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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक | LOKMANYA BAL GANGADHAR TILAK

स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है - तिलक

बाल गंगाधर तिलक | BAL GANGADHAR TILAK


नाम-
बाल गंगाधर तिलक 

[बालक नाम- केशव गंगाधर तिलक]

अन्य पुकारू नाम- लोग उन्हें गंगाधर शास्त्री कह कर बुलाया करते थे

जन्म- 23 जुलाई 1856

जन्म स्थान-  कोंकण प्रदेश, रत्नागिरि,महाराष्ट्र।

पिता- श्री गंगाधर पंत[श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक]

विवाह- सन् 1871 ई. 

मृत्यु- 1 अगस्त 1920 ई.[ रात 12 बजकर 40 मिनट]

मृत्यु के समय उम्र- 64 वर्ष 9 दिन 

मृत्यु स्थान- मुंबई। 

प्रसिद्ध वाक्य- स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे।


सामान्य ज्ञान के प्रश्न में आज भी यह पूछा जाता है कि किसने कहा था-‘‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’ और इसका सही उत्तर होता है- ‘लोकमान्य तिलक ने’। आज शायद यह वाक्य कहना कोई बहुत बड़ा अर्थ नहीं रखता मगर जिस परिस्थिति और परिवेश में यह बात कही गई थी, वह निश्चय ही एक बहुत बड़ी बात थी और समय-चक्र के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना भी थी। यह वाक्य आजादी की लड़ाई का मूल मंत्र बन गया और एक अकाट्य शस्त्र भी। इसी वाक्य ने ‘बाल गंगाधर’ को ‘लोकमान्य’ बना दिया।
 
भारत की भूमि पर किसी ईश्वरीय शक्ति की महिमा समय-समय पर मुखरित होती रहती है। जब कभी कोई प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण होता है तो उसकी कोख से समय की दिशा को बदलने वाले कोई-न-कोई महापुरुष पैदा हो जाते हैं। सन् 1857 का स्वतन्त्रता-संग्राम प्रारम्भ होने के लिए अभी पृष्ठभूमि बन रही थी। तभी समय की शिला पर एक पगध्वनि भी उभर रही थी। राष्ट्रीयता की भावना का केन्द्र-स्थल महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश के रत्नागिरि नामक स्थान पर श्री गंगाधर पंत के यहाँ 23 जुलाई 1856 को एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ; जिसका नाम केशव रखा गया। इस बालक का उपनाम ‘बाल’ रखा गया जो कालान्तर में उसके नाम का पर्याय बन गया। भारतीय इतिहास में यह बालक ‘बाल गंगाधर तिलक’ के नाम से प्रख्यात हुआ और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का एक अमर सेनानी बन गया। बालक अपने जन्म के साथ ही भारत में स्वतन्त्रता-संग्राम का शंखनाद लेकर आया था। स्वतन्त्रता-संग्राम देशव्यापी बन गया था मगर कुछ लोगों की अदूरदर्शिता और कुछ लोगों की देशद्रोहिता के कारण वह सफल नहीं हो सका। बाल गंगाधर इस टूटी हुई स्वतन्त्रता-संग्राम की कड़ी को जोड़ने के लिए इस भारत-भूमि पर आ चुका था। 
 
बाल गंगाधर के पिताजी शिक्षा-विभाग की नौकरी में थे। बच्चे की शिक्षा-दीक्षा में उनकी विशेष अभिरुचि थी। संस्कृत और गणित विषय में बालक की भी विशेष गति थी। आखिर होता भी क्यों नहीं ? पूज्य पिता श्री गंगाधर राव स्वयं संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। उनकी विद्वता से लोग उन्हें गंगाधर शास्त्री कह कर बुलाया करते थे। बालक बाल गंगाधर में भी संस्कृत का ज्ञान पैतृक परम्परा से ही उतरा था। बालक का विधिवत् शिक्षारम्भ सन् 1861 की विजयादशमी को हुआ और शीघ्र ही वे शिक्षा के सोपान पर अपना पाँव रखते हुए आगे बढ़ते गये। उस समय की प्रथा के अनुसार उनका विवाह सन् 1871 में पन्द्रह वर्ष की आयु में ही कर दिया गया। कहा जाता है कि शादी के समय उन्होंने अपने श्वसुर से पढ़ने के लिए बहुत-सी पुस्तकें मांगी थी। उनका पुस्तक के प्रति प्रेम कितना अधिक था यह इस घटना से उजागर होता है।

बाल गंगाधर की माता का निधन बाल्यकाल में ही हो गया था और विवाह के समय पत्नी भी मातृहीन हो चुकी थी। समय की गति को कौन जानता है? अभी तिलक के विवाह के एक वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे कि तभी सन् 1872 में उनके पिताजी का भी निधन हो गया। नव-दम्पति पर मानो दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। माता-पिता के प्रेम से वंचित तिलक का संसार निःसार-सा हो गया था। मगर उनके पास अदम्य साहस था, अटूट इच्छा-शक्ति थी और अप्रतिम कुशाग्र बुद्धि थी। विपरीत परिस्थितियों में भी वे आगे बढ़ते गये। तपाने पर कुन्दन की चमक और बढ़ जाती है।

अब तिलक के परिवार का सारा भार उनके चाचा और चाची के कंधे पर आ पड़ा। पढ़ाई की गाड़ी आगे बढ़ती जा रही थी। सन् 1872 में मैट्रिक की परीक्षा पास करके उन्होंने अपना नामांकन पूना के डेक्कन काॅलेज में कराया। सन् 1876 में इसी काॅलेज में गणित में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए और सन् 1879 में एल0एल0बी0 की परीक्षा भी पास किए। इसी काॅलेज में उनके मित्र थे श्री गोपाल गणेश अगरकर, जिनके साथ राष्ट्रीय विषयों पर उनकी खुल कर चर्चा हुआ करती थी। कई विषयों पर मत-भिन्नता होने के बावजूद दोनों के विचार में भारत के भावी विकास का चित्र ही प्रमुखता से उभर कर आता था।जहाँ तिलक देश की आजादी को प्रमुखता देते थे वहाँ अगरकर सामाजिक सुधार पर बल देने की बात करते थे। तिलक भी समाज-सुधार चाहते थे, मगर देश की स्वतन्त्रता उनकी प्राथमिकता थी। वे कहा करते थे- ‘‘बिना स्वराज्य के सुधार कैसा?’’ समाज-सेवा के क्षेत्र में तिलक और अगरकर दोनों शिक्षा को महत्त्व देते थे। वे जानते थे कि जब तक समाज शिक्षित नहीं होगा, तब तक अपनी स्वतन्त्रता के अधिकार की लड़ाई भी वह तेज नहीं कर सकता। इसीलिए पढ़ाई पूरी करने के बाद श्री विष्णु शास्त्री चिपलूणकर के साथ मिलकर 2 फरवरी 1880 को पुणे में ‘न्यू इंगलिश स्कूल’ की स्थापना में दोनों मित्रों ने योगदान किया और वहाँ शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे।

