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महात्मा गाँधी | Mahatma Gandhi

साबरमती के संत - महात्मा गाँधी 

 
 
‘मेरा जीवन ही मेरा दर्शन है’ इस कथन के द्वारा महात्मा गाँधी ने सचमुच अपने जीवन-दर्शन के सत्य को उद्घाटित कर दिया था। गाँधीजी के सम्बन्ध में अब तक करीब चार हजार पुस्तकें छप चुकी हैं, जो विश्व की विविध भाषाओं में हैं। इसके अतिरिक्त अभी भी हर वर्ष विभिन्न भाषाओं में करीब पचास पुस्तकें निकलती हैं। गाँधीजी के बारे में जहाँ गाँधीवादियों ने भी जमकर लिखा, वहीं देश-विदेश के प्रशंसकों ने भी उन पर अपनी लेखनी चलाई। प्रख्यात गाँधीवादी चिन्तक डा0 पट्टाभिसीतारमैया, आचार्य जे0पी0 कृपलानी, डा0 पी0 सी0 घोष, महादेव देसाई, प्यारे लाल, डा0 राजेन्द्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डा0 शंकरदयाल सिंह, डा0 रामजी सिंह से लेकर, विदेशी लेखक रोमाँ रोलाँ और लुई फिशर तक ने गाँधीजी के बारे में जो कुछ लिखा था, वह निश्चय ही भारत के स्वतन्त्रता-संग्राम के इतिहास की एक अनमोल धरोहर है। फ्रेंच साहित्य में रोमाँ रोलाँ (1866-1944) इतिहास विषय के ज्ञाता होते हुए भी कला, साहित्य और संस्कृति के अनन्य उपासक थे। 

सन् 1915 में उन्हें अपने आत्मकथात्मक उपन्यास- जाॅन क्रिस्तोफर‘ पर नोबल पुरस्कार दिया गया।  उन्होंने महात्मा गाँधी की जीवनी 1924 में और स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द की जीवनी 1928-29 में लिखी। इसी तरह लुई फिशर विश्वविख्यात पत्रकार थे, जिन्होंने ‘The life of Mahatma Gandhi‘ (महात्मा गाँधी की कहानी) लिखकर अपने लेखन को कृतार्थ कर दिया। जिस ‘गाँधी की कहानी’ को लुई फिशर ने लिखा- आखिर वह कहानी विश्ववंद्य बन गई-बापू की कहानी के रूप में, साबरमती के संत की कहानी के रूप में ।

गुजरात का वह भाग जिसे सौराष्ट्र कहते हैं, उसका जिला मुख्यालय राजकोट है। इसी राजकोट के अन्तर्गत पोरबन्दर वहाँ के सौन्दर्य में वृद्धि करता हुआ निरन्तर अट्टहास करता रहता है। इसी पोरबन्दर के एक छोटे रजवाड़े के यहाँ गाँधीजी के पिता श्री करमचन्द गाँधी दीवान थे। गाँधीजी के पितामह का नाम था उत्तमचन्द गाँधी। कुछ लोग कहते हैं कि शायद इनके पूर्वज ‘गंध’ के व्यापार से जुड़े रहने के कारण अपने नाम के साथ ‘गाँधी’ लिखते थे। मगर वास्तविकता चाहे जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि गाँधीजी  के दादाजी और पिताजी व्यवसाय के कारोबार में नहीं थे। 

गाँधीजी के पूर्वजों का मकान अब ‘कीर्ति-मन्दिर‘ के नाम से दर्शनीय बन गया है। इसी पोरबन्दर नगर में गाँधीजी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पिता श्री करमचन्द गाँधी और माता पुतली बाई के यहाँ हुआ था। बचपन का नाम ‘मोहनदास’ रखा गया। प्यार से लोग मोहना भी कहते थे। करमचन्द गाँधी की तीन पत्नियाँ काल-कवलित होती गईं और चैथी पत्नी पुतली बाई से उन्हें तीन पुत्र और एक पुत्री हुईं। सबसे बड़े पुत्र लक्ष्मीदास, तब पुत्री गोली बेन, फिर कर्षणदास और सबसे छोटे मोहनदास। गुजरात की परंपरा के अनुसार इनका नाम हुआ ‘मोहनदास करमचन्द गाँधी‘। 

मोहनदास की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा पोरबन्दर में ही हुई। मगर सात वर्ष की अवस्था में वे अपने पिता के पास राजकोट चले आये, जहाँ पर उनके पिता स्थानीय कोर्ट के सदस्य थे। बचपन में हरिश्चन्द्र नाटक देख कर वे भाव-प्रवण हो उठे और सत्य के प्रति दृढ़ निष्ठा का बीजारोपण उनके हृदय में हो गया। मोहनदास पढ़ने में साधारण थे, लिखावट भी अच्छी नहीं थी, फिर भी वे एक शान्त चित्त होनहार छात्र के रूप में विद्यालय में गिने जाते थे। एक बार इनके विद्यालय में एक अंग्रेज स्कूल इंस्पेक्टर के आने पर सभी विद्यार्थियों को पाँच अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग लिखने के लिए दी गई। प्रधानाचार्य ने देखा कि मोहनदास की स्पेलिंग 'kettle’ गलत है। उन्होंने पैर दबा कर मोहनदास को इशारा किया कि बगल वाले की स्पेलिंग देखकर अपना सुधार कर लें। लेकिन मोहनदास ने ऐसा नहीं किया। जब प्रधानाचार्य ने उन्हें इसके लिए डाँटा तो उन्होंने इस प्रकार से नकल करने की प्रक्रिया को असंगत बतलाया। यह थी उनके बचपन की सत्य-निष्ठा।  

उनकी अभी प्रारम्भिक शिक्षा ही चल रही थी कि मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में उनकी शादी पोरबन्दर के ही श्री गोकुलदास जी की पुत्री कस्तूर बाई से कर दी गई। एक साथ ही इनके बड़े भाई कर्षणदास और चाचा के लड़के की शादी हुई। कस्तूर बाई एक धर्मपरायण महिला थीं। मोहनदास का परिवार खानदानी वैष्णव था। इनके पिताजी के पास जैन साधु भी आया करते थे। सत्य के साथ अहिंसा का बीजारोपण भी उनके हृदय में होने लगा था। 

मोहनदास ने 18 वर्ष की अवस्था में मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके बाद वे भावनगर के श्यामलदास काॅलेज में नामांकन कराये। श्यामलदास काॅलेज से बी0 ए0 पास करने के बाद उनके परिवार के हितैषी पं0 भाओ जी दामो और जोशी जी के परामर्श से बैरिस्टरी पढ़ने के लिए लंदन भेजने पर सहमति बनी। पिता की छाया उठ चुकी थी। मोहनदास एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। बड़े भाई लक्ष्मीदास जी ने अर्थ की व्यवस्था की। मोहनदास ने माँ को वचन दिया कि मांस, शराब और महिला से सदा दूर रहेंगे। इस तरह 4 सितम्बर 1888 को मोहनदास बैरिस्टरी पढ़ने के लिए ‘बम्बई’ से विलायत के लिए रवाना हुए। यह इस समय की एक क्रान्तिकारी घटना थी। समाज के लोग ऐसी यात्रा का घोर विरोध करते थे। मगर मोहनदास की विलायत-यात्रा पूरी हुई। वे वहीं बैरिस्टरी पढ़ने लगे। 

इंग्लैंड के खान-पान और रहन-सहन से वे काफी परेशान रहने लगे। एक बार मांस खाने का आग्रह होने पर उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि यदि मांस के बिना इंग्लैंड में रहना संभव नहीं होगा तो वे भारत लौट जायेंगे, लेकिन माँ को दिया हुआ वचन नहीं तोड़ेंगे। यह बात दूसरी थी कि कई सज्जन उन्हें सामिष भोजन की महत्ता बतलाकर उन्हें उसकी ओर आकृष्ट करना चाहते थे। इसी समय एक दिन घूमते हुए इंग्लैंड के एक रेस्तराँ पर उनकी नजर पड़ी। वह निरामिष रेस्तराँ था। वहाँ पर उन्हें शो केस में मि0 साल्ट की लिखी निरामिष भोजन के समर्थन में एक पुस्तक दिखी। वे उसे एक श्वाँस में ही पढ़ गये और यहीं पर उनके द्वन्द्व की समाप्ति हो गई। अब वे सैद्धान्तिक रूप से निरामिष भोजन के पक्षधर बन गये। तीन वर्ष बाद इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर 12 जून 1891 को मोहनदास भारत के लिए प्रस्थान किये। उनका छात्र-जीवन इस डिग्री के साथ ही समाप्त हो गया और वे अब कर्म-क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए तैयार थे। 

बम्बई के बन्दरगाह पर उतरते ही मोहनदास को पता चला कि उनकी माँ भी चल बसी हैं। पिता की मृत्यु सन् 1881 में ही हो चुकी थी। जिस माँ के सपने को साकार कर मोहनदास बैरिस्टर बनकर भारत आये थे, उस माँ की छाया उन्हें नहीं मिलेगी, यह जान कर उनका हृदय व्यथित हो उठा। माँ की याद में आँसू भी शायद सूख गये। अभी मात्र 22 वर्ष की अवस्था में उनसे पहले पिता और अब माँ का साथ छूट गया। यह उनके लिए एक वज्राघात के समान था। 

