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वीर सावरकर | Veer Savarkar

स्वातंत्रय वीर - सावरकर

अपूर्व साहस, अद्भुत वीरता और प्रखर देशभक्ति से समन्वित व्यक्तित्व का नाम है-स्वातंत्रय वीर सावरकर। यह महान् स्वतन्त्रता-सेनानी भारतीय संस्कृति और सुधारवादी हिन्दू-धर्म का शंखनाद करने वाला असाधारण व्यक्तित्व का धनी था, जिसके जीवन का एक-एक क्षण भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। स्वाधीनता-संग्राम के इस जन्मजात योद्धा का जन्म 20 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर नामक ग्राम में पिता श्री दामोदर सावरकर और माता राधाबाई के यहाँ हुआ था। बचपन का नाम विनायक था मगर जीवन में इन्हें ‘सावरकर’ नाम से ही सभी जानते हैं। बचपन से ही आग उगलने वाले ‘पोवाडे़’ लिखने की अद्भुत क्षमता ने ‘सावरकर’ को जन-जन का प्रिय बना दिया था। सन् 1897 में चापेकर बन्धुओं ख्तीनों भाइयों, द्वारा पूना के अंग्रेज प्लेग कमिश्नर की हत्या के बाद उन्हें फाँसी की सजा सुनाये जाने पर बालक विनायक का हृदय विदीर्ण हो उठा और उसने अपनी कुलदेवी दुर्गा के समक्ष प्रतिज्ञा ली-‘‘देश की स्वाधीनता के लिए जीवन के अन्तिम क्षणों तक सशस्त्र क्रान्ति का झंडा लेकर जूझता रहूँगा।’’ सावरकर ने जीवन में यह प्रतिज्ञा सचमुच पूरी करके दिखला दी। 
सुप्रसिद्ध राष्ट्रकवि पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा इंग्लैंड में इंडिया हाउस का संचालन करते थे और राष्ट्रभक्त छात्रों के लिए महर्षि दयानन्द, शिवाजी और महाराणा प्रताप के नाम पर छात्रवृत्तियाँ भी देते थे। इसी संदर्भ में शिवाजी छात्रवृत्ति के अन्तर्गत श्री बाल गंगाधर तिलक की संस्तुति पर ‘सावरकर’ को यह छात्रवृत्ति प्रदान की गई और सन् 1906 में आप इंग्लैंड के लिए रवाना हुए। उत्तरी लन्दन में स्थित ‘इंडिया हाउस’ में आपके ठहरने की व्यवस्था की गई और जीवन के करीब चार वर्ष इन्होंने जो लन्दन में गुजारे वह भारत की स्वतन्त्रता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं। लन्दन में ही सावरकर जी ने ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की और इसके माध्यम से भारतीय नवयुवकों को देश की स्वतन्त्रता के निमित्त त्याग और बलिदान के लिए प्रेरित करते रहे। सावरकर जी इटली के स्वतन्त्रता सेनानी ‘जोजेफ मैजिनी और गैरीबाल्डी’ के विचारों से बहुत प्रभावित थे और देश के लिए उनके आदर्शों के प्रशंसक थे। इसलिए इंग्लैंड में लिखी उनकी पहली पुस्तक ‘मैजिनी की आत्मकथा’ का ही मराठी रूपान्तर था जिसने देशवासियों में तहलका मचा दिया था। इसी  पुस्तक के कुछ अंश इस प्रकार थे - ‘‘कोई भी राष्ट्र कदापि नहीं मरता। परमात्मा ने मानव को स्वतन्त्र रहने के लिए उत्पन्न किया है। जब दृढ़ संकल्प लोगे तभी तुम्हारा देश भी स्वतन्त्र हो जायेगा।’’

