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महाप्राण निराला | SURYAKANT TRIPATHI NIRALA

महाप्राण निराला - मैं अकेला निराला

किसी ने उस युग-कवि को ‘महाप्राण निराला’ कहा तो किसी ने उसे ‘मतवाला’ कहा। किसी ने उसे छायावादी युग का ‘कबीर ’कहा तो किसी ने उन्हें ‘मस्तमौला’ कहा । किसी ने उन्हें  सांस्कृतिक नवजागरण का ‘बैतालिक’ कहा तो किसी ने उन्हें सामाजिक-क्रान्ति का ‘विद्रोही कवि’ कहा । एक साथ उनके नाम के साथ इतना वैविध्य और वैचित्रय जुटता गया कि इनका जीवन और काव्य दोनों विरोधाभास के रूपक बनते गए। मगर ‘निराला’ सचमुच निराला ही बने रहे। लोगों के द्वारा दिये गये विशेषणों की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। वे एक साथ दार्शनिक भी थे, समाज-सुधारक भी थे, विद्रोही भी थे, स्वाभिमानी भी थे, अक्खड़ भी थे, फक्कड़ भी थे, उदारचेता भी थे और सबसे बढ़कर ‘महामानव’ थे। हमारे आत्मीय मित्र और हिन्दी-साहित्य के प्रख्यात कवि स्वर्गीय बालकवि आर्य ने निराला के रूप-वैविध्य का चित्रण करते हुए लिखा था-

काव्य गगन का सूर्य निराला,
छन्दों का था तूर्य निराला
झंकृत-स्वर का गान निराला,
नाद-शाक्ति की तान निराला
महाकाल का काल निराला,
तमक गया विकराल निराला
शान्त हुआ तो मोम निराला,
ठंडाया हरिओम् निराला।
हिन्दी का सिरमौर निराला,
स्वाभिमान में और निराला
भावों की वह घटा निराला,
अनुप्रासों की छटा निराला।।

स्व0 बालकवि जी की कविता के कुछ उद्धृत अंश शायद ‘निराला’ के रूप-वैविध्य को बहुत हद तक चित्रित करने में सफल हुए हैं। आखिर उनके व्यक्तित्व की इस विविधता का रहस्य क्या है ?

कवि अपने समय की पग-ध्वनि के साथ अपनी कविता के तार को जोड़ता है। समय की धड़कन उसकी रचना-धर्मिता में प्रतिबिम्बित होती है। कभी-कभी समय के थपेड़े से आहत होकर वह विद्रोही भी बन जाता है तो कभी-कभी सृजन की आग उसके चिन्तन को प्रकाशित करती है। विभिन्न सामाजिक और राष्ट्रीय परिस्थितियों से साहित्यकार कभी कटा नहीं रह सकता और समय के स्वर उसके शब्दों में मुखर हो उठते हैं। युग की पीड़ा और समय का दंश निराला के हृदय को भी सालता रहा और उनके भीतर से शब्द का लावा फूटता रहा। उनके शब्द कहीं अंगार बनकर निकले तो कहीं इन्द्रधनुष बनकर उतरे। इस महान् कवि की जीवन-यात्रा भी फूल और अंगारे के बीच से होकर चलती रही। एक सतत संघर्ष की कहानी उनके जीवन की निशानी बनकर रह गई।

‘निराला’ जी के पिताश्री [स्व०]  रामसहाय त्रिपाठी अपने पैतृक स्थान अवध को छोड़कर मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक स्थान पर जीविका की खोज में आ बसे थे। इसी महिषादल में सन् 1896 की बसन्त पंचमी के दिन ख्जनवरी महीने में, सूर्य कुमार का जन्म हुआ। वाणी का वरदपुत्र वाग्देवी वीणा-पाणि के पूजन के दिन ही बंगाल की धरती पर आया। पिता की नौकरी महिषादल रियासत में सिपाही के पद पर थी और पदोन्नति प्राप्त कर वे जमादार बन गये थे। उस समय के लिए यह एक सम्मानप्रद पद था। 

‘सूर्य कुमार’ के जन्म के तीन वर्ष बाद ही उनकी माताजी का निधन हो गया। जीवन में प्रथम आघात यहीं से शुरू हुआ। प्रारम्भिक पढ़ाई के लिए एक बंगला-पाठशाला में नाम लिखाया गया। तीन-चार वर्षों के बाद महिषादल के हाईस्कूल में पढ़ाई शुरू हुई। यहाँ बंगला के साथ-साथ अंग्रेजी की भी पढ़ाई होने लगी। मगर हिन्दी पढ़ने का अवसर नहीं मिल पा रहा था। परिवार में पैतृक गाँव से आये लोगों के माध्यम से रामचरित मानस का पाठ सुनने में बालक को अत्यधिक आनन्द आने लगा। धीरे-धीरे बंगला, अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत इन चार भाषाओं को वे सीखने लगे। उनकी प्रतिभा शनैः शनैः निखरने लगी। संगीत के प्रति भी अभिरुचि जगी। कुश्ती का भी अभ्यास करने लगे।

अभी चैदह वर्ष की अवस्था ही हुई थी कि इनकी शादी सुसंस्कृत विदुषी मनोहरादेवी के साथ हो गई। पत्नी को हिन्दी-ज्ञान बहुत अच्छा था। निराला जी हिन्दी सीखने के लिए अत्यधिक जागरूक रहने लगे। उनके भीतर की प्रतिभा जाग उठी। अब तो वे कविता भी करने लगे। स्कूल की पढ़ाई आगे नहीं बढ़ सकी। घर पर ही अब उनकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी। स्वाध्याय का क्षेत्र भी बढ़ता गया।