अब मोहनदास ने बम्बई में बैरिस्टरी शुरू की। पहली बार एक केस मिला। लेकिन मामले की जिरह के लिए उठने के साथ ही उनका सिर घूम गया। जिरह नहीं कर सके। अपने मुवक्किल को तीस रूपये वापस कर दिये। वकालत जम नहीं पायी। बम्बई में केवल छः माह रहने के बाद राजकोट आ गये। यहाँ पर भी कामचलाऊ केस मिलते थे।  इसी बीच पोरबन्दर के एक व्यवसायी अब्दुला एण्ड कम्पनी के हिस्सेदार सेठ अब्दुल करीम झाबेरी की ओर से दक्षिण अफ्रिका में चल रहे एक दीवानी केस में नियुक्त होने का प्रस्ताव आया। एक वर्ष की अवधि के लिए वहाँ जाने के लिए राजी हो गये। मगर कौन जानता था कि उन्हें बाइस वर्षों तक वहीं रहना पड़ेगा। 

सन् 1893 भारत के इतिहास में कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं के लिए चर्चित है। इसी वर्ष स्वामी विवेकानन्द 30 वर्ष की उम्र में शिकागो की धर्म-सभा में भाग लेने अमेरिका के लिए रवाना हुए थे। इसी वर्ष महर्षि अरविन्द 14 वर्षों तक इंग्लैंड में रहने के बाद 21 वर्ष की उम्र में भारत लौट रहे थे। इसी वर्ष श्रीमती ऐनी बेसेन्ट भी इंग्लैंड से भारत आ रही थीं। इसी वर्ष मोहनदास 24 वर्ष की उम्र में भारत से दक्षिण अफ्रिका जा रहे थे। भारत का भावी इतिहास मानो सन् 1893 के इर्द-गिर्द घूम रहा था। 

अप्रैल 1893 में मोहनदास अफ्रिका के लिए रवाना हुए। जहाज डरबन पहुँचा, जहाँ उन्हें लेने के लिए दादा अब्दुल सेठ स्वयं आये थे। इस स्थान को नेटाल भी कहते हैं। कहा जाता है कि सर्वप्रथम सन् 1860 में भारतीय मजदूरों को एक ऐग्रीमेंट के तहत दक्षिण अफ्रिका भेजा गया था। यही ‘ऐग्रीमेंट’ शब्द विकृत हो कर गिरमिटिया बन गया और भारत से जाने वाले मजदूर ‘गिरमिटिया मजदूर’ कहलाने लगे। दक्षिण अफ्रिका में भारत से आये लोगों को यूरोपियन लोग कुली कहते थे। मोहनदास को सेठ अब्दुल अपने केस के सिलसिले में कोर्ट मंे ले गये। मजिस्टेªट ने उनसे पगड़ी खोलने के लिए कहा। मोहनदास इसे अस्वीकार करते हुए कोर्ट से बाहर आ गये। प्रथम दिन ही इस घटना ने उन्हें कुछ सोचने के लिए बाध्य कर दिया। दक्षिण अफ्रिका मंे भारतीयों की दुरवस्था से वे धीरे-धीरे परिचित होने लगे थे। पगड़ी के बदले हैट पहनना स्वीकार न करके मोहनदास ने जिस निर्भीकता का परिचय दिया, उससे श्वेत अधिकारियों के कान खड़े हो गये। इस घटना के एक सप्ताह बाद ही उन्हें केस के सिलसिले में ट्रान्सवाल की राजधानी प्रिटोरिया जाना पड़ा। 

डरबन में प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर वे टेªन से रवाना हुए। अभी नेटाल की राजधानी पिटर मारिज वुर्ग स्टेशन पर टेªन पहुँची ही थी कि एक यूरोपियन प्रथम श्रेणी के डब्बे में एक काले आदमी को देखकर रेलवे-कर्मचारी को बुला लाया। रेलवे कर्मचारी ने उन्हें तृतीय श्रेणी में जाने का आग्रह किया। मगर मोहनदास ने प्रथम श्रेणी का टिकट दिखाते हुए वहाँ से हटने के लिए इन्कार कर दिया। कर्मचारी ने पुलिस बुलाकर उन्हें टेªन से जबरदस्ती उतार दिया। टेªन चली गई। मोहनदास वेटिंग रूम में ठहर गये। उनके मन में इस असमानता और अन्याय के प्रति विद्रोह भर उठा। शायद उनके मन में यहीं पर सत्याग्रह के बीज का बपन हो चुका था। 

इस छोटी-सी घटना ने मोहनदास को भीतर से बदल दिया था और उन्होंने इस सामाजिक अन्याय को दूर करने का मन-ही-मन संकल्प ले लिया था। मोहनदास ने इस घटना के प्रतिरोध में हर जगह पत्र लिखा। समाचार आग की तरह फैल गया। कई भारतीय उनसे मिलने आये। उन लोगों की कष्ट भरी बातें सुनकर मोहनदास इस अत्याचार से लड़ने के लिए दृढ़-संकल्पित हो उठे। मगर अभी तो इस यात्रा का यह एक प्रारम्भिक टेªलर था। चाल्र्स टाउन तक टेªन से आने के बाद जोहान्सबर्ग की यात्रा घोड़ागाड़ी से करनी पड़ती है। दक्षिण अफ्रिका में मोहनदास एक कुली बैरिस्टर थे। उन्हें घोड़ागाड़ी के कोचवान के पास बैठना पड़ा। तभी एक श्वेतांग की धूम्रपान करने की इच्छा हुई। वह आकर इन्हें उस स्थान से भी हटाने लगा। मोहनदास के अस्वीकार करने पर उनके साथ बदसलूकी की गई। उन पर हाथ भी उठाये गये। 

दक्षिण अफ्रिका में इन कटु अनुभवों से उनका हृदय विद्रोह कर उठा। फिर जोहान्सबर्ग से प्रिटोरिया के लिए टेªन-यात्रा प्रथम श्रेणी में शुरू हुई। फिर ट्रेन के गार्ड द्वारा तृतीय श्रेणी में जाने का फरमान जारी हुआ। मगर एक अंग्रेज यात्री के हस्तक्षेप से उन्हें टेªन से नहीं उतरना पड़ा। प्रिटोरिया में किसी तरह एक होटल में जगह मिली। होटल मालिक ने कहा कि आपको अपना खाना अपने कमरे में ही खाना होगा अन्यथा यूरोपियन लोग आपत्ति करेंगे। प्रिटोरिया में उन्हें करीब एक वर्ष रहना पड़ा। 

प्रिटोरिया में रहते हुए उन्हें अफ्रिका की रंग-भेद नीति का जगह-जगह सामना करना पड़ा। भारतीयों के कष्ट से अब वे वाकिफ हो चुके थे। इसी काल-खण्ड में उनके जीवन को दो पुस्तकों ने बहुत प्रभावित किया। पहली पुस्तक थी-काउण्ट टाॅल्स्टाॅय की पुस्तक ‘स्वर्ग तुम्हारे ही भीतर है’ और दूसरी रस्किन की पुस्तक ‘अण्टु दिस लास्ट।’ इन पुस्तकों से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें लगा कि जीवन की कुंजी उन्हें मिल गई है। मोहनदास के भीतर अब सत्याग्रह का पौधा पनपने लगा था। 

इधर दक्षिण अफ्रिका की रंग-भेद नीति अपने चरम पर थी। फुटपाथ पर चलने का अधिकार भारतीयों को नहीं था। रात्रि बारह बजे के बाद बाहर निकलने के लिए अनुमति-पत्र लेना पड़ता था। मोहनदास को भी एक दिन फुटपाथ पर चलते समय एक संतरी ने धक्का देकर उतार दिया। भारत के मोहनदास दक्षिण अफ्रिका के गाँधीभाई के नाम से मशहूर हो चले। अब गाँधी भाई ने दादा अब्दुला सेठ के मुकदमे में सुलह की पहल की। दोनों पक्षों में समझौता हो गया। गाँधीभाई प्रिटोरिया से फिर डरबन आ गये। अब वे भारत लौटने का निश्चय कर रहे थे। 

इसी बीच नेटाल विधान सभा में भारतीयों को वोट देने का अधिकार छीनने के बारे में एक बिल पेश होने की खबर पढ़कर वे चिन्तित हो उठे। वहाँ के भारतीयों के आग्रह पर गाँधीभाई वहाँ एक महीना और ठहरने के लिए राजी हो गये। यहीं से उनकी सार्वजनिक कार्यों में अभिरुचि बढ़ी और समाज-सेवा का कार्य उन्हें अपनी ओर खींचने लगा। इस बिल के विरोध में अध्यक्ष को ज्ञापन दिया गया। कुछ आशा की किरण जगी। मगर वह काला कानून पास हो गया। वहाँ पर रहने वाले भारतीयों के अधिकार पर यह एक कुठाराघात था। दक्षिण अफ्रिका मंे रहने वाले भारतीयों में एकता का सूत्र मजबूत होने लगा। राजनैतिक अधिकार के लिए होने वाले संघर्ष में अब गाँधी भाई उन सबके साथ थे। गाँधी भाई अब नेटाल में ही बैरिस्टर के रूप में कार्य करने के लिए सहमत हो गये। करीब बीस भारतीय व्यवसायियों ने उन्हें अपना बैरिस्टर मान कर एक साल के फीस की पेशगी भी दे दी। 

