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स्वामी विवेकानन्द Swami Vivekananda

विश्वविजेता - स्वामी विवेकानन्द

 

Swami Vivekananda (Narendra Nath Datta)

नाम - विवेकानंद(स्वामी)

जन्म - 12 जनवरी 1863 ई.

जन्म समय - 6 बजकर 33 मिनट 33 सेकेण्ड पर (सुबह)

जन्म स्थान - कलकत्ता(अब कोलकाता)

माता- भुवनेश्वरी देवी 

पिता - विश्वनाथ दत्त 

माता द्वारा रखा गया नाम - वीरेश्वर 

पिता द्वारा रखा गया नाम- नरेन्द्रनाथ 

देह त्याग- 4 जुलाई 1902 ई.

देह त्याग स्थान  -बेलूर, पश्चिम बंगाल।  


स्वामी विवेकानन्द का नाम लेते ही आँखों के सामने अध्यात्म की एक देदीप्यमान आकृति उभर आती है, जिसमें धर्म का ओज-तेज है, मानवता की सेवा का महामंत्र है, राष्ट्रीय गौरव का आभा-मंडल है और भारतीय संस्कृति का उदात्त स्वरूप है। स्वामी विवेकानन्द अपने युग की आध्यात्मिक हुंकार थे, दीन-दुखियों की सेवा के लिए एक जीवन्त पुकार थे, सत्य-धर्म की रक्षा के लिए वे एक सशक्त तलवार थे, भारत की गौरवशाली संस्कृति की नौका के वे अपने समय की पतवार थे और सबसे बढ़कर हिन्दू-धर्म के सनातन सिद्धान्तों के वे प्रबुद्ध पैरवीकार थे। सम्पूर्ण विश्व के दार्शनिक चिन्तन का अध्येता होने के साथ-साथ वे एक ऐसे गुरु के चरणों में समर्पित  थे, जो माँ काली का अनन्य भक्त थे और मूर्ति-पूजा के माध्यम से ही अपनी आत्मा का परिष्कार कर उस चिन्मय अवस्था को प्राप्त किया था-जहाँ ईश्वर को केवल देखा ही नहीं जाता है, बल्कि उनसे बातें भी की जाती है। स्वामी निर्वेदानन्द ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के बारे में एक जगह लिखा है-‘‘स्वामी रामकृष्ण हिन्दू-धर्म की गंगा हैं जो वैयक्तिक समाधि के कमंडलु में बन्द थी तो विवेकानन्द इस गंगा के भागीरथ हैं, जिन्होंने इस देव-सरिता को रामकृष्ण के कमंडलु से निकाल कर सारे विश्व में फैला दिया।’’

भारत में यह मान्यता है कि जब-जब धर्म का ह्रास और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब परमात्मा के दिव्य गुणों से सम्पन्न कोई महान् आत्मा इस धरा-धाम पर अवतरित होती है। भगवान् कृष्ण गीता के चतुर्थ अध्याय में इस संदर्भ में कहते हैं -

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
 - गीता 4/7
 
धर्म की ग्लानि सबसे अधिक तब होती है, जब धर्म के नाम पर ही अधर्म होने लगता है, धर्म के नाम पर निरीह जीवों की बलि दी जाती है, धर्म के नाम पर मानव-मानव के बीच विभेद पैदा किया जाता है , धर्म के नाम पर अस्पृश्यता को संरक्षण दिया जाता है, धर्म के नाम पर लोगों को ठगा जाता है और धर्म के नाम पर वर्ग-विशेष को ज्ञान से वंचित किया जाता है। इतना ही नहीं जब धर्म के नाम पर संस्थाओं में अधार्मिक लोगों का वर्चस्व बढ़ने लगता है, धार्मिक आयोजनों में दुर्जनों का सम्मान और सज्जनों का अपमान होने लगता है, धार्मिक अनुष्ठानों का उद्घाटन भी भ्रष्ट और चरित्रहीन व्यक्तियों के हाथों होने लगता है तब धर्म का सर ग्लानि से झुक जाता है। धर्म की सबसे बड़ी ग्लानि धर्म के नाम पर होने वाले अधर्म से होती है। उन्नीसवीं सदी का कालखंड धर्म की ग्लानि का पर्याय बन गया था। धर्म के नाम पर विसंगतियों का अम्बार लग गया था।

ऐसी विषम स्थिति में एक ऐसे महापुरुष का आविर्भाव इस धरा-धाम पर हुआ, जिसने सम्पूर्ण विश्व को धर्म के उज्ज्वल स्वरूप से परिचित कराया, धर्म की ग्लानि को धर्म के गौरव में बदल दिया। धर्म के नाम पर चलने वाली विसंगतियों को ध्वस्त करने के लिए प्राण-पण से जुट गया और अन्याय के ऊपर बम की तरह फूट गया।

बंगाल प्रान्त [आज का पश्चिम बंगाल]  के शिमुलिया मुहल्ले के गौर मोहन मुखर्जी स्ट्रीट में उस समय के अत्यन्त संभ्रान्त दत्त-परिवार में श्री राम मोहन दत्त एक नामी-गिरामी वकील के रूप में प्रतिष्ठित थे। इन्हीं के पुत्र श्री दुर्गाचरण दत्त हुए जो उर्दू, फारसी और अंग्रेजी का कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर वकालत के पेशे से जुड़ गए। मगर उनका मन अध्यात्म की ओर लगा रहता था। कहा जाता है कि मात्र 25 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था। घर में एकमात्र पुत्र श्री विश्वनाथ दत्त को छोड़ गये थे। विश्वनाथ दत्त भी वकालत के पेशे से ही जुड़े । विश्वनाथ दत्त की पत्नी भुवनेश्वरी देवी एक धर्म-परायण महिला थीं, नियमित भगवान शंकर की आराधना करती थीं। भुवनेश्वरी देवी को एक पुत्र की इच्छा थी, जिसके लिए वे नित्य ‘शिव’ की पूजा किया करती थीं। इसके पूर्व उन्हें दो पुत्रियाँ थीं। भुवनेश्वरी देवी ने अपनी व्यथा लिखते हुए अपनी एक परिचित महिला से निवेदन किया था कि काशी विश्वनाथ के मन्दिर में उनके लिए पूजा और होम आदि कराती रहें। इधर भगवान् शंकर की आराधना में तल्लीन भुवनेश्वरी देवी ने एक दिन स्वप्न में देखा कि स्वयं कैलाशपति शिव उनके सामने आये और धीरे-धीरे एक शिशु का आकार लेकर उनकी गोद में खेलने लगे। इसके साथ ही उनकी नींद खुल गई और आह्लाद के अतिरेक में वे बार-बार भगवान् शंकर को प्रणाम निवेदित करती रहीं।

इधर भगवान् भास्कर भी मकर-राशि में संक्रमण करने की तैयारी कर रहे थे। उसी पावन बेला में  पौष-संक्रान्ति के दिन 12 जनवरी 1863 को प्रातः छः बजकर तैंतीस मिनट तैंतीस सेकेण्ड पर भुवनेश्वरी देवी की कोख से एक विश्वविजयी पुत्र का जन्म हुआ। दत्त-परिवार में हर्ष का पारावार न रहा। कहते हैं कि बालक की आकृति अपने संन्यासी पितामह दुर्गाचरण दत्त से काफी मिलती थी। माता ने इस पुत्र का नाम वीरेश्वर रखा, क्योंकि काशी के विश्वेश्वर भगवान् की कृपा का ही यह प्रतिफल था। लोग उन्हें प्यार से ‘बिले’ कहकर पुकारने लगे और अन्नप्राशन के दिन पिता ने उन्हें ‘नरेन्द्रनाथ’ नाम दिया।

नरेन्द्रनाथ का बचपन शरारतपूर्ण था। उनकी चंचलता के पीछे सागर की गम्भीरता भी थी। कभी-कभी उनकी अत्यधिक चंचलता से तंग आकर माता बिफर पड़ती थी और कहने लगती थी कि हमने भगवान् शंकर को पुत्र के रूप में मांगा था, मगर उन्होंने अपना गण [भूत] ही मेरे पास भेज दिया। उलाहना देते हुए भी माँ का हृदय मातृत्व-प्रेम से ओत-प्रोत रहता था।

