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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त | RASHTRAKAVI MAITHILISHARAN GUPT

 अर्पित हो मेरा मनुजकाय 
 राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
 
 
 
साहित्य की परिभाषा करते हुए विद्वानों द्वारा यह कहा गया है- ‘‘सहितस्य भावः साहित्यम्’’ यानी जो हित के साथ हो अर्थात् जिसमें हितकारक भावना हो, वही साहित्य कहलाता है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार- ‘‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’’ यानी रसात्मक वाक्य को ही काव्य कहते हैं। पं0 जगन्नाथ के अनुसार-‘‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्द काव्यम्’’ यानी रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- आत्मा की मुक्तावस्था में मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती है, उसे कविता कहते हैं। एक सरल किन्तु निभ्र्रांत परिभाषा यह भी दी जाती है- ‘‘समर्थ भाषाशैली में उद्दीप्त भावों की अभिव्यक्ति ही काव्य या साहित्य है।’’
 
यहाँ काव्य या साहित्य परिभाषित करने का इतना ही अर्थ है कि कुछ ऐसे महान् कवि होते हैं, जिनकी कृति में काव्य की सारी परिभाषाएँ समाहित हो जाती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी भी ऐसे ही सशक्त कवि हैं, जिनकी कविता सरलता को ओढ़े हुए, सहजता को सँजोये हुए, काव्य की परिभाषा को भी मुखरित करती हैं। देश के कई कवियों को ‘राष्ट्र कवि’ की उपाधि से सम्बोधित किया गया है। मगर मैथिलीशरण गुप्त जी ही एक ऐसे कवि हैं, जिन्हें स्वयं महात्मा गाँधी ने ‘राष्ट्र कवि’ की उपाधि दी थी। महादेवी वर्मा उन्हें हिन्दी-कविता ख्खड़ी बोली, का जन्मदाता कहती थी। उनके समय में हिन्दी-साहित्य में तीन ‘द’ को बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था- दादा माखनलाल चतुर्वेदी, दद्दा मैथिलीशरण गुप्त और दीदी महादेवी वर्मा। सबके नाम में भी ‘म’ का सादृश्य था।
 
आपका जन्म मध्य प्रदेश के चिरगाँव [झाँसी] में पिता रामचरण जी और माता काशी देवी के यहाँ 3 अगस्त 1886 को हुआ। आप अपने माता-पिता की तीसरी सन्तान थे। पिता रामचरण जी का अच्छा व्यापार था। मगर अपने ही मुनीम से धोखा खाकर उन्होंने व्यापार को समेट लिया। व्यापार में भारी घाटा होने के बावजूद भी वे हतोत्साहित नहीं हुए। वे एक सम्मानित व्यक्ति थे और स्थानीय जिला बोर्ड के सदस्य थे। महाराजा ओरछा उन्हें बहुत सम्मान देते थे। व्यापार के घाटे से त्राण पाने के लिए श्री रामचरण जी भक्ति-भाव की कविताएँ लिखने लगे। उनके दो काव्य ‘रहस्य रामायण’ और ‘सीता राम दम्पती’ काफी चर्चित थे। शायद पिता के द्वारा दिया गया यह काव्य-संस्कार मैथिलीशरण गुप्त जी पर छाया बनकर उतर गया। माता काशी देवी भी गोस्वामी तुलसीदास का ‘रामचरित मानस’ नित्य पढ़ती थी और उनका भी संस्कार मैथिलीशरण गुप्त जी पर बचपन से ही पड़ा। इन्हीं सुसंस्कारों के कारण मैथिलीशरण गुप्त जी एक बड़े और अच्छे कवि बनने के साथ ही उससे भी बड़े और अच्छे एक इन्सान के रूप में ख्याति अर्जित किए।
 
उनके बड़प्पन की चर्चा करते हुए एक बार महादेवी वर्मा ने कहा था-‘‘अब तो भगवान् के यहाँ वैसे साँचे ही टूट गए जिनसे दद्दा जैसे लोग गढ़े जाते थे।’’
 
चिरगाँव में तीसरे दर्जे की पढ़ाई पूरी करके आप मैकडोनल हाईस्कूल झाँसी में पढ़ने के लिए आये। मगर आपका झुकाव बचपन से ही लोककला, लोक-संगीत, लोक-नाट्य, खेल-कूद और अन्य मनोरंजन की ओर अधिक था। उनकी स्कूली पढ़ाई में अभिरुचि नहीं रहती थी। इसलिए उनके पिताजी ने गाँव बुला लिया। ग्रामीण परिवेश उन्हें बहुत पसन्द था। अब घर में ही पढ़ाई की व्यवस्था की गई। मैथिलीशरण गुप्त जी इससे बहुत प्रसन्न थे। धर्म-ग्रंथ, इतिहास और संस्कृत की पोथियाँ पढ़ने का शौक बढ़ा। बचपन में जो शुभ संस्कार पड़े थे, वे अब घनीभूत होने लगे। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, विद्वानों की संगति उन्हें बहुत आह्लादित करने लगी। ‘‘विद्वत्त्वं च, नृपत्वं च, नैव तुल्यं कदाचन’’ को बिल्कुल सही मानते थे और उनके हृदय में विद्वानों के प्रति असीम आदर था।
 
