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वीर सुभाषचन्द्र बोस | VEER SUBHASH CHANDRA BOSE

 तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा -

 वीर सुभाषचन्द्र बोस

 
 
देश की आजादी के इतिहास में एक नाम जिसको सुनते ही भुजाएँ फड़कने लगती हैं, शिराओं में रक्त का उबाल होने लगता है, मस्तिष्क में राष्ट्रभक्ति के उफान का संगीत तड़ित की ज्योति बनकर धड़कने लगता है और हृदय में देश-प्रेम की पुकार हिलोरें लेने लगती हैं, तो वह नाम है, सर्वप्रथम स्वतंत्रता के लिए युद्ध का शंखनाद करने वाले महान् सेनानी सुभाषचन्द्र बोस का। सुभाष बाबू राष्ट्रीय संग्राम में सिंह-गर्जन करने वाले प्रथम योद्धा हैं जिन्होंने विदेश की भूमि से देश की स्वतंत्रता के लिए बलिदान करने वालों का आह्वान करते हुए कहा था- ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’’ आज भी नेताजी की वह शौर्यपूर्ण वाणी हमारे कानों में गूँज रही है। सच पूछें तो नेताजी ज्वलंत देश-भक्ति की प्रचंड ज्वाला के पर्याय थे और ‘हम करें राष्ट्र आराधन’ की शाश्वत-साधना की मूत्र्त-ध्वनि थे।
 
स्वतंत्रता के ऐसे महान् सेनापति सुभाषचन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा के कोडोलिया नामक ग्राम में 23 जनवरी 1897 को हुआ था। पिता रायबहादुर जानकीनाथ बोस कटक मुनिसिपालिटी तथा जिला-बोर्ड के प्रधान अधिकारी के साथ-साथ वहाँ के जाने-माने प्रतिष्ठित वकील भी थे। पूजनीया माता श्रीमती प्रभा देवी भी एक विदुषी महिला थी। आपके बड़े भाई का नाम शरदचन्द्र बसु था। सुभाष बाबू के बचपन के शिक्षक का नाम बाबू वेणी माधव था। सुभाष बाबू जब बच्चे थे, उस समय स्वामी विवेकानन्द विश्व-विजेता बनकर हिन्दूधर्म और सनातन संस्कृति का डंका विश्व के रंगमंच पर बजा चुके थे। स्वामी विवेकानन्द की वाणी में भारतीय राष्ट्र का आभा-मंडल और हिन्दूधर्म का ओज-तेज अपनी गौरवशाली संस्कृति की पूर्ण प्रभा के साथ सारे विश्व को आन्दोलित कर रहा था। इसी संदर्भ में एक दिन जब बालक सुभाष से उनके पिताजी ने पूछा कि तुम्हारे आदर्श कौन हैं? उस दिन सुभाष ने सीना तानकर गर्व से कहा- ‘‘मेरे आदर्श स्वामी विवेकानन्द हैं।’’
 
वह बालक अब धीरे-धीरे वयस्कता की ओर बढ़ने लगा और उसके जीवन में भारतीय संस्कृति और राष्ट्रभक्ति के ओज-तेज उभरने लगे। केवल 18 वर्ष की अवस्था में पे्रसीडेन्सी काॅलेज कलकत्ता में बी0ए0 आनर्स में प्रवेश और वहाँ से दर्शनशास्त्र में स्नातक प्रतिष्ठा में उत्तीर्ण होकर सन् 1919 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी, लन्दन में उनका दाखिला हुआ। लन्दन की शिक्षा में उत्कृष्टता के साथ उत्तीर्ण होने के बाद सन् 1920 में आई0सी0एस0 (I.C.S) की परीक्षा में बैठे। भारत के इस तेजस्वी युवा ने लन्दन में आयोजित I.C.S की परीक्षा में सन् 1920 में चतुर्थ स्थान प्राप्त करके सबको चकित कर दिया। उस समय I.C.S बनना बड़े गर्व की बात मानी जाती थी। मगर इस भारतीय युवा को कुछ और बनना था। 