पुणे का ‘न्यू इंगलिश स्कूल’ शिक्षा के क्षेत्र में एक चर्चा का विषय बन गया। शिक्षा के क्षेत्र में  मिली सफलता से उनके हौसले बुलन्द हुए और अगली कड़ी में ‘डेक्कन एजुकेशनल सोसाइटी’ की स्थापना 24 अक्टूबर 1884 में की गई, जिसके अन्तर्गत फग्र्युसन काॅलेज में उच्चतर शिक्षा की पढ़ाई प्रारम्भ की गई। इस तरह चिपलूणकर, तिलक और अगरकर ने पुणे में शिक्षा का जो नया आयाम प्रस्तुत किया, उससे छात्रों में राष्ट्रीय भावना का संचार भी होने लगा। इसी समय इन लोगों ने यह विचार किया कि अपने राष्ट्रीय विचारों के प्रचार के लिए समाचार-पत्र निकालना आवश्यक है। इसी विचार-बिन्दु को मूर्त रूप देने के लिए जनवरी 1881 के प्रथम सप्ताह में ‘मराठा’ नामक अंग्रेजी और ‘केसरी’ नामक मराठी साप्ताहिक शुरू किया गया।

‘मराठा’ के सम्पादक बने तिलक और ‘केसरी’ के सम्पादक बने अगरकर। वैसे तिलक जी ‘केसरी’ में भी धर्म और राष्ट्र-विषयक लेख लिखा करते थे, लेकिन सामयिक प्रसंगों के साथ आम जनता की समस्याओं को भी उसमें उठाया जाता था। कुल मिलाकर एक निर्भीक पत्र के रूप में ‘मराठा’ और ‘केसरी’ को मान्यता मिलती जा रही थी। तभी एक लेख को लेकर इन सम्पादक-द्वय पर मुकदमा चलाया गया और दोनों को चार माह की सजा सुनायी गई। इन्हें बम्बई के डोंगरी जेल में रखा गया। यह सन् 1882 की घटना है। जेल से निकलने पर इस सम्पादक-द्वय का भव्य स्वागत किया गया। अभी अध्यापन के साथ-साथ साप्ताहिक पत्र ‘मराठा‘ और ‘केसरी’ का प्रकाशन तिलक और अगरकर के द्वारा किया जा रहा था। ये दोनों पत्र लोकप्रिय होते जा रहे थे।

कभी-कभी विचार की स्वतन्त्रता दो मित्रों के बीच की वैचारिक दूरी बढ़ा देती है। तिलक और अगरकर मित्र होते हुए भी कई विषयों पर वैचारिक दृष्टि से असहमति भी रखते थे। इसकी परिणति बाल-विवाह विषय को लेकर हुई। इसी समय ‘डेक्कन एजुकेशनल सोसाइटी’ के संस्थापक सदस्यों में भी मतभेद उभर आये। आखिर अगरकर ने ‘केसरी’ का सम्पादक-पद छोड़ दिया। अब तिलक ही ‘केसरी’ के भी सम्पादक बन गये। इधर अगरकर ने समाज-सुधार के क्षेत्र में कार्य करने के उद्देश्य से सन् 1888 में अक्टूबर में ‘सुधारक’ नामक समाचार-पत्र प्रारम्भ किया। ‘डेक्कन एजुकेशनल सोसाइटी’ में भी वैचारिक मतभिन्नता होने के कारण तिलक ने अपने को उस संस्था से अलग कर लिया और पूर्ण रूप से पत्रकारिता से जुड़कर देश की राजनैतिक स्थिति को सँवारने में लग गये।

इधर देश में भी राजनैतिक चिन्तन करवट ले रहा था। सन् 1857 के स्वतन्त्रता-संग्राम को अंग्रेजों ने ‘सिपाही विद्रोह’ नाम दिया। इस विद्रोह को अंग्रेजों ने क्रूरतापूर्वक कुचल तो दिया लेकिन इस घटना ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सत्ता छीन ली गई और अंग्रेज सरकार ने स्वयं सत्ता की कमान सम्भाल ली। साथ ही अंग्रेजों ने यह भी सोचा कि भारत में इस अचानक विद्रोह जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए कि ब्रिटिश-सरकार यहाँ के नुमाइन्दों से सीधी बात कर सकेे।

इस तरह कई वर्षों तक विचार-मंथन के बाद अंग्रेजों ने यह सोचा कि भारत में कोई संगठन भारतीयों का रहे तो उससे  बात-चीत का दरवाजा खुला रखने से किसी प्रकार का अचानक विद्रोह नहीं हो पायेगा। इधर देशवासी भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे थे कि कोई ऐसा संगठन होना चाहिए जो देश की समस्याओं पर विचार-विमर्श कर सके और समय के अनुसार सरकार से भी बातचीत कर सकें। इसी परिस्थिति में ई0 सन् 1885 में ‘इण्डियन नेशनल कांग्रेस’ की स्थापना भारत में लोकतंत्री शासन की स्थापना के लिए की गई, जिसके प्रथम अध्यक्ष बने एक अंग्रेज एम0ओ0 ह्यूम। धीरे-धीेरे राजनीति के फलक पर भी श्री गोविन्द रानाडे [पूर्व जस्टिस] बाम्बे हाई कोर्ट,, जस्टिस बदरुद्दीन तैय्यब, रामकृष्ण भंडारकर, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, लोकमान्य तिलक, सर फिरोज शाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले आदि के नाम कांग्रेस के साथ जुड़ते गये। राष्ट्र की समस्या के समाधान के लिए यह पार्टी कार्य करने लगी और उस समय के सभी प्रबुद्ध विचारक इस पार्टी के साथ जुड़कर भारत की स्वतन्त्रता के लिए आवाज बुलन्द करने लगे।

इस तरह उस समय भारत में दो तरह के कार्यों पर बल दिया जाने लगा-एक भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रयास और दूसरा सामाजिक सुधार के कार्यों को आगे बढ़ाने की कोशिश। दोनों ही दिशाओं में कार्य करने के लिए अनेक महापुरुष आगे आने लगे। न्यायाधीश रानाडे की ‘प्रार्थना-सभा’ जहाँ सामाजिक सुधारों के लिए गतिशील थी, वहीं राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ कर अनेक नेता राजनीतिक विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे थे। इसी समय राजनीति के क्षितिज पर महाराष्ट्र के ‘तिलक’ और ‘गोखले’ जैसे व्यक्तित्व का उदय हुआ। यद्यपि गोखले जी तिलक से उम्र में दस वर्ष छोटे थे, लेकिन राजनीति में उनकी साझेदारी करीब-करीब साथ-साथ चल रही थी। उन्हें प्रारम्भ में तिलक का मार्गदर्शन भी मिला था।