यह भी एक सामाजिक विडम्बना ही थी कि ऐसे होनहार बालक की शादी सन् 1895 में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में कर दी गई। पाँच वर्ष बाद गौना हुआ और अभी तीन वर्ष भी पत्नी के साथ जीवन का संगीत नहीं सुन पाये थे कि वह इस लोक से ही सन् 1903 में विदा हो गई। उस समय उनकी अवस्था मात्र 17 वर्ष की थी। कहा जाता है कि दुर्दिन भी मिलकर एक साथ आते हैं। शायद उनके लिए भी ऐसा ही हुआ जब उसी वर्ष 1903 में पिताजी भी चल बसे। सन् 1904 में दूसरी शादी भी हुई और उसी वर्ष माताजी का भी निधन हो गया। जीवन में एक रिक्तता का आभास होने लगा। माता-पिता की छाया सर से उठ जाने पर एक अदृश्य भय अन्तर को सताने लगा। कवि-हृदय एक बार टूटने के कगार पर आ गया। जमींदारी बिक गई  फिर भी कर्ज का बोझ साये की तरह लगा रहा। उनके अन्तस् का कवि अब जाग रहा था। जैसे तपाने पर कुन्दन की चमक और बढ़ जाती है, वैसे ही दुःखों की आँच में तप कर गुप्तजी का व्यक्तित्व और निखरने लगा और उनका कवित्व अँगड़ाइयाँ लेता हुआ जाग्रत होने लगा। उनकी पहली कविता ‘हेमन्त’ सन् 1906 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। इस ‘सरस्वती’ पत्रिका के यशस्वी सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। यह पत्रिका इलाहाबाद से निकलती थी। इस पहली कविता की भी एक कथा है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पास जब ‘हेमन्त’ कविता को गुप्त जी ने ‘सरस्वती’ में छपने के लिए भेजा तो बहुत दिनों तक वह नहीं छप सकी। बाद में जब यह कविता छपी तो उसमें संशोधन किया गया था। और कुछ ही दिन बाद द्विवेदी जी का इस सम्बन्ध में एक पत्र भी आया , जिसमें लिखा था- ‘‘हमारे लिए संशोधनों पर भी विचार करो कि वे क्यों किए गए हैं। पहले क्या बात थी और अब क्या हो गई है?’’ इस पत्र का भी गुप्त जी पर काफी प्रभाव पड़ा और वे काफी सचेत होकर कविताएँ लिखने लगे। अब ‘सरस्वती’ में उनकी कविताएँ प्रायः लगातार छपने लगीं, बिना संशोधन के।
 
श्री गुप्त जी कविताएँ लिखने के लिए स्लेट पटिया और सफेद पेंसिल का उपयोग करते थे। जब आश्वस्त हो जाते थे, तब पटिया पर से उस कविता को कागज पर कलम से उतार लेते थे। इस तरह उनकी कविता उन्हीं के द्वारा परिशोधित होती जाती थी। भारतीय संस्कृति और भारतीय इतिहास को वे अपनी दृष्टि से देखते थे और उसके विषय पर कविता की सृष्टि करते थे। इसी संदर्भ में सन् 1910 में उनका काव्य ‘‘जयद्रथ वध’’ प्रकाशित हुआ, जिससे उनकी ख्याति हिन्दी-साहित्य में एक यशस्वी कवि के रूप में हुई। मगर असल श्रेय तो उन्हें ‘भारत भारती’ से मिला, जिसे उन्होंने सन् 1912 में लिखा। ‘भारत भारती’ ने उन्हें सफलता के श्रेष्ठ सोपान पर प्रतिष्ठित कर दिया और वे ‘राष्ट्रकवि‘ कहलाने लगे। ‘भारत भारती’ में भारत का गौरव बोल रहा है, भारत की संस्कृति विहँस रही है और भारत का इतिहास राष्ट्रीयता का गान कर रहा है। ‘भारत भारती’ में समाज में व्याप्त कुरीतियों पर भी करारा प्रहार है, धर्म के नाम पर चलने वाले मिथ्याचार और अनाचार पर भी गहरी चोट की गई है और सबसे बढ़कर राष्ट्रीयता की भावना का प्रबल संचार इस पुस्तक में उफान पर है। गुप्त जी की रचनाओं का मूल उत्स राष्ट्र, राष्ट्र-पे्रम, राष्ट्र-भाषा, राष्ट्रीय-एकता, राष्ट्र-रक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय महापुरुष रहे हैं जो उनकी कविताओं में प्राण का पांचजन्य फूँकते हैं।
 