आई0सी0एस0 पद इनके व्यक्तित्व के लिए छोटा पड़ रहा था। उसी समय भारत में असहयोग आन्दोलन की शुरुआत होने जा रही थी। युवा सुभाष का हृदय देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने के लिए मचल रहा था। अन्ततः देशभक्ति के सामने आई0सी0एस0 का पद हार गया और सुभाष बाबू ने 22 अप्रैल 1921 को आई0सी0एस0 के पद से त्यागपत्र दे दिया। भारत माता अपने इस सपूत को बुला रही थी और उसकी करुण-आवाज को सुनकर सुभाष बाबू देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने के लिए भारत आ पहुँचे। उस समय बंगाल के महान् नेता देशबन्धु चितरंजन दास थे। उन्होंने सुभाष बाबू की तेजस्विता को पहचाना और बंगाल में स्वतंत्रता-संग्राम के लिए कार्यरत स्वयंसेवक-सेना का इन्हें सेनापति नियुक्त कर दिया। 

आखिर एक दिन इस स्वयंसेवक-सेना के सेनापति को ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता-संग्राम का प्रथम प्रधान सेनापति भी तो बनना था। अंग्रेजों का अत्याचार उस समय चरम पर था। सुभाष बाबू स्वयंसेवक-सेना के सेनापति के रूप में अंगे्रजों के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई में देशबन्धु के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चल रहे थे। इसी समय 10 दिसम्बर 1921 को देशबन्धु के साथ सुभाष बाबू भी गिरफ्तार कर लिये गए। पहली बार ब्रिटिश सरकार के न्यायाधीश ने उन्हें छः महीने की सजा सुनाई और तब उन्होंने मजिस्ट्रेट से निर्भीक भाव से कहा था- ‘केवल छः महीने की सजा?’
 
सुभाष बाबू सन् 1922 में जेल से छूटकर आये। उसी वर्ष कांग्रेस पार्टी का सैंतीसवाँ अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। इस अधिवेशन में पं0 मोतीलाल नेहरू और देशबन्धु चितरंजन दास ने कई विषयों पर कांगे्रस से असहमति जताते हुए ‘स्वराज पार्टी’ की स्थापना की। सुभाष बाबू भी देशबन्धु के साथ ही रहे। वे उन्हें अपना मार्गदर्शक मानने लगे थे। इसके बाद सन् 1924 के नगरपालिका चुनाव में जहाँ देशबन्धु मेयर चुने गए वहीं सुभाष बाबू महापालिका के कार्यकारी अधिकारी। इस समय सुभाष बाबू की अवस्था मात्र 27 वर्ष की थी।
 
सुभाष बाबू की भूमिका राष्ट्र के स्वतंत्रता-संग्राम में बढ़ती जा रही थी और अंग्रेजों की आँखों में वे खटकने लगे थे। सन् 1924 के अन्त में ही उन्हें फिर जेल-यात्रा करनी पड़ी। इस बार बर्बर अंग्रेजी सरकार ने उन्हें दो वर्ष से भी अधिक जेल में बन्द रखा। इस बार जेल में रहते ही उन्हें यह मर्मान्तक सूचना मिली कि देशबन्धु चितरंजन दास का निधन (1925 में) हो गया है। जब 16 मई 1927 को वे जेल से छूटकर आए तो अपने अभिभावकतुल्य मार्गदर्शक नेता देशबन्धु की याद में मर्माहत हो उठे। अब पं0 मोतीलाल नेहरू भी फिर से कांग्रेस में आ गए थे। इसी क्रम में सन् 1928 के दिसम्बर माह में आयोजित कांग्रेस के पैंतालीसवें अधिवेशन में पं0 मोतीलाल नेहरू अध्यक्षता किए। इसी अधिवेशन में महात्मा गाँधी द्वारा प्रस्तुत एक प्रस्ताव में सुभाष बाबू ने संशोधन प्रस्ताव रखा था जो 1350 के मुकाबले 973 मतों से गिर गया। मगर सुभाष बाबू को इस अधिवेशन से अपार ख्याति मिली। अब वे कांग्रेस के भीतर क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रबल पक्षधर माने जाने लगे। अंग्रेजों के कान इस महान् क्रान्तिकारी नेता के विरोध में खड़े होने लगे। जब 23 जनवरी को ये अपना चैंतीसवाँ वर्षगाँठ (33 वर्ष पूरा होने पर) मनाने की तैयारी कर रहे थे, उसी दिन 23 जनवरी 1930 को इन्हें पुनः बन्दी बना लिया गया और इस बार एक वर्ष की सजा सुनायी गई। स्वतंत्रता-संग्राम का यह कालजयी पुरुष बार-बार की जेल-यात्रा से जरा भी भयभीत नहीं हुआ और अंग्रेजों के विरुद्ध उसकी लड़ाई के सुर और भी गहरे होते गए। देश के लिए सर्वस्व बलिदान करने के वे पक्षधर थे।
 