        सावरकर जी इंडिया हाउस में रह कर इंग्लैंड और भारत में रह रहे क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन किया करते थे और यह सब कुछ करते हुए भी उनके प्रकांड पांडित्य में भी कहीं व्यवधान नहीं आता था। तभी एक धमाका हुआ और सन् 1907 में भारतीय स्वतन्त्रता की स्वर्ण जयन्ती मनाने का निर्णय इंडिया हाउस में किया गया। लन्दन में यह दिन  भारतीय क्रांतिकारियों पर इंग्लैंड की महान् विजय के रूप में मनाया जाता था। 6 मई 1907 को तो लन्दन में प्रमुख दैनिक ‘डेली टेलीग्राफ’ ने अपने अग्रपृष्ठ पर यह वाक्य छापा - ‘‘ पचास वर्ष पूर्व इसी सप्ताह हमने वीरतापूर्वक अपने साम्राज्य की रक्षा की।’’ इस तरह जहाँ एक ओर इंग्लैंड में इस वर्ष को विजय-पर्व के रूप में मनाने का प्रयास हो रहा था, वहीं सावरकर जी अपने साथियों के साथ भारतीय स्वतन्त्रता के अमर सेनानियों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए कृतसंकल्प थे। 10 मई 1907 को इंडिया हाउस को खूब सजाया गया और मंच पर हुतात्माओं के चित्र रखे गये। समारोह का प्रारम्भ राष्ट्र-गान से हुआ और ‘वन्दे मातरम्’ के नारे के साथ वक्ताओं के ओजस्वी भाषण हुए। सावरकर जी ने अपनी आग्नेय वाणी में नवयुवकों को उन क्रांतिकारियों के पथ पर आगे बढ़ने का आह्वान किया जिन्होंने राष्ट्र की वेदी पर अपने को हँसते-हँसते समर्पित कर दिया था। ‘भारतीय स्वातन्त्रय समर का इतिहास’ लिख कर सावरकर ने जो ख्याति अर्जित की वह बेमिसाल है। इस तरह  अंग्रेजों के घर में वे अंग्रेजों को ही मात दे रहे थे। इसी बीच श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ‘पेरिस’ चले गये और इंडिया हाउस सम्भालने का पूरा भार ‘सावरकर’ पर ही आ पड़ा। सावरकर जी ने अपने लेखों के माध्यम से विश्व भर के देश-भक्तों को भारत की मुक्ति के लिए प्रयास करने का आह्वान किया। इंडिया हाउस का हर सदस्य शुभ रात्रि के समय कहा करता था - 

‘‘एक देव, एक देश, एक भाषा, 
एक जाति, एक जीव, एक आशा।’’

इसी समय 22 अगस्त 1907 को जर्मनी के स्टुटगार्ट नगर में ’अन्तर्राष्ट्रीय समाज संघ’ की बैठक आयोजित हुई जिसने सावरकर जी के परामर्श से ‘मादाम कामा’ एवं ‘सरदार सिंह राणा’ को वहाँ भेजा गया। ‘मादाम कामा’ ने वहाँ जाकर भारतीय ध्वज हाथों में उठाते हुए गरज कर कहा - ‘‘यह भारतीय स्वतन्त्रता का ध्वज है। शहीदांे के रक्त से सिंचित हो यह और भी पावन हो गया है। मैं आप सभी स्वतन्त्रता-प्रेमियों को आह्वान करती हूँ कि आप सब उठ कर इस भारतीय ध्वज को सम्मान दें।’’ 

और सचमुच उनकी आवाज में एक सम्मोहन था जिसके चलते सभी प्रतिनिधि उठकर खड़े हो गये। सभा-भवन देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजता रहा और विश्व स्तर पर भारत की स्वतन्त्रता की चर्चा होने लगी।

सावरकर सचमुच ऐसी धातु से बने हुए थे जो तपाने पर और भी निखरने लगता है, प्रतिकूल परिस्थितियों में और भी अधिक उत्साह से जूझने के लिए तत्पर होता है। इसलिए उन्होंने देशद्रोहियों की ओर संकेत करते हुए एक जगह कहा - ‘‘ देशद्रोहियों की अग्रिम पंक्ति में खड़े होने से कहीं अच्छा है कि देशभक्तों की अन्तिम पंक्ति में खड़ा हुआ जाए।’’ भारत के ही कई गद्दारों ने स्वतन्त्रता-संग्राम के सेनानियों के प्रयास को जितनी बाधा पहुँचाई उतना नुकसान शायद विदेेशी शत्रुओं ने भी नहीं किया । 