सन् 1889 में कांग्रेस का अधिवेशन बम्बई में हुआ। इस अधिवेशन में जस्टिस रानाडे, तिलक और गोखले भी उपस्थित थे । यहीं से तिलक को ऐसा महसूस हुआ कि किसी भी राजनीतिक आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि लोगों के बीच सीधे जाकर उन्हें संगठित किया जाय तथा उन्हें शिक्षित किया जाय। इस उद्देश्य से जनता से जुड़ने के कार्य को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने दो अभिनव प्रयोग किये। पहला प्रयोग था- महाराष्ट्र में सामूहिक रूप से गणेशोत्सव मनाना और दूसरा प्रयोग था- वीर शिवाजी महाराज की जयन्ती मनाना।
सन् 1893 में इन दोनों कार्यों के लिए समाज में जागृति लाने के उद्देश्य से उन्होंने जगह-जगह घूमना प्रारम्भ किया। आज महाराष्ट्र में गणेशोत्सव की धूम और शिवाजी जन्मोत्सव का जो आकर्षण है, वह तिलक के प्रयास का ही फल है। इन त्यौहारों के माध्यम से केवल उल्लास और उमंग ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय भावनाओं के प्रचार पर बल देना उनकी प्राथमिकता थी। सामूहिक पूजा के रूप में राष्ट्रीय विचारधारा का मंच भी बनता जा रहा था। समाज के संगठन का सूत्र इन आयोजनों से मजबूत होता जा रहा था।

इन आयोजनों की सफलता से तिलक को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । उन्होंने इस कड़ी में एक और प्रयास किया और छत्रपति शिवाजी के सिंहगढ़ स्थित किले के जीर्णोद्धार के लिए एक अभियान चलाया। इस तरह अपने देश, अपने धर्म और अपने महापुरुषों की स्मृति को सम्मान देने के लिए उन्होंने इन उत्सवों का आयोजन करवाया। सारा महाराष्ट्र जाग उठा। अब तो इन उत्सवों की छाया देश के अन्य भागों में भी दिखलाई पड़ती है। मगर उस समय जब देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, इस प्रकार की राष्ट्रीय सोच जागृत करना निश्चय ही एक कठिन कार्य था। तिलक की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी।

प्रबुद्ध स्नातकों द्वारा सन् 1893 में ही वे बम्बई विश्वविद्यालय में फेलो चुने गये। सन् 1895 में तिलक पुणे नगरपालिका और साथ ही बम्बई विधान-परिषद् के सदस्य चुने गये। लेकिन इन संस्थानों द्वारा कोई विशेष  रचनात्मक कार्य सम्पादित नहीं किये जाने से तिलक के मन में इनके प्रति आकर्षण नहीं पैदा हो सका। अभी भी वे निर्भीक पत्रकारिता में ही विशेष अभिरुचि लेते थे।

अचानक एक घटना ने सारा दृश्य बदल दिया । बम्बई में प्लेग का प्रकोप 1897 के प्रारम्भ में हुआ । सरकार की तरफ से भीषण अव्यवस्था थी। लोग रोज मर रहे थे। प्लेग कमिश्नर रैंड के नेतृत्व में व्यवस्था सम्भालने की जगह लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा था। जनाक्रोश दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। इसी समय महारानी विक्टोरिया के राज्य सम्भालने के 40 वर्ष पूरे होने पर जगह-जगह जश्न मनाया जा रहा था। इस संदर्भ में गणेश घाटी पर 22 जून 1897 को गवर्नर साहब द्वारा दी गई पार्टी से लेफ्टिनेन्ट आयस्र्ट और मि0 रैंड अपनी-अपनी बग्गी में लौट रहे थे। तभी बीच में घेर कर दो नवयुवकों ने बारी-बारी से लेफ्टिनेन्ट आयस्र्ट और मि0 रैंड को गोली मार कर मौत के घाट उतार दिया। दोनों नवयुवक फरार हो गये।

अंग्रेजी हुकूमत इस हत्याकांड से थर्रा गई। जगह-जगह छापे मारे गये। अपराधी को पकड़ने में मदद के लिए लोगों के बीच इनाम की घोषणा भी की गई। सरकार पूरी तरह से जनता पर कहर बरसाने लगी। इस घटना का सूत्र खोजने के लिए सरकार तिलक के पीछे भी पड़ गई। इस घटना के दस दिन पूर्व 12 जून 1897 को शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के अवसर पर आयोजित समारोह में तिलक के द्वारा दिये गये भाषण को आधार बनाया गया और कहा गया कि इस भाषण के द्वारा लोगों को विद्रोह के लिए उकसाया गया था। इस निराधार आरोप से तिलक जरा भी विचलित नहीं हुए।

इधर रैंड की हत्या के आरोप में दामोदर चापेकर की गिरफ्तारी हुई और आयस्र्ट की हत्या के आरोप में बालकृष्ण चापेकर को गिरफ्तार किया गया। ये दोनों सगे भाई थे। इन दोनों भाइयों की गिरफ्तारी जिन द्रविण बन्धुओं की मुखबिरी के कारण हुई, उससे बदला लेने के लिए तीसरे भाई बासुदेव चापेकर के साथ रानाडे ने कुछ समय बाद उनके घर जाकर गोलियाँ दागी और उन दोनों द्रविड़ बन्धुओं को मौत के नींद सुला दिया। तीसरे भाई वासुदेव चापेकर भी गिरफ्तार हो गये। शायद विश्व के इतिहास में ऐसी मिसाल नहीं मिलेंगी, जहाँ एक साथ तीन भाइयों को अंग्रेज-सरकार के द्वारा गिरफ्तार कर उन पर केस चलाया गया हो और अन्ततः उन्हें फाँसी की सजा दी गई हो।

इधर इस मामले में तिलक पर भी केस चलाकर विद्र्रोह भड़काने का आरोप लगाकर उन्हें बन्दी बना लिया गया था। जिस यरवदा जेल में चापेकर बन्धु बन्द थे, उसी जेल में तिलक को भी रखा गया था। दामोदर चापेकर ने जेल में तिलक से मिलने की इच्छा जतायी। अनुमति मिलने पर जब वे मिले तो तिलक से यही निवेदन किया कि वे एक ‘गीता‘ की प्रति देने की कृपा करें तथा मृत्योपरान्त हिन्दू-पद्धति से उनका दाह-संस्कार करायें। तिलक ने उन्हें ‘गीता‘ की प्रति दी और उनका क्रिया-कर्म हिन्दू-धर्मानुसार करने का आश्वासन भी दिया। इसी ‘गीता‘ की प्रति हाथ  में लेकर दामोदर चापेकर फाँसी के फन्दे पर झूल गये।

