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संत कबीर | Sant Kabeer | संत कबीर जीवन परिचय

सच्चा संत कबीर 

 


नाम- कबीर साहेब (संत कबीर)

अवतरण- ज्येष्ठ पूर्णिमा वि0 सं0 1455

अवतरण स्थल- लहरतारा तालाब , काशी [वाराणसी]  

देहावसान- वि0 सं0 1575

देहावसान स्थल- मगहर, उत्तर प्रदेश 


 
सन्त कबीर’ इस नाम को सुनते ही हमारे सामने एक दिव्य आकृति उभरने लगती है, जिसने सामाजिक सुधार के लिए एक क्रान्ति का शंखनाद किया, धर्म के नाम पर चलने वाले मिथ्या प्रलापों और ठूँठ कर्मकांडों के प्रति विद्रोह किया और शुद्ध अध्यात्मवाद जानने का सहज मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे महान् सत्पुरुष का जब भी अवतरण होता है, उसकी पृष्ठभूमि में धर्म का ह्रास और अधर्म का अभ्युत्थान ही प्रमुख कारण माना जाता है और फिर धर्म के मूल तत्त्वज्ञान की स्थापना तथा अधर्म के विनाश को ही उसके अवतरण का मुख्य उद्देश्य माना जाता है। मगर सन्त कबीर के अवतरण का उद्देश्य चहुमुखी था और समाज में व्याप्त कुरीतियों, अन्धविश्वासों तथा मिथ्याचारों को मिटाने के लिए उनका संदेश जहाँ ज्वालामुखी का विस्फोट था वहीं धर्म के शुद्ध स्वरूप की स्थापना के लिए उनकी वाणी अमृत बरसाने का कार्य करती थी। समाज में अधार्मिक आचरण का बढ़ना और धार्मिक कृत्यों में कर्म होना प्रायः धर्म की हानि या ग्लानि कहा जाता है। मगर मेरी दृष्टि में धर्म की ग्लानि तब अपने चरम पर मानी जाती है, जब धर्म के नाम पर ही अधर्म होने लगता है और तथाकथित धर्म के ठीकेदारों द्वारा अधार्मिक कृत्य किए जाने लगते हैं। धर्म की वेदी पर अधार्मिक लोगों का वर्चस्व होने लगता है और धर्म बन जाता है-सम्प्रदायवाद का पर्याय, आपसी प्रेम की जगह नफरत फैलाने का केन्द्र और लोगों को बरगलाकर अपना व्यवसाय खड़ा करने का एक अड्डा। ऐसी परिस्थिति से उबरने के लिए ही समाज को किसी ‘कबीर’ की जरूरत पड़ती है और उनके सत्य-वचन सभी प्रकार के मिथ्याचारों का शमन करते हुए शुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि प्रदान करते हैं।

सन्त कबीर का अवतरण काशी [वाराणसी] के लहरतारा तालाब पर ज्येष्ठ पूर्णिमा वि0 सं0 1455 को माना जाता है और उनका देहावसान वि0 सं0 1575 मानते हैं। उनके अवतरण और देहत्याग के पीछे कई किंवदन्तियाँ कही जाती हैं और चमत्कारों के साथ जोड़कर उन्हें महिमान्वित करने का प्रयास किया जाता है। मगर मेरे विचार से जैसे सूर्य की महानता प्रकाशित करने के लिए कुछ चमत्कार गढ़ने की जरूरत नहीं है, वैसे ही अध्यात्म के दिव्य ज्ञान के इस आध्यात्मिक सूर्य के लिए किसी चमत्कार को गढ़ने की जरूरत नहीं है। उनका शुद्ध अध्यात्म-ज्ञान ही उनका दिव्य परिचय प्रस्तुत करता है। फिर भी भारतीय दृष्टिकोण में आम आदमी बिना किसी चमत्कार से जुड़े हुए किसी व्यक्ति को महान् मानने को तैयार ही नहीं होता है और सन्त कबीर भी  इसके अपवाद नहीं हैं।

एक तरफ देश में निरंकुश मुस्लिम शासक सिकन्दर लोदी का राज्य, दूसरी ओर प्रायः सभी धर्मों के अन्दर व्याप्त मिथ्याचार और अन्धविश्वास का बोलबाला तथा परमात्मा की पूजा के नाम पर नाना प्रकार के आडम्बर का प्रचलन सारे समाज को अपनी गिरफ्त में ले चुका था। ऐसी परिस्थिति में समाज को सही दिशा देने के लिए ‘कबीर’ जैसे किसी निर्भीक सन्त का अवतरण समय की नितान्त आवश्यकता थी और ईश्वरीय विधान की प्रेरणा भी !