दक्षिण अफ्रिका में अब एक नये युग का सूत्रपात होने लगा। 22 अगस्त 1894 को नेटाल भारतीय कांग्रेस की स्थापना की गई। गाँधी भाई इसके संचालक बने और 25 वर्ष की उम्र में वे दक्षिण अफ्रिका में रहने वाले भारतीयाें के एकछत्र नेता बन गये। इस तरह तीन वर्षों तक दक्षिण अफ्रिका में बैरिस्टर की हैसियत से रहते हुए उन्होंने वहाँ पर व्याप्त सामाजिक असमानता के प्रति प्रबुद्ध वर्गों में जागरूकता पैदा की। अपने लेखों के माध्यम से, प्रतिवेदनों के माध्यम से उन्होंने ब्रिटिश सरकार के कानों तक इस रंग-भेद नीति के विरोध में आवाज पहुँचायी। भारतीयाें पर लादे गये गैर कानूनी टैक्सों के विरोध में भी नेटाल भारतीय कांग्रेस द्वारा आन्दोलन शुरू किया गया। सन् 1896 में गाँधीभाई भारत आ गये। यहाँ राजकोट में रहते हुए दक्षिण अफ्रिका में भारतीयांे की स्थिति पर उन्होंने एक पुस्तिका लिखी। जगह-जगह सभाएँ की गई। इसी क्रम में बम्बई में गोखले से भी भेंट हुई। तिलक और भंडारकर से भी परिचय का सूत्र बढ़ा। 

दक्षिण अफ्रिका से बुलाहट आ रही थी। इस बार वे अपनी पत्नी, दो बच्चे और एक भांजे को लेकर दक्षिण अफ्रिका के लिए 1896 के अन्त में पानी के जहाज से रवाना हो गये। दक्षिण अफ्रिका में पार्लियामेंट का अधिवेशन जनवरी 1897 में होना था, इसीलिए गाँधीभाई इस बार अपने परिवार के साथ वहीं पहुँच गये थे। यह एक संयोग ही था कि इस बार जहाज से करीब 800 भारतीय वहाँ पहुँचे थे। यूरोपियनों में यह समाचार नागवार गुजरा। शायद भारतीयाें की जनसंख्या बढ़ाने के लिए इसे गाँधी की योजना समझी गई। गाँधीभाई अब खुले दिल से सार्वजनिक कार्यों में हाथ बँटाने लगे। करीब चार वर्षों तक दक्षिण अफ्रिका के बैरिस्टर के साथ सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए और इस अन्याय के विरोध में आवाज बुलन्द करने के लिए वे क्रियाशील रहे। तभी एक बार फिर सन् 1901 में उन्हें भारत आना पड़ा। शर्त केवल इतनी ही थी कि जब भी जरूरत पड़ेगी वे फिर दक्षिण अफ्रिका आ जायेंगे। इस बार विदाई समारोह में उन्हें तथा उनकी पत्नी को कई मूल्यवान् उपहार दिए गए, लेकिन गाँधीभाई ने उन्हें विनम्रता से लौटा दिया। अपरिग्रह की भावना का यह परिचायक था। 

भारत आने पर वे कांग्रेस के मंच पर भारतीयों की दुर्दशा पर बहस चलाते रहे। सन् 1901 में ही कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिये। गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रिका सम्बन्धी  प्रस्ताव को पढ़ा, जिसका ‘गोखले जी’ ने समर्थन किया। गाँधीजी का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार हो गया। भारत में कई बड़े-बड़े नेताओं का दर्शन किए। भारत में अभी गाँधीभाई उतने चर्चित नहीं हुए थे। गोखले जी उन्हें बहुत चाहते थे। उन्होंने शायद इस युवा में संभावनाओं को घनीभूत होते देख लिया था। 

मगर इस बार भी गाँधीभाई केवल छः माह ही भारत रह सके। अफ्रिका से तार आया कि यहाँ पर चेम्बरलेन आने वाले हैं, इसलिए आप शीघ्र आ जायें। इस बार गाँधीजी परिवार को भारत में ही छोड़ कर डरबन चले गये। सन् 1902 के अन्त में वे डरबन पहुँचे। भारत में जितने दिन रहे एक तरह से पूरा भ्रमण करके यहाँ के कांग्रेसी नेताओं से वे मिले और बहुत बातों को नजदीक से जाने। डरबन के चेम्बरलेन (ब्रिटेन के औपनिवेशिक सेक्रेटरी) से भेंट कर दक्षिण अफ्रिका में रहने वाले भारतीयाें की समस्याओं से उन्हें अवगत कराया। अब वे समाज-सेवा के कार्य में अधिक ध्यान देने लगे। इसी समय  भारतीय दर्शन, गीता और अन्य धर्मों के ग्रंथों को पढ़ने का अवसर मिला। गीता उनके जीवन की सहचरी बन गई। एक वर्ष बाद ही पत्नी और बच्चों को जोहान्सबर्ग बुला लिये। अब वे जोहान्सबर्ग में ही बैरिस्टरी भी करने लगे। धर्म के वास्तविक रूप को जानकर उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करने लगे। जीवन में पहले सत्य का प्रयोग किये और फिर सत्याग्रह को आधार बनाकर अपने आन्दोलनों को मूर्त रूप देने लगे। गाँधीभाई का नाम दक्षिण अफ्रिका में एक सर्वमान्य नेता के रूप में उभर आया। उनकी ख्याति की ध्वनि भारत तक आ पहुँची। अफ्रिका के काले कानूनों के खिलाफ उन्होंने बिगुल फूँक दिया। सत्याग्रह के द्वारा जन-आन्दोलन खड़ा कर दिया। सन् 1904 में ‘इंडियन ओपीनियन’ नामक साप्ताहिक अखबार निकाला, जिसके सम्पादक श्री मनसुख लाल नाजर हुए। उनके द्वितीय पुत्र मणिलाल ने भी कुछ दिनों तक इसका सम्पादन किया। 

गाँधीजी को चार पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई। सबसे बड़े हरिलाल फिर मणिलाल, रामदास और सबसे छोटे देवदास। हरिलाल और मणिलाल का जन्म भारत में हुआ था और रामदास तथा देवदास का जन्म अफ्रिका में। जोहान्सबर्ग से 30 किलोमीटर की दूरी पर फिनिक्स में सत्याग्रहियों के लिए एक आश्रम बनवाया गया था। इस फिनिक्स आश्रम के सारे कार्य सभी मिल-जुल कर करते थे। गाँधीजी ने भी पत्नी और बच्चों को भी इसी फिनिक्स फार्म में रहने के लिए भेज दिया था। गाँधीजी टाॅल्स्टाॅय से बहुत प्रभावित थे। टाॅल्स्टाॅय से उनका पत्राचार भी होता रहा। नवम्बर 1910 में टाॅल्स्टाॅय का निधन हो गया। गाँधीजी के एक मित्र दक्षिण अफ्रिका के जर्मन शिल्पकार हरमन कालेनवाक थे, जिनकी 1100 एकड़ जमीन जोहान्सबर्ग से 21 किलोमीटर की दूरी पर थी। कालेनवाक ने वह जमीन आश्रम के लिए दे दी। यहीं पर टाॅल्स्टाॅय फार्म की स्थापना की गई। फिनिक्स फार्म के लोग भी अब टाॅल्स्टाॅय फार्म में आकर रहने लगे। पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे इस टाॅल्स्टाॅय फार्म में एक संयुक्त परिवार की तरह रहते थे। वहाँ पर रहने वाले गरीबी को गले लगाते थे और आत्मनिर्भरता से रहते थे, सत्याग्रह और अहिंसा का अभ्यास सिखलाया जाता था। यहाँ पर एक नयी जीवनपद्धति विकसित होने लगी थी। सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह का दर्शन इस आश्रम में पलने लगा था। 

दक्षिण अफ्रिका में भारतीयाें पर लागू होने वाले काले कानूनों की लम्बी शृंखला है। इस काले कानून के विरोध में सत्याग्रह करने के लिए गाँधी जी को जनवरी 1908 में पहली बार दो माह की सजा दी गई। उन्हें जोहान्सबर्ग जेल में रखा गया। गाँधीजी सन् 1909 में एक डेपुटेशन में भारतीयांें की समस्या लेकर विलायत भी गये। वहाँ पर कई नेताओं से मिले। विलायत से दक्षिण अफ्रिका लौटते समय उन्होंने ‘हिन्द स्वराज्य’ नाम की एक पुस्तक लिखी। पहले यह गुजराती में लिखी गई। बाद में कई भाषाओं में इसके अनुवाद हुए। आन्दोलन की एक झलक इस पुस्तक में दिखलाई पड़ती है। सन् 1912 में गोखले जी दक्षिण अफ्रिका आये। गाँधीजी ने वहाँ की दुःखद स्थिति से उन्हें अवगत कराया। कई जगह सभा भी हुई। गोखले जी ने अधिकारियों से बात करने के बाद गाँधीजी को बतलाया कि काला कानून समाप्त कर दिया जायेगा तथा अतिरिक्त टैक्स भी हटा लिया जायेगा। मगर गाँधीजी ने इस बारे में अपना संदेह जताया कि शायद ही यह सरकार अपना वचन पूरा करेगी। आखिर वहीं हुआ जो गाँधीजी सोचते थे। 

