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स्वामी दयानन्द Swami Dayanand

क्रांतिदर्शी महर्षि - स्वामी दयानन्द

 

SWAMI DAYANAND SARASWATI (MULSHANKAR TIWARI)


नाम- महर्षि दयानन्द सरस्वती 

माता-पिता द्वारा रखा गया नाम- मूलशंकर 

अन्य नाम- प्यार से घर में दयाराम कहकर पुकारते थे। 

जन्म- 12 फरवरी 1824 ई. (संवत 1881 वि.)

जन्म-स्थान- टंकारा, गुजरात 

माता- श्रीमती अमूबा देवी अमृता बेन

पिता- श्री कर्षन तिवारी

देहत्याग- 30 अक्टूबर 1883

देहदयाग के समय उम्र- 59 वर्ष (59 साल आठ महीना अट्ठारह दिन)

देहत्याग स्थान- अजमेर, राजस्थान।

अंत्येष्टि स्थल- अजमेर के मलूसर श्मशान घाट पर उनकी अंत्येष्टि की गई।
व्याकरण के सूर्य स्वामी विरजानन्द जी के मथुरा-स्थित आवास पर किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। उधर से आवाज आई- कौन है? आगन्तुक ने कहा, यही तो जानने के लिए आया हूँ कि मैं कौन हूँ? स्वामीजी ने फिर दुहराया- किसलिए? उधर से आवाज आई- ज्ञान अर्जन के लिए। दरवाजा खुल गया। सामने 81 वर्षीय चक्षुहीन प्रज्ञा पुरुष को देखकर आगन्तुक चरणों में झुक गया। आगन्तुक युवक महर्षि दयानन्द थे।
गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ में मौरवी नामक एक रियासत के अन्तर्गत टंकारा ग्राम में पिता श्री कर्षन तिवारी और माता श्रीमती अमूबा देवी अमृता बेन,  के यहाँ ई0 सन् 1824  [सं01881] को एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम ‘मूलशंकर’ रखा गया। प्यार से घर में लोग उन्हें दयाराम कह कर बुलाते थे। बालक मूलशंकर बचपन से ही संस्कृत के प्रति आकर्षित होते गए। यहाँ तक कि आठ वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत-संस्कार हो जाने के बाद उन्हें कई स्तोत्र, मंत्र और श्लोकादि कंठस्थ हो गए थे। पिताजी अत्यन्त धार्मिक स्वभाव के थे और अपने इष्ट भगवान् शंकर की विधिवत् पूजा किया करते थे। वे मूलशंकर को भी इस पूजा में शामिल करते थे।
अनायास ही एक घटना ने मूलशंकर के चिन्तन को एक नया आयाम दिया। जब मूलशंकर की अवस्था मात्र 13 वर्ष की थी तो उनके पिताजी ने उन्हें शिवरात्रि का व्रत रखने का निर्देश दिया। नगर के बाहर के शिवालय में उपवास रखते हुए वे पूजा में भक्ति-भाव से लीन थे, तभी रात्रि में कुछ चूहे आकर शंकर जी की मूर्ति पर उछल-कूद करने लगे। बालक मूलशंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा कि जिस शंकर भगवान् को इतना शक्तिशाली बतलाया जाता है, वे अपने ऊपर उछल-कूद करने वाले चूहों को भी नहीं भगा सकते! बालक का मन पूजा से उचट गया। अब उसे जोर से भूख भी लग रही थी। वह पूजा छोड़ कर घर आ गया और माँ से मांग कर प्रसाद भी खा लिया।

सबेरे यह सब जान-सुनकर पिताजी काफी क्रुद्ध हो गए। इधर बालक मूलशंकर के हृदय में उथल-पुथल मची हुई थी। आखिर परमात्मा का स्वरूप कैसा है? जिस प्रकार की प्रतिमाओं में परमात्मा की पूजा की जाती है, क्या उनमें कोई शक्ति नहीं रहती? बालक को सच्चे परमात्मा की खोज की चिन्ता होने लगी। यह घटना एक बालक के लिए निश्चय ही एक प्रबल जिज्ञासा का कारण हो सकती है। मगर प्रतिमा-पूजा तो प्रतीक पूजा है। ईश्वर अगर सर्वव्यापी है तो किसी भी जगह कुछ प्रार्थना करने से अथवा उसकी शिकायत करने से वह वहाँ प्रकट होकर अपनी प्रतिक्रिया तो व्यक्त नहीं करता? हम जो कुछ भी अच्छा-बुरा करते हैं, उसका फल ईश्वरीय विधान से हमें स्वतः मिलता रहता है। ईश्वर हर जगह प्रकट होकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं करता। इसलिए भगवान् शंकर की प्रतिमा पर चूहों का चढ़ना एक बाल-सुलभ भाव के लिए जिज्ञासा भरा प्रश्न हो सकता है मगर परमात्मा के बारे में जानने के लिए यह कोई बड़ी घटना नहीं मानी जा सकती। हाँ, इस घटना से अवश्य ही बालक के मन में सच्चे परमात्मा को जानने की प्रबल जिज्ञासा जग गई।

अब मूलशंकर को अपने गाँव से कुछ दूरी पर एक विद्वान् पंडित के यहाँ पढ़ने के लिए भेजा गया। संस्कृत-वाङ्मय का ज्ञान प्राप्त करने के साथ उन्हें संसार से विरक्ति भी होने लगी। मूलशंकर पिता की सबसे बड़ी सन्तान थे और उनके पीछे दो भाई और दो बहनें थीं। जब वे 16 वर्ष की अवस्था के थे, तभी एक छोटी बहन चेचक का शिकार होकर चल बसी। कुछ समय बाद ही उनके चाचा भी चल बसे। भगवान् बुद्ध की तरह इस क्षणभंगुर जीवन को देखकर उनमें वैराग्य-भाव उठने लगे। जीवन की नश्वरता के प्रति उनका हृदय कराह उठा और शाश्वत सत्य को प्राप्त करने की इच्छा प्रबल होने लगी। इस देह के घेरे से परे भी क्या कोई आत्मा की शाश्वत सत्ता है? हम उस आत्मा को कैसे जानेंगे? बालक का युवा मन अब सांसारिकता से उपरम होता जा रहा था।

इधर मूलशंकर की अवस्था अब 21 वर्ष की हो रही थी और पिताजी के मन में पुत्र-विवाह की घंटियाँ बजने लगी थी। मूलशंकर की शादी की तैयारी की जा रही थी। मगर मूलशंकर के मन में कुछ दूसरा ही चल रहा था। घर में विवाह की चर्चा सुनकर उन्होंने एक कठोर निर्णय ले लिया और एक रात चुपके से घर छोड़कर भाग गए। 22 वर्ष का एक युवक रात की सूनी पगडंडियों पर किसी अज्ञात दिशा की ओर भागा जा रहा था। युवक अब जीवन के एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव की ओर अग्रसर था।