इसके बाद बालकृष्ण चापेकर और अन्त में बासुदेव चापेकर के साथ रानाडे भी फाँसी पर चढ़ गये। तीनों चापेकर बन्धुओं को फाँसी पर चढ़ा कर अंगे्रजों ने अपने ताबूत में तीन कील ठोक ली। भारतमाता का सर गर्व से ऊँचा हो गया। इतनी बड़ी कुर्बानी शायद ही दुनिया में किसी देश में किसी के द्वारा दी गई हो। एक पिता की तीन सन्तानें क्रूर अंग्रेजों को गोली मार कर फाँसी के फँदे पर हँसते हुए झूल गयी थीं। क्रान्ति की शुरुआत हो चुकी थी। इधर इसी मामले में 14 सितम्बर 1897 को तिलक को 18 मास की सश्रम कारावास की सजा सुनायी गई। सारा देश चिन्तित हो उठा। देश-विदेश के विद्वान् भी मर्माहत हो उठे। उस समय तक तिलक की विद्वता का लोहा सारा विश्व मानने लगा था। हुआ यह था कि तिलक ने सन् 1892 में ‘द ओरायन’ नामक एक ग्रंथ लिखा था।
इस ग्रंथ के एक नक्षत्र के अस्तित्व का वर्णन था जिसकी चर्चा वेदों में आयी है। इस नक्षत्र की स्थिति को ध्यान में रखकर उन्होंने वेद का रचना-काल ईसा से कम-से-कम चार हजार वर्ष पूर्व प्रमाणित करने का प्रयास किया था। ऋग्वेद में जिस मार्गशीर्ष नक्षत्र का वर्णन है, उसे ‘अग्रहायण’ भी कहते हैं और यही शब्द ग्रीक-भाषा में ‘ओरायन’ हो गया है। इस गणित के आधार पर ओरायन-नक्षत्र की जो स्थिति वैदिक काल में थी वह आज से कम-से-कम छः हजार वर्ष पूर्व पहले यानी ई0 सन् से चार हजार वर्ष पूर्व रही होगी। इस विद्वतापूर्ण ग्रंथ को पढ़कर विश्व के वैज्ञानिक और तत्त्वदर्शी सभी आश्चर्यचकित हो गये थे। इसमें एक बात और जोड़ देना मुझे उचित लगता है कि नक्षत्र की यह स्थिति इस सृष्टि-क्रम में बार-बार बनती रहती है और उसकी आवृत्ति होती जाती है। इस परिप्रेक्ष्य में यह छः हजार वर्ष तो केवल एक आवृत्ति की घटना हो सकती है।

अगर अन्य आवृत्तियों का लेखा-जोखा लिया जाय तो पता नहीं वेद का काल कितना पीछे चला जायेगा। कुछ भी हो, मगर इस पुस्तक की विद्वता से सारे देश-विदेश के विद्वान् प्रभावित थे। इसीलिए जब तिलक के जेल जाने की सूचना दुनिया भर के विद्वानों को मिली तो वे भी विचलित हो उठे। उसी  में एक विद्वान् थे- मैक्समूलर। आॅक्सफोर्ड में संस्कृत और प्राच्य विद्या के प्रोफेसर मैक्समूलर ने महारानी विक्टोरिया को एक पत्र में लिखकर इस महान् विद्वान् को कारामुक्त करने की प्रार्थना की। देश-विदेश के विद्वानों की प्रार्थना का असर हुआ और केवल ग्यारह महीने तक यरवदा जेल में रहने के बाद 6 सितम्बर 1898 को उन्हें मुक्त कर दिया गया।

जनता ने खुले दिल से अपने नेता का स्वागत किया। जेल से छूटने के बाद उन्होंने ‘केसरी’ का सम्पादकत्व फिर से स्वीकार कर लिया और भारतीय राजनीति में फिर क्रियाशील रहने लगे। यहाँ पर यह कह देना युक्तिसंगत होगा कि बासुदेव चापेकर ने द्रविड़ बन्धुओं की जो हत्या की थी, वह तिलक के कारावास से मुक्त होने पर की थी। इसीलिए कई अंग्रेज-परस्त पत्र इस बात को उछाल रहे थे कि हत्या के पीछे भी अप्रत्यक्ष रूप से तिलक का हाथ हो सकता है। मगर उनका यह षड्यंत्र सफल नहीं हो सका।

तिलक कांगे्रस-अधिवेशन में पूर्ववत् भाग लेने लगे। उन्हें अब यह महसूस होने लगा कि कांग्रेस में अभी एक वर्ग है जो यथास्थिति का पक्षधर है और अपने को नरमपंथी कहता है। इसके साथ ही ऐसा वर्ग भी है जो किसी भी सूरत में देश की आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहता है। उसे लोग गरम दल कहते हैं। शायद गरम दल और नरम दल के लोगों को सचेत करते हुए उन्होंने ‘केसरी’ में लिखा था - ‘‘.......उभय पक्ष एक-दूसरे को मोर-मोरनी कहे तब भी सरकार का गरुड़ दोनों की गर्दन दबोच सकता है।’’ तिलक निश्चय ही गरमवादी दल के नेता माने जाते थे, मगर उनका विश्वास कार्य को पूर्णता की ओर ले जाना था। वे केवल शब्द-जाल से राजनीति नहीं करना चाहते थे, बल्कि वे निर्भीकतापूर्वक आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहते थे।

तिलक का सम्मान देश में दिनानुदिन बढ़ता जा रहा था। इसी समय 1899 के अक्टूबर-नवम्बर में अंग्रेजी पत्र ‘ग्लोब’ ने तिलक के बारे में अपमानजनक टिप्पणी लिखते हुए अंग्रेजों को उससे होशियार रहने की हिदायत दी। यह सब पढ़कर तिलक ने ‘ग्लोब’ और सम्बन्धित समाचार-पत्र पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। इस मुकदमे से घबरा कर ‘ग्लोब’ के प्रभारी ने सरे आम माॅफी मांग ली। तिलक ने उनके माफीनामे को  ‘केसरी‘ में प्रमुखता से छापा। तिलक की इस जीत से सारा देश हर्षित हो उठा और ब्रिटिश पत्रिका के मुँह पर कालिख पुत गयी। इसी वर्ष सन् 1900 में तिलक जब कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में उपस्थित हुए तो उनका जमकर स्वागत किया गया। इसी अधिवेशन में जनता ने उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि दी और अब वे बन गये बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक यानी जनता में मान्य तिलक।

तिलक एक महान् विद्वान् थे। वे 1893 में स्वामी विवेकानन्द के शिकागो वक्तृत्व से बहुत प्रभावित थे। हर्बर्ट स्पेंसर के विचारों के भी वे प्रशंसक थे। मैक्समूलर की वेद-भक्ति का वे बहुत आदर करते थे। इस तरह स्वामी विवेकानन्द के देहत्याग [1902]  और मैक्समूलर के निधन [1900] के अवसर पर उन्होंने अपने अग्रलेख में इन दोनों महान् विभूतियों की भूरी-भूरी प्रशंसा की थी।

इसी बीच ‘ओरायन’ के बाद उनकी एक और महत्त्वपूर्ण कृति ‘आर्कटिक होम’ प्रकाश में आयी। यह पुस्तक सिंहगढ़ में सन् 1902 में तिलक ने बोलकर लिखवायी। इस ग्रंथ के तेरह अध्यायों में वेद में वर्णित दिन का उल्लेख करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि ऐसा दिन केवल उत्तरी ध्रुव प्रदेश में ही होता है और इस तरह आर्यों का मूल निवास वही स्थान हो सकता है। आज भी इस ग्रंथ की शोधपरक भाषा को पढ़कर बड़े-बड़े विद्वान् चकरा जाते हैं। तिलक जो भी लिखते थे, बहुत गहराई में जाकर लिखते थे और उनके सारे संदर्भ भी उद्धृत करते थे।

