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राजेन्द्र बाबू | RAJENDRA PRASAD | RAJENDRA BABU

हारिए न हिम्मत - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

 
 
नाम-राजेन्द्र प्रसाद 
 
जन्म- 3 दिसम्बर 1884
 
जन्म-स्थान-जीरादेई ग्राम [उस समय सारन जिले में था जो वर्तमान में सीवान जिलान्तर्गत है], बिहार
 
पिता- महादेव सहाय
 
मृत्यु -28 फरवरी 1963
 
 
डाॅ0 आर0 आर0 दिवाकर भूतपूर्व महामहिम राज्यपाल, बिहार, की एक पुस्तक है-‘Bihar through the ages', जिसकी भूमिका में डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है-‘‘वर्षों बिहार का इतिहास भारत का इतिहास रहा है।’’ इस पंक्ति में ही बिहार की गौरव-गरिमा अपने आभा-मंडल के साथ प्रतिबिम्बित है। देश के इतिहास-निर्माण में बिहार की अग्रणी भूमिका रही है। वैदिक काल के अनेक ऋषियों की तपःस्थली यह बिहार रहा है।
 
गायत्री-मंत्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र, वेदों के उद्गाता दृष्टिहीन महर्षि दीर्घतमस, उनके पुत्र काक्षीवान्,काक्षीवान् की पुत्री ‘घोषा’ वेदमंत्रों के महान् द्रष्टा के रूप में पूजित हैं, जो बिहार की भूमि की देन हैं। सृष्टि के आदि पुरुष मनु के पुत्र नभदेष्टि ने बिहार में जिस आदर्श राज्य की नींव डाली उन्हीं के वंशज और श्रेष्ठ शासक राजा विशाल हुए जिन्होंने वैशाली की स्थापना की। इसी वैशाली का गणतंत्र भारत का सबसे पुराना गणतंत्र है। बिहार के ही मिथिलांचल में महान् ब्रह्मज्ञानी विदेह जनक आये तो इसी भूमि पर न्याय और मीमांसा दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् ‘महिषी’ ग्राम के पं0 मंडन मिश्र हुए जिनकी विदुषी पत्नी ने आदि शंकराचार्य और अपने पति पं0 मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका अत्यन्त निष्पक्षता के साथ निभायी।
 
भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर की पवित्र भूमि होने के साथ-साथ यह महान् अशोक की भी जन्म-भूमि है। महर्षि याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी तथा गार्गी का आध्यात्मिक संदेश इसी भूमि से निःसरित हुआ है। आर्यभट्ट जैसे महान् खगोल शास्त्री, चन्द्रगुप्त जैसे महान् योद्धा, चाणक्य जैसे महान् नीतिज्ञ, पाणिनि और पतंजलि जैसे महान् तत्त्वज्ञानी इसी भूमि की देन हैं। दर्शनशास्त्र के महान् प्रणेता महर्षि कपिल और गौतम की भी तपोभूमि यहीं रही है।
 
दर्शनाचार्य वाचस्पति मिश्र, उदयनाचार्य, पक्षधर मिश्र, गंगेश उपाध्याय जहाँ अपने चिन्तन से इस भूमि को गौरवान्वित किए हैं, वहीं महान् कवि वररुचि और विद्यापति ने अपनी कृति से इसे महिमान्वित किया है। शस्त्र और शास्त्र के समन्वयक गुरुगोविन्द सिंह की भी पावन जन्मभूमि बिहार ही है। बिहार तो राष्ट्र-गौरव का कंठहार है।
 
ऐसे गौरवशाली बिहार में महापुरुषों के आविर्भाव का स्रोत कभी सूखा नहीं है और वह परम्परा समय के प्रवाह के साथ आज भी चलती रही है। देश की आजादी में सन् 1857 के स्वतन्त्रता-संग्राम में 80 वर्षों की उम्र में तलवार उठाने वाले बाबू कुँअर सिंह को भला कौन भुला सकता है? फिर जब लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, महात्मा गाँधी सरीखे नेताओं के निर्देशन में स्वतन्त्रता का आन्दोलन आगे बढ़ने लगा तो बिहार इसमें पीछे नहीं रहा और बढ़-चढ़ कर इस यज्ञाग्नि में उसकी सहभागिता रही। देश की आजादी  की आग सुलग रही थी। उसी समय बिहार की भूमि भी भगवान् बुद्ध और महावीर की गरिमा को याद कर जाग उठी और अनेक सपूत इस राष्ट्र-यज्ञ में समिधा बनकर अपनी आहुति देने आगे आ गये। हिन्दी के महान् कवि कलक्टर सिंह केसरी ने लिखा-
 
सिहरी बिहार की भूमि, बचा ले लाज तथागत की कोई,
यह लो मेरा राजेन्द्र, गर्व से बोल उठी ‘जीरादेई’।
 
