट्0 की मानद उपाधि दी गई। इसी वर्ष माननीय जयप्रकाश जी के अनुरोध पर स्वास्थ्य में गिरावट आने पर भी उन्होंने डा0 राजेन्द्र प्रसाद को समर्पित होने वाले अभिनन्दन ग्रंथ ‘बिहार की महिलाएँ‘ का सम्पादन स्वीकार कर लिया। शरीर साथ नहीं दे रहा था। कई बीमारियाँ घेरा डाल चुकी थी। 

इसी बीच साहित्य के सहयोगी सम्पादक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का भी देहावसान हो गया। उनकी स्मृति में नवम्बर 1962 के साहित्य का ‘नलिन स्मृति अंक’ प्रकाशित हुआ। शिवजी की आँखें भी अब जवाब दे चुकी थी। उसी समय उन्होंने 29 मार्च 1962 के एक पत्र में लिखा- ‘‘आँखों ने ज्ञान के द्वार बन्द कर दिये, किसी तरह स्मरण-शक्ति के सहारे ‘साहित्य’ की टिप्पणियाँ लिख लेता हूँ, नहीं तो सारा काम मेरे आदरणीय मित्र नलिन जी ही करते हैं।’’ फिर नलिन जी भी चले गये और देखते-देखते 21जनवरी 1963 की ब्रह्मबेला में 3ः15 बजे ‘शिवजी’ ने भी सदा के लिए अपनी आँखें मूंद ली। बिहार में साहित्यिक वीरानता छा गई। पटना श्रीहीन हो गया। पटना के बाँस घाट पर उनकी अन्त्येष्टि में सारा पटना उमड़ पड़ा था।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी श्रद्धांजलि में लिखा-’’शिवजी के अभाव में पटना शून्य-सा प्रतीत होने लगा है। शिवजी और नलिनजी पटना की विभूति थे। पटना जाने का मुख्य आकर्षण उनके दर्शन का हुआ करता था। न जाने विधाता ने पटना को श्रीहीन करके कौन-सा उद्देश्य सिद्ध किया है।’’

डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी भाव-भीनी श्रद्धांजलि में उन्हें हिन्दी-साहित्य का मूक सेवक कहा था। उन्होंने यह भी कहा- ‘‘मेरे ऊपर तो सदा उनका बहुत स्नेह रहा। और उनके निधन से समस्त हिन्दी-जगत् को बड़ी क्षति पहुँची है।’’

शिवपूजन सहाय जी ने करीब 40 वर्षों तक हिन्दी की अनवरत सेवा की। अपनी साहित्यिक साधना में उन्होंने करीब तेरह पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादक बनकर उसे सँवारा था और अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। उनकी ‘मुण्डमाल’ कहानी और ‘कहानी का प्लाट’ आज भी हिन्दी-जगत् की श्रेष्ठतम कहानियों में गिनी जाती हैं। ‘देहाती दुनिया’ उपन्यास में आँचलिकता की मर्मस्पर्शी छाप है। जैसे गुलेरी जी की कहानी ‘उसने कहा था’ अब भी जीवन्त लगती है, जैसे पे्रमचन्द की ‘बूढ़ी काकी’ अभी भी आँखों में समा जाती है, जैसे राजा राधिकारमण-प्रसाद की कहानी ‘कानों में कंगना’ अभी भी कानों में आकर कुछ कह जाती है, उसी तरह शिवजी की ‘कहानी का प्लाट’ अभी भी एक चिरनवीन कहानी के रूप में याद की जाती है और सम्भवतः आगे भी याद की जाती रहेगी। शिवजी का बहुआयामी व्यक्तित्व था और उनके पास अपने युग का साहित्यिक इतिहास था।

प्रख्यात कहानीकार और उपन्यासकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ने शिवजी को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए लिखा-‘‘आज रह-रह कर मुझे लगता है कि शिवजी के स्नेह का वह अनुदान न होता तो क्या आज इस लेखनी में वह जान आ पाती-वह शैली-शिल्प का अभियान आ पाता? मुझे साहित्य की ज्योतिर्मयी पंक्ति में बैठाने वाले शिवजी ही हैं।’’