लोकमान्य अपने कार्य के प्रति अत्यन्त निष्ठावान् रहते थे और विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होते थे। सन् 1903 के जनवरी माह में उनके ज्येष्ठ पुत्र विश्वनाथ का प्लेग की बीमारी से अचानक निधन हो गया। वह इक्कीस साल का युवक फग्र्युसन काॅलेज में पढ़ रहा था। इतना बड़ा शोक होने पर भी तिलक अगले दिन ‘केसरी‘ का सम्पादकीय लिखने में व्यस्त थे। पत्र की अन्य सामग्रियाँ भी उन्होंने बोलकर लिखवायी। यह था तिलक का धैर्य और उनका विवेक।

सन् 1905 के आस-पास कांग्रेस के आकाश में लाल, बाल और पाल का नाम नक्षत्र की तरह चमकने लगा था और ये तीनों नेता लाला लाजपत राय [लाल]  बाल गंगाधर तिलक [बाल] और बिपिनचन्द्र पाल  [पाल]  ही कांग्रेस के पर्याय बन गये थे। हर जगह इन नेताओं का सम्मान होता था। इसके साथ ही गोपालकृष्ण गोखले भी राजनीति में उभार पर थे, मगर उन्हें एक नरम-पंथी के रूप में जाना जाता था।

इसी समय विदेश में भी भारत की आजादी के लिए आवाज बुलन्द करने पर कांगे्रस में सहमति बनी। इंग्लैंड में भी श्यामजी कृष्ण वर्मा ‘इण्डिया हाउस’ चलाते थे, जहाँ भारतीय छात्रों को कम खर्चे में रहने की सुविधा प्रदान की जाती थी। यहीं ‘इण्डिया हाउस’ विदेश में क्रान्तिकारियों का अड्डा माना जाता था और श्यामजी कृष्ण वर्मा उनके गुरु के रूप में पूजित थे। तिलक जी भी इनके ही सम्पर्क में आये और हिन्दुस्तान में भी ‘देशभक्त समाज’ नाम की एक संस्था का गठन किया गया। स्वतन्त्रता के लिए विभिन्न भागों से किये जाने वाले प्रयास के हिमायती थे-लोकमान्य और इसलिए देश-विदेश में सभी समान विचारधारा वालों के सम्पर्क में भी रहते थे।

इधर भारत में वायसराय लाॅर्ड कर्जन का अत्याचार बढ़ता जा रहा था। तिलक ने उनके जुल्म के विरोध में ‘केसरी‘ में लिखना शुरू किया। लाॅर्ड कर्जन ने बंगाल-विभाजन का कदम उठाकर आग में घी डालने का कार्य किया। तिलक ने ‘केसरी‘ में लिखा-‘‘सौर्यमंडल में जैसे धूमकेतु होते हैं, उसी तरह बादशाह के इर्द-गिर्द घूमने वाले दरबारियों में कुछ धूमकेतु सरीखे व्यक्ति होते हैं। लाॅर्ड कर्जन ऐसा ही एक व्यक्ति है।’’ इस आलोचना से लाॅर्ड कर्जन और उग्र हो गया।

बंगाल का विभाजन हो गया। ‘फूट डालो और राजनीति करो’ की भावना से अंग्रेज-सरकार ने इसे क्रियान्वित किया। मगर लाल, बाल और पाल ने इस विभाजन के विरोध में आन्दोलन छेड़ दिया। केवल बंगाल ही नहीं बल्कि सारे देश में इस विभाजन के विरोध में स्वर गूंज उठे। इस आन्दोलन में तिलक का साथ देने अरविन्द घोष भी आ गये जो बड़ौदा नरेश के यहाँ कार्यरत थे। इंग्लैंड से सन् 1893 में भारत लौटने पर वे बड़ौदा नरेश के यहाँ कार्य कर रहे थे, मगर देश की स्वतन्त्रता के लिए उनके तेवर भी अत्यन्त उग्र थे। इसीलिए बंग-भंग आन्दोलन में भाग लेने के लिए वे बड़ौदा से त्यागपत्र देकर कलकत्ता आ गये। बंग-भंग आन्दोलन देश भर में रंग लाने लगा।

इस बंग-भंग आन्दोलन का ऐसा देशव्यापी प्रभाव पड़ा कि विभाजन करने वाले वायसराय लाॅर्ड कर्जन को इस्तीफा देना पड़ा। आखिर दीर्घकाल तक संघर्ष करने के बाद बंगाल का विभाजन रद्द हुआ। इस बीच आन्दोलनकारियों को हर तरह से प्रताड़ित किया गया। ‘वन्दे मातरम्’ का नारा लगाने वाले युवकों पर लाठी-चार्ज किये गये। कितने ही नौजवानों को जेल की भी सजा दी गई। तिलक के नेतृत्व में मिली इस आन्दोलन की सफलता से वे एक बार फिर अंग्रेजों की आँख पर चढ़ गये। लाल-बाल-पाल राजनीति के आकाश में नक्षत्र की तरह जगमगाने लगे। सारा देश एकजुटता के सूत्र में बँधने लगा था। देशभक्ति की लहर सारे देश में व्याप्त थी।

सन् 1907 के दिसम्बर में कांग्रेस का अधिवेशन सूरत में हुआ। यहाँ पर कांग्रेस के गरम दल और नरम दल का मतभेद खुलकर सामने आ गया। नरम दल का नेतृत्व कर रहे थे- श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, श्री फिरोजशाह मेहता, श्री रासबिहारी घोष और श्री गोपालकृष्ण गोखले आदि तथा गरम दल का नेतृत्व श्री बाल गंगाधर तिलक, श्री अरविन्द घोष, श्री गणेशकृष्ण खपर्डे तथा श्री करसन जी देसाई आदि। इस अधिवेशन में दोनों दलों के अलग-अलग घोषणा-पत्र निकाले गये। गरम दल में श्री अरविन्द घोष ज्यादा उग्र रहते थे। लोकमान्य तिलक का विचार था कि नौजवान विवेक से कार्य करें और कोई आक्रामक कार्रवाई न करें। देश की आजादी की लड़ाई को अनुकूल दिशा देने में सारे देश का भ्रमण करते हुए वे जन-जागृति अभियान में जोर-शोर से लगे हुए थे।

इसी बीच एक और घटना घट गई। बंग-भंग विरोध आन्दोलन में किंग्सफोर्ड नामक न्यायाधीश ने युवा क्रान्तिकारियों को सख्त सजा देकर उनके मनोबल केा तोड़ने का प्रयास किया। बदले में नौजवान खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चक्रवर्ती ने बिहार के मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की सवारी पर 30 अप्रैल 1908 को बम से हमला किया। मगर गाड़ी पहचानने में चूक हो गई और दूसरी कार में बैठी दो अंग्रेज महिलाएँ मौत की शिकार हो गईं। चक्रवर्ती ने तो खुद पिस्तौल से आत्महत्या कर ली और खुदीराम बोस को फाँसी की सजा दी गई। ‘वन्दे मातरम्’ का नारा लगाते हुए खुदीराम बोस फाँसी के फंदे को चूम लिये। सारा देश इस घटना से स्तब्ध रह गया। तिलक की लेखनी भला कब तक चुप रहने वाली थी। ‘केसरी’ में इस घटना के सम्बन्ध में लेख लिखे गये। ‘बम गोले का रहस्य’ आदि लेखों ने आग में घी का कार्य किया। सारा देश इस घटना से जाग उठा और अंग्रेजों की दमन नीति के खिलाफ एक आक्रोश फूट पड़ा।