सन् 1931 में गाँधी-इरविन समझौता होने वाला था। सुभाष बाबू ने इस समझौते का मुखर विरोध किया। इसके पीछे कारण था कि 8 अप्रैल 1929 को लाहौर लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंकने के आरोप में महान् क्रान्तिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को फाँसी की सजा सुनायी गई थी। देश के क्रान्तिकारी विचारधारा वाले नेता चाहते थे कि गाँधी-इरविन वात्र्ता में इसे भी एक मुद्दा बनाकर उन क्रान्तिकारियों की रिहा की बात की जाय। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। सुभाष बाबू के प्रखर विरोध के बावजूद भी गाँधी-इरविन पैक्ट हो गया। सुभाष बाबू का क्रान्तिकारी भाषण अंगे्रजों को असह्य हो रहा था। 

अंग्रेजी सरकार ने क्षुब्ध होकर 2 जनवरी 1932 को उन्हें फिर हिरासत में ले लिया। इस बार सुभाष बाबू का स्वास्थ्य बार-बार की जेल-यात्रा से गिरने लगा। वे अत्यन्त कमजोर हो गए। इधर सुभाष बाबू के स्वास्थ्य में गिरावट का समाचार मिलते ही देशवासियों का आक्रोश फूट पड़ा। ब्रिटिश सरकार भी सकते में आ गई। ब्रिटिश सरकार उन्हें चिकित्सा के लिए 13 फरवरी 1933 को विलायत ले गई। कुछ दिन वेनिस में चिकित्सा के उपरान्त फिर स्विटजरलैंड भेजे गए। सुभाष बाबू का हृदय देश की आजादी के लिए बेचैन हो रहा था। इसी बीच एक मर्मान्तक घटना घटी। उनके पिता श्री जानकीनाथ बसु की तबीयत बहुत खराब हो गई। पिता के दर्शन के लिए ब्रिटिश-सरकार उन्हें 4 दिसम्बर 1934 को भारत लायी। पिता ने एक बार उनकी आँखों में देखा और फिर महाप्रयाण कर गए। सुभाष बाबू का हृदय विदीर्ण हो गया। 

जालिम ब्रिटिश-सरकार इस अवस्था में भी उन्हें नजरबन्द बनाए रखी। पिता के श्राद्ध के पश्चात् उन्हें फिर भारत से 10 जनवरी 1935 को ब्रिटेन के लिए रवाना कर दिया गया। आखिर उनके गिरते स्वास्थ्य के चलते उनका एक आॅपरेशन भी किया गया। इस बार कुछ स्वस्थ होने पर उन्हें ब्रिटिश-सरकार ने भारत भेजा और 8 अप्रैल 1936 को बम्बई में उनका आगमन हुआ। भारत की जनता उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ी। लाखों लोगों की भीड़ ने अपने इस अप्रतिम योद्धा का दर्शन किया। ‘सुभाष बाबू जिन्दाबाद’ के गगन-भेदी नारों से वातावरण गुंजायमान हो उठा। अंग्रेज-सरकार सुभाष बाबू के इस सम्मान से और बौखला गई। 