सन्त कबीर ने अपनी वाणियों द्वारा समाज को जगाया, धर्म का मर्म समझाया और अपने अन्दर स्थित परमात्मा की आन्तरिक पूजा का विधान भी बतलाया। उन्होंने कहा-‘‘मैं कहता हूँ आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी’’ और लोगों को बतलाया कि परमात्मा न तो पूरब में है और न पश्चिम में है, वह न तो मिथ्या कर्मकांड की पूजा में है और न किसी बाहरी स्थान-विशेष में है, बल्कि वह तो हमारे भीतर ही विद्यमान है। कबीर के साहित्यिक और दार्शनिक पक्ष बहुत दिनों तक आम लोगों की वाणी में ही जीवन्त बने रहे, लोक-कंठों ने उन्हें प्राणवन्त बनाये रखा और उनकी परम्परा के अनुयायियों ने भी उनकी वाणियों को एकत्रित कर उनके नाम पर ग्रन्थ छपवाने का कार्य किया, मगर ‘कबीर’ के मूल स्वर में कई मिलावटें भी आ गईं। कुछ साखी और पद तो विरोधियों ने स्वयं बनाकर उनके नाम पर प्रचारित किया तो कुछ उनके ही तथाकथित अनुयायियों द्वारा जोड़-घटाव किया गया और उनके नाम पर अनेक ग्रंथ प्रकाशित कर दिए गये। बीसवीं सदी में सन्त कबीर के साहित्यिक और दार्शनिक पक्ष पर विद्वानों का ध्यान गया। इस कड़ी में आचार्य क्षितिमोहन सेन ने ‘कबीर के सौ पद’ का संकलन किया जिसमें पहला पद है-‘‘मोको कहाँ ढूँढे़ बन्दे, मैं तो तेरे पास में’’ और सौवाँ पद है- ‘‘कोई प्रेम की पेग झुलावे है’’। इन पदों को पढ़कर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘'Hundred Songs of Kabir’’ के नाम से किया, जिसकी ख्याति देश-विदेश में फैल गई। यहाँ तक कहा जाता है कि कबीर के इन्हीं पदों से प्रेरणा लेकर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘गीतांजलि’ पहले बंगला में लिखी और बाद में उसका अंग्रेजी में भावानुवाद किया, जिस पर उन्हें सन् 1913 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार मिला। इस ‘गीतांजलि’ की बृहद् भूमिका अंग्रेजी के महान् कवि यीट्स ने लिखी है। कहा जाता है- ‘गीतांजलि’ के अंग्रेजी अनुवाद का संशोधन भारत में अंग्रेजी के महान् विद्वान् श्री सी0 एफ0 एण्ड्रयूज़ ने किया था और ‘यीट्स’ को उन्हीं स्थलों पर काव्य का प्रवाह कुछ टूटता हुआ नजर आता था जहाँ-जहाँ संशोधन किए गए थे। कवि का एक अपना भीतर का भाव-प्रवाह होता है। ‘सन्त कबीर’ की साखियों और पदों में भाव का सहज प्रकटीकरण है और वह सहज रूप से बोधगम्य भी है। कबीर की भाषा और भाव में एक सहजता है - कोई कृत्रिमता नहीं !

