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लाला लाजपत राय | LALA LAJPAT RAI

महान क्रान्तिकारी - लाला लाजपत राय

 
नाम- लाला लाजपत राय

जन्म- 28 जनवरी 1865

जन्म स्थान- ढुंढके ग्राम, पंजाब।

पिता- मुंशी राधाकिशन।

माता- श्रीमती गुलाब देवी।

मृत्यु- 17 नवम्बर 1928

मृत्यु के समय उम्र- 63 साल नौ महीना उन्नीस दिन [६३ वर्ष ९ महीना १९ दिन]

मृत्यु स्थान- लाहौर, बर्तानवी भारत [अब पाकिस्तान ]



भारतीय राजनीति के जाज्वल्यमान् नक्षत्र, भारतीय सांस्कृतिक के अन्यतम उन्नायक, राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत और आध्यात्मिक चिन्तन के गौरव पुरुष लाला लाजपत राय का नाम भारतीय इतिहास में एक अनुपम धरोहर के रूप में सदैव अंकित रहेगा। उन्होंने राजनीतिक चेतना को सांस्कृतिक गौरव के साथ, सस्कृतिक चेतना को अध्यात्म-चिन्तन के साथ एवं जीवन के समग्र कार्य-कलापों को राष्ट्रीय भावना के साथ जोड़ने का जो महान् कार्य किया-वह देश की स्वतन्त्रता के इतिहास में अविस्मरणीय रहेगा। वे एक साथ ही राष्ट्रवादी राजनेता, एक प्रखर समाज-सुधारक, सामाजिक एकता के एक अग्रणी योद्धा और भारतीय संस्कृति के सबल संरक्षक के रूप में प्रतिष्ठित नजर आते हैं।

पंजाब के ढुंढके ग्राम में 28 जनवरी 1865 को पिता मुंशी राधाकिशन और माता श्रीमती गुलाब देवी को एक पुत्ररत्न हुआ जो आगे चलकर भारतीय इतिहास में लाला लाजपत राय के नाम से विख्यात हुए। इस महान् पुरुष के साथ यह एक बिडम्बना ही रही कि इनके दादा जैनधर्म को मानते थे, पिता इस्लाम धर्म से प्रभावित थे। ऐसी परिस्थिति होना और इसी जिज्ञासा ने उन्हें हिन्दू-धर्म के विभिन्न पक्षों को गहराई से जानने के लिए प्रेरणा प्रदान की। एक मेधावी छात्र के रूप में उन्होंने अपनी विश्वविद्यालय में मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।