वीर सावरकर  ने 1857 को ‘स्वातन्त्रय समर’ नामक ऐतिहासिक ग्रंथ की रचना मराठी भाषा में जब 1907 में पूरी की तो स्काॅटलैंड यार्ड की गुप्त शाखा को इसकी भनक लग गई। भारत में जगह-जगह छापे मारे गये मगर मूल पांडुलिपि भारत से पेरिस भेज दी गई। फिर इस ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद श्री वी0 वी0एस0 अय्यर एवं बैरिस्टर फड़के द्वारा किया गया और अथक प्रयास के बाद हालैंड में इस पुस्तक का प्रथम अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित हो पाया। तदुपरान्त 1909 में इस पुस्तक का प्रकाशन फ्रांस से हुआ। सारे विश्व में स्वतन्त्रता-प्रेमियों ने इस पुस्तक की सराहना की और भारत के क्रांतिकारियों के लिए तो यह भगवद्गीता की तरह पवित्र धरोहर बन गई। इसी पुस्तक का तृतीय संस्करण अमर शहीद सरदार भगत सिंह ने 1929 में गुप्त रूप से कराया। विदित हो कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के मलाया पहुँचने पर उनके हाथ में भी इस पुस्तक की एक पांडुलिपि दी गई। मगर इस ग्रंथ का मूल मराठी संस्करण 1936 में वीर सावरकर के साहित्य से प्रतिबन्ध उठा लेने के बाद ही प्रकाशित हो सका। 

सावरकर सदा से सशक्त क्रांति के पक्षधर थे और इसे वे शीघ्र ही क्रियान्वित करने के लिए उतावले भी हो रहे थे। वे लन्दन से भारत के क्रांतिकारियों के लिए आग्नेय अस्त्रों के साथ-साथ बम बनाने के मैनुअल भी भेजा करते थे। इसी क्रम में इंडिया हाउस के रसोइये चतुर्भुज के माध्यम से उन्होंने संदूक की चोर तली में छिपा कर स्वचालित ब्राउनिंग, पिस्तौलें ‘अभिनव भारत संस्थान’ के तत्कालीन अध्यक्ष के पास भेजी। उनसे सम्पर्क नहीं होने के कारण चतुर्भुज ने यह पार्सल उनके एक अन्य मित्र को दे दिया और वहीं से गलत वितरण के कारण यह बात गुप्त नहीं रह सकी। अंग्रेजों के कान खड़े हो गये और कई लोगों को इस सम्बन्ध में गिरफ्तार कर लिया गया। इसी घटना क्रम में सावरकर को समाचार मिला कि उनकी एक मात्र सन्तान 8 वर्षीय पुत्र प्रभाकर चेचक से मर गया और उनके बड़े भाई बाबा राव सावरकर को भी गिरफ्तार कर लिया गया है। सावरकर फिर भी विचलित नहीं हुए। 

यह कितनी बड़ी विडम्बना थी कि इंग्लैंड की राजरानी की प्रशंसा में गीत लिखने वालों को पुरस्कृत किया जा रहा था। वहीं देश-भक्ति की रचना करने वालों को दंडित किया जा रहा था। मगर यह हमेशा से होता आया है और सम्भवतः आगे भी होता रहेगा। सच्चे देशभक्त इस गणित के लेखा-जोखा का हिसाब नहीं करते और अपनी कुर्बानी से इतिहास रच जाते हैं। सावरकर ने जब ये हृदय-विदारक समाचार सुना तो उनके हृदय में अंग्रेजों के प्रति क्रोध नहीं बल्कि प्रतिशोध की अग्नि जलने लगी। फिर भी वह नर-पुंगव जरा भी विचलित नहीं हुआ। 

इसी समय एक और घटना घट गई। 1 जुलाई 1909 को लन्दन के इम्पीरियल-इंस्टिच्यूट के जहाँगीर हाॅल में मदनलाल ढींगरा ने कर्जन वायली नामक एक अंग्रेज अधिकारी की गोली मार कर हत्या कर दी। ब्रिटिश अधिकारियों को यह निश्चिय हो गया कि मदनलाल ढींगरा ने सावरकर की प्रेरणा से ही कर्जन वायली की हत्या की है। 17 अगस्त 1909 को मदनलाल ढींगरा को फाँसी पर लटका दिया गया। उसके अन्तिम शब्द थे-‘‘ईश्वर से मेरी अन्तिम प्रार्थना है कि मैं तब तक उसी भारत के लिए जन्मता और पुनः मरता रहूँ जब तक यह स्वतन्त्र न हो जाये।’’