नरेन्द्रनाथ के बचपन को सँवारने में भुवनेश्वरी देवी की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। रामायण और महाभारत की कथा सुनाना, धार्मिक आख्यानों की चर्चा करना और संस्कार-निर्माण के लिए महापुरुषों का चरित्र सुनाना, उनका नियमित क्रिया-कलाप बन गया था। बालक नरेन्द्र अब बड़ा होने लगा। एक दिन उनके पिता ने अनायास ही पूछा-‘‘नरेन्द्र तुम आगे चलकर क्या बनोगे?’’ बालक का सीना तन गया और गर्व के साथ उसने कहा-‘‘पिताजी ! मैं आगे चलकर कोचवान बनूँगा।’’ बालक को उस समय कोचवान की वह गर्वित मुद्रा बहुत पसन्द आती थी, जब वह उनके पिताजी को बग्गी पर बैठा कर घोड़ों को चाबुक से हाँकता था। उस समय पिताजी को क्या पता था कि एक दिन सचमुच यह बालक हिन्दू-धर्म के रथ का कोचवान बनेगा, भारतीय संस्कृति के रथ का कोचवान बनेगा और सारे विश्व में भारत की कीर्ति-पताका को लहरायेगा।

बालक नरेन्द्र की अभिरुचि व्यायाम, कुश्ती, तैराकी, क्रिकेट और संगीत में अधिक थी। अध्ययन के क्षेत्र में भी वे काफी गम्भीर थे और अल्प समय में ही कठिन विषयों को आत्मसात् कर लेते थे। मगर 14 वर्ष की अवस्था में अस्वस्थता के कारण पढ़ाई  कुछ बाधित भी हुई। उस समय सन् 1877 में उन्हें अपने पिता के पास रायपुर ख्तत्कालीन मध्य प्रदेश, जाना पड़ा। अपने कार्य के सिलसिले में ही विश्वनाथ दत्त को उस समय रायपुर रहना पड़ रहा था। नरेन्द्र भी रायपुर में अपने पिता के पास करीब दो वर्षों तक रहे और वहाँ की शिक्षा का प्रबन्ध स्वतन्त्र रूप से घर पर ही होता रहा। रायपुर पहुँचने में नरेन्द्र को नागपुर से एक बैलगाड़ी में पन्द्रह दिनों की यात्रा जंगलों के बीच से करनी पड़ी। उस दृश्य को देखकर उनके मन में प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम भर गया जो जीवन-पर्यन्त उन्हें अपने आकर्षण में बाँधे रहा।

नरेन्द्र को पाठ्य-पुस्तकों की सीमा अपने आकर्षण में नहीं बाँध सकी। उन्होंने प्रवेशिका-परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पूर्व ही भारतीय इतिहास, भारतीय दर्शन, विश्व के विभिन्न धर्मों की रूपरेखा के साथ-साथ पाश्चात्य दर्शन का गम्भीरता से अध्ययन कर लिया था। सन् 1879 में प्रवेशिका-परीक्षा में उत्तीर्ण होकर नरेन्द्रनाथ काॅलेज की पढ़ाई में प्रवेश किए। कॉलेज की पढ़ाई के समय उन्होंने विशेष रूप से प्राच्य और पाश्चात्य दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन किया। डेकार्ट, ह्यूम, हर्बर्ट स्पेन्सर, हेगेल आदि का अध्ययन करते हुए उन्होंने अंग्रेजी के महान् कवियों के साहित्य का भी गहनता से अध्ययन किया। सन् 1881 में वे बी0 ए0 की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। यह उनके जीवन का 18वाँ वर्ष था। उनके मन में यह भाव भर गया था कि जीवन का मुख्य उद्देश्य - ‘परमात्मा की प्राप्ति’ है। यह भाव उनके मन में हिलोरें मारने लगा। इसी समय परमात्मा के बारे में जानने की जिज्ञासा से वे ब्रह्म-समाज की ओर आकृष्ट हुए। ब्रह्म-समाज की स्थापना राजाराम मोहन राय [1772-1833] ने सन् 1828 में की थी। उनके निधन के पश्चात् इसका कार्यभार महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर संभाल रहे थे। उस समय बंगाल के बड़े-बड़े विद्वान् इस ब्रह्म-समाज से जुड़े थे। केशवचन्द्र सेन उन्हीं उद्भट विद्वानों में एक थे। बाद में सन् 1865 में देवेन्द्रनाथ ठाकुर से अलग होकर उन्होंने नया ब्रह्म-समाज बना लिया, जिसका नाम ‘नव विधान’ रखा। केशवचन्द्र सेन संस्कृत नहीं जानते थे और उनके चिन्तन पर ईसाई धर्म का प्रभाव स्पष्ट दीखता था। नरेन्द्र अभी ब्रह्म-समाज के आचार्यों के सम्पर्क में तो रहते थे, मगर उनकी जिज्ञासा का वहाँ समाधान नहीं हो पा रहा था। इसी बीच कलकत्ता में एक और विलक्षण महापुरुष की चर्चा जोरों से चल रही थी। ये महापुरुष थे हुगली जिले के कामारपुकुर गाँव के ब्राह्मण परिवार में 17 फरवरी 1836 को जन्मे ‘गदाधर’ जो बाद में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के नाम से विख्यात हुए। वे दक्षिणेश्वर में धर्म-प्राण महिला रानी रासमणि द्वारा निर्मित मन्दिर के पुजारी के रूप में कार्यरत हुए और वहीं से उनकी ख्याति सारे कलकत्ते में फैल गई। ब्रह्म-समाज के धुरंधर विद्वान् केशवचन्द्र सेन, प्रतापचन्द्र मजुमदार और विजय कृष्ण आदि श्री रामकृष्ण परमहंस के पास जाकर सत्संग-वार्ता किया करते थे।

कलकत्ते के शिमुलिया मोहल्ले में सुरेन्द्रनाथ मित्र के यहाँ एक दिन स्वामी रामकृष्ण परमहंस पधारे। कोई अच्छा भजन गाने वाला नहीं मिलने पर उन्होंने अपने मोहल्ले के ही युवा-छात्र  नरेन्द्र को बुला लिया। यह सन् 1881 का नवम्बर मास का दिन था और इसी दिन नरेन्द्र की पहली मुलाकात स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई। वे उन्हें देखते ही भाव-विभोर हो उठे। इधर नरेन्द्र नाथ के भजन से रामकृष्णदेव जी अत्यन्त प्रसन्न हुए। जाते-जाते उन्होंने नरेन्द्र से दक्षिणेश्वर आने का अनुरोध भी कर दिया। एक स्वर्णिम भविष्य की नींव पड़ गई जो आगे जाकर मूर्तिमान् हो उठा।

इस प्रथम मिलन के कुछ दिन बाद ही नरेन्द्र अपने कुछ मित्रों के साथ दक्षिणेश्वर चले आये। नरेन्द्र को देखते हुए स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आँखों में आँसू भर आये। वे भावाभिभूत हो गये और कहने लगे-‘‘इतने दिनों तक तू मुझे भूल कर कैसे रह गया? मैं तो तेरी बाट जोह रहा हूँ।’’ इतना ही नहीं अचानक वे भावाविष्ट हो गये और कहने लगे-‘‘मैं जानता हूँ, तुम सप्तर्षि मंडल के ऋषि हो। नर रूपी नारायण हो। जीवों के कल्याण की कामना से तुमने देह धारण की है।’’ नरेन्द्र अवाक्-सा सबकुछ देख-सुन रहे थे। रामकृष्ण परमहंस ने बहुत पहले एक दिन जो कहा था उसकी चर्चा करते हुए स्वामी शारदानन्द जी ‘श्री रामकृष्ण लीला प्रसंग’ में उन्हीं की वाणी को उद्धृत करते हैं- ‘‘हर दिन देखता हूँ, मन समाधि-पथ में ज्योतिर्मय मार्ग से ऊपर उठता जा रहा है। .......दूसरे ही क्षण देखा- दिव्य ज्योति सम्पन्न सात श्रेष्ठ ऋषि वहाँ पर समाधिस्थ होकर बैठे हैं।.......एकाएक दिख पड़ा कि ज्योतिमंडल का अंश घनीभूत होकर दिव्य शिशु के रूप में परिणत हुआ। जब भी नरेन्द्र को रामकृष्ण परमहंस देखते थे, उन्हें वही पुराना अनुभूत दृश्य याद हो आता था।