सुभाष बाबू फिर जेल में डाल दिए गए। जनता का आक्रोश उबल पड़ा। देशभर में 10 मई 1936 को सुभाष बाबू की रिहाई के लिए ‘सुभाष दिवस’ मनाया गया। तत्कालीन कांग्रेस पे्रसिडेंट पं0 जवाहर लाल नेहरू ने भी इस आह्वान में अपना योगदान दिया। सारे देश में सुभाष बाबू की रिहाई के लिए आन्दोलन जाग उठा। अन्ततः अंग्रेज-सरकार को झुकना पड़ा और 10 मार्च 1937 को सुभाष बाबू को रिहा कर दिया गया। सुभाष बाबू अब जनता की आवाज बन चुके थे। लाखों लोग उनके क्रान्तिकारी कदम के साथ कदम मिलाकर चलने लगे थे। सुभाष बाबू भारत में क्रान्तिकारी विचारधारावालों के एकछत्र-नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। राष्ट्र की युवाशक्ति उनके आह्वान पर हर तरह का बलिदान देने के लिए आगे आ रही थी।
 
राष्ट्रीय फलक पर महात्मा गाँधी कांग्रेस के सर्वोच्च पद पर आसीन थे। मगर सुभाष बाबू उनसे कई विषयों पर खुलकर मतभेद रखते थे। विशेषकर अहिंसा से स्वराज-प्राप्ति के वे धुर विरोधी थे। फिर भी अपने-अपने ढंग से दोनों देश की आजादी के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ रहे थे। इसी बीच कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में 29 जनवरी 1939 को कांग्रेस-अध्यक्ष के चुनाव में वे पट्टाभि सीतारमैया को हराकर अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए। गाँधीजी इस चुनाव में सीतारमैया के पक्षधर थे। इस जीत ने सुभाष बाबू के व्यक्तित्व को और ऊँचा उठा दिया। इधर गाँधीजी ने यह वक्तव्य दे दिया कि सीतारमैया की हार मेरी हार है। देश के कुछ नेताओं पर इस कथन का काफी प्रभाव पड़ा। सुभाष बाबू की जीत को वे लोग गाँधीजी की हार मानने लगे। इस प्रकार की परिस्थिति से अप्रसन्न होकर सुभाष बाबू ने 16 मई 1939 को कांगे्रस-अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और उन्होंने एक नई पार्टी ‘फारवर्ड ब्लाॅक’ के नाम से बनायी। यह पार्टी राष्ट्रवाद की क्रान्तिकारी अभिव्यक्ति बन गई।
 
इधर विश्व की राजनीति में भी हलचल पूरे उबाल पर था। सितम्बर 1939 में ही दूसरा विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो गया था। इस विश्वयुद्ध की आग में कई देश जलने लगे थे। ब्रिटेन भी इस युद्ध की विभीषिका से अपने को बचा नहीं सका। सुभाष बाबू का विचार था कि अंग्रेज इस समय संकट में हैं और यही समय अनुकूल है कि अपनी आजादी की लड़ाई और अधिक तीव्र किया जाय। इसी संदर्भ में उन्होंने सरकार के खिलाफ आन्दोलन छेड़ दिया। लाखों लोग उनके समर्थन में आगे आए। अंग्रेज-सरकार ने बौखलाकर उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया। इस बार सुभाष बाबू जेल में ही अनशन पर बैठ गए। सारा देश उनकी रिहाई के लिए अपना आन्दोलन तीव्र करने लगा। आखिर देश के आक्रोश के सामने एक बार फिर अंग्रेज-सरकार को झुकना पड़ा और दिसम्बर 1940 में सुभाष बाबू को रिहा कर दिया गया।
 
अपने देश में 31 दिसम्बर 1929 को लाहौर-अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की माँग का प्रस्ताव पारित हो गया था और इसके लिए सारे देश में 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता-दिवस के रूप में मनाया गया था। जनवरी महीना में ही नेताजी का जन्म दिन भी पड़ता है। इसी महीने में ही 16 जनवरी 1941 को देश की आजादी के नाम में एक और अध्याय जुड़ गया, जब इसी दिन रात में अचानक सुभाषचन्द्र बोस कलकत्ता से गायब हो गए। कलकत्ता से धनबाद (अभी झारखंड में) होते हुए वे ‘गोमो’ रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में सवार होकर अपनी क्रान्तिकारी यात्रा पर निकल पड़े। अंग्रेज-सरकार इस अप्रत्याशित समाचार से बौखला गई। कुछ अता-पता नहीं मिल रहा था। अंग्रेज-सरकार के पसीने छूट रहे थे।
 
