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स्वामी सहजानन्द सरस्वती Swami Sahajanand Saraswati

   किसान आन्दोलन की अन्यतम विभूति 
स्वामी सहजानन्द सरस्वती
 


नाम-

स्वामी सहजानंद सरस्वती ( नौरंग राय)
पिता-श्री बेनी राम
जन्म -
जन्म स्थान 
22 फरवरी 1889 
देवा ग्राम, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश।
मृत्यु -
मृत्यु स्थान-
25  जून 1950 
पटना , बिहार 
भारत की पावन भूमि पर समय-समय पर ऐसी महान् विभूतियाँ अवतीर्ण होती रही हैं जिन्होंने अपने महान् कार्यों के द्वारा समय की शिला पर अपना चरण-चिह्न छोड़ते हुए काल के कपाल पर भी अमरत्व का गीत लिख दिया है। आज की वर्तमान पीढ़ी और कल की आने वाली पीढ़ी भी उनके गीतों के सन्देश को सुनकर उनके प्रति श्रद्धावनत हो उठती है और उनके द्वारा बतलाये गये पथ का अनुसरण करने में ही इस देश के विकास के इतिहास को सही दिशा की ओर बढ़ने में मार्गदर्शक मानती है। ऐसी ही एक आध्यात्मिक ऐश्वर्य-सम्पन्न महान् विभूति स्वामी सहजानन्द सरस्वती हैं, जिन्होंने अध्यात्म को काफी निकट से जाना, उनकी असलियत को भी पहचान कर अपना पूरा जीवन समाज-सेवा और विशेषकर किसान-आन्दोलन में लगा दिया।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के दुल्लहपुर स्टेशन के समीप स्थित देवा ग्राम में पिता श्री बेनी राम के यहाँ शिवरात्रि सन् 1889 वि0सं0 1946 को जन्मा यह नौरंग राय अपने जीवन में सचमुच ही कई रंगों में आगे चलकर रंगता गया और हर रंग में एक अद्भुत तरंग के साथ उसकी ऊँचाइयों को छूता हुआ सतत आगे बढ़ता रहा। अपनी पूरी शक्ति और उमंग के साथ पारिवारिक परिवेश में रह कर विलम्ब से पढ़ाई शुरू करने के बाद भी एक अत्यन्त मेधावी छात्र के रूप में उभर कर पूरे उत्तर प्रदेश के मिडिल स्कूल की परीक्षा में सातवाँ स्थान प्राप्त करना उस समय की कोई साधारण उपलब्धि नहीं थी। पर शायद नियति इससे और कुछ कराना चाहती थी। इसलिए मैट्रिक की परीक्षा के पूर्व अध्यात्म की जिज्ञासा एक ज्ञान-पिपासा के रूप में उभरती गई और उन्हें खींच ले गई देश की धार्मिक राजधानी बनारस के आँचल में। घर-द्वार छोड़ कर यह बालक अपने जन्मदिन महाशिवरात्रि को सन् 1907 में ही स्वामी सच्चिदानन्द गिरि से दीक्षित हो गया। फिर तो सच्चे ज्ञान की खोज में परिभ्रमण भी खूब किया और हिमालय की भी यात्रा की। साधु-संन्यासियों से मिले भी मगर ज्ञान की पिपासा शान्त नहीं हुई। फिर मिले बनारस के दंडी स्वामी अच्युतानन्द सरस्वती जी, जिन्होंने उन्हें संन्यास की शिक्षा दी और इनका नाम अब नौरंग राय से सहजानन्द सरस्वती हो गया। आध्यात्मिक रंग चढ़ता गया और शास्त्र-मंथन में अभिरुचि बढ़ती गई। शीघ्र ही पैरों में खड़ाऊँ, गेरुआ वस्त्र और हाथ में दंड धारण करने वाला यह संन्यासी शास्त्रों का उद्भट विद्वान् बन गया। मगर शीघ्र ही एक वर्ग-विशेष का ही धर्म पर एकाधिकार होना और अन्य को वंचित रखना उन्हें ग्राह्य नहीं लगा। इसके लिए अनेक शास्त्रार्थों के माध्यम से आपने अपने स्वजाति के सम्मान की रक्षा की। महापुरुषों का जीवन हमेशा दूसरों के उपकार के लिए ही होता है। मानस की उक्ति है -

परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।। 
 
 
सचमुच में परोपकार धर्म का प्रतिबिम्ब है। धर्म की ध्वनि परहित की साधना में ही निहित है। स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जीवन भी धर्म की इस ध्वनि से ओत-प्रोत हो उठा और समाज-सेवा और राष्ट्र-सेवा के प्रति आकृष्ट हो उन्होंने अपने जीवन को देश-हित में समर्पित कर दिया। देश की आजादी की आग कुर्बानी मांग रही थी।

सन् 1920 में महात्मा गाँधी से मुलाकात होने पर वे देश की राजनीति में भी सक्रिय हो उठे और शीघ्र ही उसकी अग्रिम पंक्ति में आ गए। विचारों से सिंह-शार्दूल की तरह निर्भीक, सत्य के प्रति समर्पित यह महान् व्यक्तित्व सदा समझौतावादी नीति का पक्षधर नहीं रहकर आजादी के अपने अधिकार को लड़कर हासिल करने का हिमायती रहा और शायद उनके इसी मुखर स्वर के कारण राजनीति में गाँधी जी के साथ उनकी अधिक दिनों तक नहीं निभ पायी।

वे देश की अन्य समस्याओं के प्रति भी जागरूक थे। जिस तरह धर्म की विसंगतियों पर उन्होंने प्रहार किया उसी तरह समाज में व्याप्त असमानता और अत्याचार के प्रति भी उनका हृदय विद्रोह कर उठा। जमींदारों के बर्बरतापूर्ण व्यवहार ने उन्हें किसानों को संगठित करने के लिए बाध्य किया और 1927 में पटना में किसानों का जो संगठन उन्होंने खड़ा किया, वह धीरे-धीरे राष्ट्रव्यापी बन गया। जगह-जगह किसान-आन्दोलन के माध्यम से उन पर होने वाले अत्याचारों के निराकरण के लिए वे सिंहनाद करने लगे। देश के सारे किसान उनके साथ खड़े हो गये और वे उनकी आवाज बन गये। किसानों के लिए वे एक मसीहा बन गये और किसानों के एकमात्र नेता के रूप में वे प्रतिष्ठित हो गये। देश की राजनीति को भी उनके इस किसान-आन्दोलन ने प्रभावित किया और शोषक समाज के वे धुर विरोधी बन गए। अन्याय और शोषण से लड़ने के लिए उन्होंने कमर कस ली और अपने संघर्षमय जीवन में कभी भी सिद्धान्त से समझौता नहीं किया।
 
मधुबनी में किसानों की एक सभा में सन् 1938 में उन्होंने कहा था - ‘‘मैं ईश्वर ढूँढ़ने चला था। मैंने उसे जंगलों और पहाड़ों में ढूँढ़ा। ग्रंथों और पुस्तकों में भी काफी ढूँढ़ा। मगर मैं उसे नहीं पा सका। अगर मुझे वह कहीं मिला तो किसानों के बीच में मिला। उसके दुःखदर्द में मिला। किसान ही मेरे भगवान् हो गए और मेरे भगवान् को कोई अपमान करे, इसे मैं कतई बर्दास्त नहीं कर सकता।’’ इन पंक्तियों में किसान के प्रति उनका सच्चा प्यार झलकता है।