इधर नरेन्द्रदेव के मन में ईश्वर को जानने की जिज्ञासा प्रबल होती जा रही थी। उनका एक ही प्रश्न होता था-‘‘क्या आपने ईश्वर को देखा है ?’’ मगर कोई भी विद्वान् उनके इस प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं देता था। यह प्रश्न वे केशवचन्द्र सेन से पूछ चुके थे। यही प्रश्न उन्होंने महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर से पूछा , जब वे हुगली ख्भगीरथी, में नौका पर ही रह रहे थे। वे नौका पर जा पहुँचे और सीधे प्रश्न किया-‘‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’’ मगर महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के विवेचन से वे सन्तुष्ट नहीं हुए। इसी प्रश्न में डूबे हुए वे फिर एक दिन दक्षिणेश्वर चले गये। संध्या का समय था। अस्ताचल-गामी सूर्य की किरणें वृक्ष की पत्तियों से विदाई ले रही थीं। श्री रामकृष्ण एक दृष्टि से नरेन्द्रनाथ को देख रहे थे। एकाएक उन्होंने अपना दाहिना चरण उनके स्कन्ध पर रख दिया। उसी समय नरेन्द्रनाथ के भीतर एक अभूतपूर्व घटना घटी। वे समाधिस्थ हो गये। अचानक उनके भीतर से एक आवाज उठी-‘‘ठाकुर ! तुमने यह क्या कर दिया?’’ फिर स्वामी रामकृष्ण ने उनकी छाती पर हाथ रखा और उनकी चेतना सामान्य हो गई। नरेन्द्रनाथ का पुस्तकीय ज्ञान इस अनमोल अनुभव के आगे धराशायी हो गया था। उन्होंने इस अनुभव के बारे में एक जगह लिखा है-‘‘मेरे सामने तराजू के दो पलड़े लटक रहे थे। एक पलड़े पर सारा पुस्तकीय ज्ञान रखा था और दूसरे पलड़े पर ठाकुर का हल्का-सा स्पर्श। मैं स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ कि ठाकुर के स्पर्श वाला ही पलड़ा भारी है।’’ जीवन में पहली बार नरेन्द्रनाथ को अपने पुस्तकीय ज्ञान का अहं गलता हुआ दिखा। ठाकुर के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा होने लगी।

सन् 1884 में नरेन्द्रनाथ की बी0 ए0 की परीक्षा समाप्त हो गई। बी0 ए0 पास करने के बाद वे बी0 एल0 की शिक्षा ग्रहण करने लगे। इसी समय उनके परिवार पर एक वज्राघात हो गया। उनके पूज्य पिता विश्वनाथ दत्त का निधन हो गया। परिवार के सामने भीषण समस्या खड़ी हो गई। नरेन्द्र अब अपनी विधवा माता के साथ अपनी दो बहनों और दो छोटे भाइयों के भरण-पोषण के लिए चिन्तित हो उठे। इसी दुर्दिन में अपने ही खानदान के एक व्यक्ति ने उनके मकान पर दावा ठोक दिया। नरेन्द्रनाथ ने सभी समस्याओं का डटकर मुकाबला किया और मकान के केस में विजयी हुए। संसार से मन उचट गया था। भगवान् पर से आस्था डगमगा रही थी। ऐसी परिस्थिति में फिर एक बार दक्षिणेश्वर गये। ठाकुर से अपनी कठिनाई बतलाई। ठाकुर ने कहा-‘‘अगर ऐसा ही है, तो जा कर माँ से सब कुछ स्वयं मांग लो।’’ नरेन्द्र माँ के मन्दिर में गये मगर ध्यानस्थ अवस्था में माँ से केवल ज्ञान और भक्ति ही मांग कर रह गये। कई बार प्रयास किया, मगर सांसारिक सुख की मांग नहीं कर सके। धीरे-धीरे उनका मन शान्त होने लगा। ठाकुर के प्रति प्रेम फिर उमड़ने लगा। 

नरेन्द्र अब कुछ काम भी करने लगे। वे विद्या-सागर के विद्यालय में अध्यापन करने लगे। परिवार का भरण-पोषण किसी तरह होने लगा। इधर ठाकुर का सामीप्य भी बढ़ने लगा और अन्तर में वैराग्य की भावना तीव्र होने लगी। विधि का विधान शायद कुछ और था। रामकृष्ण कंठरोग से आक्रान्त हो गये। 1885 के अन्त तक यह रोग बढ़ता ही गया। भक्तों के अन्दर बैचेनी छा गई। रामकृष्ण ने एक दिन तरुण शिष्यों को संन्यास की दीक्षा दी और वे सभी संन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगे। अप्रैल 1886 में एक दिन नरेन्द्रनाथ अपने दो मित्रों के साथ अचानक बोधगया ख्बिहार, पहुँच गए और बोधि वृक्ष के नीचे समाधिमग्न हो गये । कुछ दिन वहाँ रहने के बाद फिर काशीपुर ख्कलकत्ता, लौट आये। इधर ठाकुर अपना नश्वर शरीर त्याग करने के लिए अपना मन बना चुके थे। एक दिन उन्होंने नरेन्द्र से पूछा-‘‘बोलो , तुम क्या चाहते हो ?’’ नरेन्द्र ने निर्विकल्प समाधि की अवस्था प्राप्त करने की प्रार्थना की और यह भी कहा कि यदि ऐसा कुछ नहीं हुआ तो मैं कुछ भी नहीं कर सकूँगा। नरेन्द्र की बात सुन कर रामकृष्ण अचानक बिफर उठे और कहने लगे-‘‘तू क्या अपनी इच्छा से करेगा? जगदम्बा तेरी गर्दन पकड़ कर करा लेगी। तू न करे - तेरी हड्डियाँ करेंगी।’’ फिर शान्त होते हुए उन्होंने कहा-‘‘अच्छा जा, तेरी निर्विकल्प समाधि होगी। ’’