यह काव्य-पुस्तक ‘भारत भारती’ के छपने के साथ ही सारे राष्ट्र में एक भूचाल-सा आ गया। अंग्रेज सरकार भी इस पुस्तक की विरोधी बन गई। इस पुस्तक के अन्त की ‘विनय’ पर कई प्रान्तीय सरकारों ने प्रतिबन्ध लगा दिया। इस पुस्तक की महत्ता इस अर्थ में और महत्त्वपूर्ण हो गई कि राष्ट्र-प्रेम जगाने का यह एक माध्यम बन गई। अभी महात्मा गाँधी भी भारतीय राजनीति में उतरे नहीं थे। वे भी सन् 1915 में दक्षिण अफ्रिका से भारत लौटे थे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी ‘गीतांजलि’ के अंग्रेजी अनुवाद पर सन् 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला था। इस तरह इन दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं के पूर्व की यह कृति सन् 1912 में छपने पर इस पर जितना ही प्रतिबन्ध लगाने की चर्चा होती रही थी, उतना ही इस पुस्तक की लोकप्रियता बढ़ती गई। भारत के राष्ट्रीय जागरण का उद्घोष इस पुस्तक में था तो अपनी प्राचीन विरासत के गौरव को खोने का आक्रोश भी था। ‘भारत भारती’ की कुछ पंक्तियाँ देखें:-
 
‘‘हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी।
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं,
हम कौन थे, इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा हैं नहीं।’’
 
इसकी पहली पंक्ति में ही एक दर्द छिपा है, जो हर भारतीय को जगाने के लिए अपनी मौन पीड़ा कह जाता है। हमारा अतीत कितना गौरवशाली था और हम आज कहाँ पहुँच गये हैं और इसी तरह हम अगर सोते रहे तो पता नहीं भविष्य में कहाँ पहुँचेंगे ?
 
इसलिए उन्होंने ‘भारत भारती’ में नवयुवकों को भी ललकारा -
 
‘‘हे नवयुवाओ ! देश भर की दृष्टि तुम पर ही लगी,
है मनुज जीवन की तुम्हीं में ज्योति सबसे जगमगी।
दोगे न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में ?
देखो, कहाँ क्या हो रहा है आजकल संसार में।’’
 
सचमुच देश के नवयुवकों के लिए यह एक जागरण-गीत था।
 
गुप्त जी की करीब 45 कृतियाँ हैं, जिसे उन्होंने सन् 1906 से सन् 1964 तक लिखा है। उनकी कुछ कृतियाँ उनके देहावसान [12 दिसम्बर 1964] के बाद भी प्रकाशित हुई हैं। मगर ‘भारत भारती’ को जो सम्मान मिला वह सर्वोपरि है। सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी कवि पं0 माखनलाल चतुर्वेदी ने उनके बारे में लिखा-‘‘जिस समय ‘भारत भारती’ निकली तो ऐसा लगा जैसे राजनैतिक और सामाजिक विचारधारा में एक तूफान आ गया । सभा-मंचों पर वक्ता ‘भारत भारती’ के छंदों का इतना उपयोग करते, मानो उनके कहने की सामग्री के शीर्षक और प्राण केवल हिन्दी की काव्य-पुस्तक ‘भारत भारती’ में ही है। उन दिनों शायद ही कोई समाचार-पत्र हो जिसने गुप्त जी और उनकी कविता तथा ‘भारत भारती’ की प्रशंसा न की हो। जब यह पुस्तक निकली तब गुप्तजी ने और हिन्दी-जगत् के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने अपने शिष्य गुप्त जी की प्रशस्ति में ‘सरस्वती’ में एक छंद लिख डाला। जिसकी अन्तिम पंक्ति थी-‘‘श्री मैथिलीशरण गुप्त उदार वृत्त।’’
 
इसके बाद इनकी कई कृतियाँ प्रकाशित हुई जिसमें तिलोत्तमा [1915], शकुन्तला [1919]1923,ए पंचवटी [1925], हिन्दू [1927], त्रिपथगा [1927], साकेत [1931], यशोधरा [1932], मंगलघाट [1937], नहुष [1940], विश्ववेदना [1942], प्रदक्षिणा [1950], जय भारत [1952], रत्नावली [1960] आदि प्रमुख हैं। इसमें सर्वाधिक लोकप्रियता ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, ‘जय भारत’ और ‘द्वापर‘ को मिली।
 
काव्य-रचना के प्रति उनकी एक अलग अवधारणा थी। कविता के बारे में उनकी दृष्टि ‘भारत भारती’ की कुछ सूक्तियों में स्पष्टता के साथ अभिव्यक्त हुई हैं। कविता के बारे में वे लिखते हैं --
 
          ‘‘केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए ।
           उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।’’
 
इसी क्रम में वे एक जगह ‘भारत भारती’ में ही फिर कहते हंै:-
 
         ‘‘आनन्ददात्री शिक्षिका है, सिद्ध कविता कामिनी।
          है जन्म से ही वह यहाँ, श्रीराम की अनुगामिनी।।’’
 