उनके जीवन की दिशा करवट बदलती रही। एक मेधावी बालक जो अध्ययन और अध्यापन की दुनिया में अपना शीर्षस्थ स्थान बना सकता था, अचानक अध्यात्म की तलाश में सब कुछ छोड़कर निकल पड़ा। अध्यात्म की खोज में संत-महात्माओं के दर्शन में शास्त्र-मंथन करके वह प्रकांड पंडित बन गया और चाहता तो एक महान् दार्शनिक और अध्यात्मविद् बनकर सर्वत्र पूजक भी बन जाता मगर तभी तथाकथित धर्माधिकारियों की स्वच्छंदता और कथनी-करनी के अन्तर ने उसके हृदय में आक्रोश भर दिया। और वह वहाँ से विरत होकर असहयोग-आन्दोलन में कूद पड़ा। देश की आजादी के लिए सर्वस्व न्योछावर की भावना लिए वह एक योद्धा की तरह चुनौतीपूर्ण मुद्रा में अंग्रेज शासकों को ललकारने लगा। मगर देश में शोषकों के अत्याचार से उसका हृदय दहल उठा और उसने किसानों के दुःखदर्द को देखकर किसान-सभा का संगठन कर एक नयी क्रांति की शुरुआत की। किसान आन्दोलन और वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना उनके जीवन के उद्देश्य बन गए। उन्होंने एक महान् लेखक के रूप में भी प्रतिष्ठा अर्जित की। उन्होंने करीब चैदह पुस्तकों के प्रणयन से समाज को अपने विचार-दर्शन से प्रभावित किया। मेरा जीवन संघर्ष, गीता-हृदय, कर्म-कलाप, खेत-मजदूर, क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा, किसान-सभा के संस्मरण आदि पुस्तकों में उनके जीवन का तेज और ओज भरा हुआ है। सम्पादक की हैसियत से ‘हुंकार’ और ‘लोकसंग्रह’ का प्रकाशन उनकी चिन्तन-दृष्टि का परिचायक है। हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा में उनकी गहरी पैठ थी। संस्कृत के वे प्रबल हिमायती थे और अपने जीवन-काल में कई संस्कृत-विद्यालय खुलवाये भी थे। अपनी पुस्तकों के बारे में वे कहा करते थे - ‘‘ये तो भविष्य के संघर्ष के अस्त्र हैं।’’ इसी तरह समाचार-पत्रों के प्रकाशन के बारे में प्रायः कहा करते थे-‘‘पत्र न तो लीडर के साधन हैं और न पैसा कमाने के। ये गुजर-बसर के भी साधन नहीं हैं, बल्कि ये तो लड़ाई के अस्त्र हैं।’’ इस दृष्टि से उनका जीवन हमेशा संघर्षमय रहा।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती के जीवन के तीन मोड़ सम्भवतः उनके चिन्तन की ऊध्र्व-दिशा को चित्रित करते हैं। उनके जीवन का पहला मोड़ भारत की प्राचीन अध्यात्मविद्या से जुड़ने की ललक भरी तन्मयता से जुड़ा है, जहाँ वे धार्मिक तत्त्वज्ञान की खोज में घर-परिवार छोड़कर निकल जाते हैं, सन्त-महात्माओं की तलाश में। हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों से लेकर सुदूर दक्षिण तक की यात्रा करते हैं और अन्त में यह निष्कर्ष निकालते हैं कि कोई भी सिद्ध पुरुष नहीं मिला जो अध्यात्म के चमत्कार से उन्हें प्रभावित कर सकें। इस क्रम में उन्हें ऐसे शास्त्रज्ञ जरूर मिले जो परम्परा की कील के चारों ओर ही अपने ज्ञान की गणेश-परिक्रमा करके आत्म-प्रशंसा में डूबे रहते थे। ये वे लोग थे जो धार्मिक ज्ञान की कुँजी किसी वर्ग-विशेष के हाथ में ही रखे जाने के पक्षधर थे और इतर-जातियों को उधर प्रवेश नहीं देने