‘जीरादेई’ यानी बिहार प्रान्त के सीवान जिला स्थित एक गाँव। कहा जाता है कि ‘जिरिया’ नाम की एक तेजस्विनी साध्वी, इस क्षेत्र के अरण्य में रहा करती थी, जिसके नाम पर इस जगह का नाम ‘जीरादेई’ पड़ गया। तथ्य चाहे जो भी हो पर राजेन्द्र बाबू की जन्म-भूमि होने के कारण तो सचमुच यह गाँव एक तपोभूमि बन गया है। यह गाँव वर्तमान सीवान जिला अन्तर्गत प्रतापपुर पंचायत में सीवान-मैरवा रोड पर जीरादेई मोड़ से 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। राजेन्द्र बाबू का जन्म इसी जीरादेई ग्राम [उस समय सारन जिले में था जो वर्तमान में सीवान जिलान्तर्गत है]  में 3 दिसम्बर 1884 को पिता श्री स्व0,  महादेव सहाय  के यहाँ हुआ। मुंशी महादेव सहाय फारसी और संस्कृत के विद्वान् के साथ-साथ यूनानी और आयुर्वेदिक चिकित्सा के भी अच्छे ज्ञाता थे। राजेन्द्र प्रसाद की माता धार्मिक प्रवृत्ति की एक ग्रामीण महिला थीं। माता जी की धार्मिक जीवन-चर्चा से बालक राजेन्द्र पर सुसंस्कार का गहरा प्रभाव पड़ा।
 
राजेन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव पर ही एक मौलवी की देखरेख में हुई। इसके बाद आठवीं कक्षा में वे छपरा जिला स्कूल में आ गये जहाँ उनके बड़े भाई महेन्द्र साह पहले से ही पढ़ रहे थे। छपरा जिला स्कूल से जब पढ़ाई पूरी कर बड़े भाई पटना के एक काॅलेज में पढ़ने के लिए आ गये तो राजेन्द्र बाबू का एडमिशन भी पटना के प्रख्यात टी0 के0 घोष एकेडमी में करा दिया गया। बड़े भाई की देख-रेख में ही राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई चलती थी। फिर जब बड़े भाई पटना से एफ0ए0 करके आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता आ गए तो राजेन्द्र बाबू का एडमिशन भी कलकत्ता के हथुआ राज स्कूल में करा दिया गया। इसी बीच आपकी शादी मात्र 13 वर्ष की अवस्था में ही बलिया जिले के रामपुर (दलन छपरा) निवासी श्री हरनन्दन सहाय की सुपुत्री सुश्री राजवंशी के साथ सम्पन्न हुई। उस समय राजेन्द्र बाबू के श्वसुर आरा में मुख्तार थे। इस विवाह के बारे में अपनी आत्मकथा में राजेन्द्र बाबू लिखते हैं-‘‘मुझे यह भी याद नहीं कि मेरे विवाह में मेरी क्या भागीदारी रही। बचपन में मेरी बहन गुड़िया-विवाह का खेल खेला करती थी। मेरा विवाह कुछ उस खेल की तरह था।’’ 
 
इधर कलकत्ता के हथुआ राज स्कूल में आपकी सेहत ठीक नहीं रहने लगी। इसलिए इन्हें फिर से छपरा जिला स्कूल में ही आना पड़ा। यहाँ के क्लास-शिक्षक श्री [स्व०] रसिक लाल राय ने इनकी प्रतिभा को निखारा और पढ़ाई में ये अव्वल आने लगे। शिक्षक श्री रसिक लाल राय जी बंगाली थे। राजेन्द्र बाबू उन्हें हृदय से सम्मान करते थे। राजेन्द्र बाबू के छात्र-जीवन के वे एक दीप-स्तंभ थे।
 

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद Dr. Rajendra Prasad का  शैक्षिक जीवन 

 
राजेन्द्र बाबू सन् 1902 में इण्टर की परीक्षा में कलकत्ता विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आये। इसके बाद कोलकाता में प्रेसिडेंसी काॅलेज में आपका एडमिशन हुआ और वहीं से आप एफ0 ए0, बी0ए0 तथा एम0 ए0 किए। सन् 1911 में आप कलकत्ता उच्च न्यायालय मंे वकालत भी करने लगे। उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति सर आशुतोष मुखर्जी थे जो कलकत्ता हाई कोर्ट के एक जज भी थे, राजेन्द्र बाबू को ‘लाॅ काॅलेज’ में अंशकालिक रूप से पढ़ाने के लिए नियुक्त कर लिये।
 
 
समय का चक्र एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ता जा रहा था। इधर देश के स्वतन्त्रता-संग्राम में भी उफान आ रहा था। वैसे तो राजेन्द्र बाबू 1905 से ही कांग्रेस की ओर आकृष्ट हो चुके थे। मगर विशेष रूप से जब सन् 1910 में वे महान् कांग्रेसी नेता गोपालकृष्ण गोखले के सम्पर्क में आये तो वे एक समर्पित कार्यकर्ता बन गये। गोखले जी ने उनसे कहा था-‘‘हो सकता है, तुम्हारी वकालत खूब चले।.....पर मुल्क का दावा भी कुछ लड़कों पर होता है।......हो सकता है कि इससे घर के कुछ लोग भी नाराज हो जायें मगर यह विश्वास रखो कि अन्त में सब लोग तुम्हारी पूजा करेंगे।’’ गोखले जी के ये शब्द राजेन्द्र बाबू के हृदय को छू दिए।
 