इधर अंग्रेज सरकार ने तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर जुलाई 1908 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। तिलक का स्पष्ट विचार था कि स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करना हर भारतीय का कत्र्तव्य है और सरकारी दमन-चक्र के दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। वे सरकारी दमन के चलते होने वाले दुष्परिणामों से सरकार को अवगत कराना चाहते थे। मगर सरकार के कान तो बहरे हो गये थे। इस मुकदमे में तिलक को छः साल की सजा सुनायी गई। पहले उन्हें अहमदाबाद के साबरमती जेल में रखा गया और बाद में उन्हें वर्मा के मांडले जेल में रखा गया, जहाँ वे करीब साढ़े पाँच वर्षों तक रहे। तिलक को परिवार वालों के साथ भी नहीं मिलने दिया गया। उनके परिवार में उनकी धर्मपत्नी सत्यभामा बाई और दो पुत्र राम भाउ और बापू थे, जिन्हें तिलक की मुलाकात से भी वंचित किया गया। ये दोनों बच्चे अभी हाई स्कूल में पढ़ रहे थे।

महापुरुषों के चरण पड़ने से वहाँ की भूमि भी पवित्र हो जाती है। लोकमान्य के चरण जब मांडले जेल में पड़े तो वहाँ का वातावरण बदलने लगा। नित्य पूजा-पाठ से निवृत्त होकर ‘तिलक’ अध्ययन और लेखन के कार्य में जुट जाते थे। उन्होंने करीब पाँच सौ पुस्तकों का अध्ययन किया और निचोड़ रूप से ‘गीता रहस्य’ नामक पुस्तक लिख कर संसार को एक अमूल्य निधि दी, जो आज भी अध्यात्म-जगत की एक अन्यतम विभूति है। पाँच सौ पृष्ठों से अधिक मूल मराठी में लिखे गये इस पुस्तक ‘गीता रहस्य’ का अंग्रेजी और हिन्दी अनुवाद के साथ अन्य कई भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। आज इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ‘तिलक’ की विद्वता पर आश्चर्य होता है। ‘गीता’ में ‘कर्मयोग‘ का जीवन-दर्शन और वेदान्त का नीतिशास्त्र भरा हुआ है।

तिलक ने ‘गीता रहस्य’ में इन सत्यों को उद्घाटित किया है। वे सचमुच एक ज्ञानयोगी थे। ऐसे ज्ञानयोगी को जेल में बन्द करके अंग्रेज-सरकार ने एक जघन्य अपराध किया था। आखिर जून 1914 में उस महामानव को मांडले जेल से रिहा किया गया।  स्वदेशी का प्रहरी, स्वराज्य के सूत्रधार लोकमान्य ने जेल में रहकर भी भगवान् कृष्ण की वाणी को ‘गीता रहस्य’ के माध्यम से एक चमत्कार दिया। उनकी ‘कृष्ण कोठरी’ [जेल] में कृष्ण का संवाद दार्शनिक अन्दाज में मुखरित हो उठा। मांडले जेल से रिहा होने के बाद जब तिलक पुणे आये तो उनके सम्मान में एक सभा बुलायी गई और सारा शहर दीवाली की तरह रोशनी से सजाया गया। देश को अपना नेता फिर से मिल गया था।

तिलक का ‘गीता रहस्य’ अंग्रेजों की दृष्टि में गड़ रहा था। उनकी पांडुलिपि अंग्रेज-सरकार ने ले ली । मगर वह कुछ दिनों बाद वापस दे दी गई। ‘गीता रहस्य’ पुस्तक जून 1915 में प्रकाशित हो गई। देश-विदेश के प्रतिष्ठित विद्वानों को स्वयं तिलक ने प्रतियाँ भेजी।

इधर छः वर्षों के बाद जेल से बाहर आने पर देश की परिस्थितियाँ भी काफी बदल गई थीं। अंग्रेजों का दमन-चक्र काफी बढ़ गया था। क्रान्तिकारियों के आक्रोश का लावा भी फूटता जा रहा था। अलीपुर षड्यन्त्र केस में अरविन्द घोष का नाम जुड़ने से वे पांडिचेरी चले गये, जो फ्रांस के अधीन था। वहाँ पर अध्यात्म-केन्द्र खोल कर अरविन्द घोष ध्यान-साधना के पथ पर अग्रसर हो रहे थे। इसी समय विश्व के रंगमंच पर प्रथम विश्वयुद्ध का प्रारम्भ हो चुका था।

भारत की राजनीति में श्रीमती एनी बेसेन्ट भी प्रभावशाली हो चुकी थीं। श्रीमती एनी बेसेण्ट सन् 1893 में भारत आयी थीं और ‘थियोसोफिकल सोसायटी आॅफ इण्डिया’ की अध्यक्षा थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उनकी पैठ बढ़ती गई थी और वे अब भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम की एक मुखर आवाज बन गई थीं। ‘होमरुल लीग‘ का गठन किया गया। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने कहा कि ‘होमरुल लीग‘ कांग्रेस की एक पूरक संस्था है। तिलक ने इस संस्था को अपना सहयोग प्रदान किया। श्रीमती एनी बेसेण्ट और तिलक ने कांग्रेस के गरम दल और नरम दल को जोड़ने का प्रयास किया। इसी बीच 19 फरवरी 1915 को गोपालकृष्ण गोखले का निधन हो गया। भारतीय राजनीति में एक खामोशी छा गई। गोखले यद्यपि नरम दल के नेता थे, मगर उनका आदर सभी करते थे। महात्मा गाँधी तो उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।

तिलक अब अपने जीवन के 61वें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे। 29 जुलाई 1916 को उनका 61वाँ जन्म-दिवस भव्यता के साथ पुणे में मनाया गया। उन्हें संस्कृत, अंग्रेजी और मराठी में सम्मान-पत्र के साथ धन भी भेंट किया गया। तिलक ने विनम्रतापूर्वक सम्मान स्वीकार करते हुए उस धनराशि को ट्रस्ट के माध्यम से राष्ट्रीय हित में खर्च करने का एलान किया। तिलक की लोकप्रियता से अंग्रेज-सरकार घबरा रही थी। सरकार की ओर से उन पर फिर नोटिस जारी किया गया।  ऐसी नोटिसों को देख कर तिलक  हँसते हुए कहा करते थे-‘‘यह तो सरकार का उपहार है।’’

समय का चक्र घूमता जा रहा था। कांग्रेस का अधिवेशन दिसम्बर, 1916 में लखनऊ के कैसर बाग में निश्चित हुआ था। कांग्रेस की एकता का प्रयास दोनों पक्षों की ओर से हो रहा था।  तिलक भी कांग्रेस के इस अधिवेशन में भाग लेने जा रहे थे। जगह-जगह भव्य स्वागत किया गया। इस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष श्री जगतनारायण लाल थे।