इस तरह सोद्देश्य कविता लिखना ही उनके अनुसार ‘कवि-कर्म’ होना चाहिए और समय की शिला पर पाँव रखकर कवि को अपने आस-पास की समस्याओं के समाधान के लिए भी प्रयास करना चाहिए। इसलिए उन्होंने अपने काल-खंड के किसी भी प्रमुख विषय को कविता की परिधि में बाँध लिया और हर अवसर-विशेष पर अपनी लेखनी चलायी, यहाँ तक कि संसद-भवन में वे कविता में ही अपना भाषण देते थे।
 
हम जरा इस संदर्भ की ओर देखें जब अफ्रिका में रहने वाले भारतीयों की कथा-व्यथा से आहत कवि-मन किस तरह की बातें करता है -
 
कर्मकर हैं, पर किसी से कम नहीं
सब नरों के स्वत्व एक समान हैं।
न्याय से अधिकार अपना चाहते
कब किसी से माँगते हम दान हैं।।
 
कविता का यह अंश सन् 1915 में लिखी कविता ‘अफ्रिका प्रवासी भारतवासी’ से उद्धृत है। ‘फीजी’ में भी भारतीय मजदूर ‘बन्धुआ’ बनकर गये थे। उनकी दशा का चित्रण करते हुए भी सन् 1917 में गुप्त जी ने ‘किसान’ नामक खंडकाव्य में लिखा -
 
‘‘हम कुली थे और काले, गगन से मानो गिरे
पशु-समान जहाज में थोड़ी जगह में थे घिरे !
भंगियों का काम भी पर वश हमें करना पड़ा,
और कुत्तों की तरह पापी उदर भरना पड़ा।’’
 
इन शब्दों मंे कितनी गहरी पीड़ा है उन बन्धुआ मजदूरों के प्रति। राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बन्ध में आज भी बहुत से विचारक ऊहापोह की स्थिति में रहते हैं। मगर उस काल-खंड में भी गुप्तजी की स्पष्टोक्ति कितनी सशक्त लगती है, जब वे लिखते हैं -
 
‘‘सम्पूर्ण प्रांतिक बोलियाँ सर्वत्रा ज्यों-की-त्यों रहें
सब प्रान्तवासी प्रेम से उनके प्रवाहों में बहें।
पर  एक ऐसी मुख्य भाषा चाहिए होनी यहाँ
सब देशवासी जन जिसे समझें समान जहाँ-तहाँ।’’
 
‘भारत भारती’ के बाद उनकी सर्वाधिक सशक्त कृति ‘साकेत’ है। ‘साकेत’ की रचना सन् 1935 में हुई। इसमें उन्होंने ‘मानस’ की मान्य परम्परा से हट कर ‘उर्मिला’ की विरह-व्यथा को विशेष महत्त्व दिया। ‘नारी-दुःख’ का चित्रण उनके अन्तर्जगत् की अनुभूति का परिणाम था। यही कारण है कि ‘साकेत’ में केवल प्राचीन रामायण का इतिहास नहीं है, बल्कि एक नयी दृष्टि की किरण है, जो नये आदर्शों पर प्रकाश डालती है। ‘साकेत’ के राम एक आदर्श मानव हैं। उसमें प्रजातन्त्र का आदर्श है, उर्मिला का त्याग है, भाई-भाई के बीच प्रेम का विस्तार है। तभी तो ‘साकेत’ में स्वयं राम कहते हैं -
 
‘‘भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।’’
 
इन पंक्तियों में सचमुच एक उच्च आदर्श की स्थापना की गई है, जिसमें मानव के व्यक्तित्व को उठाकर उस स्थान पर पहुँचाने का संकल्प निनादित है, जहाँ पर उसके दिव्य आचरण से स्वतः स्वर्ग का निर्माण होता है। ‘साकेत’ में उर्मिला ख्लक्ष्मण की धर्मपत्नी, की विरह-व्यथा इन पंक्तियों में अभिव्यंजित है -
 
‘‘रह चिर दिन तू हरी-भरी
बढ़ सुख से बढ़ सृष्टि-सुन्दरी।
सुख प्रियतम का मिले मुझे
फल जन-जीवन-दान तुझे।।’’
 
प्रकृति के सौन्दर्य को देखकर उर्मिला को विद्वेष नहीं होता, बल्कि उसके चिर-हरी-भरी होने की कामना करती है। अपने पति के लौटने की प्रतिच्छाया उसे स्वप्न में भी दिखलायी पड़ती है। गुप्तजी की कल्पना नारी केवल भोग्या नहीं है, बल्कि वह पूज्या भी है।
 