दयानन्द के जीवन का पहला चरण उनके जन्म-वर्ष 1824 से 1846 तक का है, जब वे 22 वर्ष की अवस्था में घर छोड़ कर ज्ञान की तलाश में निकल पड़े थे। इनकी दूसरी यात्रा का चरण सन् 1846 से 1860 तक का है, जिसमें ज्ञान की खोज में जगह-जगह भटकने के साथ पूरे देश के आध्यात्मिक स्थलों का भ्रमण करते रहे। जीवन-यात्रा के इस दूसरे चरण में घर छोड़ने के बाद एक ब्रह्मचारी से दीक्षा लेकर वे ‘शुद्ध चैतन्य’ बन गए और फिर तीन महीने तक संत-महात्माओं की खोज करते हुए, उनसे सत्संग-वार्ता करते हुए ज्ञान-लाभ प्राप्त करने हेतु गुजरात के सिद्धपुर मेले में पहुँच गए। इसी मेले में उनके जन्म-स्थान टंकारा के पास के एक बैरागी ने इन्हें पहचान लिया और उनके पिताजी को खबर भेज दी। पिताजी फौरन वहाँ पहुँच कर ‘शुद्ध चैतन्य’ से ब्रह्मचारी का वेष उतरवा कर उन्हें वहीं पर अपने सिपाहियों की देख-रेख में रखने लगे। यहाँ से फिर वे तीसरे दिन ही मध्य रात्रि में सिपाहियों के सो जाने पर भाग गये। योगी-महात्माओं की खोज में वे अहमदाबाद, बड़ौदा, चाणोद आदि स्थानों पर गए।

चाणोद के पास ही एक जंगल में एक दण्डी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से मिलकर संन्यास-दीक्षा लेने की प्रार्थना किए। काफी विचार-विमर्श के बाद स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती ने उन्हें संन्यास-धर्म की विधिवत् दीक्षा दी और अब वे ‘शुद्ध चैतन्य’ से स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती बन गए। जीवन-यात्रा का दूसरा चरण ज्ञान की खोज का था, जिसका एक अध्याय यहाँ पूरा हो गया था। गुरु पूर्णानन्द जी चाणोद से द्वारिका आश्रम के लिए प्रस्थान कर गये तो स्वामी दयानन्द अब उनके द्वारा बतलाये गये नियमों का पालन करते हुए विद्याध्ययन और साधना में लीन रहने लगे। ज्ञान की पिपासा नित्य बढ़ती जा रही थी। इस क्रम में वे अनेक सन्त-महात्माओं के सम्पर्क में आये और उनसे ज्ञान अर्जित किए। उनके जीवन में सर्वाधिक प्रभाव अहमदाबाद के पास स्थित दुधेश्वर मन्दिर में स्वामी ज्वालापुरी और शिवानन्द गिरि के योग, जप, तप, अनुष्ठान का पड़ा, जहाँ उनसे सम्पूर्ण क्रियाओं से अवगत होकर वे कृतकृत्य हो उठे। मगर स्वामी दयानन्द जी तो ज्ञान की पूर्णता को अपने में समेटना चाहते थे।

उनकी यह ज्ञान-प्राप्ति की यात्रा आगे बढ़ती गई। वे माउण्ट आबू राजस्थान आ गये। फिर नर्मदा नदी के किनारे भी रहे और अन्त में उनकी यात्रा उत्तराखण्ड के नीरव हिम-खण्डों की बीहड़ घाटियों में भी हुई। हरिद्वार, ऋषिकेश, टिहरी, गढ़वाल, तुंगनाथ शिखर आदि की कठिन यात्रा करते हुए वे सिद्ध योगियों की तलाश में काफी कष्ट उठाये। इसी क्रम में वे प्रसिद्ध उखीमठ भी पहुँचे। उखीमठ के महन्त स्वामीजी की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें वहाँ का उत्तराधिकारी बनाने का प्रस्ताव भी रखा, मगर स्वामी दयानन्द उनसे इसके लिए सहमत नहीं हुए और वहाँ से वे जोशी मठ की ओर चल दिए। जोशी मठ से अलकनन्दा के किनारे-किनारे चलते हुए स्वामीजी बद्रीनाथ आ गए। यहाँ पर भी कई महात्माओं से सत्संग-वार्ता करते हुए आप अलकनन्दा के स्रोत की ओर बढ़ने लगे- किसी सिद्ध-संत की तलाश में। कई बार मार्ग की कठिनाइयाँ मौत का पैगाम लेकर आईं। मगर वे आगे ही बढ़ते गए। इस हिमालय की यात्रा में कुछ सन्त-महात्मा तो मिले मगर कोई सिद्ध नहीं मिला। इसके साथ-ही-साथ कई जगहों पर सन्त-महात्माओं के आचार-विचार से भी वे सन्तुष्ट नहीं हुए। वे फिर हिमालय से उतर आये। सन् 1855-56 में वे गंगा के किनारे घूमते रहे। स्वामीजी के गृहत्याग का दस वर्ष पूरा होेने जा रहा था। सत्यज्ञान की तलाश अभी जारी थी।

उधर देश में एक क्रान्ति की ज्वाला सुलग रही थी। सारा देश अंग्रेजों के कुशासन से त्रस्त था। सन् 1856 से 1858 तक स्वामी दयानन्द गंगा और नर्मदा के तट पर घूमते रहे। इस अवधि में स्वामी दयानन्द का जीवनवृत्त एक संकेत देता है उनकी स्वतन्त्रता-संग्राम में संलिप्तता का, क्रान्तिकारियों के मार्गदर्शन का और विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के संकल्प का। स्वामी पूर्णानन्द जी का कनखल स्थित पूर्णाश्रम भी राष्ट्र-भक्तों का केन्द्र था। क्रान्तिकारी उस आश्रम से सम्पर्क रखते थे। 1857 का स्वतन्त्रता-संग्राम देशव्यापी तो बना मगर अन्ततः वह सफल नहीं हो पाया। स्वामी दयानन्द जी एक बार फिर स्वामी पूर्णानन्द जी के चरणों में उपस्थित हुए। उस समय तक वे काफी वृद्ध हो चुके थे।