इधर सुभाष बाबू एक पठान के वेश में अंग्रेजों की आँख में धूल झोंकते हुए पेशावर पहुँच गए। उनकी यह यात्रा अत्यन्त ही रोमांचक और विस्मयकारी थी। वे भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में विदेश का भी सहयोग लेना चाहते थे। उनकी योजना रूस जाने की थी। मगर विश्व-पटल पर परिस्थितियाँ बदल रही थीं। उन्हें रूस के बदले जर्मनी जाना पड़ा और 28 मार्च 1941 को वे बर्लिन पहुँच गए। बर्लिन में ही सुभाष बाबू द्वारा इण्डियन-लीजन की स्थापना की गई। जर्मनी में वे हिटलर से भी मिले। 

भारत की आजादी के लिए वे हर किसी से सहयोग लेना चाहते थे। अभी तक ब्रिटिश-सरकार उनकी खोज में एड़ी-चोटी एक कर रही थी मगर सुभाष बाबू अपने मिशन पर विदेश की धरती पर आगे बढ़ते जा रहे थे। उसी समय तत्कालीन ब्रिटिश भारतीय सेना के अफसर कैप्टन मोहन सिंह के ‘आजाद हिंद फौज’ की स्थापना का प्रस्ताव सुभाष बाबू को भेजा था। उसी समय बैंकाक में सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस ने भी ‘इंडियन इंडिपेंडेंट लीग’ की स्थापना की थी। आखिर 1 सितम्बर 1942 को सुभाष बाबू के द्वारा ‘आजाद हिन्द फौज’ की विधिवत् स्थापना की गई, जिसमें 19300 सैनिकों के एक डिविजन का गठन किया गया। इसके बाद 3 जून 1943 को सुभाष बाबू बर्लिन से टोकियो के लिए रवाना हुए। जापान-सरकार ने उनके मिशन में पूर्ण सहयोग देने का वादा किया। रासबिहारी बोस ने उनका हृदय से स्वागत किया। फिर भारत की आजादी के लिए अलख जगाते हुए वे टोकियों से सिंगापुर आ गए। 

सिंगापुर में 5 जुलाई 1943 को आबिद हुसेन के साथ मिलकर सुभाष बाबू ने ‘आजाद हिन्द फौज’ की शाखा के गठन की विधिवत् घोषणा की। इसी क्रम में 22 जुलाई 1943 को ‘झाँसी रानी रेजीमेंट’ का गठन हुआ। सुभाष बाबू ने अचानक एक दिन सिंगापुर रेडियों पर घोषणी की- ‘मैं सुभाष बोल रहा हूँ। सिंगापुर में भारत की अस्थायी सरकार बन चुकी है।’ प्रवासी भारतीयों में अब तक वे नेताजी के नाम से विख्यात हो चुके थे। सारा देश अपने ‘नेताजी’ की आवाज को पहचान चुका था। भारत की आजादी के लिए युद्ध का बिगुल विदेश की धरती से ‘नेताजी’ ने फूँक दिया था। उनकी ‘आजाद हिन्द सेना’ भारत की स्वतंत्रता का ध्वज फहराते हुए भारत की ओर बढ़ती आ रही थी। 

उनकी सेना अप्रतिम शौर्य के साथ भारत में ‘कोहिमा और इम्फाल’ तक अपना विजय ध्वज फहरा चुकी थी। सुभाष बाबू ने ‘आजाद हिन्द रेडियो’ से बोलते हुए कहा- ‘‘भारत की स्वतंत्रता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका है’’ और यह भारत के लोगों के लिए मंत्रवाक्य बन गया था। नेताजी के नाम पर अनेक गीत और नारे हवा में लहरा चुके थे। देश के कदम आजादी की राह पर बढ़ चले थे। नेताजी जापान की धरती से इस स्वतंत्रता-संग्राम की अगुआई कर रहे थे।
 