मैथिलीशरण गुप्त जी की तीसरी चर्चित कृति ‘यशोधरा‘ है, जिसमें भारतीय नारी की करुणा, ममता, वात्सल्य और प्रेम की भावना का उदात्त चित्रण है। ‘यशोधरा‘ एक चम्पू काव्य है। ‘यशोधरा‘ एक ऐसी अबला है, जिसके आँचल में दूध है और आँखों में पानी है। आँचल का दूध पुत्र राहुल के प्रेम में भींगा हुआ है तो आँखों का पानी पति ख्बुद्ध , की प्रतीक्षा की पीड़ा का द्योतक है। ‘यशोधरा‘ के अन्तद्र्वन्द्व को कवि ने बड़ी सघनता से शब्दों में पिरोया है -
 
‘‘सखि, वे मुझसे कह कर जाते ?
कहते तो क्या मुझको वे अपनी पगबाधा ही पाते ?
मुझको बहुत उन्होंने माना,
फिर भी क्या पूरा पहचाना ?
मैंने मुख्य उसी को जाना,
जो वे मन में लाते।’’
 
‘यशोधरा‘ मैथिलीशरण गुप्त जी की एक अत्यन्त सफल कृति है, जिसमें भावों का इन्द्रधनुषी रंग है, नवचिन्तन का सरस तरंग है और नारी-मन की वेदना का भाव-प्रवण प्रसंग है। एक और हृदय-स्पर्शी दृश्य है, जब तथागत बन कर आये सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा के पास आते हैं, तब वह स्वाभिमानिनी अपने एकलौते पुत्र राहुल की भी तथागत का अनुगामी बनाने के लिए अपने पति से प्रार्थना करती है -
 
‘‘तुम भिक्षुक बनकर आये थे, गोपा क्या देगी स्वामी?
था अनुरूप एक राहुल ही रहे सदा यह अनुगामी।’’
 
इन पंक्तियों को पढ़कर आँखों के सामने एक ऐसा दृश्य उभर आता है, जिससे हृदय द्रवित हो उठता है। भारतीय पौराणिक संदर्भों की चर्चा गुप्त जी के काव्य में पूरी तरह समाहित है। उनकी काव्य-विधाओं पर चर्चा करते हुए डा0 राम कुमार वर्मा ने एक जगह लिखा है-‘‘श्रीधर पाठक जिस तरह छन्दों के अजायबघर हैं, उसी तरह गुप्तजी काव्य-विधाओं के राष्ट्रीय संग्रहालय हैं। गुप्त जी राष्ट्रीय जागरण के प्रेरणास्रोत होने के साथ-साथ साहित्यिक-विशेषताओं को सहज ढंग से रूपायित करने वाले समर्थ कवि हैं।
 
‘यशोधरा‘ के बाद गुप्तजी की एक और विमल काव्य-कृति ‘द्वापर‘ है, जिसकी रचना 1936 में हुई। इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र की गाथा नये प्रतीमानों के साथ विद्यमान है। गुप्तजी राम-भक्त हैं तो कृष्ण-भक्त भी हैं और सच कहें तो ऐसे महान् व्यक्ति मानवता के भक्त होते हैं। वे विचार की किसी संकीर्णता में नहीं बँधते। इसलिए हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी जब वे लिखते हैं, तो उनका मानवतावादी पक्ष ही परिलक्षित होता है --
 
‘‘हिन्दू तथा तुम सब चढ़े हो एक नौका पर यहाँ,
जो एक का होगा अहित तो दूसरे का हित कहाँ?’’
 
‘द्वापर‘ श्रीमद्भागवत पर आधारित 16 सर्गों की काव्य-कृति है, जो श्री कृष्ण के जीवन से सम्बद्ध प्रमुख पात्रों से हैं। ये सब स्वगत-भाषण के माध्यम से इस काव्य-कृति में अभिव्यक्त हुए हैं। एक नया प्रयोग, एक नये संदर्भ के साथ इसमें प्रस्फुटित हुआ है।
 
गुप्तजी की एक और विशिष्ट कृति ‘जयभारत’ है जिसकी रचना सन् 1952 में हुई । इस काव्य-कृति में महाभारत के विविध प्रसंग हैं। इसमें युद्ध और शान्ति का चित्रण नये रूप में वर्णित है। इसमें युद्ध का एक दृश्य कितना मार्मिक और संदेशप्रद है -
 
‘‘भीष्म और द्रोण के अनन्तर था कर्ण ही
मानकर प्रार्थना सुयोधन की, उसका
शल्य सारथी तो बना, किन्तु कहा उसने 
यह अभिमानी भला पार्थ से लड़ेगा क्या ?
हार खा चुका है कर वार जो प्रथम ही ।
बोला क्रुद्ध कर्ण-‘‘स्वयं सूत बना, तो भी तू
लज्जित क्यों होता नहीं ओछी बात, कहते !
मैंने तो कहा था बस यही उनसे  ‘मैं द्विज हूँ’
यह छल है तो पूछ जाके बड़े पार्थ से 
छल है वा सत्य- ‘अश्वत्थामा हत हो गया।’’
 