इधर सावरकर के बड़े भाई की गिरफ्तारी के बाद छोटे भाई श्री नारायण दामोदर सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर ने इस समाचार को सुन कर गर्व से कहा-’’इससे ज्यादा गौरव की बात और क्या होगी कि हम तीनों भाई ही स्वातन्त्रय लक्ष्मी की आराधना में लीन हैं।’’ और इस घटना-चक्र की पूर्णाहुति 13 मार्च 1910 को लन्दन के विक्टोरिया स्टेशन पर सावरकर की गिरफ्तारी से हुई। सावरकर  को लन्दन के ब्रिस्टल जेल में बन्द कर दिया गया। उन्होंने वहीं से अपनी पूज्या भावज को मराठी काव्य में अपना ‘मृत्यु-पत्र’ लिख कर भेजा। इस ‘‘मृत्यु-पत्र’ में सावरकर ने अपनी भाव-प्रवण भाषा में लिखा-‘‘ .......अपनी माँ को बन्धन-मुक्त करने के लिए प्रज्वलित अग्निकुंड में अपना सर्वस्व जलाकर हम आज कृतार्थ हो गये हैं। ..........वंश चाहे अखंड हो या न हो, पर मातृभूमि ! हमारे उद्देश्य पूरित हों ! प्रज्वलित अग्नि में माता के बन्धन को तोड़ने के लिए अपना सर्वस्व जलाकर हम कृतार्थ हो गये हैं।’’

इस नर-पुंगव को भारत में मुकदमा चलाने के लिए 1 जुलाई 1910 को इंग्लैंड से मोरिया जलयान द्वारा भारत लाया जा रहा था-तभी एक आश्चर्यजनक धमाका हुआ और फ्रांस के मार्सेल्स बन्दरगाह के निकट जहाज पहुँचते ही सावरकर ने समुद्र में छलांग लगा दी। गोरे अधिकारियों की गोलियों की बौछार के बीच वे फ्रांस के सागरतट पर पहुँच ही गये, मगर फ्रांस के सिपाहियों ने उन्हें अंग्रेजों को फिर सौंप दिया। इस सम्बन्ध में कहा जाता है कि योजना के अनुसार श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा, मैडम कामा आदि के मार्सेल्स बन्दरगाह पर पहुचँने में देरी हो गई जिस कारण सावरकर को छुड़ाने का प्रयास पूरा न हो सका। 

सावरकर को ‘यरवदा’ कारा में बन्द कर दिया गया और ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र के आरोप में नाटक प्रारम्भ हुआ। इस नाटक का पटाक्षेप सावरकर को दो आजीवन कारावास के दंड के साथ हुआ। अपने दो जन्मों के कारावास ख्50 वर्षों का आजीवन कारावास, पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सावरकर ने हँसते हुए कहा-’’मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई ख्ब्रिटिश, सरकार ने मुझे दो जीवनों के कारावास का दण्ड देकर हिन्दू-धर्म के पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मान लिया है।’’

सावरकर को दो आजन्म कारावास  का दंड देकर उन्हें अंडमान भेजने के पूर्व कुछ  दिन डोगरी जेल में रखा गया-जहाँ कभी बाल गंगाधर तिलक को भी रखा गया था। इसी वर्ष उनकी पत्नी 19 वर्षीया श्रीमती माई सावरकर डोंगरी जेल में उनसे मिलने आयीं। सावरकर ने अपनी तरुण पत्नी को धीरज बँधाते हुए कहा-‘‘माना कि अपना सुखी जीवन हमने अपने हाथों ध्वस्त कर दिया किन्तु भविष्य में सहस्रों घर में सुख की वर्षा होगी। क्या तब हमें अपना बलिदान सार्थक न लगेगा।’’ वीर पत्नी ने भी दृढ़तापूर्वक कहा-‘‘आप चिन्ता न करें ! मुझे क्या कम सुख है कि मेरा वीर पति मातृभूमि की सेवा के लिए कठोर साधना कर रहा है।’’ 

पति-पत्नी की इस रोमांचकारी भेंट-वार्ता सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं और राष्ट्र के साथ खिलवाड़ करने वाले उन तथाकथित नेताओं के चेहरे पर कालिख पोतने की इच्छा होती है। आखिर सावरकर को अण्डमान जेल की कोठरी संख्या-123 में  लाया गया और सख्ती के साथ उन पर क्रूर अत्याचार किये गये। इस अण्डमान जेल में सावरकर की काव्य-प्रतिभा और निखर उठी। उन्होंने करीब दस हजार काव्य पंक्तियों की यहाँ रचना की। अण्डमान की काल-कोठरी में उन्होंने उद्घोष किया-‘‘मैं अनादि हूँ, अनन्त हूँ, आज विश्व में कौन ऐसा शत्रु है जो मुझे मार सके।’’ 