अपने देहत्याग के तीन चार दिन पूर्व ठाकुर ने नरेन्द्र को बुलाया और उनकी आँखों में एकटक देखते हुए अश्रु-पूरित होकर बोले-‘‘आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर हो गया। तू इस शक्ति-बल पर संसार में अनेक कार्य कर सकेगा। काम समाप्त होते ही तू लौट जायेगा।’’ आखिर 16 अगस्त 1886 को  रात्रि 10 बजकर 6 मिनट पर श्री रामकृष्णदेव महासमाधि में लीन हो गये। श्री रामकृष्णदेव के निधन से मर्माहत उनके सोलह युवक-भक्तों के नेतृत्व का भार नरेन्द्रनाथ पर ही आ गया। काशीपुर का मकान छोड़ वे लोग वाराह नगर आ गये। श्री सुरेन्द्रनाथ मित्र जिनके आवास पर नरेन्द्र की पहली भेंट श्री रामकृष्ण देव से हुई थी, सहायता के लिए आगे, आये। नरेन्द्रनाथ सहित सभी भक्तों ने 1887 में विधिवत् संन्यास ग्रहण कर लिया। सन् 1888 में नरेन्द्रनाथ एक परिब्राजक के वेश में आश्रम छोड़ कर देशाटन के लिए निकल पड़े। काशी, ऋषिकेश, वृन्दावन आदि स्थानों का भ्रमण करते हुए वे वराह नगर वापस आ गये। फिर दूसरी बार सन् 1890 के प्रारम्भ में वे देशाटन के लिए निकले और इस बार काशी होते हुए उत्तर प्रदेश के गाजीपुर नामक स्थान पर सिद्ध सन्त पवहारी बाबा का दर्शन किए। वे बाबा के पास करीब दो महीने तक रहे। इसी स्थान पर उन्हें गाजीपुर के कई ब्रिटिश अधिकारियों से भी भेंट हुई और नरेन्द्र की दार्शनिक व्याख्या सुनकर वे सभी काफी प्रभावित हुए। यहाँ तक कि पहले-पहल गाजीपुर के ब्रिटिश अधिकारियों ने ही स्वामीजी को सलाह दी कि आपको तो इंग्लैंड जाकर अपने विचारों का प्रचार करना चाहिए। यह वही समय था, जब अमेरिका में पहली बार 5 अक्टूबर 1890 को विश्व-सम्मेलन की पहली औपचारिक बैठक हुई थी। गाजीपुर से काशी होते हुए नरेन्द्रनाथ आश्रम पर लौट आये। मगर देशाटन का क्रम फिर प्रारम्भ हो गया। इस बार अपने गुरुभाई अखण्डानन्द के साथ आप बिहार के भागलपुर होते हुए देवघर आ गए। फिर काशी आ गये और वहाँ से हिमालय की यात्रा पर चल पड़े। इस हिमालय-यात्रा में नैनीताल, अलमोड़ा, केदार नाथ, बद्रीनाथ आदि प्रमुख तीर्थों का भ्रमण करते हुए दिल्ली, राजपुताना, अलवर, जयपुर होते हुए स्वामीजी दक्षिण भारत की ओर चले गये। देश-भ्रमण के क्रम में गुजरात में बड़ौदा होते हुए खण्डवा और फिर बम्बई तथा पूना आ गए। खण्डवा में ही शिकागो धर्म-सम्मेलन के बारे में सूचना मिली। यहीं पर नरेन्द्रनाथ को पश्चिम जाने की इच्छा हुई । वे पोरबन्दर में संस्कृत के प्रकांड पंडित श्री शंकर पांडुरंग के अतिथि रहे। मार्च 1892 में पांडुरंग जी ने इन्हें समझाया कि आप विदेश में सनातन धर्म का प्रचार करें। इस तरह नरेन्द्रनाथ शिकागो धर्म-सम्मेलन में जाने का विचार बनाने लगे।

इसके पूर्व अपने भारत-भ्रमण के क्रम में राजस्थान में खेतड़ी के महाराजा का आपने आतिथ्य ग्रहण किया। खेतड़ी के महाराजा अजीत सिंह जी स्वामीजी के अनन्य प्रशंसक थे। कहा जाता है कि स्वामीजी के आशीर्वाद से ही उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। राजा जी के मुंशी जगमोहन लाल स्वामीजी की सेवा में हमेशा तत्पर रहते थे। यह भी एक संयोग ही था कि स्वामीजी की कृपा से सन् 1892 में ही अजीत सिंह को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम जय सिंह रखा गया। इसके पहले राजा को केवल दो पुत्रियाँ थीं। इस अवसर पर  महाराज के द्वारा एक बड़े उत्सव का आयोजन किया गया। इस उत्सव में स्वामीजी की उपस्थिति के लिए महाराजा ने अपने मुंशी जी को पता लगाने के लिए निर्देश दिया। उस समय स्वामीजी दक्षिण भारत में थे।

इधर स्वामीजी को भी कई शुभ संकेत मिल रहे थे। दक्षिण भारत के प्रवास के समय वे कन्याकुमारी में समुद्र में स्थित शिला पर ध्यानस्थ होकर बैठ गये। उनकी ध्यान-दृष्टि के समक्ष भारत का स्वरूप देदीप्यमान हो उठा। भारत के बारे में सोचते-सोचते उनकी आँखों में आँसू भर आये। अचानक उनके मन में यह भाव उमड़ आया-‘‘श्री गुरुदेव के आशीर्वाद से इन भारतवासियों के कल्याण के लिए मैं कार्य करूँगा।’’ आज इसी कन्याकुमारी की शिला पर ‘स्वामी विवेकानन्द शिला स्मारक’ भारत की गौरव-गरिमा को महिमान्वित कर रहा है।

इसके बाद एक दिन स्वामीजी ने स्वप्न में देखा कि श्री रामकृष्णदेव दिव्य देह धारण कर समुद्रतट से विस्तीर्ण महासागर के ऊपर स्वयं चले आ रहे हैं। स्वामीजी को लगा कि गुरुदेव का आदेश भी विदेश जाने के लिए हो रहा है। प्रसन्न मन से उन्होंने पत्र द्वारा माँ शारदा से भी आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। अब इस योजना को पूर्ण करने के लिए स्वामी जी प्रयास करने लगे।

मद्रास में स्वामीजी के प्रिय शिष्य आलासिंगा पेरुमल वहाँ के भक्त-प्रेमियों के माध्यम से आवश्यक व्यवस्था करने में लग गये। उधर खेतड़ी के महाराजा का दूत बनकर उनके मुंशी श्री जगमोहन लाल जी मद्रास पहुँच गये और उनके आग्रह पर स्वामीजी 21 अप्रैल 1893 को खेतड़ी आ गये। यहाँ करीब तीन सप्ताह तक रह कर सबको आनन्दित करते हुए 10 मई 1893 को स्वामीजी खेतड़ी से बम्बई के लिए रवाना हुए। यहीं पर खेतड़ी के महाराजा अजीत सिंह ने उनका नाम ‘विवेकानन्द‘ रखने का अनुरोध किया, जिसे स्वामीजी ने स्वीकार कर लिया।  

नरेन्द्रनाथ अपनी नई वेश-भूषा में विवेकानन्द बनकर शिकागो धर्म-सम्मेलन में भाग लेने के लिए खेतड़ी से बम्बई के लिए निकल पड़े। इस तरह मद्रास के प्रिय शिष्य आलासिंगा के सहयोग से और खेतड़ी महाराजा के विशेष सहयोग से स्वामी विवेकानन्द 31 मई 1893 को पी0 एण्ड ओ0 कम्पनी के पेनिनसुलर जहाज से बम्बई समुद्रतट से अमेरिका के लिए रवाना हो गये। वे अश्रुपूर्ण नेत्रों से भारतमाता को निहारते जा रहे थे। जिस ‘शिकागो धर्म सम्मेलन‘ में स्वामीजी जा रहे थे, आखिर वह किसलिए आयोजित किया गया था, इसके बारे में भी थोड़ी चर्चा करना आवश्यक है ।

इटली का रहने वाला क्रिस्टोफर कोलम्बस स्पेन के राजा की मदद से अपनी समुद्री यात्रा तय करते हुए अक्टूबर 1492 में बहामा द्वीप-समूह पहुँचा, जिसे वह भारत समझता रहा। बाद में उसे पता चला कि यह भारत नहीं अमेरिका है। इस तरह 1493 में अमरिका को खोज निकालने का श्रेय कोलम्बस को दिया जाता है। इसके चार सौ वर्ष पूरे होने पर अमेरिका में एक बृहद् प्रदर्शनी लगाने का प्रस्ताव किया गया जिसे हम ‘विश्व बाजार मेला’ के रूप में कह सकते हैं। यह विशाल प्रदर्शनी कहाँ लगाई जाय इसके लिए अमेरिकी सीनेट द्वारा वोटिंग के माध्यम से शिकागो के पक्ष में निर्णय किया गया। मुख्य रूप से दुनिया भर के लोगों को भौतिक-जगत् की समृद्धि से अवगत कराने के लिए यह विश्व मेला आयोजित किया गया था। मगर इस प्रदर्शनी के अध्यक्ष चाल्र्स बोने ने यह सुझाव दिया कि जीवन के सभी क्षेत्रों का इसमें समावेश किया जाय। इस दृष्टिकोण से संगीत, साहित्य, शिक्षा, कला, दर्शन, विज्ञान, व्यापार आदि को इसमें स्थान दिया गया। इसी विचार-क्रम में यह भी निर्णय लिया गया कि विश्व के सभी धर्मों के प्रतिनिधियों को बुलाकर एक ‘विश्व धर्म सम्मेलन‘ का भी आयोजन किया जाय। इस ‘विश्व धर्म सम्मेलन‘ के लिए श्री जॉन हेनरी बैरोज को आयोजन-समिति का अध्यक्ष बनाया गया ।