सन् 1913 में फिर एक बार भारतीय विवाह-पद्धति की मान्यता रद्द कर दी गई। सत्याग्रह का सिलसिला शुरू हुआ। इस बार करीब ढाई हजार मजदूर सत्याग्रह में भाग लिये। गाँधीजी के साथ कालेनवाक और पोलक भी गिरफ्तार हुए। इस बार गाँधीजी को नौ महीने की सजा हुई। मगर सत्याग्रह थमा नहीं। आखिर सरकार को झुकना पड़ा। अन्त में जून 1914 में तीन पौंड वाला टैक्स और भारतीय विवाह के विरोध में बना कानून रद्द हो गया। सत्याग्रह की विजय हुई। गाँधीजी के सत्याग्रह का प्रयोग सफल हो गया। मात्र एक वर्ष के लिए सन् 1893 में भारत से दक्षिण अफ्रिका जाने वाले गाँधी को वहाँ 21 वर्षों से भी अधिक रहना पड़ा। 

जुलाई 1914 में गाँधीजी दक्षिण अफ्रिका से भाव-प्रवण स्थिति में विदा हुए। गोखले जी के निर्देश से वे पहले विलायत गये और वहाँ पर शुभेक्षुओं में सर ऐंड्रयूज़ तथा पियर्सन से मिले। साथ में कस्तूरबा और कालेनवाक भी थे। प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन भी कूद रहा था। गाँधीजी वहाँ भी सेवा-दल गठित करके उन लोगों से युद्ध में आहत लोगों की सेवा का भार लेने का आग्रह किया। आखिर लन्दन होते हुए 9 जनवरी 1915 को भारत वापस आ गये।
 
दक्षिण अफ्रिका में करीब 22 वर्षों तक कार्य करने के बाद गाँधीजी जब 9 जनवरी 1915 को बम्बई पहुँचे तो वहाँ पर उनका भव्य स्वागत किया गया। विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा दिये गये स्वागत समारोह की अध्यक्षता श्री फिरोज शाह मेहता ने की और गुजराती समाज द्वारा आयोजित समारोह की अध्यक्षता मुहम्मद अली जिन्ना ने की। 

गाँधीजी दक्षिण अफ्रिका में कार्यरत थे मगर भारत की स्वतन्त्रता के लिए सोचते रहते थे। इसी सोच का परिणाम उनकी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य’ है, जो सन् 1909 में लिखी गई थी। दक्षिण अफ्रिका में आश्रम का प्रयोग और सत्याग्रह का स्वरूप इन दोनों को व्यवहार रूप में गाँधीजी ने उतारा था, इसलिए भारत में स्वतन्त्रता के लिए कार्य करने का उनके पास लम्बा अनुभव था। उस समय  भारत की स्वतन्त्रता की बात करने वाली एक मात्र राजनैतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस थी, जिनके जन्मदाता एक अंग्रेज आॅक्टेविमस ह्यूम थे तथा विलियम वेडरवन, डा0 ऐनी बेसेण्ट जार्ज मूल आदि विदेशी इसके अग्रणी नेता थे। भारतीय नेताओं में बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, पंडित मदनमोहन मालवीय, देशबन्धु चितरंजन दास, दादा भाई नौरोजी आदि प्रमुख थे। भारत आने के बाद गाँधीजी देश के विभिन्न भागों में दौरा किये। दक्षिण अफ्रिका में मोहनदास ‘गाँधी भाई’ कहलाये तो भारत में आने पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उन्हें ‘महात्मा‘ कहा तथा चम्पारण सत्याग्रह की सफलता के बाद वे पूरे देश में ‘महात्मा गाँधी’ कहलाने लगे। नजदीक के लोगों ने उन्हें ‘बापू’ भी कहा जिसका अर्थ ‘पिता’ होता है और अन्त में वे ‘राष्ट्रपिता’ कहलाये। 

गाँधीजी  फरवरी 1915 में शान्ति-निकेतन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिले और वहाँ की शिक्षा-पद्धति से काफी प्रभावित हुए। सन् 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में वे शामिल हुए। यह अधिवेशन इसलिए महत्त्वपूर्ण था कि इसमें 8 वर्षों बाद ‘तिलक’ जी भी भाग लेने आ गये थे और कांग्रेस के दोनों दल एक साथ मंच पर विद्यमान थे। 

इसी अधिवेशन में बिहार से श्री बृजकिशोर प्रसाद और डा0 राजेन्द्र प्रसाद के साथ बहुत से प्रतिनिधि भाग लेने गये थे। इसमें चम्पारण जिले के एक सीधे किसान श्री राजकुमार शुक्ला भी थे। शुक्ला जी चम्पारण के किसानों की दुर्दशा से कांग्रेस को अवगत कराना चाहते थे। उनकी दृष्टि गाँधीजी पर पड़ी और उन्होंने इस सम्बन्ध मंे उनसे प्रश्न उठाने का आग्रह किया। गाँधीजी का सीधा-सा उत्तर था-‘‘खुद देखे बिना इस विषय पर मैं राय नहीं दे सकता। आप खुद यहाँ सभा में बोलिएगा।’’ 

कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव बाबू  बृजकिशोर प्रसाद ने प्रस्तुत किया। राजकुमार शुक्ला जी भी कुछ बोले। महासभा में सहानुभूति-प्रस्ताव पास हुआ। मगर शुक्ला जी तो गाँधीजी को चम्पारण ले जाने के लिए अडिग थे। वे गाँधी जी का पीछा करते रहे। अन्त में 1917 में कलकत्ता अधिवेशन में आने के लिए उनसे गाँधीजी ने कहा। राजकुमार शुक्ला जी भी कलकत्ता आ गये। डा0 राजेन्द्र प्रसाद भी इस अधिवेशन में आये। मगर उन्हें भी इसकी भनक नहीं मिली कि गाँधीजी चम्पारण जाने वाले हैं। आखिर 9 अप्रैल 1917 को कलकत्ता से गाँधीजी को लेकर राजकुमार शुक्ला जी पटना के लिए रवाना हुए। वे गाँधीजी को लेकर पटना में राजेन्द्र बाबू के निवास पर गए। मगर राजेन्द्र बाबू कलकत्ता से ही पुरी चले गये थे। राजेन्द्र बाबू के नौकर इन्हें पहचानते नहीं थे। बाहर में ठहरने का संकेत दिया। बाहर के ही शौचालय में जाने का इशारा किया। गाँधी जी को अपने मित्र मौलाना मजहरुल हक की याद आयी जो साथ ही लन्दन में पढ़े थे। फिर तो आनन-फानन में हक साहब अपनी गाड़ी लेकर आ गये और गाँधीजी को अपने बंगले पर ले गये। वहाँ से राजकुमार शुक्ला जी गाँधीजीे को लेकर मोतीहारी के लिए टेªन से चले। 

मुजफ्फरपुर में आचार्य कृपलानी प्रोफेसर थे। गाँधीजी को स्टेशन से अपने घर ले गये। फिर दो-तीन दिन बाद यह टोली वहाँ से मोतीहारी पहुँची। यहाँ पहुँच कर नील की खेती करने वाले किसानों का दुःख-दर्द सुन कर गाँधी जी मर्माहत हो उठे। उन्होंने सत्याग्रह-आन्दोलन की शुरुआत कर दी। 

गाँधीजी के प्रयास से निलहांे के अत्याचार से किसानों को मुक्त करने के लिए ब्रिटिश-सरकार को एक कमीशन की नियुक्ति करनी पड़ी। तब तक डा0 राजेन्द्र प्रसाद, डा0 अनुग्रह नारायण सिंह, श्री बृजकिशोर प्रसाद, गोरख प्रसाद, धरणीधर प्रसाद भी आ गये थे। चम्पारण-सत्याग्रह दो वर्षों (1917-18) तक चला। 

गाँधीजी ने भारत में अपने राजनैतिक सघंर्ष की शुरुआत चम्पारण से ही की। कहा जाता है कि गाँधीजी इस क्षेत्र में करीब 175 दिन रहे। करीब दो हजार किसानों के बयान दर्ज किये गये। अन्त में 4 अक्टूबर 1919 को ब्रिटिश-सरकार को झुकना पड़ा और यह घोषणा करनी पड़ी कि अब तिनकठिया कानून लागू न होगा और जोर-जुल्म से नील की खेती नहीं करायी जायेगी। 

इस फैसले पर गाँधीजी ने बिहार के तत्कालीन गवर्नर सर एडवर्ड गेट की प्रशंसा भी की। भारत में गाँधीजी को चम्पारण से किये गये सत्याग्रह आन्दोलन से जो सफलता मिली उससे उनका राजनैतिक कद काफी ऊँचा हो गया। सारे देश में वे अब ‘महात्मा गाँधी‘ के रूप में विख्यात हो गये। इसी आन्दोलन के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक बड़े नेता के रूप में उभर कर आये।  