और फिर ‘जय भारत’ के ही ‘शान्ति सन्देश‘ की एक झाँकी देखें -
 
‘‘हो सकती है शान्ति, आप चाहें तो अब भी,
रुक सकती है क्रान्ति, आप चाहें तो अब भी।
भ्रान्त सुतों को त्रान्त कीजिए आप यहाँ पर,
शान्त करूँ विक्रान्त पाण्डवों को मैं जाकर।
मित्र का औरों का भी यही करने में कल्याण है,
अति अकल्याण है अन्यथा, नहीं किसी का त्राण है।’’
 
वैसे तो गुप्त जी की अनेक कृतियाँ हैं, जिसमें अलग-अलग रंग हैं, सबमें एक अलग छटा है फिर भी सबमें एक अद्भुत आकर्षण भी है, जो पाठक को बाँधे रखता है। प्रकृति-चित्रण का एक दृश्य देखें -
 
‘‘चारु चन्द्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अम्बर तल में।’’
 
विभिन्न विषयों पर गुप्तजी का सटीक वर्णन मानो उनकी नब्ज की धड़कन पकड़ने जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है। नारी के बारे में दो पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
 
‘‘नारी लेने नहीं लोक में देने को आती है।
अश्रु शेष रख कर वह उससे प्रभुपद धो जाती है।’’
 
स्वदेशी और विदेशी सामानों की बात सन् 1912 में उन्होंने जो की है, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं -
 
‘‘यदि हम विदेशी माल से मुँह मोड़ सकते हैं नहीं 
तो हाय! उसका मोह भी क्या छोड़ सकते हैं नहीं!
निज देश पर क्या अल्प भी अनुराग कर सकते नहीं?
क्या बन्धुओं के हित तनिक भी काम कर सकते नहीं!’’
‘भारत भारती‘  में हिन्दी के बारे में उन्होंने कहा -
‘‘प्रेरक हों, राम तो जयन्त से भी होड़ लूँ,
चाहता हूँ अपने को हिन्दी पर तोड़ दूँ।’’
 
अनेक विषयों पर गुप्तजी की कविता मानो गागर में सागर भरने का कार्य करती है।
 
गुप्तजी की कविता में निरन्तर निखार आता गया। उनके जीवन में भी अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे। ‘भारत भारती‘ की रचना के दो वर्ष बाद ही दूसरी पत्नी भी सन् 1914 में चल बसीं। सन् 1917 में तीसरा विवाह सरजू देवी से हुआ, जिसे जिया के नाम से भी पुकारा जाता था। सन् 1917 में ही चिरगाँव में साहित्य-प्रेस की स्थापना हुई। उस प्रेस की मशीनों से भी गुप्तजी को प्रेम हो गया था। वे काव्य-लेखन के साथ मशीनों का भी निरीक्षण बखूबी कर लिया करते थे। सन् 1936 में सात सन्तानों की मृत्यु के बाद एक मात्र पुत्र उर्मिला चरण का जन्म हुआ। इसी वर्ष सन् 1936 में ‘मैथिली मान ग्रंथ‘ गुप्तजी के सम्मान में काशी में महात्मा गाँधी जी के हाथों से भेंट की गई। यह एक ऐतिहासिक क्षण था, जब गाँधीजी के द्वारा राष्ट्रकवि का अभिनन्दन किया गया। उस समय गुप्तजी की अवस्था 50 वर्ष की थी। देश की स्वतन्त्रता के लिए उनके अन्दर में जलती ज्वाला का प्रतिबिम्ब तो सन् 1912 से ही ‘भारत भारती‘ में दिखलाई पड़ रहा था। मगर गाँधीजी के सम्पर्क में आने पर वह ज्वाला और घनीभूत हो गई। सन् 1940 और सन् 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में दो बार जेल-यात्रा भी की। झाँसी और आगरा जेल में राजबन्दी बनाए गये। फिर तो गुप्तजी देश की सक्रिय राजनीति से जुड़ गए और महात्मा गाँधी की विचारधारा के प्रबल समर्थक बन गए। सन् 1948 में उन्हें आगरा  विश्वविद्यालय से डी0लिट्0 की मानक उपाधि दी गई। देश स्वतन्त्र हो चुका था। देश को नई रोशनी देने में सभी नेतागण लगे थे। गुप्तजी भी अपनी रचना-धर्मिता से देश को सँवारने के लिए लोगों का आह्वान कर रहे थे। देश के बड़े-बड़े नेता से उनके घनिष्ट सम्बन्ध थे। सन् 1952 में उन्हें राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया और वह इस गरिमामय पद पर सन् 1964 तक यानी कुल 12 वर्षों तक रहे और इसकी मर्यादा को महिमान्वित किया। सन् 1954 में इन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’ की उपाधि प्रदान की गई। संसद-सत्र में भी वे भाषण कविता में ही दिया करते थे। जब सी0डी0 देशमुख वित्तमंत्री थे तो बजट पेश करते समय संस्कृत में कुछ श्लोक भी सुनाते थे। प्रत्युत्तर में दद्दा अपनी कविता से बजट पर टिप्पणी करते थे। सारा माहौल खुशनुमा हो उठता था। दद्दा अत्यन्त विनोदप्रिय व्यक्ति भी थे। उन्हें संगीत से भी प्रेम था। उनके यहाँ साहित्यकार, राजनीतिज्ञ, संगीतज्ञ, हिन्दी-प्रेमी, जनपद के लोग, विद्यार्थी और अध्यापक हर तरह के लोग आते थे। एक तरह से चैपाल की स्थिति बन जाती थी। एक बार उसी प्रकार की एक बैठक में एक कवि-मित्र ने संसद-सदस्यों के आवास पर लटकी लाल फूल की लताओं को लक्ष्य करते हुए दद्दा से कहा -
 