वे अपने बड़े भाई को अभिभावक की तरह मानते थे। सामने कहने की हिम्मत नहीं जुटा सके। आँखों के सामने परिवार का चित्र घूम जाता था। कितनी आशाएँ टिकी है उन पर। एक बार वे आई0 सी0 एस0 की परीक्षा देने के लिए इंग्लैंड भी जाने का मन बना चुके थे। कुछ लोगों ने पैसा इकट्ठा करके इनके लिए कोट आदि की व्यवस्था कर दिया था। मगर उनके पिताजी बिल्कुल सख्त हो गये। उस समय विलायत जाने का अर्थ होता था- धर्मच्युत होना। माता-पिता के आग्रह के सामने राजेन्द्र बाबू को झुकना पड़ा और विदेशी पोशाक तथा पैसे उन्होंने अपने एक साथी शुकदेव प्रसाद वर्मा को दे दिया। कुछ दिनों बाद पिताजी का देहावसान भी हो गया। श्री शुकदेव प्रसाद वर्मा जी बाद में पटना हाई कोर्ट के जज बन गये थे। राजेन्द्र बाबू विलायत नहीं जा सके थे।
 
 
अबकी बार का संदर्भ दूसरा था। राष्ट्र-सेवा का व्रत लेना था। गोखले जी को अपने निर्णय से अवगत कराना था। बड़े भैया से जब चर्चा हुई तो वे रो पड़े और साथ में राजेन्द्र प्रसाद भी रो पड़े। आँखों के सामने परिवार के भरण-पोषण का चित्र था। सारा परिवार राजेन्द्र बाबू के इस निर्णय से दुःखी हो रहा था। वहीं बहन ने तो यहाँ तक कह दिया-‘‘भैया, पहले तुमने विलायत जाने के लिए बाबू जी को रुलाया था और अब देश-सेवा के नाम पर हम सबको रुला रहे हो।’’
 
 
आखिर राजेन्द्र बाबू को देश-सेवा के लिए भैया की अनुमति मिल गई। सन् 1911 में राजेन्द्र प्रसाद को अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटि का सदस्य चुन लिया गया। इधर कलकत्ता हाई कोर्ट में वकालत भी करते रहे। सन् 1915 में उन्होंने एम0 एल0 की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसी समय 1912 में बिहार को बंगाल से अलग कर दिया गया और सन् 1916 में हाई कोर्ट की स्थापना हुई। राजेन्द्र बाबू अब पटना हाई कोर्ट में आकर वकालत करने लगे।
 
 
सन् 1917 में अप्रैल माह के प्रारम्भ में कलकत्ता में अखिल भारतीय कंाग्रेस की एक सभा में राजेन्द्र बाबू बिल्कुल गाँधीजी के बगल में ही बैठे, मगर संकोचवश परिचय का सूत्र नहीं जोड़ सके और इस पहली मुलाकात के बारे में वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं-‘‘कलकत्ता सभा में मैं गाँधीजी के बगल में बैठा था। मुझे ये नहीं मालूम था कि वे शुक्ल के साथ चम्पारण जाने वाले हैं। मैं चुपचाप बैठा रहा। मैंने गाँधीजी से एक बात तक नहीं कही।’’
 
 
9 अप्रैल 1917 को श्री राजकुमार शुक्ला के साथ गाँधीजी चम्पारण जाने के क्रम में पटना आ गये और शुक्ला जी उन्हें राजेन्द्र बाबू के आवास पर ले गये। इधर राजेन्द्र बाबू कलकत्ते से पुरी चले गये थे। पुरी से लौटने पर राजेन्द्र बाबू गाँधीजी से मिलने चम्पारण पहँुचे और वहीं पर गाँधीजी से इतने प्रभावित हुए और स्वयं गाँधीजी भी इनसे इतने प्रभावित हुए कि दोनों एक-दूसरे के पूरक बन गये।
 
 
पटना में अंग्रेजी दैनिक ‘सर्चलाइट‘ और हिन्दी साप्ताहिक ‘देश’ के प्रकाशन में आपकी अग्रणी भूमिका रही। सन् 1921 में आपने बिहार विद्यापीठ की स्थापना की। इसी समय गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने वकालत छोड़ दी। किसी ने पूछा- ‘‘आप इतनी चली हुई वकालत क्यों छोड़ दिए? राजेन्द्र बाबू ने हँसते हुए कहा-‘‘हमने वकालत छोड़ी कहाँ है? हम अब एक बहुत बड़ा केस अपने हाथ में ले लिये हैं-वह भारत माता की ही स्वतन्त्रता का केस है।’’ सचमुच वे इस केस को तब तक लड़ते रहे जब तक भारत स्वतन्त्र नहीं हो गया।
 
 
राजेन्द्र बाबू ने देश के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया और महात्मा गाँधी के कदम के साथ कदम मिलाकर चलने लगे।  विचार, व्यवहार और आदर्शवादिता के प्रति समर्पण ने उन्हें भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पर्याय बना दिया। वे शिक्षा, संस्कृति और कला के एक अद्भुत संगम बन गये। स्वतन्त्रता के अग्रदूत होने के साथ वे जन-सेवा के भी प्रबल पक्षधर थे। सन् 1934 में बिहार में आये भीषण भूकम्प में पीड़ितों की सहायता के लिए आपने संगठन बनाकर बहुत बड़ा काम किया। इसके पूर्व बिहार में सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन का सन् 1930-31 में नेतृत्व भी किया। इसी समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अभियोग चलाकर उन्हें छः माह कैद की सजा सुनाई गई। 14 दिसम्बर 1930 को उन्हें जेल से रिहा किया गया। ।
 