चम्पारण के बारे में महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा में स्वयं लिखा है-‘‘बिहार ने ही मुझे सारे हिन्दुस्तान में जाहिर किया। इससे पहले तो कोई मुझे जानता भी नहीं था। बीस साल अफ्रिका में रहने के कारण मैं हब्शी-सा बन गया था। उसके बाद मैं चम्पारण आया और सारा हिन्दुस्तान जाग उठा। पहले मैं जानता भी नहीं था कि चम्पारण कहाँ है? लेकिन जब यहाँ आया तो ऐसा मालूम हुआ कि मैं बिहार के लोगों को सदियों से जानता था और वे भी मुझे पहचानते थे। मैं समझता हूँ कि बिहार और चम्पारण के लिए इससे बढ़कर गौरव की बात कोई हो ही नहीं सकती।’’

यह बात सही है कि महात्मा गाँधी ने प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश-सरकार का साथ देने का निश्चय किया था और इसके लिए सेना में भर्ती होने का आह्वान भी किया था। युद्ध में ब्रिटेन तथा मित्र-राष्ट्रों की विजय के बाद उनके मन में आशा जगी थी कि अब शायद भारत को स्वायत्त-शासन का अधिकार मिलेगा। मगर ठीक इसके विपरीत भारत को मिला-रौलेट ऐक्ट, जिसके अन्तर्गत भारतीयों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और कम कर दी गई थी। सारा देश इस रौलेट ऐक्ट के विरोध में जाग उठा। 

गाँधीजी ने इसके विरोध में उपवास और हड़ताल की घोषणा कर दी। सभी वर्गों का समर्थन मिलने से हड़ताल को आशातीत सफलता मिली। हिन्दू-मुस्लिम एकता का नजारा यह था कि प्रख्यात आर्य-समाजी स्वामी श्रद्धानन्द को दिल्ली के जामा मस्जिद में भाषण देने के लिए आमन्त्रित किया गया। सारा देश रौलेट ऐक्ट के विरुद्ध मंें एकजुट होकर खड़ा हो गया। इधर अंग्र्रेज सरकार की दमन की कार्रवाई भी बढ़ने लगी। दिल्ली-पंजाब और देश के अन्य भागों में हिंसक घटनाएँ भी हुई। 

पंजाब में 13 अप्रैल को गुरु गोविन्द सिंह द्वारा ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की स्मृति में सिक्खों का बैसाखी का पावन पर्व था। 11 अप्रैल 1919 को जनरल डायर अमृतसर में अधिकारी बनकर आया और आते ही निषेधाज्ञा लागू कर दी। आम जनता को इसकी कोई जानकारी नहीं थी। जालियाँवाला बाग के एक घिरे स्थान पर हजारों लोग एक़त्र थे। इसमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल थे-बैसाखी पर्व को मनाने के लिए। तभी जनरल डायर के आदेश से निहत्थी भीड़ पर मशीनगनों से बौछार होने लगी। ऐसा मौत का ताण्डव पूर्व में कभी देखने को नहीं मिला था। मानवता इस बर्बर कांड से थर्रा उठी। यह नृशंस हत्याकांड अंग्रेजी-शासन का एक काला धब्बा बन गया। शायद अंग्रेजी-शासन के ताबूत में एक मजबूत कील भी उसी दिन ठुक गयी थी।

जालियाँवाला बाग के इस नृशंस हत्याकांड के विरोध में गाँधीजी ने अपना ‘केसरे हिंद मेडल’ सरकार को वापस कर दिया। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी ‘नाइट सर’ की उपाधि लौटा दी। इधर अंग्र्रेजों का दमन बढ़ता ही जा रहा था। जनरल डायर को अंग्रेजों द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा था। इसी बीच खिलाफत आन्दोलन की आहट आयी।  भारतीय मुसलमानों ने भी विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ दिया था। तुर्की में खलीफा के अधिकार को कम न करने के लिए भारत में खिलाफत आन्दोलन चलाया गया। महात्मा गाँधी ने इस आन्दोलन में अपना पूर्ण समर्थन दिया। इधर जालियाँवाला कांड की बर्बरता और खिलाफत आन्दोलन के प्रति अंग्रेजों की निष्क्रियता ने गाँधीजी को कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया। 

महात्मा गाँधी 1920 के कलकत्ता अधिवेशन में ‘असहयोग आन्दोलन‘ का प्रस्ताव रखे। असहयोग आन्दोलन का अर्थ था-अपनी उपाधियाँ लौटा देना, स्कूल, काॅलेज, अदालत, कौंसिल न जाना, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा किसी प्रकार का टैक्स नहीं देना। महात्मा गाँधी का यह असहयोग आन्दोलन एक विप्लव का विस्फोट था। इस अधिवेशन में ’तिलक‘ का अभाव गाँधीजी को खल रहा था। सन् 1916 में गोखले का आकस्मिक निधन और फिर सन् 1920 में तिलक का निधन राष्ट्र के लिए एक अपूरणीय क्षति थी। अन्त में इस अधिवेशन में निर्णय हुआ कि अगले नागपुर के अधिवेशन में साधारण सभा में असहयोग आन्दोलन का प्रस्ताव पारित किया जायेगा। आखिर दिसम्बर 1920 के नागपुर अधिवेशन में महात्मा गाँधी के द्वारा प्रस्तावित असहयोग आन्दोलन को स्वीकृत कर लिया गया। गाँधीजी अब कांग्रेस के एकछत्र नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। महात्मा जी का यह अहिंसक असहयोग का आन्दोलन था। 

‘यंग इंडिया’ में महात्मा गाँधी ने कई लेख लिखे, जिससे अंग्रेज-सरकार बौखला उठी। 10 मार्च 1922 को उन्हें साबरमती आश्रम से गिरफ्तार कर लिया गया। इसके पूर्व असहयोग आन्दोलन में देश के कई नेता गिरफ्तार किये जा चुके थे। साबरमती आश्रम का भी अपना एक इतिहास है। इस आश्रम की स्थापना दक्षिण अफ्रिका के फिनिक्स आश्रम और टाॅल्स्टाॅय आश्रम की तर्ज पर ही की गई थी। अहमदाबाद के एक सुप्रसिद्ध सामाजिक व्यक्ति श्री जीवनलाल बैरिस्टर का मकान कोचरब नामक स्थान में था जो उस समय अहमदाबाद के बाहर था। उसी मकान में 23 मई 1915 को साबरमती नदी के किनारे ‘साबरमती आश्रम’ की स्थापना की गई। इसे सत्याग्रह आश्रम भी कहा जाता था, क्योंकि यहाँ पर रहने वाले हर व्यक्ति को सत्य का आचरण करना पड़ता था-एक निर्मल जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेना पड़ता था। गाँधीजी की यह कर्मभूमि आज एक तीर्थ के रूप में पूजित है। इसी तरह बापू का एक और आश्रम है जो स्वतन्त्र भारत का सबसेे बड़ा तीर्थ है-वह है ‘सेवाग्राम आश्रम’। बापू यहाँ सन् 1936 मंे आये थे। मिट्टी की दीवारों से बना, बाँस के परदे, खपरैल छप्पर, बैठके के लिए चटाई आदि से सज्जित यह ‘सेवाग्राम आश्रम’ भारत की आत्मा की तरह पवित्र दिखता है। महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ्रिका के एक मित्र के पुत्र जालभाई रुस्तम ने अपने पिता की स्मृति में सन् 1942 में यहाँ एक अतिथि-भवन बनवाया, जिसे ‘रुस्तम मेहमान घर’ के नाम से जाना जाता है। प्राचीन ऋषि परम्परा की याद दिलाती यह कुटिया भारत की स्वतन्त्रता का इतिहास अपने अन्तर में छुपायी है। 

मार्च 1922 को साबरमती आश्रम से महात्मा गाँधी के गिरफ्तार होने से असहयोग आन्दोलन और गतिशील हो उठा। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। जज ने छः साल की सजा सुनाते हुए कहा- ‘‘मैने जीवन में आप जैसे व्यक्ति का विचार नहीं किया, भविष्य में भी नहीं करूँगा। आप अपराध स्वीकार कर रहे हैं। यदि आपको तिलक की श्रेणी में रखूँ तो आप इसे युक्तिहीन नहीं मानेंगे। यदि भारतवर्ष की अवस्था बदले और छः साल पूरा होने के पहले ही आप छूट जायें तो मुझसे ज्यादा खुश कोई नहीं होगा।‘‘ इस पर महात्मा गाँधी ने हँसते हुए कहा था- ‘‘लोकमान्य तिलक के साथ-साथ मेरा नाम जुड़ जाने के कारण मैं श्रेष्ठ सम्मान और गौरव का अधिकारी हुआ।’’ 
महात्मा गाँधी यरवदा जेल भेज दिये गये। दो वर्ष तक कारावास में रहते-रहते जनवरी 1924 में वे काफी अस्वस्थ हो गये। पूना के सैसून अस्पताल के डा0 कर्नल मेडाॅक ने उनके पेट का आॅप्रेशन किया। वे मृत्यु के मुख से बाहर आये। 5 फरवरी 1924 को गाँधीजी को जेल से छोड़ दिया गया। 