महात्मा गाँधी के निकटतम सहयोगियों में डा0 राजेन्द्र प्रसाद के साथ एक और नाम जुड़ा हुआ है-बिहार की अन्यतम विभूति श्री जगतनारायण लाल जी का। वे एक प्रखर सिद्धान्तवादी नेता थे, जो आजीवन कांग्रेस से जुड़े रहकर अपने सिद्धान्त की रक्षा के लिए कभी-कभी विरोध के स्वर भी मुखरित करते रहे और अन्य राष्ट्रवादी संगठनों से भी जुड़े रहे। उस समय के देश के शीर्षस्थ नेता भी उनकी ईमानदारी, त्याग, साफगोई, सार्वजनिक सेवा-भावना, प्रखर राष्ट्रभक्ति, आध्यात्मिक उपलब्धि और अद्भुत वक्तृता की प्रशंसा किया करते थे।  शिक्षा, समाज-सेवा, अछूतोद्धार, गोरक्षण, गीता-प्रचार, महिला-उत्थान और अन्य समाज-सुधार के कार्यों में आपकी अग्रणी भूमिका थी। वे स्वतन्त्रता-संग्राम के अप्रतिम योद्धा थे और देश-हित में सर्वस्व न्योछावर करने वाले महान् त्यागी।

महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा में श्री जगतनारायण लाल जी के नाम का आदर के साथ उल्लेख किया है। शायद वे देश के एक मात्र ऐसे नेता थे जिन्हें ‘हिन्दू-महासभा‘ और ‘कांग्रेस‘ दोनों की ओर से अद्भुत सम्मान मिला। उनका तपःपूत चरित्र,  प्रखर व्यक्तित्व और निर्भीक चिन्तन भारत की राजनीति में आज भी एक मिसाल के रूप में याद किया जाता है।

करीब नौ वर्ष बाद कांग्रेस के दोनों गुट एक जगह पर एकत्रित हुए थे। इस अधिवेशन में हिन्दू-मुस्लिम एकता को व्यावहारिक रूप देने में तिलक की अहम भूमिका रही। स्वराज्य की स्पष्ट मांग और हिन्दू-मुस्लिम एकता इस अधिवेशन की विशेष उपलब्धि रही।

इस अधिवेशन के तुरन्त बाद ही 30 दिसम्बर 1916 को लखनऊ में ही ‘होमरुल लीग‘ की बैठक हुई, जिसकी अध्यक्षता श्रीमती एनी बेसेण्ट ने की। इसी बैठक में तिलक का वह ओजपूर्ण भाषण हुआ जिसमें उन्होंने कहा था-‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है‘। यही वाक्य आगे चलकर स्वतन्त्रता सेनानियों के लिए एक मंत्र-वाक्य बन गया। भारत की राजनीति में इस मंत्र का बार-बार प्रयोग किया गया।

होमरुल लीग‘ के लिए तिलक और श्रीमती एनी बेसेण्ट का तूफानी दौरा सारे देश में होने लगा। इसके सदस्यों की संख्या में प्रभावकारी वृद्धि होने लगी। इसी बीच श्रीमती एनी बेसेण्ट की गिरफ्तारी हो गई, जिसके विरोध में तिलक ने कड़ा प्रतिवाद किया। स्वराज्य-आन्दोलन अपने उफान पर जाने लगा था। भारत की स्वतन्त्रता के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मंच पर महात्मा गाँधी का उदय हो रहा था। 1917 में किसानों के समर्थन में और नील की खेती करने वाले अंग्रेजों के विरोध में महात्मा गाँधी का आन्दोलन सफल हो चुका था। इस सत्याग्रह की सफलता से भारतीय राजनीति में एक नया आयाम जुड़ चुका था।

स्वराज्य-आन्दोलन का सभी एक स्वर से समर्थन करें, इस आशय की घोषणा करते हुए तिलक सारे देश का भ्रमण कर रहे थे। प्रथम विश्वयुद्ध के समय कांग्रेस के कुछ नेताओं, जिनमें महात्मा गाँधी भी शामिल थे, यह विचार रखते थे कि संकट में शत्रु की भी मदद करनी चाहिए। मगर तिलक का यह स्पष्ट मत था कि इस युद्ध के समय हमें तभी मदद करनी चाहिए जब अंग्रेज- सरकार से हमें भारत की स्वतन्त्रता के लिए ठोस आश्वासन मिले । इसी तरह तिलक के विचार में हर जगह निर्भीकता और स्पष्टता की छाप थी। कहीं भी वे राष्ट्रीय स्वाभिमान को सबसे आगे रखते थे

सन् 1919 के प्रारम्भ में हिन्दुस्तान में रौलेट एक्ट पास हुआ। भारतीयों ने इसे काला कानून कहा। सारे देश में इसका विरोध हुआ। तिलक उस समय इंग्लैंड में थे। उन्होंने जगह-जगह इस कानून के विरोध में भाषण दिया। तिलक ने जहाँ एक ओर इंग्लैंड की लेबर पार्टी के मंच पर भी भाषण दिया वहीं दूसरी ओर आॅक्सफोर्ड के विद्यार्थियों को भी सम्बोधित किया। तिलक के भाषण से इंग्लैंड के लोग काफी प्रभावित हुए।

इधर भारत में रौलेट एक्ट का विरोध तीव्र होता जा रहा था। इसी सिलसिले में पंजाब के जालियाँवाला बाग में आहूत सभा पर जिस तरह क्रूर डायर ने फायरिंग करा कर निहत्थे बूढ़े, बच्चे और महिलाओं को मौत के घाट उतरवाया था, वह इतिहास का एक काला दिन था। इस क्रूरता से मानवता थर्रा गई थी।

तिलक उस समय इंग्लैंड में थे। उन्होंने इंग्लैंड में भारत के मंत्री मांटेग्यू से मिलकर इस घटना के बारे में कड़ा प्रतिरोध जताया था। तिलक नवम्बर 1919 में इंग्लैंड से भारत आ गये। भारत में जगह-जगह भ्रमण करके इंग्लैंड में लेबर पार्टी के सहयोग की चर्चा करते हुए भारत में अंग्रेजों की दमन-नीति का वे कड़ा प्रतिवाद करते रहे। इसी समय 27 दिसम्बर 1919 को अमृतसर ख्पंजाब, में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें जालियाँवाला बाग नर-संहार की आवाज गूँजती रहीं। इस अधिवेशन के अध्यक्ष पंडित मोतीलाल नेहरू थे। स्वामी श्रद्धानन्द स्वागताध्यक्ष थे। इस अधिवेशन में भी तिलक का ओजस्वी भाषण हुआ। गाँधीजी भी इस अधिवेशन में मौजूद थे। दोनों के बीच कुछ मत-भिन्नता रहने के बावजूद भी गाँधीजी लोकमान्य तिलक को अपना मार्गदर्शक मानते थे।

27 मई 1920 को अखिल भारतीय कांग्रेस की बनारस में बैठक हुई, जिसमें असहयोग आन्दोलन को पूर्ण रूप देने का निर्णय लिया गया। तिलक जी इस असहयोग आन्दोलन के विरोध में नहीं थे लेकिन उन्हें शंका थी कि जनमानस उसका कितना साथ देगा? उन्होंने अपनी शंका को गाँधीजी के सामने भी प्रकट किया। देश में असहयोग आन्दोलन की भूमि तैयार होने लगी थी। समय की गति कोई नहीं जानता? इधर सारा राष्ट्र तिलक के नेतृत्व में स्वराज्य का सपना देख रहा था, उधर एक दूसरी ही घटना घट रही थी।