अध्ययन के क्रम में 1885 में वकालत की परीक्षा पास करने के बाद वे समाज-सेवा के साथ-साथ वकालत भी करने लगे। इस व्यवसाय में उन्हें वैचारिक परिपक्वता के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक चिन्तन का भी पुष्ट आधार मिलता गया और इसी क्रम में वे आर्य-समाज के कार्याें में भी अभिरुचि लेने लगे। यद्यपि अपने विद्यार्थी-जीवन में ही वे आर्य-समाज के सम्पर्क में आ चुके थे मगर 1883 में लाहौर डी0ए0वी0 की स्थापना में उनकी सक्रिय भूमिका रही और वहीं से वे समाज-सुधार के कार्य में विशेष दिलचस्पी लेने लगे। बाद में तो वे अपनी समस्त आय ही आर्य-समाज तथा डी0ए0वी0 काॅलेज को दान देते रहे और अपना खर्च बिल्कुल सीमित कर दिए।
लाला जी के पिता मुंशी राधाकिशन जी सर सैय्यद अहमद से बहुत प्रभावित थे। सर सैयद अहमद ने इस्लाम-धर्म की व्याख्या साम्प्रदायिक संकीर्णता से हट कर की थी और उनकी इस उदार-व्याख्या का बहुत से विद्वानों ने स्वागत किया था। यह बात अलग है कि बहुत से व्यक्तियों के जीवन में कभी-कभी विरोधाभास के लक्षण भी उभर आते हैं। सर सैय्यद अहमद के व्यक्तित्व में भी यह विरोधाभास नजर आता है जब वे भी संकीर्णता की चौखट में अपने विचारों को बाँध देते हैं। यही कारण था कि लाला लाजपत राय ने सर सैयद अहमद के संकीर्णवादी विचारों का खुलकर विरोध किया और अपने खुले पत्रों में उनके ही पूर्व-विचारों को रखते हुए उनकी तत्कालीन वार्ता का खंडन किया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वे उनके विचारों का आदर करते थे मगर समय के घुमते चक्र के साथ उनके विचारों में हुए परिवर्तन के प्रति उनकी आस्था नहीं थी। उस समय लालाजी की अवस्था केवल 23 वर्ष की थी मगर अपनी निर्भीक लेखनी के बल पर वे एक सत्यनिष्ठ राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने लगे थे। अपने पत्रों के माध्यम से सर सैय्यद अहमद द्वारा की गई कांग्रेस की आलोचनाओं का उत्तर देने के कारण ही राष्ट्रीय कांग्रेस में जाने के लिए उनकी भूमिका प्रशस्त हुई।
लालाजी के हिन्दुत्व-सम्बन्धी ज्ञान से और सर सैयद अहमद की आलोचना से उनके पिताजी का भी इस्लाम से मोह भंग हुआ और बाद में वे भी हिन्दू-धर्म के प्रशंसक बन गये। 1888 में जब कांग्रेस का अधिवेशन इलाहाबाद में हो रहा था तो उसमें भाग लेने के लिए प्रयाग पहुँचने पर उनके स्वागत के लिए महामना मदनमोहन मालवीय, पंडित अयोध्यानाथ तथा कांग्रेस संस्थापक ह्युम स्वयं स्टेशन आये थे। इस अधिवेशन में भाग लेने के साथ ही लालाजी का कांग्रेस में पदार्पण  हुआ और उसकी गतिविधियों में वे सक्रियता से जुड़ गये। 
कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन 1893 में सम्पन्न हुआ और इसी अधिवेशन में लालाजी का सम्पर्क गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक से हुआ। राजनीति के क्षेत्र में उनका सम्पर्क भगिनि निवेदिता से भी हुआ जो सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में कार्य करने के बावजूद हिन्दूधर्म का अच्छा ज्ञान रखती थी। इस भेंट के सम्बन्ध में लालाजी ने एक जगह लिखा है-‘‘वे ब्रिटिश राज्य से अत्यन्त घृणा करती थीं और उन्हें भारतवासियों से बड़ा प्रेम था। राजनीति में उनके वही सिद्धान्त थे जिनकी व्याख्या भगिनी ने की थी। इस मुलाकात से मेरे विचारों तथा विश्वास को पुष्टि प्राप्त हुई और मुझे अपार हर्ष हुआ।’’

1905 में  लालाजी भारत से कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैंड गये। लन्दन में  श्यामजीकृष्ण वर्मा ‘इंडिया हाउस‘ नामक एक भवन का संचालन करते थे और ‘इण्डियन सोसियोलाॅजिस्ट’ नाम की एक पत्रिका का सम्पादन भी करते थे। श्यामजीकृष्ण वर्मा भारतीय क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत थे और इंग्लैंड में अध्ययनरत भारतीय विद्यार्थियों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र थे। लन्दन में श्री वर्मा ने लाला लाजपत राय को ‘इंडिया हाउस’ में ठहरने का निमन्त्रण दिया। श्यामजीकृष्ण वर्मा कांग्रेस में नरमपंथियों के प्रबल विरोधी थे और लाला लाजपत राय के विचारों से साम्य रखते थे। लालाजी कुछ दिन इंडिया हाउस में रहने के बाद इंग्लैंड और स्काॅटलैंड की यात्रा पर चल पड़े। इसके बाद वे संयुक्त राज्य अमेरिका का भ्रमण भी करने गये। वहीं से लौटने के बाद वह भारत के लिए प्रस्थान किये। लन्दन में लालाजी ने पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ भाषण दिया और भारत की स्वतन्त्रता के लिए खुलकर अपना मुद्दा रखा। इंग्लैंड से भारत वापस आने पर लाहौर में उनका अभूतपूर्व स्वागत हुआ और अपने भाषण के क्रम में उन्होंने अन्त में कहा-‘‘मुझे भारत के राष्ट्रीय आकाश से रक्त की वर्षा होती दिखाई दे रही है।’’ यह भाषण अंग्रेजों के प्रति युद्ध की घोषणा के रूप में एक चेतावनी थी। उनके भाषण से निकली आग की चिन्गारी ने हजारों युवकों को बलिदान के लिए प्रेरित किया।