अण्डमान की जेल में हिन्दी के प्रचार के लिए सावरकर जी सतत प्रयत्नशील रहे। उन्होंने जन-जन को हिन्दी का महत्त्व समझाया और इसके लिए कारागार में ही उन्होंने ग्रन्थालय-वाचनालय की स्थापना करवायी। हिन्दी सीखने के लिए उन्होंने कैदियों को भी प्रेरित किया। 

यह एक बिडम्बना ही रही कि इसी अण्डमान जेल में उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर भी लाये गये थे। अचानक ही एक दिन दोनों भाइयों के मिलन ने राम और भरत की तरह एक पावन दृश्य उपस्थित कर दिया।

एक दिन सबसे छोटे भाई जब अण्डमान में मिलने के लिए गये तो सावरकर ने उनसे कहा-‘‘बाल ! मैं यह जानता हूँ कि तुम बहुत साहसी और धैर्यवान् हो । हम दोनों भाइयों के परिवार का दायित्व तुम्हीं वर्षों सेे निभा रहे हो और आगे भी निभाते रहोगे। शायद यह हमलोगों की अन्तिम भेंट होगी।’’ 

इस हृदय-विदारक वार्ता से दोनों भाइयों की आँखों में आँसू छलछला आये मगर वीरत्व की चिनगारी ने उन्हें महिमा-मंडित कर दिया। दिन बीतते गये। बलिदान की स्याही से आजादी का इतिहास लिखता जा रहा था। तभी एक खबर आयी कि ‘सावरकर बन्धुओं‘ को हिन्दुस्तान वापस भेजा जा रहा है। अण्डमान में दस वर्षों तक रहने के बाद सावरकर की हिन्दुस्तान वापसी हो रही थी। अनेक लोग उन्हें बधाई देने आये मगर सावरकर निर्विकार थे। दोनों भाइयों को महाराजा जलयान से भारत लाया गया। मातृभूमि पर पैर पड़ते ही दोनों भाई हाथ जोड़ कर बोल पड़े-‘‘स्वातन्त्रय लक्ष्मी की जय-वन्दे मातरम्!’’ इतिहास के एक अध्याय का पटाक्षेप हुआ। मगर अभी आगे का अध्याय प्रारम्भ होने वाला था। 

भारत आने पर सावरकर जी को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जेल में नजरबन्द कर दिया गया। वे रत्नागिरी में नजरबन्द रहकर भी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत अनेक पुस्तकों एवं सैकड़ों लेखों को लिखते रहे। यहीं पर उन्होंने शुद्धि का बिगुल बजाया और हजारों बिछुड़े भाइयों को अपने स्वधर्म में आने के लिए प्रेरित किया। अनेक प्रतिबन्धों के बावजूद सन् 1929 में जब सावरकर जी नासिक गये तो डाॅ0 मुंजे, जगद्गुरु शंकराचार्य एवं चिन्तामणि केलकर की उपस्थिति में उनका नागरिक अभिनन्दन किया गया। केलकर जी ने इस अवसर पर कहा-‘‘आपकी उत्कट देशभक्ति एवं देश के लिए उठाये गये आपके कठिन कष्टों के लिए महाराष्ट्रीय जनता के हृदय में आपके प्रति अत्यन्त आदर है।’’

वीर सावरकर ने अभिनन्दन का उत्तर देते हुए कहा-’’...........आज जैसा मेरा सम्मान किया जा रहा है, यह बात मेरे मन में कभी आयी ही नहीं । नवयुवकगण मेरा सम्मान देखकर यह न समझें कि समाज-सेवा या राष्ट्र-सेवा सम्मान-प्राप्ति के लिए करनी चाहिए।’’ उन्होंने स्पार्टा के उस वीर पुरुष की वाणी को दुहराया, जिसने कहा था- ‘‘स्पार्टा के पास उससे बढ़कर वीर विद्यमान है और आने वाली सन्तान और भी श्रेष्ठ पैदा होगी।’’ सावरकर जी ने कहा कि मैं भी यही कहता हूँ कि मुझसे हजार गुणा तेजस्वी वीर आज भी देश में हैं और आगे भी पैदा होंगे। यह कथन उनकी विनम्रता का प्रतीक था। 