कांग्रेस में अभी भी दो विचारधाराएँ कार्यरत थीं। एक का नेतृत्व पं0 मोती लाल नेहरू, देशबन्धु और स्वराज्य दल के अन्य सदस्य कर रहे थे तो दूसरी ओर महात्मा गाँधी के नेतृत्व में डा0 राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल आदि थे। बीच-बीच में दोनों दलों के बीच समझौता भी हो जाता था। राजनीति में प्रायः ऐसा होता रहता है। राजनैतिक मतभेद ही इसे कहना ठीक रहेगा। 

नवम्बर 1928 में साइमन कमीशन भारत आया। सभी जगह पर इसका पुरजोर विरोध किया गया। लाहौर में विरोधियों पर पुलिस द्वारा लाठी-चार्ज की गई। इसमें लाला लाजपत राय घायल हो गये। आखिर 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गई। सारा देश एक बार फिर दहल उठा। 

कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 21 दिसम्बर 1929 को पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पारित हो गया। स्वाधीनता के संकल्प के मसौदे को वर्किंग कमिटी द्वारा स्वीकार किया गया और 26 जनवरी 1930 को सारे देश में यह संकल्प स्वीकार किया गया। तभी से हर वर्ष 26 जनवरी को स्वाधीनता-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा जो अपना संविधान लागू होने पर 26 जनवरी 1950 से गणतन्त्र-दिवस के रूप में मनाया जाता है।

महात्मा गाँधी 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से 79 सहकर्मियों के साथ समुद्र्रतट के पास ‘दांडी’ नामक स्थान पर नमक-कानून का विरोध करने के लिए प्रस्थान किये। महिलाएँ सबसे आगे थीं। गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। श्रीमती सरोजनी नायडू सहित अनेक नेता गिरफ्तार किये गये। लोगों में इस नमक-आन्दोलन के प्रति एक विशेष उत्साह था। 

जनवरी 1931 में जेल से छूट कर महात्मा जी इलाहाबाद आ गये। यहाँ पंडित मोती लाल नेहरू काफी अस्वस्थ थे। आखिर 6 फरवरी 1931 को उनका निधन हो गया। महात्मा गाँधी काफी दुःखी थे क्योंकि एक-एक कर गोखले, तिलक, देशबन्धु, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, मौलाना मुहम्मद अली और पंडित मोतीलाल उन्हें छोड़ कर जा चुके थे। इसी समय वायसराय लाॅर्ड इरविन से गाँधीजी का एक समझौता हुआ जिसे ‘गाँधी-इरविन पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। 

गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने पर भी सहमति बनी और गाँधीजी 14 सितम्बर 1931 को द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने इंग्लैंड आ गये। इंग्लैंड में उन्होंने प्रधानमंत्री लायड जार्ज, जार्ज बनार्ड शा, कर्नल मेडाॅक (जिन्होंने गाँधीजी के पेट का आॅप्रेशन किया था) आदि से मिलकर प्रसन्नता व्यक्त की। गोलमेज कांफ्रेंस से लौटते समय वे विख्यात फ्रांसीसी साहित्यिक रोमाँ रोलाँ से मिलने उनके जेनेवा स्थित मकान पर गये। बाद में इन्हीं रोमाँ रोलाँ ने महात्मा गाँधी की जीवनी पर पुस्तक लिखी। गोलमेज कांफ्रेंस से लगभग खाली हाथ ही गाँधीजी लौट आये मगर भारत आने पर उनका भव्य स्वागत किया गया। 

सन् 1934 से 1940 तक महात्मा गाँधी अपनी सारी शक्ति ग्रामीण क्षेत्र की उन्नति और अन्य रचनात्मक कार्यों में लगाने के लिए कृतसंकल्पित हो गया। सन् 1934 में बिहार के उत्तरी भाग में आये भीषण भूकम्प में वे लोगों की सहायता करने के लिए आये। लेकिन उनका एक कथन कि यह भूकम्प अस्पृश्यता के पापों का फल है, सुनकर उनकी यहाँ काफी आलोचना हुई। फिर भी महात्मा गाँधी के आदेश पर ही डा0 राजेन्द्र प्रसाद और अन्य सारे कांग्रेसी नेता सेवा-कार्य में लगे रहे। एक  बार गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर दिल्ली आये हुए थे। शान्तिनिकेतन के लिए फंड जुटाने के लिए उनकी नृत्य-संगीत मंडली भी साथ थी। 

गाँधीजी ने मिलने पर पूछा कि इस अवस्था में इतना कष्ट क्यों करते हैं? आपको कितने पैसे मिल जाने से अब आप यह कष्ट नहीं उठायेंगे। गुरुदेव का संकेत मिलने पर गाँधी जी घनश्यामदास बिरला को ‘साठ हजार’ रुपये देने का आग्रह किये। यह थी गाँधीजी की सदाशयता। यह बात सर्वविदित है कि कई मुद्दों पर गुरुदेव और महात्मा गाँधी के बीच मतभेद थे मगर आपसी प्रेम और सम्मान में कभी भी कोई कमी नहीं आयी। दोनों एक-दूसरे का हृदय से आदर करते थे। 

स्वतन्त्रता के समग्र इतिहास को एक लेख में सहेजना बिल्कुल संभव नहीं है। फिर भी कुछ प्रमुख बिन्दुओं को स्पर्श करना आवश्यक भी है। इसी कड़ी में आता है, सन् 1942 का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’। यह बात अब भारत की जनता जान चुकी थी कि अंग्रेजी राज्य भारतीय इतिहास का एक कलंकमय अध्याय है और जितनी जल्दी इस कलंक के धब्बे को हटाया जा सके उतनी ही शीघ्रता से भारतीय जनता को त्राण मिलेगी। इधर अंग्रेज भी भारत में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपना रहे थे। मुसलमानों को अलग राज्य के लिए उकसाया जा रहा था। इधर गाँधी जी ने मुहम्मद अली जिन्ना को साथ ले चलने का बहुत प्रयास किया। मगर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिल पायी। इंग्लैंड फिर एक बार विश्वयुद्ध में उलझ गया। क्रिप्स के द्वारा भेजे गये प्रस्ताव को कांग्रेस कार्य समिति ने अस्वीकार कर दिया। इसमें पूर्ण स्वतन्त्रता का कोई आश्वासन नहीं था। इधर महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने से सम्बन्धित एक प्रस्ताव 8 अगस्त 1942 को बम्बई अधिवेशन में पास कराया। 

इसके पूर्व ही श्री एंड्रयूज़ का निधन अप्रैल 1940 में, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का निधन 7 अगस्त 1941 को तथा श्री जमुनालाल बजाज का निधन 11 फरवरी 1942 को हो जाने से बापू का हृदय विदीर्ण हो उठा था। 8 अगस्त 1942 की रात ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ और 9 अगस्त 1942 को ही महात्मा गाँधी सहित कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। पूना के आगा खाँ पैलेस में महात्मा गाँधी को कैद में रखा गया। सारे भारतवर्ष में गिरफ्तारियाँ होने लगी। आगा खाँ पैलेस में ही 15 अगस्त 1942 को महादेव देसाई का निधन हृदयगति रुकने से हो गया। वहीं उनकी अन्त्येष्टि की गई। इसी कैद में 20 मई 1944 को कस्तूरबा का निधन हो गया। उनका दाह-संस्कार भी आगा खाँ महल में किया गया। गाँधीजी ने तब कहा था- ‘‘जितना दुःख होने की बात सोची थी, उससे अधिक हो रहा है।’’ 20 मई 1944 को गाँधीजी को बिना शर्त रिहा कर दिया गया। 

इधर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस कलकत्ता से धनबाद होते हुए गोमो जंक्शन से देश के बाहर निकल भागे थे। उन्होंने ‘आजाद हिन्द फौज’ की स्थापना की। विश्वयुद्ध में वे जापान के साथ मिलकर भारत की स्वतन्त्रता-लड़ाई की योजना बना रहे थे। आजाद हिन्द फौज के भी बहुत से लोग गिरफ्तार थे। आखिर अप्रैल 1946 में महात्मा गाँधी जी के आग्रह पर श्री जयप्रकाश नारायण, डा0 राममनोहर लोहिया तथा आजाद हिन्द फौज के लोगों को जेल से रिहा किया गया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने मार्च 1946 में घोषणा किया कि भारत डोमिनियन के रूप में रह सकता है तथा इच्छा करने पर पूर्ण स्वतन्त्र भी हो सकता है। 

इधर जिन्ना साहब अंग्रेजों के रहते ही भारत का बँटवारा कराने के लिए बैचेन थे। गाँधीजी किसी भी कीमत पर देश का बँटवारा नहीं चाहते थे। भारत में उस समय लाॅर्ड बावेल वायसराय थे, जो भारत को छिन्न-भिन्न करना चाहते थे। भारत में कई स्थानों पर वीभत्स साम्प्रदायिक दंगे होने लगे। आखिर मार्च 1947 में लार्ड बावेल की जगह लार्ड माउण्टबेटन को भारत का वायसराय बना कर भेजा गया।  भारत आने के बाद लार्ड माउण्टबेटन भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वर्तमान परिस्थिति में भारत का विभाजन अनिवार्य है। 