बुखार से पीड़ित तिलक अचानक बेहोश हो गये। महज दस दिनों की बीमारी के बाद 31 जुलाई की रात 12 बजकर 40 मिनट पर यानी 1 अगस्त 1920 को उनकी जीवन-यात्रा समाप्त हो गई। भारत के आकाश का एक प्रकाशमान नक्षत्र बुझ गया। सारा देश इस दुःखद समाचार से स्तब्ध रह गया। ‘गीता रहस्य’ का प्रणेता ‘‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय’ को चरितार्थ कर गया।

गीता की अमर वाणी ने उन्हें अमर बना दिया। उनका शरीर पंच तत्त्वों में विलीन हो गया। उनकी शव-यात्रा में लाखों लोग शामिल हुए। देश के सारे नेता उस अवसर पर मौजूद थे। लाला लाजपत राय के मुँह से केवल इतना ही निकल सका-‘‘भारत में दहाड़ने वाला शेर चला गया।’’ सारा देश शोक-मग्न हो गया। स्वराज्य आन्दोलन के एक युग का अन्त हो गया।

लोकमान्य के निधन पर महात्मा गाँधी ने कहा-‘‘वे आधुनिक भारत के शिल्पकार थे। आने वाली पीढ़ियों के लिए उनका जीवन प्रेरणादायक सिद्ध होगा, क्योंकि वे देश के लिए ही जिए और देश के लिए ही उन्होंने अपना जीवन दिया।’’ लाला लाजपत राय ने कहा-‘‘तिलक की मृत्यु के कारण भारत का प्रथम श्रेणी का देशभक्त और आर्वाचीन हिन्दुस्तान का एक स्फूर्तिदाता चल बसा।’’

पं0 मदनमोहन मालवीय ने कहा-‘‘उन्होंने देश के लिए असीम कष्ट उठाया, क्योंकि भारत का प्रेम ही उनके हृदय की प्रधान भावना थी। मरते दम तक स्वराज्य  ही उनका ध्येय रहा।’’ स्वराज्य की नींव डालने वाला हमारे बीच से चला गया। भारतमाता भी रो उठी। तिलक की महानता का एक दृश्य उस समय उभर कर सामने आया, जब महात्मा गाँधी पर अंग्रेज-शासक द्वारा राजद्रोह का मुकदमा सन् 1922 में चलाया गया और सजा सुनाते हुए न्यायधीश बूम फील्ड ने कहा-‘‘14 वर्ष पहले बाल गंगाधर तिलक पर ऐसा ही एक मुकदमा चला था और आपको उन्हीं की तरह छः साल की सजा देनी पड़ रही है।’’ इस पर महात्मा गाँधी ने कहा था-‘‘लोकमान्य के समकक्ष मेरे नाम का उल्लेख हुआ, इसे मैं अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ सम्मान समझता हूँ।’’

तिलक की महानता का एक दूसरा दृश्य देखें। सन् 1925 में जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को मांडले जेल भेजा गया था, जहाँ पहले तिलक को बन्दी बनाकर भेजा गया था तो वे भाव-विह्वल हो उठे। उन्होंने कहा-‘‘1925 के जनवरी माह में मुझे मांडले जेल भेजा गया और तब मैंने वह जगह देखी जहाँ तिलक को बन्दी बनाकर रखा गया था।..........जिस स्थान पर लोकमान्य ने  ‘गीता रहस्य’ लिखा, वहाँ जाना ही मेरे लिए सौभाग्य की बात थी।’’ आगे उन्होंने कहा-‘‘लोकमान्य जैसे वरिष्ठ देशभक्त की स्मृति से पुलकित मांडले जेल में जाना सचमुच मेरे जैसे राजनैतिक कार्यकर्ता के जीवन की परम पवित्र यात्रा थी।’’

तिलक एक महान् गणितज्ञ थे, एक परम दार्शनिक थे, एक महान् राजनेता थे, एक श्रेष्ठ ज्योतिर्विद् थे, श्रीमद्भगवद्गीता के परम उपासक थे, कई भाषाओं के ज्ञाता थे, वेदांग ज्योतिष के भी मर्मज्ञ विद्वान् थे और सबसे बढ़कर स्वराज्य-आन्दोलन के जनक थे। तिलक ने ‘गीता रहस्य’ मराठी में लिख कर तथा‘ओरायन’ और ‘आर्कटिक होम’ अंग्रेजी में लिख कर जिस अनुसन्धानात्मक सोच का परिचय दिया, वह सारे विश्व के विद्वानों के लिए मनन-चिन्तन का विषय बन गया। वेदांग ज्योतिष पर उनका बृहद् लेख एक स्मरणीय धरोहर है।

तिलक उस समय के क्रान्तिकारियों के प्रति अत्यन्त आदर का भाव रखते थे, मगर आन्दोलन को आम आदमी से भी जोड़ना चाहते थे। उनके अग्रलेखों ने देश को झकझोर दिया था, उनकी लेखनी का जादू आम जनता के सर पर चढ़ कर बोलने लगता था। तिलक का राजनैतिक सन्देश था-‘‘जितना उचित हो उतना सहयोग करते हुए विरोध की धार तेज करो।’’ जीवन पर्यन्त वे इस सिद्धान्त की अग्नि प्रज्वलित करते रहे।

लोकमान्य का महान जीवन


लोकमान्य ने जो गर्जना की थी-‘‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे।’’ वह उक्ति तो 15 अगस्त 1947 को साकार हो गई जब अपना देश अंग्रेजों की दासता से मुक्त हो गया। मगर अभी भी बहुत से प्रश्न अनुत्तरित हैं। लोकमान्य तिलक ने जिस स्वराज्य की कल्पना की थी, उसे क्या आज के नेता समझ पा रहे हैं? आज के नेताओं के घिनौने खेल ने लोकतंत्र को एक मखौल बनाकर रख दिया है। आखिर घोटाला और चरित्रहीनता की राजनीति हमें कहाँ ले जायेगी? राजनीति का अपराधीकरण हमें किस धरातल पर लाकर पटकेगा? विचारकों के लिए आज यह एक यक्ष-प्रश्न की तरह सामने खड़ा है।

आज भी तिलक जैसे महामानव से प्रेरणा लेकर हम भारतीय देश-भक्ति के साथ त्याग और ईमानदारी से राष्ट्र-सेवा का संकल्प लें तो उनके प्रति यही हमारी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी। उस स्वतन्त्रता आन्दोलन के सूत्रधार, देश-भक्ति, त्याग, विद्वता और सच्चाई के पर्याय महान् मनीषी को शत-शत नमन !


Ref. Apani Maati Apana Chandan, Author- Sukhnandan singh saday, editor of Vihangam yoga sandesh.  Picture source from www.2classnotes.com. keywords Lokmanya Tilak, Bal Gangadhar Tilak.