के लिए कटिबद्ध थे। यह सब देखकर स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने दंड धारण करने के बाद भी इन विसंगतियों के प्रति विद्रोह कर दिया। इसके लिए उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन भी किया और पूरी ताकत के साथ धर्म-सम्बन्धी दकियानूसी विचारों का खण्डन भी किया। उन्होंने इसी विद्रोह के स्वर को तीक्ष्ण करते हुए इस विचार का मंडन किया कि भूमिहार भी ब्राह्मण ही हैं और उन्हें भी पूजा-पाठ करने और कराने का अधिकार है। जब पंडित वर्ग उनके इस आह्वान का विरोध करने लगा और इस जाति-विशेष के यहाँ पूजा-पाठ कराना बन्द करने की घोषणा करने लगा तब भी स्वामीजी विचलित नहीं हुए। उन्होंने ‘कर्म-कलाप‘ पुस्तक की रचना कर ‘कर्मकांड’ करने का अधिकार ब्राह्मणेतर जातियों को भी दिया। उनका यह पहला पड़ाव जहाँ उन्हें एक शास्त्रज्ञ के रूप में, एक धर्मज्ञ के रूप में और एक अध्यात्म-खोजी के रूप में प्रतिष्ठित किया, वहीं इस पड़ाव पर उन्हें धर्म से कुछ निराशा भी हुई और उसके बाह्य आडम्बर को देखकर उसके प्रति वितृष्णा की भावना भी पैदा हुई। धर्म के नाम पर फैली कुरीतियाँ, धर्म के नाम पर होने वाले मिथ्याचरण और धर्म के नाम पर पनपती विसंगतियों के वे प्रबल विरोधी बन गये। यह काल-खंड उनके जीवन-यात्रा मंे 1889 से 1920 तक का समय कहा जा सकता है। अपने जीवन के 31 वर्ष तक वे धर्म से जुड़कर भी उसके गलत विचारों से दुःखी भी हुए। इसी बीच सन् 1920 में महात्मा गाँधी से मुलाकात होने पर राजनीति के क्षेत्र में कार्य करने की उनकी इच्छा बलवती होने लगी। वे गाँधी जी के स्वतन्त्रता-आन्दोलन में जम कर भाग लेने लगे। कांग्रेस के कई अधिवेशनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिये। लेकिन कांग्रेस की विचारधारा से उनका चिन्तन मेल नहीं खाने लगा। कई अवसरों पर राजनीतिक सोच की संकीर्णता से यहाँ भी उनका मन खिन्न होने लगा। सन् 1920 से सन् 1934 तक का समय तो देश की आजादी के लिए कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का समय रहा। इस बीच वे किसानों की पीड़ा को करीब से समझने का प्रयास करते रहे। असहयोग आन्दोलन के क्रम में उन्हें तेरह महीने की सजा भी हुई। 2 जनवरी 1922 को उनकी गिरफ्तारी हुई और जनवरी 1923 में जेल से छूट कर वे गाजीपुर आये। जेल में ही उन्होंने रूसो, रस्किन, जेम्स एलेन आदि की पुस्तकों के साथ गीता का भी अध्ययन किया। अब गीता का एक नया दर्शन उनकी सोच में आकार ले चुका था। किसानों पर होने वाले अत्याचार से वे विचलित हो उठे और 4 मार्च 1928 को उन्होंने पटना में एक किसान-सभा का संगठन खड़ा किया। नवम्बर 1929 में यह किसान-संगठन बिहार प्रान्तीय किसान सभा का रूप ले लिया। अब किसानों के हित के लिए हर निर्णायक लड़ाई के लिए स्वामी जी अग्रणी योद्धा के रूप में नजर आने लगे। इसी समय सन् 1930 के नमक सत्याग्रह आन्दोलन में स्वामी जी फिर गिरफ्तार हो गये और इस बार उन्हें छः माह की सजा हुई। जेल से छूटने पर वे फिर किसान महासभा के कार्यक्रम में व्यस्त हो गये।
 