स्वामी दयानन्द भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम सफल नहीं होने से दुःखी थे। अभी ज्ञान की पिपासा भी पूरी तरह शान्त नहीं हो पाई थी। स्वामी पूर्णानन्द जी मौन व्रत धारण किए हुए थे। उन्होंने स्वामी दयानन्द को मथुरा के स्वामी विरजानन्द के पास जाने का संकेत दिया। स्वतन्त्रता-संग्राम में स्वामी विरजानन्द जी का मथुरा-स्थित आश्रम भी अप्रत्यक्ष रूप से मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहा था। स्वामीजी मथुरा आ गये और स्वामी विरजानन्द जी का दरवाजा खटखटाया। यहीं से स्वामी दयानन्द जी के जीवन का तीसरा चरण प्रारम्भ हुआ। गुरु ने शिष्य की परीक्षा भी ली और उनकी असाधारण प्रतिभा से अत्यन्त प्रभावित भी हुए। सन् 1860 से 1863 तक स्वामी दयानन्द ने उस व्याकरण के सूर्य स्वामी विरजानन्द जी से ऋषिकृत ग्रंथों की सत्यता को जाना। गुरु ने उन्हें बतलाया कि ऋषिकृत ग्रन्थों में ही ज्ञान का यथार्थ है। मनुष्यकृत ग्रन्थों में अनुभूति का ज्ञान कम और बौद्धिक विवेचना के साथ उसमें नाना प्रकार के प्रक्षिप्त अंश भी मिला दिए गए हैं। इसीलिए उन्होंने नीर-क्षीर विवेक द्वारा सत्यज्ञान को ग्रहण करने की और मिथ्या ज्ञान को त्यागने की दृष्टि स्वामी दयानन्द को प्रदान की। स्वामी विरजानन्द के चरणों में स्वामी दयानन्द की ज्ञान-पिपासा पूर्णतः शान्त हो गई। आर्ष और अनार्ष ग्रंथों का भेद अब स्वामी दयानन्द को स्पष्ट हो गया था। स्वामी दयानन्द के जीवन का तीसरा चरण भी पूरा हो गया था। अब वे अपने गुरुदेव के चरणों में कुछ लौंग रख कर साष्टांग प्रणाम करके विदा ले रहे थे। गुरुदेव ने आशीर्वाद देते हुए कहा-‘‘सत्य धर्म का प्रचार करो। वैदिक धर्म को फैलाओ। देश का उपकार करो और मानवजाति का उद्धार करो। बस यही मेरी गुरु दक्षिणा है।’’ स्वामी दयानन्द जी कृतार्थ हो उठे।

अब स्वामी दयानन्द के जीवन का चौथा चरण प्रारम्भ हुआ जो सन् 1863 से 1883 तक यानी कुल बीस वर्षों का है। इन बीस वर्षों में स्वामीजी ने वैदिक ज्ञान के शुद्ध स्वरूप का देश भर में प्रचार किया। धर्म के नाम पर उपजे पाखंडों का प्रचंड विरोध किया। राष्ट्र भक्ति की भावना जगाने का भरपूर प्रयास किया। समाज में व्याप्त कुरीतियाँ, अन्ध-विश्वास, पाखंड को दूर करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा दी।

स्वामी दयानन्द अब मथुरा से आगरा आ गए। वैदिक ज्ञान का शुद्ध प्रचार, प्राचीन आर्य-संस्कृति का उद्धार, समाज में दलित और कमजोर लोगों के अधिकार की रक्षा का संकल्प, पाखंडियों और मिथ्याचारियों के विरुद्ध शंखनाद, राजभाषा हिन्दी के प्रचार का व्रत, नारी-जागरण का संदेश, स्वतन्त्रता का सिंहनाद तथा मानवता का कल्याण इन सभी अर्थों में स्वामी दयानन्द का योगदान अद्वितीय रहा। जगह-जगह विद्वानों की टोली शास्त्रार्थ के लिए आने लगी। स्वामीजी ने अपार यश की प्राप्ति की । एक तरह से वे आधुनिक भारत के निर्माता बन गये। उनकी प्रचारयात्रा आगरा से ग्वालियर और फिर वहाँ से करौली होते हुए जयपुर तक हुई। बीकानेर से ठाकुर हमीर सिंह, जयपुर के ठाकुर रणजीत सिंह आदि ने स्वामीजी का खूब सम्मान किया। जगह-जगह प्रवचन के आयोजन कराये गए। अन्धविश्वासों की भीड़ ढहने लगी। धर्म के नाम पर होने वाले मिथ्याचारों का भंडाफोड़ होने लगा। इस तरह शुद्ध वैदिक ज्ञान का डंका बजाते हुए स्वामी दयानन्द जयपुर, अजमेर, पुष्कर आदि स्थानों पर भ्रमण करते हुए फिर मथुरा आ गए और स्वामी विरजानन्द के सामने अपने किए गए कार्यों के बारे में सब कुछ बतला दिए। गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्न हुए। गुरुदेव के चरणों में उन्होंने इस बार एक स्वर्ण मुद्रा और एक मलमल का थान समर्पित किया। गुरुदेव के आदेश से वे फिर सत्य-धर्म के प्रचार में लग गए। इसी क्षण 1868 में गुरुदेव स्वामी विरजानन्द ब्रह्मलीन हो गए। स्वामी दयानन्द की आँखों से अश्रु की अजस्र धारा बहने लगी और वे इतना ही कह पाये-‘व्याकरण का सूर्य आज अस्त हो गया।’

स्वामी दयानन्द देश-भ्रमण करते हुए सत्य वैदिक धर्म के लिए शास्त्रार्थ करते हुए सन् 1870 में प्रयाग के कुंभ मेले में आ गए। सन्त-महात्माओं की भीड़ तो खूब थी मगर आचार-विचार से हीन, चिलम भर कर पीने वाले साधुओं की जमात देख कर उनकी अन्तरात्मा चीत्कार कर उठी। धर्म के नाम पर पाखंड और अधर्म के नाम पर प्रचार करने वालों से इस देश का कैसे उत्थान होगा? इतने निठल्ले लोग क्या देश पर बोझ नहीं हैं? धर्म के नाम पर इतना बड़ा ढोंग आखिर समाज भी कैसे बर्दाश्त करता है? अन्ध-विश्वास और अन्ध-श्रद्धा से देश का कितना अहित हो रहा है, कोई सोचने वाला भी नहीं है? आज धर्म लोगों के लिए जीविकोपार्जन का साधन बन गया है। इस सब बातों पर विचार करते हुए वे पाखंड के खंडन के लिए कृत-संकल्पित होकर अपना एक ध्वज गाड़ दिए जिस पर लिखा था-‘‘पाखंड खंडिनी पताका।‘‘।