‘‘रक्तमुखी की छाँव में, करते एम0 पी0 वास।’’
उसे सुनकर दद्दा ने तत्काल दूसरी पंक्ति बनाकर इसमें जोड़ दी -
‘‘चार मास की वृत्ति में काटें बारह मास।’’
 
इसे सुनकर एक जोर का ठहाका लगा, क्योंकि उस समय एम0 पी0 को दिल्ली आने पर केवल चार महीने का ही भत्ता मिलता था। इसी में उन्हें साल भर गुजारा करना पड़ता था। गुप्तजी की प्रतिष्ठा केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के साहित्यकारों के बीच भी थी। रूस के प्रख्यात हिन्दी-लेखक प्यौत्र वारान्निकोव जिनके पिता एकेडेमिशियन वारान्निकोव ने रामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया है, जब दिल्ली में दद्दा से मिलने आये तो उन्होंने बतलाया कि रूस में हिन्दी-कविता के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनका प्रारम्भ गुप्तजी की ही कविताओं से हुआ है। निश्चय ही यह एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा है। प्यौत्र वारान्निकोव भी पिता की तरह ही ‘मानस’ और हिन्दी-भाषा के प्रशंसक हैं।
 
इस प्रकार जब रूस के  राष्ट्रपति बुलगानिन और प्रधानमंत्री क्रुश्चेव भारत आये तो एक समारोह में उनके सम्मान में श्री गुप्त जी का ही एक गीत ‘जननी तेरी जय हो’ गाया गया। समारोह की समाप्ति पर पं0 जवाहर लाल नेहरू ने रूसी अतिथियों से परिचय कराते हुए कहा-‘‘अभी आपने जो हिन्दी गीत सुना है, वह इन्हीं का बनाया हुआ है। ’’
 
1960 में उन्हें एक अभिनन्दन ग्रंथ तत्कालीन राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद जी के हाथों भेंट किया गया। यह दृश्य राम और भरत के मिलन जैसा था। सन् 1960 में ही बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से डी0लिट्0 की मानक उपाधि दी गई। सन् 1962 में इलाहाबाद में ‘सरस्वती’ की स्वर्ण जयन्ती महोत्सव के अध्यक्ष के रूप में आप पधारे और अपने अध्यक्षीय भाषण से सबको मुग्ध कर दिए।
 
25 मार्च 1963 को छोटे भाई सियारामशरण गुप्त जी की मृत्यु हो गई। राम और लक्ष्मण की जोड़ी टूट गई। लक्ष्मण ही पहले चले गये। दद्दा को अब अपना जीवन सूना-सूना लगने लगा। 9 दिसम्बर 1964 को राज्यसभा की सदस्यता का कार्य-काल समाप्त होने पर आप फिर चिरगाँव आ गए। यहाँ भी लेखन-कार्य चलता रहा मगर अब बहुत कुछ बदल चुका था। दद्दा अन्तिम समय में भी लिखते रहे। कहा जाता है कि जिस रात्रि में उनका शरीर छूटा उस दिन दोपहर को भी उन्होंने एक पद लिखा जो शायद उनकी अन्तरात्मा की आवाज थी।
 
‘‘प्राण न पागल हो तुम यों
पृथ्वी पर है प्रेम कहाँ,
मोहमयी छलना भर है
भटको न अहो तुम और यहाँ।
ऊपर से निरखो, अब तो
बस मिलना है चिर मेल कहाँ,
स्वर्ग वहीं, अपवर्ग वहीं
सुख-सर्ग वहीं, निज वर्ग जहाँ।’’
 
लगता है कि इस संसार में अब अधिक भटकना उन्हें रास नहीं आ रहा था और उनकी आत्मा उस परम सत्ता से मिलने के लिए आतुर थी। शायद उनकी आवाज सुन ली गई और परमात्मा ने 12 दिसम्बर 1964 की 2ः00 बजे रात्रि को उन्हें अपने पास बुला लिया। हिन्दी-साहित्य के एक युग का अन्त हो गया।
 