 
कांग्रेस में विचारधारा की दृष्टि से वे सुभाषचन्द्र बोस जी के नजदीक थे। महात्मा गाँधी की विचारधारा से वे सहमत नहीं हो पा रहे थे। आखिर उन्होंने कांग्रेस से दूरी बना ली। अब वामपंथी विचारधारा से प्रभावित हो वे किसान महासभा के संगठन और विकास की दिशा में अधिक क्रियाशील रहने लगे। सन् 1928 से सन् 1934 तक का यह दूसरा पड़ाव राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता रहा।
फिर स्वामीजी की जीवन-यात्रा में एक तीसरा पड़ाव भी अपनी जगह बनाने लगा। वे बम्बई में आयोजित फारवर्ड ब्लाॅक की कांफ्रेस में भी सन् 1939 में भाग लिये और वहाँ अपना ओजस्वी भाषण भी दिए। वाम पंथियों का एक संयुक्त मोर्चा बनाने में भी उनकी अहम भूमिका रही। इसके बाद वे कांग्रेस से अपने को पूरी तरह से अलग कर लिये। शीलभद्रया जी और सुभाषचन्द्र बोस के साथ अनेक सभाओं को सम्बोधित किया। अन्ततः अप्रैल 1940 में उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया।

इस बार उन्हें तीन साल की सजा हुई। हजारी बाग सेंट्रल जेल में उन्हें रखा गया। इस दौरान उन्होंने काफी अध्ययन किया और कई पुस्तकों की रचना की। यहीं पर ‘क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा’ तथा ‘गीता हृदय’ भी लिखी गई।
आप जब 8 मार्च 1942 को जेल से रिहा होकर निकले तब तक काफी परिदृश्य बदल चुका था। किसान-सभा की विराट् एकता भी खंडित हो गई थी। धीरे-धीरे सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट भी अलग हो गए। मगर वे हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने फिर से देश के बड़े नेताओं पुरुषोत्तम दास टंडन, इन्दुलाल याज्ञिक,  सम्पूर्णानन्द जी, हर्षदेव मालवीय, मोहनलाल गौतम, शीलभद्रया जी आदि के साथ मिलकर ‘हिन्द किसान पंचायत’ नाम की एक नयी किसान-सभा बनाई। मगर यह एकता भी अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकी। इसी बीच 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया।
 
मगर स्वामीजी को किसानों की पीड़ा सालती रही। 16 दिसम्बर 1948 को तो उन्होंने कांग्रेस से सभी स्तरों पर सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। उन्होंने किसान-आन्दोलन को एक नये तेवर के साथ प्रारम्भ किया। इस तीसरे पड़ाव पर एक ओर वे किसान-आन्दोलन को एक नया आयाम देने में लगे थे तो वहीं दूसरी ओर वामपंथी शक्तियों को संगठित करने में भी लगे थे। उनके जीवन का यह तीसरा पड़ाव अधिक संघर्षमय रहा और कई बदलावों के दौर से गुजरता रहा। अभी बहुत कुछ करना बाकी था मगर शायद विधि को कुछ और ही मंजूर था।

अपने क्रिया-कलापों में वे जननायक बन गये, युगनेता बन गये, किसानों के केवल नेता ही नहीं उनके हित-चिन्तन के प्रणेता भी बन गये। बिहटा का सीताराम आश्रम जहाँ से उन्होंने जीवन की दिशा बदली थी, किसान आन्दोलन का और समाज-सेवा का केन्द्र बन गया। समाज की सेवा में समर्पित शरीर धीरे-धीरे अस्वस्थ होने लगा। मगर कभी भी विश्राम की चिन्ता नहीं रही। अन्त में 61 वर्ष की आयु में 26 जून 1950 को किसान-आन्दोलन का यह अग्रदूत महाप्रस्थान कर गया और अपने श्री सीताराम आश्रम की माटी में चिर-निद्रा में सो गया। किसान-आन्दोलन का जननायक, शोषण का विरोध करने वाला लोकनायक, किसान-मजदूर एकता का स्वप्न देखने वाले महानायक को सीताराम आश्रम में राजकीय सम्मान के साथ समाधि दे दी गई।

आज भी उनकी समाधि मानो कुछ बोल रही है, हमें झकझोर रही है और उनके अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए हमें दिशा-बोध दे रही है। उस महान् विभूति की स्मृति को शतशः नमन!
 
 
 
Ref. article source from Apani Maati Apana Chandan, Author- Sukhnandan Singh Saday. picture source from newstimes.co.in.