इसके साथ ही अनेक अंग्रेजी के विदेशी विद्वानों ने भी ‘कबीर’ पर अपनी लेखनी चलायी है- जिसमें शार्लेट वाॅडेविले, डेविट स्काॅट, विल्सन, रेभरेंड वेस्टकट, एफ0 ई0 केथ, डेविड लारेंजन आदि के नाम प्रमुख हैं। जहाँ विल्सन ने ‘‘Religious Seeds of Hindus’’ में सन्त कबीर के कई ग्रंथों का उल्लेख किया है , वहीं रेभरेंड वेस्टकट ने ‘‘Kabir & Kabir Panth’’ में उनके कई ग्रंथों का उल्लेख करते हुए उनकी वृहद् व्याख्या भी की है। बीसवीं सदी में हिन्दी के प्रकांड विद्वानों की दृष्टि भी ‘सन्त कबीर’ के साहित्य पर पड़ी और उन पर अनेक शोधपरक कार्य किए गये। प्रख्यात हिन्दी विद्वान् श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने सन् 1916 में ‘कबीर वचनावली’ का संकलन किया और उसकी वृहद् भूमिका भी लिखी। मगर ‘सन्त कबीर’ के आध्यात्मिक-दर्शन का यहाँ सही मूल्यांकन नहीं हो सका। बाबू श्यामसुन्दर दास ने ‘कबीर ग्रंथावली’ का सम्पादन किया, जो आज भी एक मानक के रूप में देखा जाता है। डा0 रामचन्द्र शुक्ल ने ‘कबीर और जायसी’ में कबीर के ऊपर काफी प्रकाश डाला है।

डा0 पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने ‘निर्गुण स्कूल आॅफ हिन्दी पोयट्री’ के अपने शोध-प्रबन्ध में कबीर का साहित्यिक और आध्यात्मिक मूल्यांकन किया है। डा0 रामकुमार वर्मा और डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कबीर पर स्वतन्त्र पुस्तक लिख कर उनके साहित्यिक और आध्यात्मिक विचारों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। पंडित परशुराम चतुर्वेदी ने ‘उत्तरी भारत की सन्त परम्परा’ में कबीर के जीवन-दर्शन को समन्वयवादी बतलाने का प्रयास किया है। डा0 रामनिवास चंडक ने ‘कबीर जीवन दर्शन’ में उन्हें वेद-शास्त्रों का अनुगामी तो डा0 त्रिगुणायत ने ‘कबीर की विचारधारा’ में उनके विचारों का विश्लेषण किया है। इसके अतिरिक्त श्री केदारनाथ द्विवेदी, श्री के0 के0 भट्ट, डा0 नामवर सिंह, डा0 विद्यानिवास मिश्र, डा0 दिनेश्वर प्रसाद, श्री अरुण कमल तथा श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे सुधी लेखकों ने भी कबीर के जीवन-दर्शन पर व्यापक प्रकाश डाला है। इन सभी विद्वानों ने कबीर के साहित्यिक और आध्यात्मिक पक्षों को अपनी-अपनी दृष्टि से समझाने का प्रयास किया है। इन सभी विद्वानों के प्रति अत्यन्त आदर का भाव रखते हुए मैं कहना चाहूँगा कि साधनात्मक दृष्टि रहने पर ही सन्त कबीर का सही मूल्यांकन सम्भव है। साधनात्मक दृष्टि किसी समर्थ सद्गुरु के संरक्षण में सीखी और जानी जाती है। जब तक साधना के धरातल पर कबीर की वाणियों का विश्लेषण नहीं होगा तब तक केवल साहित्यिक विद्वता से उनका उचित मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ ‘सहज योग’ का अर्थ ‘स’ यानी साथ, ‘ह’ यानी हठयोग और ‘ज’ यानी जपयोग अर्थात् हठयोग और जपयोग का साथ कहा गया है, जो साधनात्मक दृष्टि से बिल्कुल सही नहीं है। इस तरह ‘सुरति’ शब्द की व्याख्या अपने-अपने ढंग से विद्वानों ने कहीं सुन्दर-प्रेम तो कहीं स्मृति तथा ‘निरति’ शब्द की व्याख्या कहीं प्रेम-रहित तो कहीं नैरात्म शब्द से जोड़कर की है। आध्यात्मिक दृष्टि से ‘सुरति’ आत्मा की चिति-शक्ति यानी चेतन-शक्ति का नाम है और इसी चेतन-शक्ति को जब प्रकृति के प्रवाह से उलट करके परम सत्ता की ओर ले जाते हैं तो एक केन्द्र विशेष के बाद अति सूक्ष्म होने पर वह ‘निरति ’ बन जाती है और परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करती है। सन्त कबीर ने इस बारे में कहा है -