इधर भारत के लिए सन् 1893 का वर्ष एक साथ कई शुभ संकेत लेकर आया। इधर 30 वर्ष की अवस्था में स्वामी विवेकानन्द शिकागो जा रहे थे तो उधर 21 वर्ष की अवस्था में श्री अरविन्द घोष 15 वर्ष इंग्लैंड में रहने के बाद भारत आ रहे थे। इसी वर्ष 1893 में मोहनदास करमचन्द गाँधी एक मुकदमे के सिलसिले में दक्षिण अफ्रिका जा रहे थे, तो इसी वर्ष इंग्लैंड की एक महिला श्रीमती एनी बेसेण्ट भारत आ रही थी जो थियोसॉफिकल सोसायटी की अध्यक्षा बनीं। इसी वर्ष लोकमान्य तिलक ने महाराष्ट्र में गणपति-उत्सव का शुभारम्भ किया जो धार्मिक एकता का सबल सूत्र बन गया।

इस शिकागो-प्रदर्शनी के लिए मिचीगन झील के किनारे करीब 1050 एकड़ भूमि का उपयोग किया गया था। यह प्रदर्शनी 179 दिनों तक चली थी। सारी दुनिया से इस प्रदर्शनी को देखने वालों की कुल संख्या करीब दो करोड़ पचहत्तर लाख थी। इस विराट् प्रदर्शनी के बीच में ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ 11 सितम्बर 1893 से 27 सितम्बर 1893 तक यानी कुल सत्रह दिनों तक चला था।

स्वामी विवेकानन्द इसी ‘विश्व धर्म सम्मेलन‘ में भाग लेने जा रहे थे। बम्बई से कोलम्बो ख्श्रीलंका की राजधानी,, फिर सिंगापुर, होते हुए हाँगकाँग पहुँचे। जहाँ जहाज तीन दिन तक ठहरा। जापान में जहाज बदला गया और याकोहामा से जहाज प्रशान्त महासागर पार करके बैंकूवर बन्दरगाह पर आ गया। इस जहाज पर याकोहामा से स्वामी विवेकानन्द के साथ प्रख्यात उद्योगपति जमशेद जी नुसरवान जी टाटा भी विश्वमेला देखने जा रहे थे। दोनों में देश की दुरवस्था के बारे में काफी विचार-विमर्श हुआ और जमशेद जी द्वारा स्टील प्लांट लगाने के सुझाव को स्वामीजी ने अपना आशीर्वाद भी दिया। बाद में सन् 1898 में जमशेद जी ने स्वामी विवेकानन्द को एक पत्र लिखकर अपना आभार भी प्रकट किया और अपनी योजना को मूर्तरूप देने का संकल्प भी। आखिर सन् 1907 में टाटा स्टील का निर्माण पूरा हुआ मगर तब तक स्वामीजी इसे देखने के लिए नहीं रहे। आज भी जमशेद जी टाटा का वह पत्र टाटा स्टील के पास सुरक्षित है।

स्वामीजी 25 जुलाई 1893 को अमेरिका के बैंकूवर बन्दरगाह पर पहुँचे। यहाँ पर रज्जु-मार्ग से घाटियों और पर्वत-शृंखलाओं की अद्भुत छटा का निरीक्षण कर आनन्दित हो उठे। यहीं पर उनकी मुलाकात कुमारी केट सेनबोर्न से हुई जिन्होंने बाद में बोस्टन में इनकी काफी सहायता की। बैंकूवर से शिकागो की यात्रा रेलमार्ग से करीब 2000 मील दूरी तय करते हुए पूरी की गई। विश्व-मेला का आयोजन 1 मई 1893 से ही चल रहा था। स्वामीजी 30 जुलाई 1893 को शिकागो पहुँच गए थे। स्वामीजी एक होटल में ठहरे और दूसरे दिन विश्व-विख्यात प्रदर्शनी भी देखने गये। यहीं पर उन्हें मालूम हुआ कि विश्व-धर्म सम्मेलन 11 सितम्बर 1893 से शुरू होने वाला है। इसके साथ ही यह भी पता चला कि किसी धर्म के प्रतिनिधि के रूप में नामांकन कराने के लिए आवेदन की तिथि भी समाप्त हो गई है। यह सब सुनकर स्वामीजी थोड़ा चिन्तित हो उठे। इसी समय उन्हें केट सेनबोर्न की भी याद आयी और यह भी पता चला कि शिकागो से बोस्टन सस्ती जगह है। स्वामीजी शिकागो से ट्रेन द्वारा बोस्टन के लिए रवाना हो गए। उनकी वेश-भूषा देखकर कई लोग उपहास भी करने लगे। कई यात्री अंग्रेजी में उनके विरुद्ध अनाप-सनाप बोलने लगे। तभी अचानक स्वामीजी ने उनसे कहा - ‘‘Look here gentlemen ! in your country, it is barber & tailor who have made you gentleman. In my country, it is character which makes a man gentleman.’’ स्वामीजी की इस वाणी को सुनकर वे उपहास करने वाले सन्न रह गए। स्वामीजी बोस्टन पहुँच गये। केट्स ने स्वामीजी का भरपूर स्वागत किया। अपने परिचित अनेक विद्वान व्यक्तियों को उसने स्वामी जी से मिलने के लिए बुलाया। इसी क्रम में स्वामीजी के बारे में जानकर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रो0 राइट स्वामीजी से मिलने कुमारी सेनबोर्न के यहाँ गये । मगर वहाँ मुलाकात न हो सकी। उन्होंने स्वामीजी को अपने यहाँ आने के लिए आमन्त्रण का एक पत्र वहाँ छोड़ दिया। स्वामीजी प्रो0 राइट से मिलने उनके आवास पर गये। दोनों में जब वार्ता होने लगी तो समय थम गया। प्रो0 राइट स्वामीजी से इतने प्रभावित हुए कि ‘विश्व धर्म सम्मेलन‘ में भाग लेने के लिए परिचय-पत्र नहीं रहने के बारे में सुनकर वे बोले-‘‘क्या सूर्य को भी चमकने के लिए किसी से अधिकार मांगना पड़ता है?’’ इसके बाद उन्होंने धर्म-सम्मेलन के अध्यक्ष के नाम एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था-‘‘मेरा विश्वास है कि ये जो हिन्दू-संन्यासी हैं, हमारे सभी विद्वानों को एकत्रित करने पर जो कुछ हो सकता है, उससे भी अधिक विद्वान् हैं।’’ प्रो0 राइट ने स्वामीजी के लिए शिकागो तक का रेल-टिकट भी उपलब्ध करा दिया। स्वामी विवेकानन्द शिकागो आ गये। मगर डा0 बैरोज का पता खोजना इतना आसान नहीं था। वे काफी थक गये थे। अत्यन्त निराश होकर रेलवे गोदाम के एक पैकिंग डब्बे में रात बिताई। प्रातः वे सड़क के किनारे एक पेड़ का सहारा लेकर बैठ गये। परमात्मा की कृपा से सामने से एक भव्य मकान का दरवाजा खुला। एक संभ्रान्त महिला श्रीमती हेल ने आपके पास आकर पूछा-‘‘क्या आप ‘विश्व धर्म सम्मेलन‘ में भाग लेने आये हैं ?’’ स्वामीजी की समस्या जान कर वह उन्हें अपने घर ले गई।

श्रीमती हेल स्वामीजी को लेकर धर्म-सम्मेलन के कार्यालय में गई। शीघ्र ही वहाँ पर ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ के एक प्रतिनिधि के रूप में स्वामीजी की सारी व्यवस्था हो गई।