प्रयाग-कुंभ के अवसर पर ही ब्रह्म-समाज के महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर से उनकी भेंट हुई। उन्होंने स्वामीजी को कलकत्ता आने का निमन्त्रण दिया।

समय की गति आगे बढ़ती जा रही थी। स्वामीजी जगह-जगह शास्त्रार्थ में वैदिक शास्त्र की स्थापना के साथ पोंगा पंडितों के थोथे ज्ञान की आलोचना भी कर रहे थे। जन-समूह स्वामीजी की ओर आकृष्ट होता जा रहा था।  इसी कड़ी में काशी में एक शास्त्रार्थ का आयोजन काशी-नरेश श्री ईश्वरी नारायण सिंह के आग्रह पर अक्टूबर 1869 में किया गया। काशी के सभी धुरन्धर पंडित इसमें उपस्थित थे। स्वामी दयानन्द जी ने अकेले ही सबको शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। बाद में पंडितों ने शोरगुल मचाकर स्वामी दयानन्द की पराजय को हवा में उछाल दिया। मगर सत्य को आवरण में कब तक रखा जा सकता है? धीरे-धीरे सबको  स्वामी दयानन्द की जीत का पता चल गया। काशी नरेश श्री ईश्वरी नारायण सिंह भी बाद में स्वामीजी के प्रति आदर का भाव प्रदर्शित किए।

स्वामीजी दिसम्बर 1872 में कलकत्ता आये। उस समय कलकत्ता के ब्रह्म-समाज के धुरन्धर विद्वान्- महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन, राज नारायण बसु, पंडित हेमचन्द्र चक्रवर्ती आदि स्वामीजी से मिलने आये। कहा जाता है कि उस समय के चोटी के विद्वान् श्री केशवचन्द्र सेन ने स्वामीजी से पूछा-‘‘क्या आप कभी केशवचन्द्र से मिले हैं?’’ स्वामीजी ने हँसते हुए कहा-‘‘हाँ, अभी-अभी मिल रहा हूँ।’’ सारा वातावरण इस उत्तर से आह्लादित हो गया। इस अवसर पर श्री केशवचन्द्र सेन ने एक और प्रश्न पूछा-‘‘स्वामी जी! वेद का इतना महान् विद्वान् होकर आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं? यह दुःख की बात नहीं है? ’’स्वामीजी ने फिर हँसते हुए कहा-‘‘यह भी कम दुःख की बात नहीं है कि आपके जैसा उद्भट विद्वान् संस्कृत नहीं जानता है।’’ एक बार फिर सारा वातावरण आनन्द से ओत-प्रोत हो उठा।

इस समय तक स्वामीजी केवल कौपीन पहनते थे और संस्कृत में ही प्रवचन करते थे। सामान्य व्यक्ति भी उनके संस्कृत-प्रवचन को समझ जाते थे। कलकत्ता-प्रवास के द्वारा श्री केशवचन्द्र सेन जी के आग्रह पर ही स्वामीजी हिन्दी में प्रवचन प्रारम्भ किए और साथ ही वस्त्र धारण भी करने लगे। बंगाल के समाचार-पत्रों में स्वामीजी के प्रवचन की धूम मच गई। स्वामी दयानन्द ब्रह्म-समाज के उत्सव में श्री द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर के जोड़ा-साँको निवास पर भी गये। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने आपका स्वागत किया। कहा जाता है कि उस समय रवीन्द्रनाथ ठाकुर बालक थे और स्वामीजी के द्वारा उनको गायत्री-मंत्र की दीक्षा दी गई और यज्ञोपवीत-संस्कार भी कराया गया। इस यात्रा में स्वामी जी की भेंट प्रख्यात संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस से भी हुई। स्वामीजी से गले मिलते हुए उन्होंने कहा - ‘‘इस व्यक्ति के हृदय में स्वदेश और धर्म के प्रति प्रेम की अग्नि अहर्निश प्रंचंड रूप से प्रज्वलित रहती है।’’

इस तरह स्वामी दयानन्द जी का कलकत्ता-प्रवास अत्यन्त प्रभावशाली रहा और उस समय उच्च कोटि के चिन्तक, विचारक, दार्शनिक और महात्मा सबने उनका आदर किया।

स्वामीजी कलकत्ता से बिहार की यात्रा करते हुए, कई स्थानों पर शास्त्रार्थ करते हुए फिर एक बार काशी आ गए। काशी के तत्कालीन डीपुटी कलक्टर राजा जयकृष्ण दास स्वामी जी के अनन्य प्रशंसक थे। उन्होंने ही स्वामीजी से आग्रह किया कि अपने विचारों को वे पुस्तकाकार दें। इसी के परिणामस्वरूप स्वामीजी ने 1874 में सत्यार्थ प्रकाश बोल कर लिखवाया, जिसका प्रकाशन सन् 1875 में सम्भव हुआ। काशी के ही एक और अधिकारी सर सैय्यद अहमद, जो वहाँ जज थे, स्वामीजी को अपने आवास पर लाये और वहाँ पर स्वामीजी का प्रवचन भी हुआ। स्वामीजी का अकाट्य तर्क सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो जाते थे। स्वामी दयानन्द की प्रचार-यात्रा काशी से नासिक और फिर नासिक से बम्बई की हुई। जिस तरह से कलकत्ता में ब्रह्म-समाज के विद्वानों ने स्वामीजी का सम्मान किया, उसी तरह बम्बई में प्रार्थना-सभा के सदस्यों ने स्वामीजी को समादृत किया। प्रार्थना-सभा के माध्यम से समाज-सुधार के अनेक कार्य सम्पादित किए जा रहे थे। धर्म के नाम पर फैली कुरीतियों को हटाने का भी वे लोग प्रयास कर रहे थे। स्वामीजी के आगमन पर उन लोगों ने जगह-जगह पर कार्यक्रम आयोजित कराया। श्री महादेव रानाडे, डा0 आर0डी0 भण्डारकर, पं0 विष्णु परशुराम शास्त्री आदि स्वामीजी के प्रवचन से काफी प्रभावित हुए। हवन-यज्ञ की वैदिक विधि की महत्ता से लेकर, अनेक देवों की पूजा का खंडन तथा धर्म के नाम पर सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने वालों से सचेत रहने का सन्देश स्वामीजी के प्रवचन का मूल विषय था। वैदिक काल की सर्वश्रेष्ठता प्रतिपादित करना उनका उद्देश्य था। अनार्ष ग्रंथों की आलोचना भी उनका मुख्य विषय था।  इसी बीच स्वामीजी एक बार गुजरात की यात्रा करते हुए फिर बम्बई आये। इस बार अनेक विद्वान् व्यक्तियों के आग्रह से 17 अप्रैल 1875 को बम्बई में गिरगाँव रोड पर माणिक जी की वाटिका में हवन-यज्ञ के बाद ‘आर्य समाज’ नामक संस्था की स्थापना एक ऐतिहासिक घटना थी। राष्ट्रीय स्वाभिमान, वैदिक संस्कृति, वैदिक धर्म और वेद के शुद्ध तत्त्वज्ञान का प्रचार ही इस संस्था का मुख्य उद्देश्य था।