      फादर कॉमिल बुल्के ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा-‘‘परलोक में पहुँचने पर मुझे अपनी जन्म-भूमि के कम लोगों से मिलने की उत्सुकता रहेगी, क्योंकि वहाँ के कम लोगों से ही मेरा निकट का सम्पर्क हो पाया है। अपनी नई मातृभूमि भारत के बहुत से अच्छे-अच्छे लोगों का मुझे परिचय प्राप्त हो सका है, और उनमें एक शिवपूजन जी हैं। परलोक में पहुँच कर मुझे उनसे मिलकर अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव होगा और मैं उनके सामने नतमस्तक होकर उनको धन्यवाद भी दूँगा कि उनसे मैंने जान लिया था कि विनय का वास्तविक स्वरूप क्या है। ’’
हिन्दी के महान् सेवक सेठ गोविन्ददास ने उनके बारे में लिखा-‘‘बिहार की इस विभूति के सान्निध्य-संपर्क में आकर अनेक बार यह निर्णय करने में नितान्त असमर्थ हो जाते हैं कि शिवपूजन सहाय जी अपने व्यक्तिगत रूप से बड़े हैं अथवा अपने कृतित्व रूप से। यही उनकी बड़ाई थी, जिसका आज के साहित्य के साहित्यकार को अनुसरण करना चाहिए।’’

श्री रंजन सूरिदेव ने उन्हें सम्पादकाचार्य की उपाधि से अलंकृत करते हुए उनके निधन पर श्रद्धांजलि के रूप में लिखा था-‘‘आचार्य शिवजी हिन्दी-साहित्य  के जीवन्त जंगम ऐतिहासिक विश्वकोश थे। जब वे अतीत के साहित्य-सर्जकों की मृदुल-मधुर स्मृतियाँ उरेहने लगते, तब सुनने वाले आप्यायित-आप्लावित हो उठते। और तभी उनके सदाशयी हृदय का पता चलता।’’

उस समय के प्रख्यात साहित्यकार छविनाथ पाण्डेय ने शिवजी के बारे में लिखा -‘‘उन्होंने अपनी हड्डियों को घिस-घिस कर राष्ट्रभाषा के मस्तक पर तिलक लगाया। शिवजी सच्चे साहित्य-सेवी थे। बल्कि यों कहना चाहिए कि साहित्य-सेवियों के वे आदर्श थे।’’

शिवजी के साहित्यिक मित्र रामगोविन्द त्रिवेदी जी ने उनके सम्बन्ध में लिखा-‘‘उनकी प्रत्येक धमनी और हरेक नाड़ी में हिन्दी का अनन्य अनुराग अनुस्यूत था। हिन्दी की सेवा के नशे में वे आकंठ और आपाद निमग्न थे। इस लिए दुर्दम्य दुःख को झेलकर और हिन्दी के चरणों में सभी कारुणिक कष्टों को अर्पित कर वे नये जोश-खरोश से हिन्दी-सेवा में पुनः लग जाते थे।’’

भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र माधव ने उनके बारे में लिखा-‘‘साहित्य के क्षेत्र में शिवजी का वही स्थान था और रहेगा, जो राजनीति के क्षेत्र में देशरत्न राजेन्द्र बाबू का है।’’

शिवपूजन सहाय जी के निधन पर अश्रुपूरित नेत्रों से हिन्दी-साहित्य के प्रायः सभी महान् साहित्यकार, राष्ट्र के महान् नेता और शिक्षाविदों ने अपनी श्रद्धांजलि दी। लगता था हिन्दी-साहित्य के आकाश में अँधेरा छा गया है। शिवजी का शिवत्व सबको कुछ लिखने के लिए बाध्य कर रहा था। 

साहित्य-लेखन के सम्बन्ध में शिवजी कहा करते थे-‘‘साहित्य युग का आइना है। वह पूर्ण सावधानी से रचा जाना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियाँ उसकी भूल पर उँगली न उठा सके।’’ इस प्रकार की रचना-धर्मिता के लिए उनके जैसी एक पवित्र ईमानदारी चाहिए।