अब राजेन्द्र बाबू राजनीति के क्षितिज पर एक नक्षत्र की भाँति जगमगाने लगे थे। बम्बई में कांग्रेस का जब 48वाँ अधिवेशन अक्टूबर 1934 में हुआ तो उसकी अध्यक्षता राजेन्द्र बाबू ने की।  कांग्रेस-अध्यक्ष के रूप में उनका अध्यक्षीय भाषण अभूतपूर्व रहा और सारे देश का भ्रमण करके अपने कार्यकाल में उन्होंने कांग्रेस को एक संजीवनी शक्ति प्रदान की। वे राजनीति के छल-छद्म से बिल्कुल दूर रहते थे और सादगी की प्रतिमूर्ति थे। कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर कुछ कार्यकर्ताओं ने उन्हें सिक्के से तौलने का प्रस्ताव दिया। बहुत आग्रह करने पर उन्होंने कहा-‘‘अगर आप मुझे तौलना ही चाहते हैं तो चरखे से काटे गये सूत से तौलेंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी।’’
 
इतना ही नहीं एक बार सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्री गौरी शंकर डालमिया ने कलकत्ता में  सन् 1930 में ही राजेन्द्र बाबू को इक्कीस हजार रुपये की राशि समर्पित करनी चाही। मगर राजेन्द्र बाबू ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि इसे आप अपने पास रखें और अगर कोई जरूरतमंद मुझे दिखाई पड़ेगा तो उसका नाम सहायतार्थ सुझाते रहूँगा।  यह था उनका आदर्श।
 
राजेन्द्र बाबू की छवि एक जुझारू नेता के रूप में तब उभर कर आयी जब कांग्रेस-अध्यक्ष बनने के पूर्व बिहार के भूकम्प पीड़ितों की सहायता के लिए उन्होने अथक श्रम किया। इसके पूर्व वे 6 जनवरी 1933 को गिरफ्तार हुए थे और उन्हें पन्द्रह माह की सजा भी हुई थी। जेल से छूटने के बाद ही वे भूकम्प पीड़ितों की सहायता के लिए संगठन बनाकर क्रियाशील हुए थे। उनकी कर्तव्य-निष्ठा से पे्ररित होकर ही सन् 1935 में जब क्वेटा में भयंकर भूकम्प आया तो उन्हें क्वेटा भूकम्प सहायता सोसाइटी का अध्यक्ष बनाया गया।
 
अब वे गाँधीजी के इतने करीब आ चुके थे कि प्रायः हर बात में गाँधी जी उनसे परामर्श लेने लगे। एक बार तो गाँधीजी ने उनके बारे में अपने हृदय की बातें खोल कर कह दीं-‘‘राजेन्द्र बाबू के प्रेम ने मुझे अपंग बना दिया है। मैं उनके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता।.......राजेन्द्र बाबू का त्याग देश का गौरव है।‘‘
 
राजेन्द्र बाबू की उज्ज्वल, प्रगाढ़ देश-भक्ति और प्रकांड पांडित्य से अब सारा देश परिचित होने लगा था। इसलिए 15 दिसम्बर 1937 को उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा डाॅक्टर आॅफ लाॅ की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया।
 
सन् 1939 में कांग्रेस से अध्यक्ष पद से सुभाषचन्द्र बोस के इस्तीफे के बाद भारतीय कांग्रेस की राजनीति में कुछ कड़ुआहट आ गई। ऐसी स्थिति में अजातशत्रु के रूप में मान्य सबों के प्रिय राजेन्द्र बाबू को ही कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। हर विषम परिस्थिति मंें उन्होंने कांग्रेस को अपनी क्षमता से सम्भाला और स्थिति को बिगड़ने से बचाया । जब 17 नवम्बर 1947 को आचार्य कृपलानी ने भी कांग्रेस-अध्यक्ष से अपना त्याग-पत्र दे दिया तो उस समय भी राजेन्द्र बाबू ने ही इस पद का कार्यभार सम्भाला था।
 
सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में वे गाँधीजी के साथ अग्रिम पंक्ति में खड़े थे। इस आन्दोलन में राजेन्द्र बाबू की पटना में गिरफ्तारी हुई और उन्हें बाँकीपुर जेल में रखा गया। राजेन्द्र बाबू की गिरफ्तारी से आन्दोलन और भड़क उठा। 11 अगस्त 1942 को पटना में छात्रों ने सचिवालय के सामने राष्ट्रीय ध्वज फहराने का प्रयास किया। पुलिस ने आन्दोलनकारी छात्रों पर गोलियाँ चलाई और सात छात्र वहीं शहीद हो गये। पटना में आज भी उनकी स्मृति में पुराने सचिवालय के सामने शहीद-स्मारक बना हुआ है। आखिर 15 जून 1945 को राजेन्द्र बाबू को जेल से रिहा किया गया।
 
अब देश पर अंग्रेजों की पकड़ ढीली होती जा रही थी। दमन का चक्र तो अभी भी जारी था। मगर देश के लिए मर-मिटने वालों की टोली बढ़ती जा रही थी। इसी परिपे्रक्ष्य में 2 सितम्बर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार की स्थापना हुई जिसमें 12 मंत्री बनाये गए तथा राजेन्द्र बाबू कृषि और खाद्य मंत्री बने।
 
महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हर मोर्चे पर राजेन्द्र बाबू क्रियाशील थे। चाहे अछूतोद्धार हो, खादी और स्वदेशी की बातें हो, शिक्षा के प्रसार की योजना हो, साम्प्रदायिक एकता की बात हो, मद्य-निषेध का अभियान हो, अस्पृश्यता निवारण के लिए प्रयास हो अथवा हरिजन-कल्याण की योजना हो, सभी जगह राजेन्द्र बाबू गाँधीजी की छाया बनकर छाये रहते थे। गाँधी जी का उन पर इतना अधिक विश्वास था कि एक बार उन्होंने हँसते हुए कहा था-‘‘राजेन्द्र बाबू एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें मैं जहर का प्याला भी दे दूँ तो वे निःसंकोच पी जायेंगे।’’
 