इसके बाद 1905 में कांग्रेस के बनारस-अधिवेशन में वे लोकमान्य तिलक और विपिनचन्द्र पाल के साथ गरम-दल प्रमुख प्रवक्ता के रूप में उभर कर सामने आये। उन्होंने इस अधिवेशन में बोलते हुए कहा-‘‘.....हमें अंग्रेजों को यह दिखा देना चाहिए कि हमें होश आ गया है और अब हम भिखारी नहीं हैं। हमें अपने जन्मसिद्ध अधिकारों के लिए लड़ने का उतना ही अधिकार है, जितना ब्रिटिश-साम्राज्य की किसी अन्य दलित प्रजा को है। यदि हम कच्चे इरादों के होंगे तो आजादी की देवी नजदीक नहीं फटकने देंगी।......तुम कायर मत बनो। मरते दम तक अपने पुरुषत्व का सबूत दो।’’

उस समय कांग्रेस के मंच से इस प्रकार का क्रांतिकारी भाषण देना अत्यन्त साहस का काम था। समस्त जनसमूह उनके इस ओजस्वी भाषण से मंत्रमुग्ध हो गया था। और सच पूछा जाय तो इसी भाषण से कांग्रेस में गरम-दल की नींव पड़ी थी। गरम दल के प्रवक्ता के रूप में पाल, बाल, और लाल यानी विपिन चन्द्र पाल, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय का नाम जनमानस में अपना घर बनाने लगा और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में इस त्रिमूर्ति ने एक जुझारू राजनीति को जन्म दिया। इसी त्रिमूर्तियों के जोर देने से स्वराज्य, स्वदेशी तथा विदेशी का बहिष्कार कांग्रेस की प्रमुख नीतियाँ बन गई। इसी समय ‘पंजाबी’ पत्र में विदेशी बहिष्कार आन्दोलन की आवाज उठी। यद्यपि इसके  सम्पादक मि0 अथेले थे मगर इसके संचालक तथा नियमित लेखक लाला लाजपत राय ही थे। पत्र के सम्पादक और प्रकाशक पर झूठे मुकदमे चलाकर उन्हें दंडित किया गया। जिसके विरोध में लालाजी ने न्याय के दरवाजे खटखटाये और जनता का भी इसके विरोध में आवाज बुलन्द करने का आह्वान किया। सरकार उनसे क्रुद्ध हो गई और 9 मई 1907 को उन्हें देश निष्कासन का आदेश दिया गया। उन्हें वर्मा स्थित माण्डले की प्रसिद्ध ऐतिहासिक जेल में लाया गया जहाँ उनका अधिकांश समय स्वाध्याय तथा लेखन-कार्य में व्यतीत होता था। यहीं पर उन्होंने भगवद्गीता का भी गहन अध्ययन किया। ब्रिटिश-संसद में भी लालाजी के निर्वासन पर डा0 बी0एच0 रदरफोर्ड ने ब्रिटिश भारत मंत्री मार्ले से प्रश्नों की झड़ी लगा दी। मार्ले की प्रतिष्ठा को भी आघात पहुँचा और अन्ततः उन्हें संसद छोड़नी पड़ी। अन्त में 11 नवम्बर 1907 को लालाजी को वहाँ से रिहा कर दिया गया और वे 18 नवम्बर को लाहौर आ गये।

माण्डले से लौटने पर लालाजी की प्रसिद्धि और बढ़ गई और वे राष्ट्रीय भावना के पर्याय बन गये। लालाजी क्रान्तिकारियों की देशभक्ति के प्रशंसक थे। लाहौर बम केस के दो अभियुक्त बलराज तथा बालमुकुन्द लाला लाजपत राय के स्नेह पात्र थे। अतएव जब वे 1913 में कांग्रेस के शिष्ट मंडल में इंग्लैंड जाने की तैयारी कर रहे थे- तब यह अफवाह फैला दी गई कि वे भी इस कांड से सम्बन्धित है। अतएव वे उस समय इंग्लैंड नहीं जा सके। मगर बाद में वे इंग्लैंड गये। इसी समय प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया। इसमें जर्मनी, आस्ट्रेलिया, हंगरी और टर्की एक ओर हो गये तथा फ्रांस, रूस, इंग्लैंड आदि दूसरी ओर। इस समय अंग्रेजों के प्रति राजभक्ति दिखलाने वालों की संख्या बढ़ रही थी मगर लालाजी इस विचार से सहमत नहीं थे।