इधर विश्व में घटना-चक्र का परिदृश्य बड़ी तेजी से बदल रहा था। जर्मनी और जापान अलग-थलग पड़ गए थे। नेताजी का सपना पूरा होने के पहले ही जापान इस विश्वयुद्ध में हारने लगा था। अमेरिका एटम-बम से आक्रमण पर उतारू हो गया था। अन्ततः 5 अगस्त 1945 को हिरोशिमा और 9 अगस्त 1945 को नागासाकी पर अमेरिका द्वारा एटम-बम गिरा दिए गये। भयंकर जान-माल की हानि हुई। जापान को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अमेरिका द्वारा अणु-युद्ध का यह प्रथम प्रयोग था। जापान इस अमानवीय अणु-बम के आघात से बुरी तरह आहत हो गया था। अब नेताजी का जापान में रहना खतरे से खाली नहीं था। भारत का भाग्यचक्र एक बार फिर आहत हो उठा।
 
कहा जाता है कि 16 अगस्त 1945 को नेताजी का जहाज रंगून से अज्ञात दिशा की ओर रवाना हुआ और उसका कुछ अता-पता आज तक नहीं चल सका। उनकी इस हवाई-यात्रा का रहस्य अभी भी रहस्य ही बना हुआ है। यह राष्ट्र उस क्रान्तिवीर की प्रतीक्षा में अभी भी श्रद्धावनत हो किसी अप्रत्याशित अनुकूल समाचार की अपेक्षा रखता है।
 
नेताजी का निधन हवाई-दुर्घटना में हुआ अथवा वे इस घटनाक्रम के बाद भी जीवित रहे, इस रहस्य से पूरी तरह पर्दा नहीं उठ पाया है। कभी-कभी चमत्कारिक रूप से कोई घटना प्रचारित होती रहती है कि ‘नेताजी’ को कई लोगों ने देखा है। मगर यह सब सिर्फ हवा में ही उछलता रहा। आधिकारिक रूप से कई कमिशन भी बैठाये गए मगर कुछ ठोस नतीजा नहीं निकल पाया। अभी भी उनका निधन एक पहेली ही बना हुआ है।
 
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के विमान की लापता होने की खबर जो अगस्त 1945 में आई थी उसके करीब 70 वर्ष बाद 18 सितम्बर 2015 को पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा पुलिस म्युजियम कलकत्ता से नेताजी-सम्बन्धित 64 गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक किया गया है। इन फाइलों में नेताजी से सम्बन्धित अनेक घटनाक्रमों का विवरण है और इसमें कई चैंकाने वाले रहस्यमय तथ्य उजागर हुए हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि नेताजी और उनके परिवार की जासूसी भी कराई गई थी। इंटेजीलेंस ब्यूरो के 14 अधिकारियों द्वारा नेताजी के परिवार की जासूसी देश की आजादी के बाद सन् 1948 से सन् 1968 तक करवाई गई थी। 

अभी तो यह भी कहा जा रहा कि केन्द्र सरकार के पास भी 130 फाइलें हैं जिन्हें सार्वजनिक करने के लिए आवाजें उठने लगी हैं। अभी भी यह यक्ष-प्रश्न देश के सामने खड़ा है कि आखिर किस कारण से और किन लोगों द्वारा नेताजी से सम्बन्धित तथ्यों को अभी तक रोककर रखा गया था। मगर अभी भी रहस्य से पूरा परदा नहीं उठ पाया है। शायद कुछ और तथ्य भविष्य में उजागर हो सकेंगे। सारा देश अभी भी पूरे सच को जानने के लिए बेसब्री से इन्तजार कर रहा है। नेताजी के परिवार के लोग अभी भी सरकारी घोषणाओं से सन्तुष्ट नहीं हैं। नेताजी भारत के करोड़ों लोगों के हृदय में बसे हुए हैं और ये सभी लोग चाहते हैं कि नेताजी के बारे में रहस्य से परदा उठे और सारे सत्य उजागर हों।
 