अन्तरिम सरकार के कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में राजेन्द्र बाबू ने अविस्मरणीय कार्य सम्पादित किया। इसी बीच भारत का संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का गठन किया गया जिसमें सभी प्रान्तों और सभी सम्प्रदायों के चुने हुए प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें केवल मुस्लिम लीग के चुने प्रतिनिधि शामिल नहीं हुए। उनकी पहली बैठक 9 दिसम्बर 1946 को हुई जिसमें डाॅ0 सच्चिदानन्द सिन्हा  को अस्थायी अध्यक्ष चुना गया। बाद में 11 दिसम्बर 1946 को राजेन्द्र बाबू को इस संविधान-सभा का स्थायी अध्यक्ष चुन लिया गया। संविधान-सभा के कुल  269 सदस्यों में मुस्लिम-लीग को छोड़ कर 210 सदस्य उपस्थित थे।
 
राजेन्द्र बाबू ने बहुत प्रयास किया कि संविधान-सभा में मुस्लिम-लीग की भी भागीदारी हो, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल पायी। मुस्लिम-लीग देश-विभाजन पर अड़ी रही। अंग्रेजों की कूटनीति भी ‘फूट डालो’ राजनीति के तहत देश-विभाजन की हवा बनाने में मुस्लिम-लीग का साथ देती रही। आखिर ब्रिटिश-संसद ने जुलाई 1947 में ‘इंडियन इंडिपेंडेंस बिल’ पास कर दिया और इसके अनुसार 15 अगस्त 1947 से ‘भारत’ और ‘पाकिस्तान’ नाम से दो राष्ट्रों का उद्भव हुआ। देश आजाद तो हो गया मगर विभाजन की पीड़ा के साथ। ब्रिटिश-सरकार ने संविधान-परिषद् के अध्यक्ष डा0 राजेन्द्र प्रसाद को यह सत्ता हस्तान्तरित किया।
 
डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान-सभा के अध्यक्ष के रूप में संविधान-निर्माण के लिए अपनी सदस्यता और  तेजस्विता का अद्भुत परिचय दिए। उनकी अध्यक्षता में 11 दिसम्बर 1946 से प्रारम्भ हुआ संविधान-निर्माण का कार्य 24 जनवरी 1950 को पूरा हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारत में अपना संविधान लागू किया गया। 15 अगस्त 1947 भारत का स्वतन्त्रता-दिवस हुआ तो 26 जनवरी 1950 गणतन्त्र-दिवस। 24 जनवरी 1950 को ही संविधान सभा ने सर्वसम्मति से राजेन्द्र बाबू को भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुन लिया। 26 जनवरी 1950 से 12 मई 1962 तक वे भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति रहे। गाँधी जी ने एक समय कहा था-‘‘भारत का पहला राष्ट्रपति वही होगा जो ईश्वर का भक्त है, साहसी और निर्भीक है तथा जो अपने को जनता का सेवक समझता है।’’
 
राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति बन जाने पर गाँधीजी की यह उक्ति अक्षरशः सत्य साबित हुई। राजेन्द्र बाबू ने भी राष्ट्रपति बनने पर अपने भाषण में कहा-‘‘मैं गाँव का रहने वाला अनाड़ी आदमी हूँ। मैं शहर के तौर-तरीके से अनजान हूँ। इसलिए आप लोग मुझ पर अपनी उदारतापूर्वक कृपा को बनाये रखना, ताकि मैं अपने कार्यों का सम्पादन भली-भाँति कर सकूँ।’’ कितनी सादगी और साफगोई झलकती है इन शब्दों में, निर्झर की तरह निश्छल।
 
राजेन्द्र बाबू ने राष्ट्रपति की गरिमा के अनुकूल एक कीर्तिमान स्थापित किया। राजनीति के छल-छद्म से दूर, मिथ्याचार से सर्वथा अलग, भारतीय संस्कृति की जीवन्त प्रतिमा की तरह आप आजीवन रहे। इसलिए किसी ने उन्हें ‘देशरत्न’ कहा तो किसी ने उन्हें ‘विदेह’ कहा। किसी ने ‘अजात शत्रु‘ कहा तो किसी ने ‘बिहार का गाँधी’ भी कहा। किसी ने ‘त्याग मूर्ति’ कहा तो किसी ने ‘देशपूज्य’ कहा। कहाँ तक नाम गिनाया जाय? सारे विशेषण उनके व्यक्तित्व के सामने बौने पड़ जाते थे।
 
30 जनवरी 1948 को गाँधीजी की हत्या से वे मर्माहत हो उठे। एक साया उनके सर के ऊपर से उठ गया। बापू की याद में उन्होंने ‘गाँंधी स्मारक निधि’ की स्थापना की, जिसके वे स्वयं अध्यक्ष रहे। बापू द्वारा चलाये गये कार्यक्रमों को प्राथमिकता के साथ आगे बढ़ाने के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। आजीवन वे बापू के सिद्धान्तों के पुजारी रहे।
 