इसी बीच महात्मा गाँधी ने एक समिति गठित कर उसका सदस्य लाला लाजपत राय को भी बनाया मगर समिति की सदस्यता मान लेने के बावजूद भी लालाजी अन्धे भक्त बनकर अंग्रेजों की सहायता करने के पक्ष में नहीं थे। इंग्लैंड से लालाजी अमेरिका और फिर वहीं से जापान चले गये। मगर इसी समय जापान भी मित्र-राष्ट्रों के साथ यानी इंग्लैंड, फ्रांस के साथ युद्ध में मिल गया। इसलिए लालाजी फिर अमेरिका वापस आ गये। यहाँ पर ‘गदर पार्टी’ के नेताओं से आपका परिचय हुआ। लालाजी ने स्पष्ट रूप से क्रान्तिकारियों को परामर्श देते हुए कहा था-‘‘केवल शहीद बनने के लिए व्यक्ति को अपने को मृत्यु के मुँह में धकेलना मूर्खता है। क्रान्ति के स्वरूप, महत्त्व, उद्देश्य, साधन तथा सिद्धि पर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

अमेरिका में भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए लालाजी ने जो कार्य किया वह एक प्रशंसनीय प्रयास कहा जा सकता है। इस बार दीर्घ-प्रवास के बाद 1920 फरवरी में लालाजी भारत वापस लौटे। इसी साल कलकत्ता अधिवेशन में  वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। मगर इसी बीच 1 अगस्त 1920 को लोकमान्य तिलक के स्वर्गारोहण से वे मर्माहत हो उठे। फिर भी अधिवेशन में अपने भाषण से उन्होंने स्वराज्य-प्राप्ति के लिए शंखनाद किया। गाँधीजी ने इसी बीच असहयोग आन्दोलन का नारा बुलन्द कर दिया था। लालाजी इस असहयोग आन्दोलन से सहमत होते हुए भी इसमें कुछ परिवर्तन के हिमायती थे। उनका स्पष्ट मत था कि स्कूलों और काॅलेजों के विद्यार्थियों द्वारा पढ़ाई का बहिष्कार नहीं होना चाहिए । आज यह बात समझ में आती है कि लालाजी का विचार कितना दूरगामी था। वे सचमुच भविष्यद्रष्टा थे।

3 दिसम्बर 1921 को प्रांतीय कांग्रेस की लाहौर में एक बैठक बुलाई गई। इसी समय सरकार द्वारा सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया और इस बैठक में उपस्थित साथियों के साथ लालाजी को गिरफ्तार कर लिया गया। विभिन्न प्रकार के झूठे मुकदमे दायर करने के बाद 1 मार्च 1922 को उन्हें दो वर्ष के सश्रम कारावास का दंड दिया गया। 16 अगस्त 1923 को स्वास्थ्य के आधार पर उन्हें जेल से मुक्त कर दिया गया। लालाजी स्वास्थ्य-लाभ के लिए कराची आ गये।

लालाजी एक निर्भीक विचारक थे। दिसम्बर 1922 में मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास द्वारा ‘स्वराज्य दल’ की स्थापना की गई। पंडित मोतीलाल नेहरू के आग्रह पर  वे इस दल में आ गये लेकिन उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि स्वराज्य-दल में आने के बाद भी उनके पत्रों पर दल का कोई नियन्त्रण नहीं रहेगा। बाद में उन्होंने स्वराज्य-दल को छोड़ दिया और मालवीय जी के सहयोग से स्वतन्त्र पार्टी की स्थापना की और चुनाव में विजयी हुए।

लाला जी के सहपाठी गुरुदत्त और हंसराज आर्य-समाज में आ चुके थे। दिसम्बर 1882 में ही लालाजी भी आर्य-समाज के सदस्य बन गये थे और उस समय उन्होंने कहा था कि यह मेरे जीवन का एक सार्थक और सफल अध्याय माना जायेगा। तब से लेकर आजीवन वे आर्य-समाज के कार्यों में सक्रिय योगदान देते रहे और अनेकों शिक्षण-संस्थाएँ तो उनके मार्गदर्शन में पल्लवित होती रहीं।

लालाजी का लेखन-कार्य भी अनेक व्यस्तताओं के बावजूद निर्बाध रूप से चलता रहा। 1895 से 1900 के बीच में आपने मैजिनी, गैरीबाल्डी, स्वामी दयानन्द, शिवाजी तथा श्रीकृष्ण की जीवनियाँ लिखीं। इसके बाद उन्होंने विश्व के अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ लिखकर एक महान् ऐतिहासिक कार्य किया।

पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उनका योगदान उदाहरणीय रहा। उन्होंने ‘वन्दे मातरम्’ का सम्पादकत्व किया तथा अंग्रेजी-पत्र ‘पीपुल्स’ के सम्पादन का भार भी अपने ऊपर लिया। दिल्ली में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ पत्र की स्थापना में भी लालाजी का योगदान सराहनीय रहा। 1927 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए लालाजी ने ‘पीपुल्स’ में एक लेख लिखा और देशवासियों से इस कमीशन का पूर्ण बहिष्कार करने का आह्वान किया। 2 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन बम्बई पहुँचा। 3 फरवरी को सम्पूर्ण देश में हड़ताल हुई। 19 मार्च को यह कमीशन लाहौर पहुँचा। बहिष्कार-दल का जुलूस शान्तिपूर्वक तरीके से नारे लगाते लाहौर दरवाजे के बाहर आया, तभी जुलूस पर लाठी-चार्ज कर दिया गया। अनेकों को सख्त चोटें आयी। देश में इसका सख्त विरोध हुआ और ’साइमन वापस जाओ’ के नारे के साथ सारा देश उबल पड़ा। 31 मार्च 1928 को साइमन कमीशन वापस चला गया। मगर दूसरे सर्वेक्षण के लिए पुनः 11 अक्टूबर 1928 को लाहौर आने पर बहिष्कार करने वालों का नेतृत्व स्वयं लालाजी कर रहे थे। इधर पुलिस अधीक्षक स्कार्ट तथा सहायक अधीक्षक सैंडर्स लाठीचार्ज के लिए तैयार थे। अचानक ही प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की लाठियाँ बर्बरतापूर्ण ढंग से चलने लगी। क्रान्तिकारी लालाजी को घेर कर खड़े हुए थे। इतने में एक लाठी लालाजी के छाते पर पड़ी । छाता टूट गया फिर तो लाठियाँ उनके कंधों तथा सिर पर पड़ी। लालाजी लहूलुहान हो गये।

उसी शाम को लाहौर के मोरी दरवाजे पर पुलिस के इस अमानुषिक अत्याचार के विरोध में एक विराट् सभा हुई जिसमें घायल अवस्था में भाषण देते हुए लालाजी ने कहा- ‘‘मैं घोषणा करता हूँ कि मुझ पर जो लाठियाँ पड़ी है वह भारत में अंग्रेजी राज्य की अर्थी की अन्तिम कीलें सिद्ध होंगी।’’ सचमुच में लालाजी की भविष्यवाणी सत्य हुई। अंग्रेजी राज्य की अर्थी बनने का कार्य इसी दिन से प्रारम्भ हो चुका था। लालाजी ने अंग्रेजों को चेतावनी देते हुए कहा था-‘‘यदि मैं मर गया और जिन नवयुवकों को मैंने अपने काबू में रखा था, उन्होंने अन्य मार्ग ग्रहण करने का निश्चय किया तो मेरी आत्मा उनके कार्य को आशीर्वाद देंगी।’’

’’इधर सामान्य रूप से चोट की चिकित्सा चल रही थी और इसी अवस्था में लालाजी अपने कार्यों को भी करते जा रहे थे। मगर विधि को कुछ और ही मंजूर था। इसी चोट का आन्तरिक परिणाम यह हुआ कि लालाजी 17 नवम्बर 1928 को महाप्रस्थान कर गये। सारा देश इस शोक से सन्न रह गया। पवित्र ‘रावी’ के तट पर उस महान् आत्मा का अन्तिम-संस्कार सम्पन्न हुआ। युवा क्रांतिकारियों ने उनके चिता की राख हाथ में लेते हुए इसका बदला लेने का निश्चय किया और 17 दिसम्बर 1928 को ही भगत सिंह और उनके साथियों ने सैंडर्स की गोली मार कर हत्या कर दी।

आज लालाजी हमारे बीच में नहीं हैं, मगर उनका महान् व्यक्तित्व आज भी देशवासियों को देश-प्रेम की प्रेरणा प्रदान करता रहता है। उनका विराट् व्यक्तित्व, देशभक्ति, स्वच्छ राजनीति, धर्म, शिक्षा, संस्कृति, समाज सुधार, त्याग और बलिदान की कहानी बनकर हमारा आज भी मार्गदर्शन कर रहा है।

वे एक मूर्तिमान् देशभक्त थे, अद्भुत राजनीतिज्ञ एवं बुद्धिजीवी थे, यथार्थवादी चिन्तक थे, दलितों के मसीहा थे, नवयुवकों के प्रेरणास्रोत थे, सफल समाज-सुधारक थे और सबसे बढ़कर सत्य पर अडिग रहने वाले महामानव थे। उनके राजनिति-कौशल, जन-सेवा की भावना, सर्जनशीलता और राष्ट-पे्रम से आज के राजनितिज्ञों को सीख लेनी चाहिए।


Ref.Apani Maati Apana Chandan, Author- Sukhnandan Singh Saday. Picture source from Hindirang.com. keywords lala lajpat rai.