दद्दा राजनीति में रहते हुए भी उससे जल-कमलवत् सम्बन्ध रखते थे। कहा जाता है कि एक बार गणतन्त्र दिवस की पूर्वसंध्या पर सन् 1952 में लाल किले पर आयोजित कवि-सम्मेलन में वे पं0 जवाहर लाल नेहरू के साथ सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। अचानक पं0 जी के पैर डगमगाए मगर पार्श्व में चल रहे गुप्तजी ने उन्हें सहारा देकर थाम लिया। पं0 जी ने उन्हें जब धन्यवाद दिया तो उन्होंने कहा-‘‘भविष्य में भी जब कभी राजनीति के पैर डगमगाएँगे तो साहित्यकार ही सहारा देकर उसे थाम लेंगे।’’ इस उक्ति को सुनकर पंडित जी के साथ अन्य सभी लोग भी खिल-खिला कर हँस पड़े। वैसे तो गुप्तजी को राष्ट्रकवि की उपाधि स्वयं महात्मा गाँधी ने बहुत पहले दे दी थी, मगर जब देश आजाद हुआ तो भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने संवैधानिक रूप से भी इन्हें राष्ट्रकवि घोषित किया।
 
दद्दा की सम्पूर्ण साहित्यिक कृति मानव-हित के लिए अर्पित है और उन्हीं के शब्दों में इस कथ्य को चरितार्थ करती है-
 
‘‘अर्पित हो मेरा मनुज काय,
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय।’’
 
गुप्तजी की जन्म-शताब्दी महोत्सव के अध्यक्ष थे तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री वेंकट रमण और राष्ट्रीय समिति की ओेर से 3 अगस्त 1986 को सुप्रसिद्ध साहित्यकार पत्रकार श्री जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी के सम्पादकत्व में एक ‘राष्ट्रवाणी’ नामक ग्रंथ प्रकाशित किया गया। इस शताब्दी-महोत्सव में सारे देश में गुप्तजी की साहित्यिक कृतियों पर चर्चाएँ हुईं और हिन्दी-साहित्य को उनकी अमूल्य देन पर भी विचार-गोष्ठियाँ हुई। एक बार सारे देश का साहित्यिक माहौल राष्ट्रकवि के प्रति श्रद्धावनत हो राष्ट्रीयता के चिन्तन से ओत-प्रोत हो उठा।
 
गुप्तजी की जन्म-शताब्दी (3 अगस्त 1986) पर बोकारो स्टील प्लांट के  राजभाषा विभाग द्वारा भी एक साहित्यिक परिचर्चा आयोजित की गई, जिसमें स्थानीय साहित्यकारों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर व्यापक प्रकाश डाला। उस अवसर पर मेरे द्वारा भी गुप्त जी के सम्मान में एक छोटी-सी कविता निवेदित की गई, जो यहाँ द्रष्टव्य है -
 
शत-शत नमन!
काव्य का पर्याय था जो, शब्द का शुचि यंत्रा था,
राष्ट्र की नवचेतना का, वह अलौकिक मंत्रा था।
सरल-शैली का प्रणेता, सिद्ध साधक सर्जना का,
जो मनीषी था पुजारी, राष्ट्र की आराधना का।
 
भाव की भाषा सजाकर, बिगुल संस्कृति का बजाकर,
छन्द का दृढ़ रज्जु धर कर, जागरण का दीप ले कर।
राष्ट्र के आंगन में उतरा ‘राष्ट्र कवि’ चढ़ शब्द-स्पंदन,
सित हुई अलसित धरा यह, गंध पाकर काव्य-चन्दन।
 
‘हेमन्त’ से चलकर छुए वे काव्य के आकाश को,
‘साकेत’ और ‘यशोधरा’ ने रच दिया इतिहास को।
रच कर उतारी भारत माता भारती की आरती,
गुंजित हुई इस देश में कवि कीर्ति ‘भारत भारती।’’
 
भूषित वरण वह ‘पद्मभूषण’ से बड़े वे शक्ति थे,
जितने बड़े थे कवि हृदय उससे बड़े वे व्यक्ति थे !
उस महाकवि को समर्पित, भाव के श्रद्धा-सुमन,
है जन्म के सौ वर्ष पर, शत-शत नमन, शत-शत नमन!
 
मैथिलीशरण गुप्त जी मानवता के कवि हैं, विविधता के कवि हैं, सामंजस्यता के कवि हैं, राष्ट्रीयता के कवि हैं और भाव-प्रवणता के कवि हैं। उन्हीं के शब्दों में-‘‘प्रकृति का सौंदर्य ठीक है, परन्तु मनुष्य मेरा प्रिय विषय है।’’ इस वाक्य में उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता दृष्टिगत होती है। अन्त में उन्हीं के शब्दों में दो पंक्तियों से इस लेख का समापन उनके चरणों में श्रद्धावनत होकर करता हूँ -
 
‘‘मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए जिए,
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।’’
 
‘अर्पित हो मेरा मनुजकाय’ के रचयिता को समर्पित है यह शब्दांजलि।
 
 
Sukhnandan singh Saday
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