राजेन्द्र बाबू के अन्तर्मन में एक लेखक भी पलता था। इसलिए उन्होंने सरल भाषा में कई पुस्तकें भी लिखीं, जिसमें आत्मकथा, खंडित भारत, बापू के कदमों में, गाँधीजी के साहित्य और संस्कृति प्रमुख हैं। उनकी ‘आत्मकथा’ तो सच्चाई और सरलता का एक जीता-जागता दस्तावेज है। इस आत्मकथा का प्रारम्भ 1940 में राजस्थान के सीकर में हुआ जहाँ वे सेठ जमना लाल बजाज के पैतृक ग्राम में स्वास्थ्य-लाभ प्राप्त कर रहे थे। इसकी समाप्ति 24 अगस्त 1946 को ‘पिलानी’ में हुई ।
 
यह आत्मकथा समर्पित है उनके अभिभावक तुल्य अग्रज श्री महेन्द्र प्रसाद की पुण्य स्मृति को, जिनका निधन सन् 1934 में ही हो गया था। इसका प्राक्कथन सरदार वल्लभभाई पटेल ने लिखा है। इसमें डाॅ0 राधाकृष्णन् ख्हिन्दू विश्वविद्यालय काशी के तत्कालीन कुलपति, , पुरुषोत्तम दास टंडन, आचार्य नरेन्द्र देव और वियोगी हरि की सम्मतियाँ भी हैं। इस आत्मकथा में 160 शीर्षक हैं। वाल्मीकि चैधरी की देख-रेख में तथा हिन्दी मनीषी आचार्य शिवपूजन सहाय जी द्वारा पांडुलिपि के निरीक्षणोपरान्त इसका प्रकाशन जनवरी 1947 में साहित्य-संसार, पटना द्वारा किया गया है। राजेन्द्र जी के शब्दों में-‘‘एक प्रकार से यह संस्करण सच्चा संस्करण है, क्योंकि इसमें केवल उन्हीं बातों का उल्लेख है जो लिखते समय स्मृति में आ गई.....।’’ इसमें एक परिशिष्ट भी जोड़ा गया है।
 
भगीरथ के पवित्र जल के समान उनके विमल व्यक्तित्व में अभिमान लेशमात्र भी नहीं था। राष्ट्रपति-भवन में भी वे रोज दो-तीन घण्टे पूजा किया करते थे। उनका प्रिय वाक्य था-‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’ यानी जो व्यवहार अपने को प्रतिकूल लगे, उसे दूसरे के साथ नहीं करना चाहिए। अपने आचरण में वे इस सत्य को अक्षरशः उतार दिए। उनकी कथनी और करनी में तिल भर भी अन्तर नहीं था। वे ‘मानस’ के भक्त थे।
 
उनकी शालीनता और विद्वता से प्रभावित हो काशी विद्वत् परिषद् ने उन्हें ‘विद्या वाचस्पति’ की उपाधि दी। सागर विश्वविद्यालय और मैसूर विश्वविद्यालय द्वारा भी ‘डाॅक्टर आॅफ लाॅ’ की उपाधि दी गई। पटना विश्वविद्यालय द्वारा डाॅ0 आॅफ लिटरेचर’ की मानद डिग्री दी गई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय तो पहले ही डाॅ0 आॅफ लाॅ’ की मानद उपाधि दे चुका था। दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी उन्हें ‘डा0 आॅफ सिविल लाॅ’ की उपाधि से विभूषित किया। मगर ये सारी उपाधियाँ उनके व्यक्तित्व की विराटता में समाहित हो गईं। कोई भी सम्मान उनसे खुद सम्मानित हो जाता था।
 
राजेन्द्र बाबू ने देश के प्रथम राष्ट्रपति पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद भी अपनी सरलता पूर्ववत् बनाये रखी। सन् 1956-57 में कलकत्ता विश्वविद्यालय  का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था। राजेन्द्र बाबू को उस आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। उन्होंने अपनी स्वीकृति तो दे दी मगर एक शर्त भी लगा दी कि मेरे समय के जितने प्रोफेसर जीवित हों, उन्हें भी आमंत्रित किया जाय। आयोजकों ने बहुत परिश्रम करके ऐसा ही किया। बाद में जब राजेन्द्र बाबू वहाँ गये तो सबसे पहले अपने प्राध्यापकों को पैर छू कर प्रणाम किये।
 
इतना ही नहीं इस शताब्दी समारोह में वहाँ के कुलपति और बंगाल के मुख्यमंत्री विधानचन्द्र राय भी अंग्रेजी मंे ही बोले, जबकि राजेन्द्र बाबू ने धारा-प्रवाह बंगला में बोलकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। उस दिन का दीक्षान्त समारोह कलकत्ता विश्वविद्यालय के लिए एक यादगार बन गया।
 
राजेन्द्र बाबू की वाक्पटुता उनकी सहजता से घुल-मिलकर और अधिक महिमान्वित हो उठती थी। एक बार वे राष्ट्रपति के रूप मंे मद्रास के किसी कार्यक्रम में गए। उस समय मद्रास के गवर्नर श्रीप्रकाश थे। उन्होंने कहा कि अभी मद्रास में हिन्दी-विरोधी आन्दोलन हो रहे हैं, इसलिए आपका वहाँ जाना ठीक नहीं रहेगा। लेकिन राजेन्द्र बाबू नहीं माने और उस कार्यक्रम में गए। उन्होंने अपने सम्बोधन मंे कहा-‘‘मुझे मालूम है कि आप उत्तर के लोगों से अप्रसन्न हैं।
 