सन् 1927 में महात्मा गाँधी भी सावरकर जी से रत्नागिरी जाकर मिले थे। गाँधीजी ने उनकी देश-भक्ति की मुक्त-कंठों से प्रशंसा की थी। मगर दोनों के विचारों में जीवन-पर्यन्त अन्तर बना रहा। सावरकर जी प्रखर राष्ट्रवाद के समर्थक थे और गाँधीजी मानवतावाद के। अपने-अपने विचारों पर दोनों आजीवन दृढ़ रहे और समय-समय पर अनेक विषयों पर दोनों महापुरुषों की मत-भिन्नता भी प्रकट होती रही। अन्त में श्री जमुनादास मेहता के प्रयास से 10 मई 1937 को रत्नागिरी की नजरबन्दी से वीर सावरकर को मुक्ति मिली। 

सावरकर जी की नजरबन्दी से मुक्त होने पर सुभाषचन्द्र बोस ने भी तार देकर कांगे्रस का नेतृत्व सम्भालने के लिए उनसे आग्रह किया। मगर सावरकर जी ने अपने सिद्धान्तों के अनुरूप ‘हिन्दू महासभा’ को ही वरण किया। 30 दिसम्बर 1937 को अहमदाबाद अधिवेशन में वे ‘हिन्दू महासभा’ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 22 जून 1940 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अचानक सावरकर सदन आये और सावरकर जी से भेंट की। देश की आजादी के सम्बन्ध में दोनों महान् नेताओं में विशद चर्चा हुई। सावरकर जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सशक्त क्रान्ति का प्रयास किये बिना अब भारत को स्वतन्त्र नहीं कराया जा सकता। सम्भवतः इन्हीं विचारों से प्रभावित हो नेताजी जर्मनी होते हुए सिंगापुर पहुँच गये और वहीं पर ‘आजाद हिन्द सेना’ की स्थापना की। 

       प्रख्यात अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर, एक बार भारत आने पर जिन्ना से मिलने के बाद सावरकर जी से भी मिले। उन्होंने पूछा कि आपको पाकिस्तान बनने में क्या आपत्ति है? इस पर सावरकर जी ने कहा-‘‘आपको नीग्रोस्तान क्यों नहीं स्वीकार है? हठात् फिशर के मुँह से निकल गया- देश का विभाजन अपराध होगा। तभी सावरकर जी ने कहा-’’हर राष्ट्रभक्त अपने देश के टुकड़े होना सहन नहीं कर सकता । इसलिए हम भी भारत-विभाजन के पक्षधर नहीं हैं। सावरकर जी का उत्तर सुनकर लुई फिशर चुप हो गये। मगर अनेक भारतीय नेता ही इस विभाजन के पक्षधर बन गये-यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा और इस महान् नेता की चेतावनी के बावजूद 3 जून 1947 को देश-विभाजन की घोषणा कर  दी गई। यह देश बलिदानियों की त्याग-तपस्या से आजाद तो हो गया मगर खंडित होकर। सावरकर जी जैसे प्रखर राष्ट्रभक्त इस विभाजित भारत की आजादी से प्रसन्न नहीं थे। भारत को अखंड कराने की तीव्र लालसा वे जीवन-पर्यन्त अपने कलेजे में सँजोये रहे। यह भी कितनी बड़ी बिडम्बना है कि 1910 से 1937 तक कारा में बन्द रहने वाला यह क्रान्तिवीर देश की आजादी के बाद भी कई बार बन्दी बनाया गया। हमारी कृतघ्नता अपने चरम सीमा को ही छू रही थी जब हमने उस महान् राष्ट्रनायक को स्वतन्त्र-भारत में भी कई बार बन्दी बनाया। देश की दुर्दशा देखकर सावरकर जी फूट-फूट कर रोने लगते थे। उनके हृदय से कविता की धारा फूट पड़ती थी - 

‘‘ऐ सिन्धु ! तुझे मुक्त करेगी महाराष्ट्र की रक्त-बिन्दु।’’ 

सावरकर जी का स्वास्थ्य भी धीरे-धीरे गिरता गया और अंडमान की काल कोठरी में उनके जिस्म में घुसे विषाणु उनके शरीर को भीतर से खोखला करते रहे। रही-सही कसर हमारी कृतघ्नता ने पूरी कर दी। 