इस सम्बन्ध में सत्यता चाहे जो भी हो मगर यह एक निर्विवाद सत्य है कि नेताजी आज भी करोड़ों देशवासियों केे हृदय में जीवित हैं। आज भी नेताजी का वह जीवन्त सम्बोधन ‘जय हिन्द’ हर भारतवासी के हृदय को छू जाता है। इस सम्बोधन में राष्ट्रीयता का तेजपुंज है, भारतीयता का ओज-शौर्य है और भारतमाता के विजय का उदात्त उद्घोष है। देश की आजादी के इतिहास में नेताजी का नाम स्वर्णिम अक्षरों में तो अंकित है ही, करोड़ों देशवासियों के हृदय में भी उनका सिंहनाद मुखरित है। हम जरा नेताजी के कुछ वाक्यांशों का स्मरण करें जिसमें इस देश की दशा की ओर इंगित करते हुए उन्होंने कहा था-
 
‘‘हमारे देश का सर्वस्व नष्ट हो चुका है तथापि निराश होने से काम चलेगा नहीं। हिन्दुस्तान के शस्य श्यामल खेत, यह ऋतम्भरा विश्वम्भरा धरती श्मशानचारी भूत-बैतालों की लीला-स्थली बन गई है। लेकिन हमें यह निष्क्रियता, नैराष्य, दुःख-दारिद्रय, निस्तब्धता सबको शक्तिमान् पुरुषार्थ पराक्रम में बदल देना है और हमें फिर से भारत का प्राचीन वैदिक राष्ट्रगीत गाना है- उत्तिष्ठत! जाग्रत!’’
 
एक स्वाधीन, स्वावलम्बी, सशक्त और स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए नेताजी ने जो मानदंड बतलाया था, उनके स्थान पर नैतिक मूल्यों में ह्रास, अनुशासन का सर्वाधिक अभाव और राजनीति का छल-छद्म देखकर हमारी अन्तरात्मा रो उठती है। शायद नेताजी की आत्मा और अन्य शहीदों की आत्मा भी देश की इस दुरवस्था पर आँसू बहा रही होगी।
 
नेताजी राष्ट्रीय जीवन में अनुशासन के प्रबल पक्षधर थे। उनकी इच्छा थी कि भारत में विद्यार्थी जीवन से ही बच्चों और बच्चियों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाय जिससे बड़े होने पर सभी अपने जीवन को अनुशासित रख सकें। नेताजी जब जापान में थे उस समय की एक रोचक घटना है। टोकियो के एक होटल में ऊपरी मंजिल पर बैठे हुए अचानक सुभाष बाबू ने देखा सामने के रोड पर कतारबद्ध होकर अनुशासित ढंग से बहुत से बच्चे कदम-से-कदम मिलाकर जा रहे थे। उन्होंने होटल के मैनेजर को बुलाकर पूछा कि ये बच्चे कहाँ जा रहे हैं? मैनेजर ने तब हँसते हुए कहा- ‘‘सर! ये लोग आपका ही भाषण सुनने जा रहे हैं।’’ यह सुनकर सुभाष बाबू स्तब्ध रह गए। उन्होंने मन-ही-मन कहा- ‘‘ऐसा अद्भुत अनुशासन अगर भारत के बच्चों में भर दिया जाए तो भारत का भविष्य कितना सुन्दर हो जायेगा।’’
 
इस दृश्य को देखकर सुभाष बाबू ने अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहा था- ‘‘मेरी बड़ी अभिलाषा है कि जब हमारा देश स्वतंत्र हो तो शुरू के बीस वर्षों में सब बच्चों को सैनिक जीवन के अनुशासन, भाईचारा, पे्रमनिष्ठा और राष्ट्रपे्रम की शिक्षा दी जाय। तब जीवन की पद्धति किसी को सिखलानी नहीं पड़ेगी और हमारे देशवासियों की तरफ कोई उँगली नहीं उठा सकेगा।’’
 
नेताजी के ये विचार आज और भी प्रासंगिक हो गए हैं। आज देश को यह जान लेने की जरूरत है कि देश का भविष्य तथाकथित राजनेताओं की तिकड़मी चाल में नहीं है और न सिद्धान्तविहीन राजनीति में है बल्कि भारत के अमर शहीदों के त्याग, बलिदान और आदर्श को अपनाने में ही राष्ट्र का वर्तमान और भविष्य दोनों सुरक्षित है।
नेताजी केे ‘सन्देश’ आज भी वह्नि-स्फुलिंग की तरह हमारे मस्तिष्क में कौंध उठते हैं। देश की आजादी के लिए विदेश की धरती से कुछ क्रान्तिकारी सन्देश जो उन्होंने दिया उसकी एक झलकमात्र हमें झकझोरकर कुछ सोचने के लिए बाध्य करती है।
 