आखिर कांग्रेस, लीग और अंग्रेजी सरकार की सम्मति से देश का विभाजन हुआ। देश आजाद हो गया मगर विभाजित होकर। भारत हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दो खण्डों में विभक्त हो गया। गाँधीजी का दिल भी टूट गया। जिस दिन 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर तिरंगा फहराया जा रहा था उस दिन गाँधीजी दिल्ली से बहुत दूर कलकत्ता में महादेव देसाई स्मृति-दिवस उपवास के साथ मना रहे थे। उस दिन उन्होंने केवल प्रार्थना की और गीता पाठ किया तथा सूत काटते रहे। उस दिन कोई वक्तव्य नहीं दिया। 

साबरमती का संत मौन हो गया था। सारा देश साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा था। मानवता बिल्कुल नंगी हो गई थी। देश में दंगों का दावानल भड़कता जा रहा था। बच्चे, औरतें, वृद्ध सभी मृत्यु के शिकार हो रहे थे। अंग्रेजों की विकृत मनोवृत्ति का परिणाम अब सामने था। इस देश की अवस्था देखकर गाँधीजी अत्यन्त चिन्तित हो उठे। कांग्रेस के सत्तासीन होते ही उसकी विकृतियाँ उजागर होने लगी। गाँधीजी इस स्थिति में कांग्रेस को भंग करने की सोचने लगे। उन्हें लगने लगा कि अब स्वतन्त्र भारत में उनकी बात ठीक से नहीं सुनी जा रही है।  
      
गाँधीजी ने 13 जनवरी 1948 को दिल्ली में साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए उपवास रख लिया। सभी सम्प्रदाय के नेताओं के आश्वासन पर 18 जनवरी 1948 को उपवास भंग किया। लोगों में एक अफवाह फैला दी गई कि गाँधीजी अल्पसंख्यकों के समर्थक हैं। इस बात को एक घटना से और भी हवा मिल गई कि भारत-विभाजन के समय सम्पत्ति के बँटवारे में पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपया देने के लिए गाँधीजी सहमत थे।

मगर पाकिस्तान द्वारा काश्मीर में आक्रमण करने के कारण भारत-सरकार द्वारा यह रुपया देना स्थगित कर दिया गया था। गाँधीजी का मत था कि इस विषय में उदार होने की जरूरत है और यह रुपया पाकिस्तान को दे देना चाहिए। भारतीय मंत्रीमंडल ने गाँधीजी की शैय्या के पास बैठक करके अपने पूर्व फैसले में परिवर्तन करके यह रुपया पाकिस्तान को देने का निर्णय किया। भारत में इसकी प्रतिक्रिया अच्छी नहीं हुई। गाँधीजी के विरोध में उग्र स्वर उभरने लगे। 

30 जनवरी 1948 की सुबह गाँधीजी ने कांग्रेस को भंग कर उसे ‘लोक सेवक संघ’ के रूप में परिवर्तित करने का एक मसौदा तैयार किया और अपने सेक्रेटरी प्यारे लाल के हाथ में दे दिया। मगर विधि को कुछ और ही मंजूर था। उसी दिन शाम को बिरला-निवास में प्रार्थना-सभा में जाते समय नाथूराम गोडसे नामक एक व्यक्ति ने पास आकर प्रणाम की मुद्रा में अपनी पिस्तौल से उन पर तीन गोलियाँ चला दी और वहीं ‘हे राम!’ कहते हुए बापू गिर पड़े। एक युग का अन्त हो गया। महात्मा गाँधी अब नहीं रहे। सारा देश शोकाकुल हो उठा। 

गाँधीजी की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। एक बार विनोबा जी से किसी ने पूछा था कि महात्मा गाँधी जी को केवल गाँधी कहा जाए अथवा गाँधी जी? विनोबा जी ने कहा था-‘‘यदि उन्हें व्यक्ति के रूप में मानते हो तो ‘गाँधी जी’ कहना चाहिए और यदि उन्हें विचार के रूप में मानते हो तो केवल ‘गाँधी’ कहना चाहिए।’’ वास्तव में महात्मा गाँधी स्वयं एक व्यक्ति से बढ़कर विचार हैं, वह विचार जो भारत की आत्मा को प्रकाश देता रहेगा। महात्मा गाँधी ने स्वयं कहा था-‘‘मेरा कोई अपना वाद नहीं है। गाँधीवाद कोई अलग चिन्तन नहीं है। सत्य और अहिंसा का प्रयोग भारतीय संस्कृति का अंग है और उसे ही सत्याग्रह के रूप में मैंने अपने जीवन में उतारा।’’ फिर भी गाँधीजी को अवतार घोषित करने का भी प्रयास किया गया। भारत की स्वतन्त्रता के लिए भगवान् के रूप में गाँधी का अवतार। मगर स्वयं गाँधीजी ने इसे सख्ती से दबा दिया और अवतारवाद की गाथा को पनपने नहीं दिया। यहाँ तक कि ‘महात्मा गाँधी की जय’ का नारा सुनकर भी वे नाराज हो जाते थे। कई बार इसके लिए लोगों को मना भी किया।

महात्मा गाँधी समय की नब्ज पहचानते थे। किसी भी आयोजन में बिलम्ब होने से उन्हें खीज होती थी। एक बार सन् 1925 में ढाका में एक जगह पर कार्यक्रम में जा रहे थे। सामने बड़ा पोस्टर लगा था, जिसमें बंगला में लिखा था- महात्मा गाँधी की वक्तृता-समय बारह बजे दिन। उन्होंने अपनी जेब से घड़ी निकाली। तीन बजने वाले थे। उन्होंने कहा- हमारी स्वतन्त्रता हमेशा तीन घंटा लेट रहेगी। ऐसा था उनके समय-पालन का संकल्प। 

महात्मा गाँधी के जीवन के 70 वर्ष पूरे होने पर डा0 राधाकृष्णन् के द्वारा उनके जीवन-वृत्त पर एक पुस्तक सन् 1939 में प्रकाशित की गई थी, जिसमें प्रख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन, पर्लबक, बर्टेण्ड रसेल और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के आलेख थे। डा0 राधाकृष्णन जब दिसम्बर 1947 में गाँधी जी से दिल्ली के बिरला-हाउस में मिले थे तो उन्होंने अपनी सद्यःकृति श्रीमद्भगवद्गीता को उन्हेेें समर्पण करने के लिए स्वीकृति मांगी। इस पर गाँधी जी ने हँसते हुए कहा था-‘‘आप तो मेरे कृष्ण हैं और मैं आपका अर्जुन, फिर इस महान ग्रंथ को मुझे कैसे समर्पित करेंगे।‘‘ मगर अन्त में गाँधीजी ने इसके लिए स्वीकृति दे दी। 

गाँधी सचमुच एक विचार थे। जहाँ कहीं भी मानवता कराहती थी, गाँधी वहाँ खड़े रहते थे। वे न तो कोई शास्त्रज्ञ थे और न दार्शनिक। उन्होंने राजनीति में आध्यात्मिकता का प्रयोग किया। 

आज भी अगर राजनीति को अध्यात्म की सुगन्धि से पवित्र कर दिया जाय तो यह मानवता का सौभाग्य होगा। मगर अध्यात्म में भी यदि राजनीति घुस जायेगी तो वह मानव-मात्र के लिए दुर्भाग्य होगा। इसलिए गाँधी आत्मा की आवाज सुनने के लिए आग्रह करते हैं। गाँधीजी जहाँ राजनीति को अध्यात्म के प्रकाश में आगे बढ़ाते हैं, वहीं समाज-सुधार के कार्यों में भी सात्त्विकता का समावेश करते हैं। वर्ण-भेद की समस्याएँ, नारी-अधिकार से जुड़ी समस्याएँ, दलितों की कथा-व्यथा, गरीबों और दीन-दुखियों की समस्याओं के समाधान के लिए गाँधीजी प्रयत्नशील दिखते हैं। नैतिकता के सहारे वे सामाजिक समस्याओं का समाधान ढ़ूँढ़ते हैं। 

प्रायः यह बात सभी जानते हैं कि बिड़ला-परिवार से गाँधीजी की घनिष्ठता थी। एक बार घनश्यामदास बिड़ला जी ने बापू से पूछा था-‘‘बापू ! आप जीवन भर तो अंग्रेजों से लड़ते रहे, अब आपकी लड़ाई किससे होगी ?’’ बापू ने तपाक से कहा था ‘तुमसे!’ यानी पूंजिपतियों के शोषण के विरुद्ध गाँधी जी की लड़ाई का यह संकेत था। गाँधीजी ने ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः‘‘ के साथ ‘‘सर्वे सन्तु निरामयाः‘‘ का भी नारा दिया। बापू का सर्वधर्म समभाव और दरिद्र नारायण की कल्पना, इसी चिन्तन के परिणाम थे। 