सुरति समानी निरति  में, निरति भई निरधार।
सुरति निरति  परचा भया, खुला स्वयंभू दुआर।।
साधनात्मक दृष्टि नहीं रहने से केवल भाषा और शब्दकोश के आधार पर कबीर की वाणियों को समझना अत्यन्त कठिन है। सन्त कबीर के ज्ञान के प्रकाश को लेकर उनके कई परवर्ती सन्त हो गये हैं जिसमें सन्त रैदास, धनी धर्मदास, दादू, रज्जब, सुन्दर दास, पीपा दास, दरिया साहब, लाल साहब, तुलसी साहब, गरीब दास, सन्त शिवदयाल सिंह आदि के नाम भी श्रद्धा के साथ लिये जाते हैं। इसमें प्रायः सभी उपर्युक्त सन्तों के अपने अलग-अलग पंथ भी बन गये हैं।

डा0 पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने एक जगह लिखा है कि सन् 1935 में महात्मा गाँधी जब कबीर चौरा वाराणसी, आये थे तो उन्होंने यह कह कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया था कि उनकी माता ‘पुतलीबाई’ कबीर साहब के ज्ञान से जुड़ी हुई थीं और उन्हीं के द्वारा दिये गये संस्कार से सत्य के प्रति दृढ़ होने का इतना बड़ा विश्वास उनको [गांधी जी] मिला था। महात्मा गाँधी के सत्यज्ञान रूपी गंगा का गोमुख भी सन्त कबीर की वाणियों में है। मगर केवल पढ़ने से हम उसे नहीं समझ सकते। उन्हें समझने के लिए हमें किसी समर्थ सद्गुरु के संरक्षण में साधनात्मक रहस्य को जानना होगा। इसलिए स्वयं सन्त कबीर कहते हैं -

साखी सबद सन्देश पढ़ि मत भूलो भाई।
सन्त मता कछु और है खोजा तिन पाई।।
कबीर की साखी [दोहा] और सबद [पद] को केवल पढ़ लेने से हम उन्हें नहीं जान सकते बल्कि उसके लिए हमें सन्त-मत की साधना को खोजना होगा और जो साधना खोजेगा-वही उन्हें समझ पायेगा ।
सन्त कबीर की साधना-सम्बन्धी एक और साखी का यहाँ अवलोकन करें -

सुरति फँसी संसार में, तासो परिगो दूर।
सुरति बाँध स्थिर करो, आठो पहर हुजूर।।
सुरति यानी आत्मिक चेतना का सम्बन्ध जब मन और इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य संसार में ही जाता है तो हमें सांसारिक अनुभव होता है और इसी प्रक्रिया को जब हम उलट देते हैं और इस सुरति को ऊर्ध्वमुखी कर परमात्मा की ओर लगा देते है तो हमें ईश्वर-दर्शन होता है।

इसी भाव को और स्पष्ट करते हुए सन्त कबीर कहते हैं -

कबीरा धारा अगम की, सद्गुरु दई लखाय।
उलटि ताहि सुमिरन करो, स्वामी संग मिलाय।।
उस सद्गुरु की कृपा से साधना को जान कर अपनी सुरति यानी आत्मिक-चेतना की प्रकृति-प्रवाही धारा को उलट कर प्रभु का सुमिरन करो तभी उस युक्ति से परमात्मा का संग प्राप्त हो सकता है। इस साधना को ही कबीर ने मीन मार्ग या विहंग मार्ग बतलाया है और कहा है -

‘‘पंछी के खोज मीन का मारग, कह कबीर दोउ भारी ।
अपरम्पार पार पुरुषोत्तम, मूरत की बलिहारी।।’’ 
पंछी के खोज यानी विहंगम मार्ग और मीन का मारग यानी मीन मार्ग वस्तुतः दोनों एक ही हैं और आत्मिक चेतना को सांसारिक प्रवाह से उलट कर चेतन-आधार से जोड़ने का नाम ही सन्त कबीर का साधन-मार्ग है। उसे ही सन्त कबीर कहते हैं-‘‘मारग विहंग बतावैं सन्त जन’’ और उसकी भेदिक व्याख्या भी करते हैं।