स्वामीजी के जीवन के चौथे चरण का यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कदम था। स्वामीजी द्वारा आर्य-समाज के 28 नियम बनाये गये जो बाद में 10 नियम के नाम से सर्वत्र समादृत हुए।

स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित ‘आर्य समाज’ की शाखाएँ जगह-जगह खुलने लगीं। सन् 1876 में आॅक्सफोर्ड में संस्कृत-भाषा के प्रोफेसर मोनियर विलियम्स भारत आये। इन्हीं के द्वारा प्रथम अंग्रेजी शब्दकोश बनाया गया था। मोनियर विलियम्स स्वामीजी के संस्कृत-ज्ञान से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने स्वामीजी का दर्शन-लाभ किया और संस्कृत के कई गहन विषयों पर वार्तालाप भी किया। इसी समय एक नवयुवक श्री श्यामजीकृष्ण वर्मा भी स्वामी जी के दर्शनार्थ आये और आर्य-समाज के अनुयायी बन गए। मोनियर विलियम से मिलने  पर स्वामी जी ने श्री श्यामजीकृष्ण वर्मा को आॅक्सफोर्ड में पढ़ने के लिए भेज दिया। ये वही श्यामजीकृष्ण वर्मा हैं, जिन्हें क्रान्तिकारियों का आदि गुरु कहा जाता है। इंग्लैंड में रहकर अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति का बिगुल फूँकने वाले श्यामजीकृष्ण वर्मा ने वीर सावरकर, मदनलाल ढिंगरा, भाई परमानन्द, सेनापति बापट, लाला हरदयाल आदि क्रान्तिकारियों का मार्गदर्शन किया। श्यामजीकृष्ण वर्मा को आर्य-समाज से जोड़ने और उनकी आगे की शिक्षा का मार्ग प्रशस्त करने का श्रेय महर्षि दयानन्द सरस्वती को ही है। श्यामजीकृष्ण वर्मा आॅक्सफोर्ड में संस्कृत-भाषा पढ़ाने का कार्य भी करते थे। इस तरह स्वामी दयानन्द सरस्वती 1877 में लाहौर आये। लाहौर में डा0 रहीम खाँ के आवास पर रहने की व्यवस्था हुई और यहीं पर उनके प्रवचन आयोजित किए गए। एक मुसलमान के घर पर वैदिक धर्म की बातें निर्भीकतापूर्वक रखते हुए स्वामीजी ने वहाँ पर 24 जून 1877 को आर्य-समाज के दस नियम निर्धारित किए जो पहले अट्ठाइस थे। भारत में सबसे अधिक आर्य-समाज का प्रचार पंजाब में ही हुआ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने करीब 20 वर्षों तक [1864-1883] वैदिक धर्म का प्रचार किया। देहत्याग के नौ वर्ष पूर्व 1875 में लेखनी उठाई और सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि, पाखंड खंडन, पंच महायज्ञ, प्रतिमा पूजन विचार, यजुर्वेद सम्पूर्ण, ऋग्वेद का तीन चैथाई भाग तथा ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका लिख कर समाज को उपकृत किया। इसके साथ ही अपने जीवन में 150 से अधिक शास्त्रार्थ किए । सभी शास्त्रार्थों में विजयी भी रहे। प्रचार में 15000 मील से अधिक की यात्रा किए। अपने जीवन में तीन हजार से अधिक व्याख्यान दिए। उनके द्वारा स्थापित आर्य-समाज अपने युग का सामाजिक संशोधन बन गया। उन्होंने आर्य-समाज के माध्यम से समाज में एक नयी जागृति ला दी।

सन् 1879 में थियोसाॅफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल अलकाट[अमेरिकन] तथा मैडम ब्लावटस्की [रूसी] भारत आये। स्वामीजी से भेंट करने के बाद उनकी विचार-निष्ठा को देखकर उस समय थियोसाॅफिकल सोसायटी को ‘आर्य समाज’ का एक अंग मान लिया गया। दोनों संस्थाओं के अनुयायी एक दूसरे के कार्यों में सहयोगी बनने लगे। मगर यह सम्बन्ध अधिक दिनों तक नहीं चल सका। सोसायटी के क्रिया-कलापों से और उनके सैद्धान्तिक विचारों से स्वामीजी सहमत न हो सके। इसलिए कुछ दिनों के बाद ही दोनों संस्थाओं में सम्बन्ध-विच्छेद हो गया।
स्वामीजी की इच्छा थी कि सभी धर्म अपनी उपासना-विधि और कुछ कर्मकांड सम्बन्धी भेद-भावों को भुला कर अन्य सभी तात्त्विक विषयों पर एक समान सोचें और एक सत्य-सिद्धान्त के सभी अनुयायी बनें। इसे ध्यान में रख कर स्वामीजी ने विभिन्न धर्मों के नेताओं से भी सम्पर्क साधा। 1 जनवरी 1877 को दिल्ली में एक विशाल दरबार की तैयारी तत्कालीन वायसराय लाॅर्ड लिटन के द्वारा की गई। यह आयोजन था-महारानी एलिजाबेथ को भारत की साम्राज्ञी घोषित होने के उपलक्ष्य में। स्वामीजी चाहते थे कि इस अवसर का उपयोग कर सभी राजाओं को धर्म से जोड़ा जाय और विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधि आपस में बैठकर एक सत्य-धर्म को मानें। इस सम्बन्ध में कुछ लोग दिल्ली में एकत्रित तो हुए मगर धार्मिक एकता का स्वप्न पूरा नहीं हो सका। अधिकांश लोग अपने ही मतवाद की कील के चारों तरफ परिक्रमा करने का पूर्वाग्रह करने लगे। सन् 1880 में स्वामीजी ने बनारस में वैदिक यंत्रालय की स्थापना की और एक परोपकारिणी सभा का भी गठन किया जो समाज-सेवा के क्षेत्र में निःस्वार्थ भाव से सेवा कर सके। इस तरह परोपकारिणी सभा के माध्यम से सामाजिक सेवा के कार्यों को सम्पादित करना, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य करना स्वामीजी का उद्देश्य था। इसके साथ जगह-जगह संस्कृत-विद्यालयों की स्थापना करके स्वामीजी भारतीय संस्कृति की रक्षा का मार्ग प्रशस्त करना चाहते थे।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का सिद्धान्त त्रैतवाद भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों की सत्ता नित्य-अनादि मानी गई है। ईश्वर का कार्य सृष्टि करना है, प्रकृति का कार्य सृष्टि रूप में परिवर्तन होना है और जीव का धर्म सृष्टि में आकर कर्म करना और भोग करना है। इस तरह सृष्टि का होना, सृष्टि का करना और सृष्टि का भोग करना- यही सृष्टि-चक्र कहलाता है। तीनों का एक-दूसरे से सम्बन्ध होते हुए भी ये निरपेक्ष भी हैं। स्वामीजी के अनुसार जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहलाता है। स्वामीजी ने कहा-‘‘परमात्मा पूर्ण है, सर्वशक्तिमान् है और विश्व का वही नियन्ता है। उसे दूतों या पैगम्बरों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वही ईश्वर विभिन्न नामों से जाना जाता है। वेदों में बहुदेववाद नहीं है। मूर्ति-पूजा भी वेदों में नहीं है। वेद सत्य-ज्ञान का विषय है। इसे पढ़ना-पढ़ाना हर मानव का परम कर्तव्य है।‘‘ आर्य-समाज के दस नियम उनके सिद्धान्तों की ही व्याख्या करते हैं।