वे गंगा की तरह पवित्र और निश्छल थे। अपने छोटे भाई देवनन्दन सहाय को नसीहत देते हुए उन्होंने कहा था-‘‘अपने से बलवान् से भी डरो मत और न अपने से कमजोर को डराओ! कभी प्रतिष्ठित बनने की या ऊँचा बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। प्रतिष्ठा और ऊँचाई स्वतः अच्छे कर्म से प्राप्त होती है। परिवार में जो गिरा हुआ है, सदा उसको ऊपर उठाने की कोशिश करनी चाहिए! अपने लाभ के लिए कभी किसी का बुरा मत सोचो ! किसी की उन्नति से प्रसन्न होना सीखो, ईर्ष्या कभी मत करो ! बिना बुलाये किसी सभा या उत्सव में मत जाओ ! सभा में सदा सोच-समझ कर ही बोलना चाहिए।’’ मैं समझता हूँ कि इस नसीहत में उनके व्यक्तित्व की गंगा का पूरा दिग्दर्शन हो जाता है। 

डा0 विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में-‘‘वे यश नहीं चाहते थे, दूसरों को यश देना चाहते थे। वे स्वयं बहुत लिख सकते थे और उनकी सहज अभिव्यक्ति कथाकार के रूप में, निबन्धकार के रूप में आज भी प्रतिमान है, परन्तु उन्होंने अपना समय दूसरों के प्रकाशपुंज बढ़ाने में लगा दिया।’’ शायद कम-से-कम शब्दों में ‘शिवजी’ का यह साहित्यिक तपस्वी का परिचय हृदय को छू जाता है। सच कहें तो हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के योग्य बनाने का श्रेय शिवपूजन सहाय जी जैसे साहित्य-सेवियों को ही जाता है।

 वे हिन्दी के तपस्वी मनीषी थे, मनस्वी चिन्तक थे और यशस्वी साहित्य-सेवी थे। विनय और शील के मूर्तमान् रूप, हिन्दी-साहित्य-मन्दिर के निष्ठावान् पुजारी, एक साहित्यिक संत और साहित्य मनीषी तथा हिन्दी की संजीवनी शक्ति के प्रतीक ‘शिवजी’ जैसा व्यक्तित्व युग का प्रतिबिम्ब बन जाता है। उनकी रचना का संसार भले ही आकाश का विस्तार नहीं पा सका हो, मगर उसमें आकाश की ऊँचाई और सागर की गहराई अवश्य है। शिवजी हिन्दी के सच्चे प्रहरी के रूप में सदैव याद किए जायेंगे। साहित्य-कर्म को समर्पित ऐसे हिन्दी-साहित्य के मनीषी को शत-शत नमन! मेरा भी कवि-मन उनके सम्मान में कुछ कहने के लिए आतुर हो उठा है। तो लीजिए, लेख की समाप्ति अपनी स्वरचित कविता की कुछ पंक्तियों से ही कर रहा हूँ

बहुत कुछ लिखा भी, पर दूसरों से खूब लिखाया,
स्वयं की चिन्ता नहीं की, दूसरों का घर सजाया,
अनन्य हिन्दी-सेवी बनकर, मान हिन्दी का बढ़ाया,
शिव-सा स्वयं गरल पीकर, हिन्दी को अमृत पिलाया।
विनय मूर्ति, उदार चेता, हिन्दी के थे सजग प्रहरी,
हर विधा में सिद्ध थे, थी विज्ञ-दृष्टि जिनकी गहरी,
शुद्ध-हिन्दी, प्रबुद्ध-हिन्दी, ग्राम्य-हिन्दी और शहरी,
उनके हाथों से उठी औ गगन में जाके वो ठहरी।
‘पद्म भूषण’ भी बने पर ‘हिन्दी-भूषण’ मन को भाया,
बने परिषद् के निदेशक ‘अहं’ पर किंचित् न आया,
दिया सबको बहुत पर अपने कहीं से कुछ न पाया,
किया अभिनन्दन सभी का शब्द की दे मृदुल छाया।
थे तपोधन, और मन से किए हिन्दी को वरण वे,
शब्द के शंृगार से सज्जित किए हिन्दी-चमन वे,
यज्ञ-ज्योति-सा जले औ कर दिए खुद को हवन वे,
कीर्ति के आलोक से चमका दिए हिन्दी-गगन वे।

साहित्यकारों के इस यशस्वी साहित्यकार को शत-शत नमन!
 
Sukhnandan singh Saday
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