सन्त कबीर की भेदिक वाणी को बहुत लोग उलटवाँसी समझ कर इसे केवल बुझौवल जैसी कोई बात मानते हैं मगर वास्तविक रूप से इसमें अध्यात्म का गूढ़ तत्त्व भरा हुआ है। उनकी एक वाणी देखिए-

‘‘बोलो सन्तो अमृत बानी, बरसे कम्बल भींगै पानी।’’
बहुधा इस वाणी को बोलकर लोग इसे अनर्गल प्रलाप मानने लगते हैं। मगर आध्यात्मिक-दृष्टि से इसमें गूढ़ रहस्य भरा हुआ है। हमारे जीवन में होना यह चाहिए कि हम साधना के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति करें और उस आत्मज्ञान के पानी से हमारा तन-मन भींग कर निर्मल हो जाय मगर होता ठीक इसके उल्टा है और हमारा मन ही इन्द्रियों सहित बरसने लगता है और हमारी आत्मा उसी में भींग कर उसी के अनुकूल बन जाती है। हमारी आत्म-प्रभा के प्रकाश में मन को रहना चाहिए मगर मन के वश में ही हमारी आत्मा हो जाती है। मन रूपी कम्बल बरसने लगता है और आत्मा रूपी पानी ही उसमें भींगने लगता है। यह कैसी विडम्बना है ?
इसी तरह की एक और वाणी है -

‘‘देखि देखि जिय अचरज होई। यह पद बूझे बिरला कोई।।
धरति उलटि आकासे जाय। चिउँटी के मुख हस्ती समाय।।’’
इस पद में भी साधना का स्पष्ट विवेचन है। आत्मिक चेतना का अर्द्धमुख होना धरती का प्रतीक है और इसे ऊर्ध्वमुखी कर आकाश से मिला देना साधना की एक उच्च भूमि है। इसे वेदों में ‘‘पृष्ठात् पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहम् अन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वज्र्योतिरगामहम्।।’’ कहा गया है और महर्षि सदाफलदेव जी महाराज इसी साधना के मुकामों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं -

हृदये को पृथिवी कहैं, अन्तरिक्ष भ्रुव पार।
दिव्य मंडल अक्षर गजै, स्वःनाम सब पार।।
यानी साधना के क्रम में पृथ्वी से अन्तरिक्ष, अन्तरिक्ष से ‘दिव’ और दिव से ‘स्वः’ धाम की आध्यात्मिक यात्रा होती है। इसी क्रम में हाथी के समान जो माया का विस्तार है, वह साधना के उच्च स्तर पर सूक्ष्म होने पर चींटी जैसे चेतन-केन्द्र में समाहित हो जाता है।

इसी तरह सन्त कबीर की एक और अद्भुत वाणी है, जिसे लोग उलटवाँसी कहते हैं -
‘‘पहले जनम पूत का भयउ। बाप जनमिया पाछे।।’’
मगर इसमें भी साधना के पथ पर आगे बढ़ने पर होने वाले अनुभव का धरातल ही रूपायित हुआ है। यानी साधना में पहले आत्मज्ञान होता है और तदन्तर आत्मा के पिता परमात्मा का ज्ञान होता है। आत्मा का ज्ञान ही पुत्र का जन्म और परमात्मा का ज्ञान ही पिता के जन्म का बोधक होता है। एक और विचित्रता से भरी वाणी बिल्कुल अटपटी-सी लगती है, जिसमें सन्त कबीर कहते हैं- ‘‘खसमहिं छाड़ि ससुर संग गौने’’ यानी पति को छोड़ कर ससुर के साथ जाने की बात कही गई है। मगर यहाँ भी एक गूढ़ साधनात्मक संकेत है। आत्मा का पति अक्षर-ब्रह्म है और अक्षर-ब्रह्म का पिता परमाक्षर-ब्रह्म है। इस तरह साधना के क्रम में आत्मा पहले अक्षर-ब्रह्म यानी अपने पति को प्राप्त करे मगर उससे भी आगे जाकर अक्षर-ब्रह्म के भी पिता परमाक्षर-ब्रह्म के साथ अपने को जोड़े, तभी साधना की पूर्णता होगी।