स्वामी दयानन्द का विचार था कि अगर राजे-रजवाड़े सुधर जायें तो उनके प्रभाव से अधिकांश प्रजा भी सुधर जायेगी। इसलिए विशेेष रूप से वे राजाओं से सम्पर्क साधे रखते थे। इसी क्रम में देश के विभिन्न भागों में भ्रमण करते रहते थे। राजस्थान के राजाओं के बीच प्रायः जाया करते थे। स्वामीजी प्रचार-यात्रा में भ्रमण करते हुए पुष्कर, अजमेर, जयपुर होते हुए जोधपुर पहुँचे। जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह स्वामीजी की अगवानी में खड़े थे। खूब आवभगत की गई। आध्यात्मिक चर्चा और सत्संग का भी आयोजन प्रतिदिन होने लगा। कहा जाता है कि एक दिन स्वामी दयानन्द उस समय राजा जसवन्त सिंह के महल पर चले गए, जब वहाँ पर नन्हीं जान नामक वेश्या पहले से विद्यमान थी। स्वामीजी के आगमन का समाचार जानकर राजा कुछ घबरा गए और शीघ्रता से नन्हीं जान को पालकी में बैठा कर भेजने लगे। सेवकों के साथ पालकी उठाने में महाराज ने भी अपना हाथ लगा दिया। तभी उधर से स्वामीजी आ गए और उन्होंने वह दृश्य देख लिया। स्वामीजी ने राजा को सम्बोधित करते हुए कहा-‘‘राजन् ! आप सिंह हैं, एक कुतिया को इतना सम्मान देना आपको शोभा नहीं देता है।’’ राजा ने  तो सर झुका लिया मगर नन्हीं जान इस बात को सुनकर खून के घूँट पीकर रह गई। महाराजा जसवन्त सिंह के छोटे भाई प्रताप सिंह भी स्वामीजी के अनन्य भक्त थे। स्वामीजी इन दोनों भाइयों की भक्ति से प्रसन्न थे। मगर किसी भी प्रकार की गलती पर स्वामीजी चुप नहीं रहते थे। स्वामीजी जो कुछ बोल गये उसका परिणाम इतना भयंकर होगा-यह किसी को भी नहीं मालूम था।

यह 29 सितम्बर 1883 की घटना थी। इसी दिन रात्रि में स्वामीजी को दूध पीने के लिए दिया गया। दूध पीने के थोड़ी देर बाद स्वामीजी के पेट में भयानक दर्द होने लगा। शायद दूध में विष मिला दिया गया था। सूचना पाकर महाराजा खुद आये। डाॅक्टर सूर्यमल को बुलाया गया। उपचार से कोई लाभ नहीं हो रहा था। उस समय के प्रख्यात चिकित्सक डाॅ0 सूर्यमल और डाॅ0 अलीमुद्दीन ने बहुत प्रयास किया। जलवायु-परिवर्तन की दृष्टि से उन्हें माउण्ट आबू लाया गया। थोड़ा सुधार हुआ। मगर ब्रिटिश-सरकार ने माउण्ट आबू में रहने से मना कर दिया। वहाँ से स्वामीजी अजमेर आ गए। उनकी तबियत बिगड़ती गई। अन्ततः 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन ही वह ज्ञानदीप सदा के लिए बुझ गया। सर्वत्र शोक की लहर छा गई। अजमेर के मलूसर श्मशान घाट पर उनकी अंत्येष्टि की गई।

एक ज्ञान का सूर्य अस्त हो गया। स्वामी दयानन्द ने कहा था-‘‘सिर्फ अपनी ही देहली पर दीप जला कर मत बैठो। उठो और देखो कि इस आलोक-पर्व में कहीं कोई देहरी अन्धकारग्रस्त न रहे।’’ जहाँ कहीं भी उन्हें अन्धकार दिखलाई दिया-चाहे धार्मिक पाखंड के रूप में या सामाजिक असमानता के रूप में, व्यक्ति की नैतिकता के ह्रास के रूप में या धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचार के रूप में, देश की पराधीनता के रूप में या ब्रिटिश-शासकों के क्रूर क्रिया-कलापों के रूप में, भारतीय संस्कृति के ह्रास के रूप में या नारी-समाज की अवहेलना के रूप में, सर्वत्र स्वामीजी ने ज्ञान का प्रकाश फैलाने का प्रयास किया। वे केवल अपनी मुक्ति के लिए तपस्यारत नहीं रहे बल्कि मानवमात्र के कल्याण के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे।

महर्षि दयानन्द ने देश के पुरुषार्थ को जगाने का आह्वान किया। उनके ही शब्दों में-‘‘पुरुषार्थ प्रारब्ध से भी बड़ा है, क्योंकि इससे ही संचित और प्रारब्ध भी बनते हैं। पुरुषार्थ क्रियमान के  सुधारने से सब सुधरते हैं और इसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं।’’