‘आजाद हिन्द फौज’ के गठित होने पर उन्होंने कहा था- ‘‘साथियो! मेरे सिपाहियो! आपका नारा हो- ‘‘दिल्ली चलो, दिल्ली चलो’’। मैं नहीं जानता स्वाधीनता के इस युद्ध में कितने व्यक्ति जीवित बचेंगे, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अन्त में जीत हमारी ही होगी। हमारा कार्य तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक बाकी बचे हुए बहादुर सिपाही पुरानी दिल्ली के लाल किले के सामने साम्राज्य की दूसरी कब्र पर परेड न कर लेंगे।’’ क्या ऐसी क्रान्तिकारी आवाज आपने कभी सुनी है?
 
इसी क्रम में उन्होंने अपने भाषण में एक बार फिर कहा था- ‘‘हममें से कौन भारत को स्वतंत्र देखने के लिए जीवित रहेगा? हमारे लिए इतना ही बहुत है कि भारत स्वतंत्र हो और हम अपना सर्वस्व स्वतंत्रता के लिए दे दें। भगवान् हमारी सेना को आाशीर्वाद दें और भावी युद्ध में हमें विजय दें।’’ उन्होंने अंत में कहा- ‘‘इन्कलाब जिन्दाबाद! आजाद हिन्द जिन्दाबाद!’’ हमें नेताजी के आशीर्वाद से आजादी तो मिल गई लेकिन क्या हम उनकी उदात्त राष्ट्र-भावना का आज सम्मान कर रहे हैं?
 
आजाद हिन्द रेडियो जर्मनी से बोलते हुए उन्होंने सन् 1942 में कहा था- ‘‘सुबह से पहले अँधेरी घड़ी अवश्य आती है। बहादुर बनो और संघर्ष जारी रखो क्योंकि स्वतंत्रता निकट है।’’ आज उस स्वप्नद्रष्टा के उद्घोष के अनुसार स्वतंत्रता सन् 1947 में ही आ भी गई मगर क्या हम उस स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कुछ त्याग और बलिदान के साथ राष्ट्रीय अस्मिता को गौरवशाली बनाने में अपना थोड़ा भी योगदान दे पा रहे हैं?
 
सिंगापुर से प्रसारण में 1945 में उन्होंने एक तरह से अपना अन्तिम संदेश देते हुए कहा था- ‘‘मेरा अन्तिम सन्देश है, स्वतंत्रता की अग्नि सदैव जलाये रखना। मार्ग में आये कष्टों से घबड़ाना नहीं। जय हिन्द।’’
क्या स्वतंत्रता की वह आग अभी भी हमारे हृदय में धधक रही है? हमारा राष्ट्रीय चरित्र क्या उस महान् क्रान्तिकारी को याद कर देश के लिए कुछ न्योछावर करने को प्रेरित कर रहा है?
 
अन्त में एक जगह सिंगापुर में सैनिकों को ललकारते हुए नेताजी ने कहा था- ‘‘आज मैं आपसे एक सर्वोच्च बलिदान चाहता हूँ। मैं तुमसे रक्त चाहता हूँ। रक्त ही हमारे उस रक्त का बदला लेगा जिसे हमारे शत्रुओं ने बहाया है। रक्त ही स्वतंत्रता का मूल्य चुका सकता है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’’
आज हमारी नई पीढ़ी को नेताजी के इन क्रान्तिकारी संदेशों से प्रेरणा लेकर राष्ट्र के नव-निर्माण में अपनी सारी शक्ति लगा देनी चाहिए। यही उस महान् क्रान्तदर्शी नेता के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
 
 
Ref. Article source from Apani Maati Apana Chandan, Author-Sukhnandan singh saday, picture source from zeenews.india.com, keywords Subhashchandra Bose, veer subhashchandra bose.