इस तरह की अटपटी वाणियों का प्रयोग लोगों में जिज्ञासा जगाने के लिए किया जाता है। फिर जब अर्थ समझ में आने लगता है तो उसकी महत्ता भी प्रतिपादित होती है। सन्त कबीर की वाणी की एक और  बानगी यहाँ द्रष्टव्य है-
पहले दही जमाइए, पीछे दुहिए गाय।
बछड़ा ताको पेट में, गोरस हाट बिकाय।।
अभी बछड़ा भी नहीं जन्मा और दूध की दही भी जमने लगी। मगर इसका उत्तर पढ़ने पर अर्थ बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है-
तन की दही जमाइए, मन ही दुहिए गाय।
धीरज बछड़ा पेट में, कीरति हाट बिकाय।। 
यानी साधना के क्रम में पहले तन को तपाइए आसन, प्राणायाम से तन की साधना, फिर मन को निर्मल कीजिए ख्मन को विभिन्न केन्द्रों पर संयमित करने का अभ्यास, और यहीं विराम मत लीजिए बल्कि धैर्य के साथ आगे की साधना सद्गुरु के संरक्षण में करते रहिए तब निश्चय ही आपकी कीर्ति सर्वत्र फैल जायेगी।

सन्त कबीर की आध्यात्मिक साधना का शीर्षबिन्दु है-परम तत्त्व परमात्मा की प्राप्ति  और उसके लिए उनकी वाणी में वहाँ जाने का स्पष्ट निर्देश निम्न पक्तियों में किया गया है -
‘‘चलो जहँ बसत पुरुष निर्वाना। 
अविगति गति जहँ गति गम नाहीं, दुइ अंगुल परिमाना।
रवि शशि दोनो पवन चलतु हैं, तेहि बिच धरु मन ध्याना।। 
तीन सुन्न के पार बसतु है, चैथा तहँ अस्थाना।
उपजा ज्ञान ध्यान दृढ़ जागा, मगन भया मस्ताना ।।
पोहि के डोरी चढ़ो गगन पर, सुरत धरो सतनामा। 
द्वादस चलै दसो पर ठहरै, ऐसा निरगुन नामा ।।’’
उक्त पंक्तियों मेें साधना का सम्पूर्ण धरातल समाहित हो गया है। ध्यान के तीन केन्द्र ही जिसे समर्थ सद्गुरु बतलाते हैं-तीन शून्य हैं और उसके पार जो चेतन-महामंडल है, वहाँ का संकेत चैथे स्थान के रूप में किया गया है। हृदय, अन्तरिक्ष और दिव ये ही तीन शून्य है। इसके आगे जो चैथा स्थान है वही विराजधाम है, सत्यनाम है, सारशब्द की भूमि है। वहीं पर चेतन-समाधि में सद्गुरु-कृपा से परम पुरुष की प्राप्ति होती है। साधना के उक्त संकेतों को सद्गुरु-शरण में रहकर सीखना पड़ता है, इसे शब्दों में व्यक्त करना उचित नहीं माना जाता है।

सन्त कबीर की सहज समाधि भी अद्भुत है। हर अवस्था में एकरस रहने वाली इस समाधि के बारे में वे कहते हैं -
’’साधो ! सहज समाधि भली।  
गुरु प्रताप जेहि दिन से जागी, दिन-दिन अधिक चली ।।
जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करांै सो पूजा।
गृह उजाड़ एक सम देखों, भाव मिटावौं दूजा।।’’
साधक की ऐसी उच्च अवस्था आने पर उसका हर कार्य परमात्मज्ञान-प्रकाश में होने लगता है। जैसे हम सहज ढंग से श्वाँस लेते हैं वैसे ही साधक सहज ढंग से उस समाधि से युक्त होकर अपना सारा कार्य भी करता रहता है। सन्त कबीर की भाषा आम आदमी की भाषा है। उनकी वाणी में अनेक वेद-मंत्रों का सहज रूप से भाव उभर आया है, मगर आम आदमी की भाषा में वह सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य बन गया है। उनकी धारणा है कि वेद को लोगों ने ठीक से नहीं जान कर उसका मनमाने ढंग से अर्थ कर के उसे विकृत कर दिया है। ‘‘वेदन ग्रंथ कहो किन झूठा, झूठा जो न बिचारे’’ यानी वेदग्रन्थ  झूठे नहीं  हैं, बल्कि झूठे वे हैं जो उस पर ठीक से विचार नहीं करते हैं।