वहाँ की व्यवस्था के अनुसार स्वामीजी को श्री लियोन के आवास पर ठहराया गया। यह स्थान सम्मेलन-स्थल से काफी नजदीक था। अब वह समय बिल्कुल निकट आ रहा था, जिसके लिए सारा विश्व बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। स्वामीजी भी अब बिल्कुल निश्चिन्त हो गये थे।

11 सितम्बर 1893 को शिकागो के कला-संस्थान के कोलम्बस सभागार में ‘विश्व-धर्म-सम्मेलन‘ ठीक 10 बजे दिन में विश्व के दस धर्मों-जुडाइज्म, इस्लाम, बौद्ध, हिन्दू, ताओ, कन्फ्यूशियस, शिंतो, जरथुस्त्र, कैथोलिक तथा प्योरिटन के प्रतिनिधियों के बीच कार्डिनल गिबन्स के उद्घाटन से प्रारम्भ हुआ और इन सभी धर्मों के सम्मान में दस घंटियाँ बजाई गईं। सात हजार दर्शक इस सम्मेलन में उपस्थित थे और मंच पर विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधि विद्यमान थे। सम्मेलन का प्रारम्भ धार्मिक प्रार्थना से हुआ और प्रथम सत्र में धर्म-सम्मेलन के अध्यक्ष डा0 बैरोज के सारगर्भित भाषण से हुआ, जिसमें उन्होंने भारत के बारे में ‘‘धर्मों की जननी भारत’’ कह कर वातावरण को पवित्र कर दिया। प्रथम सत्र के भाषण में कार्डिनल गिबन्स की प्रार्थना के बाद अमेरिका के श्री बोने और श्री बैरोज के भाषण के साथ कुल आठ भाषण हुए। इसके बाद विदेश से आये प्रतिनिधियों के कुल सत्रह भाषण हुए। इस तरह पच्चीस भाषणों के बीच स्वामीजी का इक्कीसवाँ भाषण था। मगर इस भाषण से सारा वातावरण बदल गया। स्वामीजी ने जैसे ही सम्बोधित किया-‘‘अमेरिका निवासी, बहनो और भाइयो!’’ बस विद्युत की भाँति एक अज्ञात प्रभाव से सभी श्रोता खड़े होकर करतल ध्वनि करने लगे। स्वामीजी की वाणी उस दिन अमृत का तेज बरसा रही थी। उनके शब्द थे-‘‘मुझको ऐसे धर्मावलंबी होने का गौरव है, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी है। ऐसे धर्म में जन्म लेने का मुझे अभिमान है, जिसने पारसी जाति की रक्षा की और उसका पालन अब तक कर रहा है।’’ 

अभी तक जो व्यक्ति अमेरिका की सड़कों पर अनजान बना घूम रहा था, आज अपने प्रथम भाषण में ही अमेरिका में प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच चुका था। सारे समाचार-पत्र स्वामीजी का गुणगान कर रहे थे। श्रोतागण उन्हें सुनने के लिए अब प्रतीक्षा करने लगे थे। 11 सितम्बर 1893 का दिन भारत के लिए एक स्वर्णिम आभा से युक्त गौरव का दिन बन गया था। रामकृष्णदेव जी की कृपा विवेकानन्द की वाणी में गूँज रही थी। उस दिन स्वामी विवेकानन्द की वाणी से भारतमाता भी गौरवान्वित हुई थी। 14 सितम्बर को श्रीमती पामर के भोज में स्वामी विवेकानन्द का भाषण ‘नारियों की स्थिति’ के विषय पर हुआ। इस अवसर पर बोलते हुए उन्होंने कहा-‘‘हिन्दू नारी अत्यन्त आध्यात्मिक होती है। यदि हम उनके इन गुणों की रक्षा कर सकें तथा साथ-ही-साथ उसका बौद्धिक विकास कर सकें तो आने वाले युग की हिन्दू-महिला विश्व की आदर्श नारी होंगी।’’ इस कथन में भारत की नारी के बारे में स्वामीजी का कितना उदात्त विचार था, यह स्पष्ट हो जाता है।

15 सितम्बर 1893 को डा0 बैरोज के आग्रह पर स्वामीजी ने वातावरण को सहज बनाने के लिए अपना हृदयस्पर्शी भाषण दिया। कुएँ के मेढक और समुद्र के मेढक की कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा-‘‘मेरा कुआँ ही सारा जगत् है, ऐसा सोचने वाला संकीर्णता से ग्रस्त है। उस संकीर्णता को तोड़ने का प्रयास इस सम्मेलन में किया गया है।’’ इतना सुनते ही सभागार करतल ध्वनि से गूँज उठा।

19 सितम्बर 1893 को स्वामीजी का हिन्दू-धर्म पर विस्तृत भाषण हुआ। आज उन्होंने अपना लिखित भाषण प्रस्तुत किया , जिसे सुनकर श्रोता आश्चर्यचकित हो गये। स्वामीजी के इस लिखित भाषण में हिन्दू-धर्म का समस्त सार तत्त्व मुखरित हो उठा था। मूर्तिपूजा की सार्थकता से लेकर अद्वैत ब्रह्म की अनुभूति की यात्रा तक का सारा दार्शनिक विवेचन उनकी वाणी में प्रस्फुटित हो रहा था। यह भाषण काफी लम्बा था फिर भी दर्शकगण मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। 24 सितम्बर 1893 को स्वामी जी को थर्ड यूनिटेरियन चर्च में प्रवचन के लिए आमन्त्रित किया गया था। स्वामीजी ने इस प्रवचन में कहा था कि समस्त प्राणी ही भगवान् की कृति हैं। अतः एक ही पिता की सन्तान होने के कारण सबमें भाईचारा स्थापित होना चाहिए। स्वामीजी की इस दिव्यवाणी से ईसाई भी काफी प्रभावित हुए। यह बात दूसरी है कि कुछ ईष्र्यालु ईसाई-बन्धु स्वामीजी के बारे में दुष्प्रचार करने में भी लगे थे। मगर सूर्य कभी बादलों से ढँका नहीं रह जाता-वह तो स्वतः चमकने लगता है।

26 सितम्बर 1893 को बौद्ध-धर्म के प्रतिनिधि श्री धर्मपाल के आग्रह पर हिन्दू-धर्म और बौद्ध-धर्म के सम्बन्ध पर स्वामीजी ने संक्षेप में मगर गहराई से प्रकाश डाला। स्वामीजी ने कहा-‘‘ईसा मसीह यहूदी संतान थे और शाक्य मुनि ख्बुद्ध, हिन्दू। पर भेद यह है कि जहाँ यहूदियों ने ईसा को केवल त्याग ही नहीं दिया बल्कि उन्हें शूली पर भी चढ़ा दिया , वहीं हिन्दुओं ने बुद्ध को अवतार के रूप में ग्रहण किया और उनकी पूजा भी करते हैं।’’

स्वामीजी ने अन्त में कहा-‘‘वह दिन दूर नहीं है, जब प्रत्येक धर्म की पताका पर यह स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा-‘सहयोग न कि विरोध’, ‘पर-भाव ग्रहण न कि पर-भाव विनाश’, ‘समन्वय और शान्ति न कि मतभेद और कलह’।’ स्वामीजी के इस भाषण से सारे श्रोतागण सम्मोहित-से हो गये।

27 सितम्बर 1893 को ‘विश्व धर्म सम्मेलन‘ के समापन का दिन था। स्वामी विवेकानन्द ने अपने समापन-प्रवचन ख्समापन सत्र का नौंवाँ प्रवचन, में इस आयोजन के लिए सबको धन्यवाद दिया। स्वामीजी ने कहा-‘‘कहीं-कहीं सम्मेलन के भीतर विरोधी स्वर भी सुना गया है। मेरा उन लोगों के प्रति विशेष धन्यवाद, क्योंकि उनके इस विरोधी स्वर से संगीत, और मधुर हो गया है।’’ स्वामी जी ने इस बात को फिर दुहराया कि सहयोग करो, संघर्ष मत करो। विनाश नहीं शान्ति।