सन् 1962 में भारत पर चीन द्वारा किए गये आक्रमण एवं विश्वासघात से यह नर-केसरी सचमुच आहत हो उठा। इस वयोवृद्ध क्रान्तिवीर के रुँधे गले से ये शब्द निकल पड़े- ‘‘काश ! अगर देश हमारी नीति पर चलता तो हमारी ऐसी दुःस्थिति नहीं होती।’’ और 1965 में पाकिस्तान की लड़ाई में भारत की विजय से यह क्रान्ति-पुरुष थोड़ा आश्वस्त हुआ ही था कि ताशकन्द समझौते ने इनकी आशाओं पर पानी फेर दिया। वे एक बार फिर मर्माहत हो उठे। वे बड़बड़ाने लगे-‘‘क्या करना है अब जी कर मुझे?’’ और सचमुच वह स्वातन्त्रय वीर 26 फरवरी 1966 को भारत-माता के चरणों में विलीन हो गया। वह वज्र-पुरुष चिता को समर्पित हो गया। 

        एक गौरवपूर्ण इतिहास-पुरुष का अन्त हो गया। राष्ट्र-भक्त शोकमग्न हो गये। स्वतन्त्रता-संग्राम के एक उज्ज्वल नक्षत्र का लोप हो गया। शायद आज सावरकर जी  रहते तो इन तथाकथित नेताओं के कुकृत्यों को देखकर और अधिक मर्माहत हो उठते। हवाला-वृत्ति से लेकर भ्रष्टाचार की विकृति की छाप ओढ़े नेता आज जिस भारतमाता की स्वतन्त्रता के गीत गाकर सत्ता-सुख का भोग कर रहे हैं, उन्हें क्या पता कि अपने यौवन की दहलीज पर कदम रखने वाला वह मराठी युवक बैरिस्टर बनकर अपनी पत्नी और बच्चों की परवरिश करने के बदले देश की आजादी की वकालत करता रहा और जीवन के स्वर्णिम 27 वर्ष काल-कोठरी और नजरबन्दी में गुजार दिया। भारतमाता के भव्य मन्दिर के निर्माण में नींव की ईंट बनकर वे ढाँचे का सारा बोझ अपने ऊपर उठाये रहे और न कभी किसी प्रंशसा की कामना की और न किसी प्रदर्शन की। सावरकर जी का कर्मनिष्ठ-जीवन तपोमय, त्यागमय और बलिदानी निष्ठा से ओतप्रोत था, जिसमें राष्ट्र की बलि-वेदी पर अपने आप को निःस्वार्थ भाव से न्योछावर करने की अदम्य अभिलाषा थी। 

सावरकर जी एक व्यक्ति नहीं बल्कि राष्ट्रवादी विचारधारा की अनुकृति थे। देशभक्ति, राष्ट्रपे्रम के पर्याय के रूप में सावरकर का नाम सार्थकता को सँजोये आज भी वर्तमान और भावी पीढ़ी को ललकार कर उसे देश के लिए मर-मिटने का आह्वान करती है। ‘तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहे न रहे’ की वाणी को अपने जीवन के एक-एक क्षण में साकार करने वाले सावरकर जी  का नाम भी शायद आज की नयी पीढ़ी नहीं जानती। जो भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास की अनुपम धरोहर है उन्हें ही आज इतिहास के पृष्ठों से निकाल दिया गया है। मगर सावरकर जी जैसे महापुरुष काल की छाती पर भी अमरत्व का गीत लिख जाते हैं। 

इतिहास के पन्नों के वे मुहताज नहीं होते। लेकिन जब-जब देश अपने राष्ट्रीय गौरव के इतिहास को भुलाने की कोशिश करता है, उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। ईश्वर करे इन देशवासियों में यह सद्बुद्धि आये और हम अपनी संास्कृतिक और राष्ट्रीय इतिहास की विरासत को पहचान कर उसकी रक्षा के लिए सचेत रहें। हमारे माथे पर कृतघ्नता का पाप न लगे-इसके लिए हमें प्रायश्चित करना होगा और सावरकर जी जैसे राष्ट्रभक्त से क्षमा मांगनी होगी। शायद उनकी महान् आत्मा हमें क्षमा कर दे और हम सबमें राष्ट्रीयता की भावना भर दे।
Ref. Picture source from Achhikhabar.com. Article source from Apani Maati Apana chandan, Author- Sukhnandan singh saday.