आपका कहना ठीक है कि भगवान् ने भी आपके साथ पक्षपात पूर्ण नीति अपनायी। यह ठीक है कि राम-कृष्ण आदि सारे अवतार उत्तर भारत में ही हुए लेकिन आप यह क्यों भूल जाते हैं कि सारे आचार्य तो दक्षिण से ही आये। यदि ऐसा नहीं होता तो उन अवतारों की भाषा को व्याख्या करके समझाता कौन? इसलिए इन आचार्यों के हम सदैव कृतज्ञ रहेंगे।’’ राजेन्द्र बाबू के इस कथन से विरोध के स्वर अभिनन्दन में बदल गये। ऐसी वाक्पटुता थी उनमें।
 
वे बारह वर्षों से भी अधिक समय तक भारत के राष्ट्रपति रहे। वे अपने विदेशी अतिथियों से भी इतनी आत्मीयता से मिलते थे कि वे उनकी विनम्रता के कायल हो जाते थे। उनका आडम्बरहीन व्यक्तित्व ही उनका सबसे बड़ा आकर्षण था। वे लोकतन्त्र के एक सजग प्रहरी और मानवीय मूल्यों के सर्वोत्तम पक्षधर थे।
 
13 मई 1962 को राजेन्द्र बाबू को भारतरत्न की उपाधि से विभूषित किया गया। इसी दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में उनकी विदाई का आयोजन किया गया। इस भाव-भीनी विदाई की अध्यक्षता डा0 राधाकृष्णन् कर रहे थे। सभी वक्ताओं की आँखें नम थीं। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा-‘‘आपके राष्ट्रपति के पद पर रहने का बारह सालों का जमाना भारत का अच्छा जमाना गिना जाएगा। यह बारह साल का जमाना ‘राजेन्द्र युग’ के नाम से जाना जायेगा।’’ लाल बहादुर शास्त्री जी ने कहा कि राजेन्द्र बाबू में विदेह जनक के सारे गुण थे। सेठ गोविन्द दास ने कहा-‘‘अपने राष्ट्रपतित्व काल में राजेन्द्र बाबू भरत की भाँति ही राष्ट्रपति-भवन में सदा गाँधी को पूजते रहे।’’
 
डा0 राधाकृष्णन् ने कहा-‘‘राजेन्द्र बाबू इस युग की एक विभूति हैं। उनकी सादगी, विनम्रता और त्याग बेमिसाल है।’’ राजेन्द्र बाबू  बग्गी में सवार होकर रामलीला मैदान से दिल्ली स्टेशन जा रहे थे और सड़क के दोनों ओर अपार भीड़ अश्रुपूरित नेत्रों से अपने अभूतपूर्व राष्ट्रपति को हाथ जोड़ कर विदा दे रही थी।
 
लोगों की आँखें इस विदा-बेला में छलछला आयी थीं। स्टेशन पर ट्रेन सज-धज कर खड़ी थी। बाबूजी टेªन में सवार हो गए। उधर से नेहरू जी आये और गले मिलकर रोने लगे। बाबू जी भी उसी स्वर में रोने लगे। यह दृश्य देख कर प्लेटफार्म पर खड़े सारे लोग भी रोने लगे। बाबू जी 13 मई 1962 को दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो गए।
 
14 मई 1962 को पटना स्टेशन पर तिल धरने की भी जगह नहीं थी। राजेन्द्र बाबू के पटना पहुँचते  ही सारा वातावरण उनकी जयकार से गुंजायमान हो उठा। लगता था कि सभी पटनावासी ही स्टेशन पर उतर आये हैं। स्टेशन से सदाकत आश्रम जाते समय रास्ते में भव्य स्वागत हो रहा था। सभी अपने पूर्व  राष्ट्रपति की एक झलक पाने के लिए बेताब थे।
 
सदाकत आश्रम अब एक तीर्थ-स्थल बन गया था। बाबू के आगमन से इसमें नया प्राण संचार हो गया था। मगर समय-चक्र भी अपनी गति से घूम रहा था। अभी चार महीना भी नहीं गुजरा था कि 9 सितम्बर 1962 को धर्मपत्नी राजवंशी देवी का देहान्त हो गया। बाबू जी अवाक् सब देखते रहे।
 
इसी समय देश पर चीनी आक्रमण हुआ। राजेन्द्र बाबू अपनी अस्वस्थता के बावजूद भी पटना के गाँधी मैदान में गए और ललकारते हुए कहा-’’हिंसा हो या अहिंसा, हमें चीनियों से जमकर मुकाबला करना है।’’ बाबू जी के इन शब्दों ने जनमानस को झकझोर दिया था।
 
समय की सूई आगे सरकती रही। बाबू जी को 28 फरवरी 1963 को एक कार्यक्रम में भाषण देने जाना था। वे तैयार होकर जाने वाले ही थे कि उनकी तबीयत अचानक खराब हो गई। देखते-ही-देखते दृश्य बदल गया। डाॅक्टर भी आए। मगर विधि को कुछ और ही मंजूर था। सबके देखते-देखते रात्रि के 10 बजे वे देहमुक्त हो गये और सचमुच विदेह हो गये। वे अपने धाम को चले गये और सदाकत आश्रम सूना रह गया। बस उनकी अन्तिम आवाज ‘राम हो’ चारों तरफ अभी भी गूँज रही थी। अगले दिन पटना के बाँस घाट पर अन्तिम संस्कार किया गया। सारा देश एक बार रो पड़ा। अजातशत्रु चला गया। भारत का एक सूर्य अस्त हो गया। बाबू जी का प्रिय वाक्य था -
 