अन्त में सम्पूर्ण कोलम्बस ‘विश्व-मेला‘ के अध्यक्ष बोने के भाषण से समोराह का समापन हुआ। अध्यक्ष बोने ने कहा कि विश्व-मेले का धर्म-सम्मेलन बीस विभागों में से केवल एक विभाग है। उन्होंने भावुक होकर कहा-‘‘विश्व के धर्म अब आपस में युद्ध नहीं करेंगे बल्कि मानव के दुर्गुणों से युद्ध करेंगे।’’ अन्त में डा0 इमील हर्ष ने प्रार्थना गाई और विशप कीन के आशीर्वाद के साथ धर्म-सम्मेलन के समापन की घोषणा की गई।

इस ‘विश्व धर्म सम्मेलन‘ में स्वामी विवेकानन्द के प्रवचन के बारे में डेली हेराल्ड ने लिखा-‘‘स्वामी विवेकानन्द को सम्मेलन के अन्त तक रोक कर रखा जाता था ताकि उनका भाषण सुनने के लिए लोग सत्र के शेष तक प्रतीक्षा करें। इसी तरह लुइसवर्क ने भी अपनी पुस्तक ‘‘Vivekananda in the west’’ में लिखा है-‘‘कोलम्बस सभागार में हँसती हुई भीड़ बैठी रहती थी। एक दो घंटा अन्य भाषणों को बिना मन से सुनती रहती थी कि उसके बाद होने वाले स्वामी विवेकानन्द का पन्द्रह मिनट का भाषण सुन सकें।’’ स्वामी विवेकानन्द इस सम्मेलन के सर्वाधिक लोकप्रिय वक्ता थे।

‘विश्व धर्म सम्मेलन‘ में स्वामीजी की ख्याति इतनी बढ़ी कि अमेरिका के विभिन्न भागों से आमंत्रण आने लगे। स्वामीजी करीब दो वर्षों तक अमेरिका के विभिन्न भागों में प्रवचन करते हुए हिन्दू-धर्म की कीर्ति-पताका फहराते रहे। अब उनकी यशोगाथा इंग्लैंड भी पहुँच गई। फरवरी 1895 में न्यूयार्क में उनका ‘राजयोग और ज्ञानयोग’ पर यादगार भाषण हुआ। इसके बाद इंग्लैंड के विद्वत् समाज के आग्रह पर स्वामीजी अगस्त 1895 में पेरिस ख्फ्रांस, होते हुए इंग्लैंड आ गए। इंग्लैंड में स्वामीजी को अमेरिका से भी अधिक सम्मान मिला। वहाँ के लोग स्वामीजी को ‘Cyclonic Hindu’ यानी ‘आँधी पैदा करने वाला हिन्दू’, कह कर पुकारने लगे। इस तरह स्वामीजी ने इंग्लैंड में भी विभिन्न स्थानों पर धुआँधार प्रवचन किया। वे फिर अमेरिका आये और कुछ दिनों तक प्रचार करने के बाद एक बार पुनः इंग्लैंड आ गये। स्वामीजी ने 28 मई 1896 को आॅक्सफोर्ड के विश्व-विख्यात प्रोफेसर मैक्समूलर से भेंट की । जब स्वामीजी वहाँ से स्टेशन पर जाने के लिए गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे तो उस समय कई प्रबुद्ध प्रोफेसर स्वामीजी को विदा करने आये थे। उनमें प्रोफेसर मैक्समूलर भी थे। स्वामीजी ने श्रद्धाभाव से पूछा-‘‘मुझे विदा देने के लिए इतना कष्ट सहन करके आपको आने की क्या आवश्यकता थी ?’’ इस पर प्रोफेसर मैक्समूलर ने भावुक होकर कहा-‘‘श्री रामकृष्ण के योग्यतम शिष्य के दर्शन का सौभाग्य प्रतिदिन प्राप्त नहीं होता।’’ 

स्वामीजी को ब्रिटिश-भ्रमण करते हुए तीन वर्ष से अधिक हो चुके थे। स्वामीजी 16 दिसम्बर 1896 को लन्दन से रवाना होकर इटली पहुँचे। फिर 30 दिसम्बर 1896 को नेपल्स से उनका जहाज छूटा और 15 जनवरी 1897 को ‘कोलम्बो’ पहुँचा। स्वामीजी का सिंहल में भव्य स्वागत हुआ और करीब दस दिनों तक उनके स्वागत में कार्यक्रम आयोजित होते रहे। उन्होंने कांडी और जाफना का भी भ्रमण किया।

इधर भारत की जनता स्वामी विवेकानन्द का आगमन सुनकर हर्ष से विह्वल होकर उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। स्वामीजी 6 फरवरी 1897 को ट्रेन द्वारा मद्रास पहुँचे। स्टेशन पर माननीय न्यायमूर्ति सुब्रह्मण्यम अय्यर के नेतृत्व में सहस्रों लोग स्वागत के लिए एकत्रित थे। सारा शहर तोरण द्वार से सजाया गया था। देश के करीब बीस भाषाओं में अभिनन्दन-पत्र पढ़ा गया, जिसमें खेतड़ी के महाराजा द्वारा भेजा गया अभिनन्दन-पत्र भी शामिल था। मद्रास में स्वामीजी का नौ दिनों तक कार्यक्रम चलता रहा और अनेक विषयों पर सारगर्भित भाषण देकर स्वामीजी ने वहाँ के लोगों में हिन्दूधर्म के प्रति एक नया विश्वास जगाया। स्वामीजी 20 फरवरी 1897 को कलकत्ता पधारे।

कोलकाता में स्वामीजी का अभूतपूर्व स्वागत हुआ। जगह-जगह स्वामीजी के प्रवचन आयोजित किए गए। 1 मई 1897 को स्वामीजी और उनके भक्त-प्रेमियों द्वारा ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की गई। इस मिशन के माध्यम से नर-नारायण की सेवा को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाने लगा। स्वामीजी फिर एक बार देश-भ्रमण पर निकल पड़े। विशेष रूप से उत्तर भारत का भ्रमण कर खेतड़ी के महाराजा का स्वागत स्वीकार कर जनवरी 1898 में कलकत्ता लौट आये। इसी समय भागीरथी के पश्चिमी तट पर बेलूर ग्राम में एक मठ निर्माण करने का निर्णय किया गया जो बाद में ‘बेलूर मठ’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्वामी जी के कई विदेशी शिष्य भी कलकत्ता आ गए थे। इनमें मार्गरेट नोबल ख्भगिनी निवेदिता, और सेनियर दम्पति ऐसे जीवनदानी शिष्य बन गये जिन्होंने स्वामीजी के सिद्धान्त के प्रचार के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया।

इस प्रचार-कार्य में अत्यधिक भाग-दौड़ करने से स्वामीजी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। विदेशों से बार-बार आमंत्रण आ रहे थे। स्वामीजी एक बार फिर स्वामी तुरीयानन्द और सिस्टर निवेदिता के साथ 20 जून 1899 को लंदन के लिए रवाना हो गये। लन्दन पहुँचने के बाद वहाँ से फिर न्यूयार्क चले गये। अमेरिका के विभिन्न स्थानों पर भाषण करते हुए करीब एक वर्ष वहाँ रहे और फिर कई देशों का भ्रमण करते हुए भारत आ गये। इस अवधि में इंग्लैंड और अमेरिका सहित कई देशों में स्वामीजी का भव्य स्वागत हुआ।

9 दिसम्बर 1900 को स्वामीजी बेलूर मठ आ गए। फिर हिमालय पर स्थापित आश्रम ख्मायावती, को देखने के लिए चले गये। स्वास्थ्य फिर खराब हो गया था। मगर देशाटन करते हुए हिन्दू-धर्म के शुद्ध तत्त्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने की उनकी इच्छा तीव्र होती जा रही थी। स्वामीजी को रामकृष्ण देव के कहे हुए शब्द याद आने लगे थे-‘‘जिस दिन वह अपना स्वरूप जान जायेगा, तब अपना शरीर नहीं रखेगा।’’ अचानक एक दिन उन्होंने अपने गुरुभाई से कहा-‘‘मैं कौन हूँ? यह जान गया हूँ। श्री रामकृष्णदेव ने मेरी चाबी मुझे वापस दे दी है।’’