सन्त कबीर सत्य के उद्घोषक हैं मगर संसार के लोग मत-सम्प्रदाय के चैखटे से बाहर ही नहीं आना चाहते। इसीलिए सन्त कबीर को कहना पड़ता है -
‘‘साधो देखो जग बौराना !
साँच कहा तो मारन धावै, झूठहिं जग पतियाना।।’’ 
यह कितना कटु सत्य है। आज धर्म और अध्यात्म के नाम पर कितनी अन्धता है, यह किसी से छिपा नहीं है। सच्चे ज्ञान के प्रति जिज्ञासा कम होती जा रही है और धार्मिक उन्माद तथा मतवाद की कील के चारों ओर लोग आँख पर पट्टी बाँध कर घूमते नजर आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि हम सत्य-ज्ञान को जानने का प्रयास करें और सन्त कबीर की वाणी में ही ‘‘साँचा शब्द कबीर का, हृदया देखु बिचार’’ को जीवन में चरितार्थ करें ।

सत्य-ज्ञान जब तक केन्द्र में रहेगा तब तक उसका स्वरूप विकृत नहीं होगा। मगर जब केन्द्र में स्वार्थपरता, वेश-भूषा, ठूँठ कर्मकांड, इन्द्रजालिक, चमत्कार और जड़ता आ जायेगी और सत्य-ज्ञान परिधि पर चला जायेगा तो फिर ‘‘बूड़ा वंश कबीर’’ का अर्थ सामने आने लगेगा। सन्तों का वंश तो उनकी ज्ञान-परम्परा है। जिस दिन ज्ञान भटक जायेगा- वंश भी उसी दिन समाप्त हो जायेगा। आज सन्त कबीर का सम्पूर्ण सत्यज्ञान अगर कहीं विद्यमान है, तो वह वेदी है- महर्षि सदाफलदेव आश्रम, झूंसी, प्रयाग, जहाँ से ब्रह्मविद्या विहंगम योग का प्रचार होता है। आज इस वेदी पर सन्त कबीर अपने सच्चे ज्ञान के साथ मूर्तिमान हैं, जहाँ उनके नाम पर कोई आडम्बर नहीं, कोई वेश-भूषा नहीं, कोई मनगढ़न्त कर्मकांड नहीं बल्कि उनके शुद्ध साधनात्मक ज्ञान का सैद्धान्तिक और क्रियात्मक स्वरूप है।

कबीर सद्गुरु हैं, सच्चे सन्त हैं और अध्यात्म के शिखर हैं। उनकी हर वाणी में एक आध्यात्मिक स्पन्दन है, धर्म के नाम पर होने वाले मिथ्याचार के प्रति एक प्रबल विस्फोट है और समाज में व्याप्त कुरीतियों और अन्धविश्वासों को जड़ से मिटाने के लिए झंझावात का प्रचंड वेग है। धर्म के नाम पर फैले गुरुडम के प्रति भी वे सजग हैं और इसलिए कहते हैं -
‘‘सोई सद्गुरु सन्त कहावे। जो पल में अलख लखावे।।’’  
ऐसे आध्यात्म-जगत् के सर्वोच्च शिखर पर आसीन सद्गुरु सन्त कबीर को कोटिशः नमन! 
 
 
सन्दर्भ Ref.  Article source from Apani Maati Apana Chandan, Author- Sukhnandan Singh saday. Picture source from Gyanyoghindi.blogspot.com. keywords- Sant kabeer, sant kabir, kabir saheb, kabirdas, kabir, sadguru kabir.