‘‘हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरि नाम। 
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।’’
 
और उनकी चिता-अवशेष पर भी ‘राम हो’ लिख दिया गया। सामाजिक संस्कृति की साकार प्रतिमा हमारे बीच से उठ गयी। राजा राधिका रमण ने कहा-‘‘बाबू तो उठ गये लेकिन हमलोगों का मन बैठ गया।’’ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा-‘‘राजेन्द्र बाबू इस युग की एक मजबूत कड़ी थे। उनकी आँखों में सच्चाई झलकती थी। उनकी काबिलियत, उनके दिल की सफाई और अपने मुल्क के लिए उनकी मोहब्बत ने हर भारतवासी के दिल में गहरी जगह बना ली है।’’
 
डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने कहा-‘‘राजेन्द्र बाबू एक महान् दिव्य आत्मा पुरुष थे। राष्ट्र उनके त्यागमय जीवन को सदा याद रखेगा। उनका जीवन सदा हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा। उन पर जनक, बुद्ध तथा गाँधी की छाप थी।’’ देश-विदेश से शोक-संदेशों का ताँता लग गया। उनमें एक संदेश इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ का भी था, जिसमें उन्होंने लिखा था-‘‘मैं जितने दिन राष्ट्रपति-भवन में रही मुझे यह नहीं मालूम पड़ा कि मैं भारत के राष्ट्रपति के साथ रह रही हूँ।
 
हर क्षण ऐसा लगा कि मैं अपने पिता के पास हूँ।’’ शायद इस संदेश को लिखते समय महारानी एलिजाबेथ को वह प्रसंग याद हो आया होगा - जब वह राष्ट्रपति-भवन में अतिथि थीं तब राष्ट्रपति ने उन्हें अपनी आत्मकथा की एक प्रति भंेट की थी। एलिजाबेथ ने तब पूछा था-‘‘आप इतने व्यस्त जीवन मंे यह पुस्तक कैसे लिख पाये?’’ तब राजेन्द्र बाबू ने हँसते हुए कहा था-‘‘आपके पिताजी की कृपा से, क्योंकि उन्होंने मुझे जेल में रख दिया और यह पुस्तक लिखी गई।’’ वातावरण तब हँसी मंे बदल गया था।
 
राजेन्द्र बाबू नहीं रहे मगर उनकी सादगी और आदर्शवादिता की कहानी कभी खत्म होने वाली नहीं है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि राष्ट्रपति-भवन में जब उनके एक पुराने शिक्षक आये तो उन्होंने उन्हें राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा दिया। किसी ने जब उनसे पूछा कि राष्ट्रपति की कुर्सी पर क्यों बैठा दिया गया तो उन्होंने हँसते हुए कहा कि उस समय इससे ऊँची कोई दूसरी कुर्सी वहाँ नहीं थी। ऐसा था उनका एक पूर्व शिक्षक के प्रति सम्मान।
 
आज हम शायद राजेन्द्र बाबू की स्मृति को भूलते जा रहे हैं। सदाकत आश्रम, पटना का स्मृति-संग्रहालय उपेक्षित-सा है। अनेक दुर्लभ स्मृति-चिन्ह अब धूल फाँक रहे हैं। सदाकत आश्रम का यह ‘राजेन्द्र स्मृति संग्रहालय’ अब विस्मृत होता जा रहा है और ‘राजेन्द्र स्मृति संस्थान’ की स्थिति भी अच्छी नहीं है। उनकी जन्मस्थली ‘जीरादेई’ को ‘तीर्थस्थल’ तथा उनके पैतृक निवास को ‘राष्ट्रीय स्मारक’ सरकार द्वारा घोषित तो किया गया मगर कुछ खास काम नहीं किया गया। राजेन्द्र बाबू जैसे विराट व्यक्तित्व के लिए हमारे पास शायद सम्यक् श्रद्धांजलि विवेक नहीं है। अन्त में अपनी ही कुछ पंक्तियों से इस लेख का समापन करता हूँ-बाबू जी के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि के साथ-
 
‘‘जिनकी प्रतिभा में भारत का, स्वर्णिम गौरव बोल रहा है,
सत्य, अहिंसा, सदाचार का, सुरभित सम्पुट खोल रहा है।
जो अजातशत्राु बन करके, उच्चतम राष्ट्रपति पद पाये,
धर्मगीत-सा शुद्ध आचरण अपने जीवन में अपनाये।
त्याग-तपस्या से जिनका सारा जीवन पावन अभिमंत्रित,
तन, मन, धन सब देश हित में, जिसने हँस कर किया समर्पित।
राजनीति भी जिनको छू कर हो जाती थी अतिशय पावन,
आज याद कर उनकी, बरबस आँखों में आ जाता सावन।
ऐसे महामनीषी से ही विहँसित होते धरा-गगन हैं,
चरणों में शत-शत प्रणाम है और उन्हें शत बार नमन है।’’
 
आज ‘देश रत्न‘ हमारे बीच नहीं हैं पर उनके विचाररत्न बहुत काल तक इस देश का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
 
 
Ref. Article source from Apani Maati Apana Chandan, Author- Sukhnandan sindh saday. Picture source from subahsavere.news,