स्वामीजी के देहत्याग पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था-‘‘मैं आधुनिक भारत के मार्गदर्शक उस दयानन्द को आदरपूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ जिन्होंने देश की पतितावस्था में भी हिन्दुओं को प्रभु की भक्ति और मानव-समाज की सेवा के सीधे-साधे मार्ग का दिग्दर्शन कराया। वे भारत के आध्यात्मिक इतिहास में एकता एवं सत्य के उद्घोषक थे। उन्होंने भारत को अज्ञान, कुतर्क के अंधकार से निकालने का आह्वान किया तथा पवित्रता और सच्चाई का मार्ग दिखलाया। फ्रांस के सुप्रसिद्ध चिन्तक रोमाँ रोलाँ ने कहा- ‘‘आधुनिक युग में जितनी महान् विभूतियाँ भारतवर्ष में हुई है उनमें दयानन्द सर्वश्रेष्ठ विभूति हैं। वे प्रकाश के रक्षक एवं प्रचारक थे। प्रभु के बेजोड़ योद्धा थे।’’ अंग्रेज पादरी और भारत के हित-चिन्तक सी0 एफ0 ऐण्ड्रयूज ने उनके बारे में कहा-‘‘सत्य की खोज ही उनके जीवन की महत्ता का आधार था।.....डर को वे जानते ही न थे।..........उनका सच्चा देश-प्रेम और महान् सुधारक के रूप में उनकी भूमिका प्रशंसनीय है। उनका जीवन न केवल आध्यात्मिक था बल्कि क्रियात्मक भी।’’

महर्षि अरविन्द घोष ने ‘आर्य’ नामक एक पत्र का सम्पादन भी किया था। उन्होंने अपने पत्र में एक जगह लिखा था-‘‘महर्षि दयानन्द जी का दर्शन सच्चाई का दर्शन है। जहाँ सच्चाई देखी, समझ लो उस पर दयानन्द की छाप लगी है। जाति, देश, धर्म की सेवा के लिए यदि कोई कार्य करना अभीष्ट हो तो वह निश्चत रूप से हो जायेगा क्योंकि इसके लिए दयानन्द के अनुयायी मिल जाते हैं। ’’

प्रख्यात मुस्लिम सुधारवादी नेता सर सैय्यद अहमद ने अलीगढ़ इन्स्टिच्यूट गजट में उनके बारे में लिखा था - ‘‘हम स्वामीजी को निकट से जानते थे और उनका अत्यधिक आदर-सम्मान करते थे। वे एक ऐसे विद्वान् और श्रेष्ठ व्यक्ति थे जो सभी धर्मानुयायियों के लिए पूज्य थे। वे एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिनका सानी तत्कालीन भारत में उपलब्ध न था। ’’

हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान् आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने स्वामीजी के बारे में लिखा-‘‘मैं स्वामीजी की विद्वता और उनके कार्य-कलाप को अभागे भारत के सौभाग्य का सूचक-चिह्न समझता हूँ। उनका चित्र हमारी आत्मा को बल प्रदान करता है।’’

थियोसाॅफिकल सोसायटी की अध्यक्षा और कांग्रेस की नेतृ श्रीमती एनी बेसेण्ट ने स्वामीजी  के बारे में कहा था-‘‘जब स्वराज्य का मंन्दिर भारतवर्ष में निर्मित होगा तो उसमें दयानन्द की मूर्ति सबसे ऊँची जगह पर स्थापित की जायेगी।’’ शायद उनका वह स्वप्न अभी पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहा है।

गुजरात के प्रख्यात कवि श्री रमणलाल बसन्तलाल देसाई ने स्वामीजी के बारे में लिखा है-‘‘जिस क्षण देह में दुर्बलता प्रतीत हो, जिस समय मन में शिथिलता प्रतीत हो, जिस क्षण मोह से ग्रस्त हो, जिस क्षण मृत्यु से डर लगे-उस समय उस महान् संन्यासी को याद करो। वह गौरवशाली पुरुष तुम्हें शक्ति प्रदान करेगा।’’

महर्षि दयानन्द एक दिव्य महापुरुष थे, स्वराज्य के मंत्रदाता थे, वेदों के यथार्थ प्रवक्ता थे। वे एक ज्योति-पुरुष थे, युगद्रष्टा थे, हिन्दी के प्रबल समर्थक थे, समाज-सुधार के प्रकाश-स्तम्भ थे, धार्मिक आडम्बरों का उन्मूलन करने वाले क्रान्तिदर्शी महर्षि थे, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे और मानवता के रक्षक थे। महर्षि दयानन्द और कार्ल मार्क्स दोनों करीब-करीब समकालीन ही थे। मगर एक ओर जहाँ धर्म की विकृतियों को देखकर कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी, वहीं स्वामी दयानन्द ने उन कुरीतियों को उखाड़ फेंकने के लिए जीवन-पर्यन्त संर्घष किया। जहाँ मार्क्स ने ‘अर्थ’ का एक गम्भीर दर्शन दिया, वहीं स्वामी दयानन्द ने चतुष्टय पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सम्पूर्ण चिन्तन दिया। इन चारों पुरुषार्थों को लेकर ही जीवन में पूर्णता आती है-ऐसा महर्षि का कथन था। केवल माक्र्स का अर्थवादी चिन्तन तथा फ्रायड का कामवादी चिन्तन नितान्त एकाकी जीवन की रूपरेखा गढ़ते हैं , मगर स्वामी दयानन्द के चार पुरुषार्थ [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] निश्चित रूप से एक सम्पूर्ण जीवन का चित्र खींचते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में महर्षि के अत्यन्त उदात्त विचार थे। प्राचीन आर्य-पद्धति पर आधारित शिक्षा-प्रणाली के वे पक्षधर थे और साथ ही स्त्री-शिक्षा के प्रबल हिमायती थे। स्वामी दयानन्द जी की मृत्यु के पश्चात् उनकी स्मृति में दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालय और काॅलेज खोलने का निर्णय किया गया। स्वामीजी के जीवनकाल में कई महान् विभूतियों का निर्माण हुआ जो आगे चलकर आर्य-समाज के सबल स्तम्भ बन गए। इनमें गुरुदत्त विद्यार्थी, लेखराम, लाला हंसराज, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला देवराज, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। शिक्षा के क्षेत्र में महात्मा हंसराज ने हिन्दू-संस्कृति को बनाये रखते हुए अंग्रेजी शिक्षा के लिए विद्यालय और काॅलेज खोलने में अपना अद्भुत योगदान दिया।