भारत गाँवों का देश है, इसलिए गाँधीजी ने गाँवों के विकास पर जोर देने की जो बात कही थी, वह अभी भी प्रासंगिक है। ‘ग्राम स्वराज्य’ स्थापित करने की उनकी परिकल्पना भारत के आर्थिक विकास की रीढ़ है। इसे आज भी मजबूत करने की आवश्यकता है। स्वदेशी आर्थिक आजादी और आत्मनिर्भरता भारत के विकास का मूल-मंत्र है - यह स्वप्न गाँधीजी ने बहुत पहले देख लिया था। मगर आज अपना देश अभी भी भूलभुलैया में भटक रहा है। 
      गाँधीजी के बारे में प्रख्यात इतिहासकार अनाल्र्ड टायनबी ने कहा था - ‘‘विज्ञान और प्रौद्योगिकी मानव की यदि दो महान् उपब्धियाँ हैं तो मानवीय सम्बन्धों का ह्रास उसकी महान् असफलता है। इसका सबसे अन्धकारमय क्षेत्र राजनीति का है। किन्तु निश्चित ही गाँधीजी ने बिना अपने दामन पर कोई दाग लगाये सत्ता से अलग रहकर राजनीति का भी अध्यात्मीकरण कर दिया।‘‘ इसलिए गाँधीजी न केवल कल के लिए प्रासंगिक थे, बल्कि आज के लिए भी हैं और आने वाले कल के लिए भी रहेंगे। वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने महात्मा गाँधी की मृत्यु पर श्रद्धांजलि देते हुए कहा था-‘‘आने वाले पीढ़ी को मुश्किल से यह विश्वास होगा कि हमारे बीच भी कोई हाड़-मांस का ऐसा आदमी था।’’ उस समय के अमेरिकी जनरल में आर्थर ने भी कहा था-‘‘किसी-न-किसी दिन दुनिया को गाँधीजी की बात सुननी ही पड़ेगी, नहीं तो हिंसा के रास्ते दुनिया का विनाश हो जायेगा।’’ इन सब उक्तियों के बीच शायद गाँधीजी की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।

सर एटेनबरो ने ‘गाँधी’ फिल्म सन् 1984 में बनाकर सारे विश्व को गाँधीजी की याद दिला दी। नई पीढ़ी इसे देखकर शायद चैंक गई होगी। ‘किंग्सले’ ने अपनी भूमिका में गाँधीजी को जीवन्त कर दिया। सर एटेनबरो के ‘गाँधी’ दर्शकों में एक सिहरन पैदा कर देते हैं। मगर गाँधी अभी भी भारत के सभी प्रमुख कार्यालयों में फोटो-फ्रेम में बँधे कुछ बेबस-से नजर आते हैं। भारत में कहाँ है ‘गाँधी’ और कहाँ है ‘गाँधीवाद’, शायद ढ़ूँढ़ने के लिए भटकना पड़ेगा। गाँधीजी को हर वर्ष दो अक्टूबर को जगाया जाता है और फिर उन्हें सुला दिया जाता है। आखिर गाँधी के साथ यह आँख-मिचैली का खेल कब तक चलता रहेगा?

गाँधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ भी कहा गया। मगर उनकी आलोचना भी कम नहीं हुई। हिन्दुओं ने उन्हें मुसलमानों का पक्षधर बतलाया तो मुसलमानों ने उन्हें हिन्दुओं का समर्थक कहा। उनकी अहिंसा को किसी ने कायर की नीति बतलायी तो उनके सत्य के प्रयोग को किसी-किसी ने अव्यावहारिक बतलाया। राजनीति में तो भतभेद होते रहते हैं मगर वेे किसी विषय के संदर्भ में होते हैं। कभी बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपत राय गरम-दल के नेता माने जाते थे तो गोखले जी और गाँधी जी को नरम-दल का नेता माना जाता था। कभी पंडित मोती लाल नेहरू और देशबन्धु चितरंजन दास गाँधीजी के सिद्धान्त से मत-भिन्नता प्रकट करते तो कभी नेताजी सुभाषचन्द्र के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर गाँधीजी की प्रतिक्रिया आती -‘पट्टाभि की हार मेरी हार है’’। अन्त में वैचारिक मतभेद से नेताजी को कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा। मगर इन सभी राजनैतिक मत-भिन्नताओं के बावजूद गाँधीजी भारत की राजनीति में सर्वाधिक शक्तिमान् होकर उभरते रहे। 

लाहौर लेजिसलेटिव एसेंबलि में 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बम फेंकने पर क्रान्तिकारियों ने जो पर्चा फेंका था, उसमें लिखा था-‘‘बहरों को सुनाने के लिए जोरदार धमाके की जरूरत है।’’ क्रान्तिकारी बम फेंक कर भागे भी नहीं। मगर 1931 में गाँधी-इरविन वार्ता के समय जब इन क्रांतिकारियों की फाँसी की सजा को भी एक मुद्दा बनाने की बात गाँधीजी से कही गई तो उनका उत्तर सकारात्मक नहीं था-ऐसा प्रायः कहा जाता है। इस बिन्दु पर गाँधीजी की आलोचना की जाती है। मगर गाँधी जी सभी आलोचनाओं का शान्तिपूर्वक सामना करते रहे। 

देश के बँटवारे का सख्त विरोधी होने पर भी उन्हें इसके लिए आलोचना सहनी पड़ी। यांत्रिक युग में चरखा चलाने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया गया। अपने ज्येष्ठ पुत्र हरिलाल गाँधी की विद्रोही मानसिकता के लिए भी गाँधी पर ही दोष मढ़ दिया गया। इसके साथ विश्व-मानवतावाद के परिप्रेक्ष्य मंे राष्ट्रीयता की धार कंुद करने का भी उन पर आरोप लगाया गया। शान्ति की आड़ मंे समझौतावादी होने का लेबल भी लगाया गया। मगर इन सबके बावजूद गाँधीजी  की महानता पर कोई आँच नहीं आई। उनका नाम राष्ट्र की रगों में एक प्रखर शक्ति बनकर उभरता रहा। कभी ’बापू’, कभी ’महात्मा’ तो कभी ‘साबरमती के सन्त’ के रूप में वे पूजित होते रहे। 

गाँधी जी ने अपने जीवन में कम-से-कम तीन क्रान्तियों- जातिवाद, नस्लवाद और हिंसा के विरुद्ध क्रान्ति  को एक नया आयाम दिया और कुछ हद तक उसे सफलता के सोपान तक भी पहँुचाया। उन्होंने उच्च साध्य के लिए पवित्र साधन की आवश्यकता पर भी बल दिया। साध्य और साधन का सीधा सम्बन्ध अच्छाई से होना चाहिए। 

विंस्टन चर्चिल ने उन्हें ‘अधनंगे फकीर’ की उपाधि दी। गाँधीजी के साथ सचमुच एक ‘महात्मा’ का प्रभा-मंडल जुड़ गया था, जो जीवन-पर्यन्त उनके साथ ही रहा। शायद उनकी हत्या के बाद यह प्रभा-मंडल और अधिक प्रकाशमान् ही हुआ है। 

आज गाँधी और गाँधीवाद की दुन्दुभि बजाने वाले नेता अपने काले-कारनामों से उन्हें बार-बार सलीब पर टाँग रहे हैं। इन तथाकथित नेताओं द्वारा बार-बार उनकी हत्या की जा रही है। भ्रष्टाचार का ताण्डव गाँधीवाद को चिढ़ा रहा है। अनीति की भीत्ति पर राजनीति का पौधा पनपाया जा रहा है। नैतिकता को लकवा मार गया है। समाचार-पत्रों और मीडिया में रोज नेताओं के किस्से छन कर आ रहे हैं। राष्ट्रीयता भी गूँगी होती जा रही है अथवा उसे गूँगी बनाने का उपक्रम चल रहा है। यह सब आज गाँधी के भारत में हो रहा है। 

कहाँ गई वह राष्ट्रीय चेतना की जागृति? आज भी कवि प्रदीप (श्री राम वचन द्विवेदी) का फिल्म ‘जागृति’ का गीत हर वर्ष 2 अक्टूबर, 26 जनवरी और 15 अगस्त को कानों में सुनाई पड़ता है-‘‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’’ और चैराहे पर आती-जाती भीड़ शायद शून्य में झाँक कर इसका अर्थ ढ़ूँढ़ना चाहती है। 

आज भी राजनीति भले ही गाँधी को विस्मृत करती जा रही है, मगर गाँधी अभी भी भारत की मिट्टी की गंध में, यहाँ की बहती हवाओं में, यहाँ के खेत- खलिहानों में, यहाँ के भोले-भाले लोगों की धड़कन में जीवन्त हैं। गाँधीजी की प्रासंगिकता अभी मरी नहीं है और न मरेगी। देश की हर पीड़ादायक घटना के पीछे आम आदमी चिहुँक कर बोल उठता है-‘काश ! आज गाँधी होते।’ देश की दुरवस्था सुधारने के लिए साबरमती आश्रम भी आज गाँधीजी को खोज रहा है। 

‘साबरमती के संत‘ आज का परिदृश्य देखकर शायद मौनव्रत पर चला गया है। उससे कौन कहे-‘तू मौन त्याग दे तपी आज।’ मौनता को हम सब भी ओढ़े हुए हैं। अपनी आत्मा की आवाज सुनें तो सही, शायद साबरमती का संत उसी माध्यम से कुछ बोल रहा हो! 
 
 
Ref. Picture source from Samacharjagat.com. Article source from Apani Maati Apana Chandan, Author- Sukhnandan singh saday.