4 जुलाई 1902 को प्रातःकाल से ही स्वामीजी भावावेश में थे। वे धीरे-धीरे गुनगुना रहे थे-‘‘मन, चल निज निकेतन!’’ अचानक अपने आप कह रहे थे- ‘‘है कोई, जो समय की चुनौती स्वीकार कर इन ऋषि-सन्तानों को पतन की ओर जाने से रोक सकें।’’ फिर वे स्वयं कहने लगे-‘‘यदि इस समय कोई दूसरा विवेकानन्द होता तो वह समझ सकता था कि विवेकानन्द ने क्या किया है? मगर समय पर अनेक विवेकानन्द जन्म ग्रहण करेंगे।’’ बगल में चल रहे स्वामी प्रेमानन्द यह सुनकर चैंक पड़े थे।

संध्या-समय स्वामीजी अपने दोमंजिले आश्रम के कमरे में आ गये। सभी खिड़कियों और दरवाजों को खोलने का आदेश दिए। फिर स्वयं खिड़की के पास जाकर दक्षिणेश्वर की ओर दृष्टिपात किए। काफी देर तक एक-एक चीज निहारते रहे। फिर पद्मासन की मुद्रा में ध्यान-मग्न हो गये। साथ में रहने वाले ब्रह्मचारी को कमरे के बाहर बैठकर जाप करने का निर्देश दिए। अब वे महाप्रस्थान की तैयारी कर रहे थे। रात्रि के नौ बज चुके थे। सप्तर्षि मंडल का वह तेजस्वी ऋषि अपने पूर्व के स्थान पर जा चुका था। अब स्वामीजी का केवल पार्थिव शरीर रह गया था। विवेकानन्द जहाँ से आये थे, वहीं चले गये थे। सारा देश स्तब्ध रह गया था। माँ भुवनेश्वरी देवी भी इस घटना से मर्माहत थी। ममतामयी माँ तो स्वामीजी के देहत्याग के बाद भी नौ वर्षों तक जीवित रही और उन्हें इस बात का गर्व था कि उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को विश्व-विख्यात स्वामी विवेकानन्द बनते हुए देखा था। 25 जनवरी 1911 को इस महिमामयी माता का निधन हुआ।

स्वामी विवेकानन्द नहीं रहे मगर उनकी वाणी अभी भी भारतवासियों को कुछ संदेश देती हुई कहती है-‘‘यह प्राचीन मातृभूमि एक बार फिर जाग गयी है और अपने सिंहासन पर आसीन है-पहले से कहीं अधिक गौरव एवं वैभव से प्रदीप्त। शान्त और मंगलमय स्वर में उसकी पुनप्र्रतिष्ठा की घोषणा समस्त विश्व में करो !’’ क्या हम यह आवाज सुन रहे हैं? स्वामीजी ने कहा था-‘‘हमें चाहिए प्रज्ञावान्, वीर और तेजस्वी युवक, जो मृत्यु से आलिंगन करने का, समुद्र को लांघ जाने का साहस रखते हों।........सिंह के पौरुष से युक्त, परमात्मा के प्रति अटूट निष्ठा से सम्पन्न और पावित्रय की भावना से उद्दीप्त सहस्रों नर-नारी, दरिद्रों एवं उपेक्षितों के प्रति हार्दिक सहानुभूति लेकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भ्रमण करते हुए मुक्ति का, सामाजिक पुनरुत्थान का, सहयोग और समता का सन्देश देंगे।’’ क्या हम उनकी इस आवाज को भी सुन रहे हैं ?  कितनी विलक्षण व्याख्या उन्होंने धर्म के बारे में की और कहा-‘‘धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है। धर्म अन्धविश्वास नहीं है, धर्म  अलौकिकता नहीं है, वह जीवन का अत्यन्त स्वाभाविक तत्त्व है।’’ क्या हम उनकी इस व्याख्या के अनुरूप धार्मिक आचरण कर रहे हैं ? 

‘शिकागो’ में स्वामीजी का भाषण सुनने के बाद न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा था- ‘धर्मों की पार्लियामेण्ट में सबसे महान् व्यक्ति विवेकानन्द हैं। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म-प्रचारक भेजने की बात कितनी बेवकूफी की बात है!’’ क्या यह पढ़ कर हमें अपने धर्म पर गर्व होता है ?

स्वामीजी भारतवासियों के धर्म के साथ-साथ प्रखर कर्मठता भी देखना चाहते थे। इसलिए वे कहा करते थे-‘‘मैं भारत के लोगों में लोहे की मांसपेशियाँ और फौलाद की नाड़ी तथा धमनी देखना चाहता हूँ और उसके भीतर तड़ित की ज्योति के समान उसकी बुद्धि चाहता हूँ।’’ क्या हम स्वामी विवेकानन्द के सपनों को साकार करने के लिए समाज को इस प्रकार का स्वरूप ग्रहण करने के लिए जगा रहे हैं अथवा खुद जाग रहे हैं ?

स्वामीजी ने भारत की आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय और राजनैतिक सोच को एक नई दृष्टि प्रदान की। उस समय के सुप्रसिद्ध राजनैतिक विचारक और भगवद्गीता के भाष्यकार लोकमान्य तिलक भी स्वामीजी का दर्शन करने बेलूर मठ आये थे। महर्षि अरविन्द तो साधना में कई दिनों तक स्वामीजी का दर्शन करते रहे थे। सारे देश में स्वामीजी ने एक नई जागृति ला दी थी। सारा देश मानो उनके आह्वान से मोह-निद्रा से जागने लगा था। देशभक्ति की भावना हर नवयुवक में हिलोरें लेने लगी थी। स्वामीजी ने हमें संदेश दिया था-‘‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ यानी उठो, जागो और जब तक लक्ष्य मत प्राप्त कर लो, तब तक कहीं मत ठहरो।’’ मगर क्या हम ऐसा कर रहे हैं ?

भारतवासियों की एकता के बारे में स्वामी जी अथर्ववेद संहिता की एक ऋचा को ध्यान में रखने के लिए सुनाया करते थे -
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।
-ऋग्वेद/दशम मण्डल 
 
यानी तुम सब लोग एक मन के हो जाओ , एक विचार के हो जाओ क्योंकि प्राचीन काल में एक मन होने के कारण ही देवताओं ने हविर्भाग पाया। एक मन हो जाना ही समाज के गठन का रहस्य है।’’ इस तरह राष्ट्रीय एकता के सूत्र को मजबूत करने के लिए एक मन होने का जो स्वामी जी ने संदेश दिया-क्या हम उस सन्देश के आलोक में चल कर रहे हैं ?

स्वामी विवेकानन्द विश्व-विजेता बन गये। उन्होंने भारत को जो दिशा-बोध दिया, उसका अनुसरण कर हम भी महानता के मान-बिन्दुओं को छू सकते हैं। भारत विश्वगुरु था और फिर विश्वगुरु बन सकता हैं-इसे स्वामी जी ने प्रमाणित कर दिया। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम भारतवासी स्वामी जी द्वारा निर्दिष्ट आदर्शों का अनुसरण करें और तदनुकूल आचरण भी करें।


इन्हें भी जानें 

1.अध्यात्म-मार्तण्ड - महर्षि सदाफलदेव
MAHARSHI SADAFALDEO JI MAHARAJ


















2. कवयित्री महान - महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा 













3.  क्रांतिदर्शी महर्षि - स्वामी दयानन्द 
MAHARSHI DAYANAND SARASWATI














4.  राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
MAITHILISHARAN GUPTA













5साहित्यकारों के साहित्यकार - शिवपूजन सहाय
शिवपूजन सहाय 












6. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 









7. उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचन्द
प्रेमचन्द 
 















Ref. आर्टिकल source from Apani Maati Apana Chandan, Author-Sukhnandan singh Saday,  Picture source from indiatotay.in.