लाला देवराज ने कन्या विद्यालय और महाविद्यालय खोलने में अपनी अहम भूमिका निभायी और स्त्री-शिक्षा को एक नया आयाम दिया। स्वामी श्रद्धानन्द जी [पूर्व नाम मुंशीराम जी] ने काँगड़ी में गुरुकुल की स्थापना करके प्राचीन आर्य-पद्धति पर आधारित शिक्षा-प्रणाली को मूर्त रूप दिया। इस तरह महर्षि दयानन्द के देहत्याग के बाद उनकी स्मृति में शिक्षा का जो नया रूप अपने देश में जागृत किया गया, वह निश्चय ही एक स्तुत्य प्रयास रहा। इस तरह महात्मा हंसराज ‘डी0 ए0 वी0’ के जन्मदाता हुए तो स्वामी श्रद्धानन्द जी [मुंशी राम] गुरुकुल काँगड़ी के संस्थापक बने। इसी प्रकार लाला देवराज कन्या विद्यालय/विश्वविद्यालय के संचालक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इन महापुरुषों द्वारा स्वामी दयानन्द जी की वैदिक शिक्षण संस्थाएँ खोलने की प्रेरणा को मूर्त रूप मिला। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी भगत सिंह भी डी0 ए0 वी0 काॅलेज, लाहौर के ही छात्र थे।

महर्षि दयानन्द विश्ववन्दनीय हैं। ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‘ उनका नारा था, जिसका अर्थ होता है- सारे विश्व को श्रेष्ठ बनाओ! इसके लिए पहले हमें स्वयं श्रेष्ठ बनना होगा। स्वामीजी द्वारा स्थापित ‘आर्य समाज’ के क्रिया-कलापों को आगे बढ़ाते रहने के लिए 25 सितम्बर 1908 को आगरा में सार्वदेशिक आर्य-प्रतिनिधि सभा का गठन किया गया। ‘आर्य समाज’ के संगठन को सार्वभौम रूप देने के लिए ऐसा किया गया।

महर्षि दयानन्द ने अपने समय में जिन ज्वलंत मुद्दों को उठाया था, उनमें अस्पृश्यता निवारण, नारी जागरण, स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह, शुद्धीकरण, गो संवर्द्धन आदि सामाजिक पुनरुत्थान के कार्यों के साथ शुद्ध वैदिक धर्म का प्रचार, धर्म के नाम पर होने वाले मिथ्याचार-पाखंड का खंडन, एकेश्वरवाद की महत्ता का प्रतिपादन, बहुदेववाद की पूजा का खंडन, राष्ट्र-प्रेम की भावना का प्रचार, देशभक्ति के साथ स्वतन्त्रता का शंखनाद, हिन्दी के हिमायती और सत्य के लिए सर्वस्व त्याग आदि प्रमुख हैं। इन मुद्दों पर सही ढंग से कार्य करने की आज भी कमोबेश आवश्यकता है। महर्षि द्वारा संचालित उक्त कार्यों को आगे बढ़ाते रहना ही उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।

महर्षि का सबसे प्रिय वाक्य था भर्तृहरिकृत ‘नीतिशतक’ का, जो इस प्रकार है -

निन्दन्तु नीति निपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। 
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः। 
 
यानी नीतिज्ञ लाख निन्दा करें या प्रशंसा करें, लक्ष्मी आये या जाये, आज ही मृत्यु हो जाय अथवा युग के बाद हो, धीर पुरुष कभी भी न्याय के पद से विचलित नहीं होते हैं। महर्षि के जीवन में यह सत्य शत-प्रतिशत खरा उतरा। बलवान्-से-बलवान् अन्यायी का विरोध और कमजोर-से-कमजोर न्याय-पथ पर रहने वाले का समर्थन, यही तो महर्षि का सन्देश था।

यूरोप के 16वीं शताब्दी में जैसे मार्टिन लूथर ने समाज-सुधार का कार्य किया, उससे भी अधिक 19वीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द ने भारत में समाज-सुधार के साथ-साथ धर्म-प्रचार का भी कार्य किया।
महर्षि दयानन्द की वाणी आज भी भारतीय समाज के कानों में कुछ कह रही है-‘‘योगी बनो, साथ ही कर्मयोगी भी बनो। आत्मज्ञानी बनो परन्तु मानव भी बनो। परमात्मा के सेवक बनो परन्तु प्रकृति के स्वामी भी बनो। मुझे अपनी मुक्ति की आकांक्षा नहीं है। निर्धनों, असहायों, दलितों, पतितों आदि की मुक्ति में ही मेरी मुक्ति है।’’ उनकी वाणी को सुनकर हम तदनुकूल आचरण भी करें-इसी में उनकी स्मृति को नमन है।

राष्ट्रऋषि दयानन्द ने भारत के पुनर्जागरण का जो आन्दोलन चलाया था , आर्य-समाज उसकी आवाज बन गया और वैदिक सिद्धान्तों के प्रचार को एक सुनिश्चित दिशा मिली। महर्षि का वह धारदार चिन्तन कहीं कुन्द न पड़ जाये, इसके लिए आत्मनिरीक्षण की भी जरूरत है। मुझे सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् और वेदवाणी के सम्पादक पंडित युधिष्ठिर मीमांसक की वे बातें बरबस याद हो आती हैं, जिनमें संस्थाओं को सचेत करते हुए उन्होंने कहा था-‘‘कहीं ऐसा न हो कि हम संस्था के मूलभूत सिद्धान्त को भूल जायें और केवल तीन ही लक्ष्य हमारे सामने रह जायें- बिल्डिंग, बोर्ड और बैंक-बैलेंस।’’ सचमुच आज किसी भी महापुरुष के द्वारा स्थापित संस्थाओं को यह देखने की जरूरत है कि कहीं वे मूल उद्देश्य से भटक तो नहीं गई हैं? कहीं उनका भी साध्य सिद्धान्तोन्मुख न होकर केवल अर्थोन्मुख होकर तो नहीं रह गया है। अगर ऐसा हुआ तो उस महापुरुष के प्रति हमारी कृतज्ञता प्रश्नों की परिधि में खड़ी हो जायेगी।

महर्षि दयानन्द क्रान्तिदर्शी थे और उनके क्रान्तिकारी विचारों को क्रियान्वित करना ही उनके प्रति हमारी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।

इन्हें भी जानें 

1.अध्यात्म-मार्तण्ड-महर्षि सदाफलदेव
MAHARSHI SADAFALDEO JI MAHARAJ
















2.  विश्वविजेता - स्वामी विवेकानन्द
SWAMI VIVEKANANDA











3.  कवयित्री महान - महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा











4.  राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
MAITHILISHARAN GUPTA










5साहित्यकारों के साहित्यकार - शिवपूजन सहाय
शिवपूजन सहाय











6. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला









7. उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचन्द
प्रेमचन्द
 















Ref. Article source from Apani Maati Apana chanda, Author-Sukhnandan Singh Saday. Picture source from biographyhindi.com keywords swami Dayanand Saraswati, Maharshi Dayanand.