अभी उनकी अवस्था 23 वर्ष की भी नहीं हुई थी कि एक दूसरा आघात आ पहुँचा और उनकी पत्नी का एक महामारी में मैके में ही सन् 1919 में निधन हो गया। सूर्य कुमार का मन बिल्कुल टूट गया। समय-चक्र क्रूर बनकर सामने खड़ा हो गया। युवक सूर्य कुमार हतप्रभ से सब कुछ व्यथित हृदय से देखते रहे। समय का आघात यहीं रुका नहीं। एक वर्ष बाद अचानक पिताजी भी चल बसे। यह एक वज्राघात था। एक पुत्र रामकृष्ण त्रिपाठी और एक पुत्री सरोज के पिता होने के साथ सारे संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी भी कंधे पर आ गई। समय थम-सा गया। जीवन की सहज धारा में एक बहुत बड़ा व्यवधान आ कर खड़ा हो गया।

परिजनों, मित्रों के बहुत आग्रह करने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। पिता के स्थान पर महिषादल रियासत में मिली नौकरी पर्याप्त नहीं थी और साथ ही लेखनवृत्ति में भी बाधक थी। स्वाभिमानी सूर्य कुमार ने इस नौकरी को भी छोड़ दिया। जीविका की जटिल समस्या मुँह बाये सामने खड़ी थी। अब केवल साहित्य-साधना ही साथ रह गई थी। नये लेखक को अपनी पहचान बनाने में समय लगता है। इनके साथ भी ऐसा ही हुआ।

इसी समय आपका परिचय हिन्दी-साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से हुआ। उन्होंने इनकी प्रतिभा को पहचाना। सूर्य कुमार भी जीवन के संग्राम में विजयी भाव में बढ़कर कविताएँ लिखने लगे। अब इस कवि का नाम हो गया - पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’।

समय के सोपान पर कवि की रचनाएँ अपनी स्पष्ट छाप छोड़ने लगी। शायद ही ऐसा होता है कि किसी कवि की प्रारम्भिक रचनाएँ और अन्तिम रचनाएँ समान रूप से समादृत हों। लेकिन निराला जी की कविताओं में कुछ ऐसा ही लगता है। कहा जाता है कि उन्होंने मात्र 20 वर्ष की अवस्था में सन् 1916 में ‘जूही की कली’ की रचना की, जो उनकी एक अजेय कृति है। वैसे उनका प्रथम आलेख ‘बंगभाषा का उच्चारण’ सन् 1920 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी  की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ। यह भी माना जाता है कि ‘जूही की कली’ सर्वप्रथम सन् 1923 में ‘मतवाला’ के अठारहवें अंक में प्रकाशित हुई थी। कुछ विद्वान् ऐसा भी मानते हैं कि ‘मतवाला‘ में यह कविता बाद में छपी और इसके पहले ‘माधुरी’ के प्रथम वर्ष के अंक में ही यह छप गई थी। तथ्य जो भी हो मगर ‘जूही की कली’ से हिन्दी-जगत् में एक भूचाल आ गया। छन्द-मुक्त कविता को एक नया आयाम मिला, एक नया आसमान मिला और ‘जूही की कली’ के पंखों पर चढ़ कर वह मुक्त-गगन में विचरण करने लगी। 

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सौजन्य से श्री रामकृष्ण मिशन की पत्रिका ‘समन्वय’ के सम्पादन का कार्य मिला। यहीं पर आप स्वामी विवेकानन्द के जीवन-दर्शन से अत्यन्त प्रभावित हुए। भारतीय संस्कृति का स्वाभिमान, धार्मिक आख्यानों का मर्म उन्हें स्पन्दित करने लगा। उन्होंने कई बंगला-भाषा की कृतियों का अनुवाद किया। मगर यहाँ भी वे एक वर्ष ही रह सके। सन् 1923 में निराला जी कलकत्ता से सेठ महादेव प्रसाद द्वारा प्रकाशित ‘मतवाला’ में आ गए और इतना मस्त रहने लगे कि लोग इन्हें भी मतवाला कहने लगे। सेठ जी की निराला से आत्मीयता बढ़ती गई। निराला जी का लेखन ऊँचाइयाँ छूने लगा। विद्वत्-जनों में कहीं प्रशंसा तो कहीं आलोचना के स्वर भी उठने लगे। मगर इस कवि को किसी बात की चिन्ता नहीं थी। ये तो बस अपनी धुन में लगे रहते थे।

हिन्दी-साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ लेखक प्रेमचन्द, प्रख्यात कवि सुमित्रानन्दन पन्त के साथ कई साहित्य-प्रेमियों ने इन्हें हृदय से सम्मान दिया और वे नयी साहित्यकार-पीढ़ी के प्रेरणास्रोत बन गए। समय-चक्र एक बार फिर घूम गया। शरीर अस्वस्थ रहने लगा। सन् 1926 से सन् 1928 का काल अस्वस्थता और अभाव में ही बीता मगर वे कभी हारे नहीं। लेखन-कार्य व्यवधान के बावजूद भी चलता रहा। प्रथम काव्य-संग्रह ‘अनामिका’ तब तक छप चुका था। सन् 1929 में निराला जी लखनऊ आ गए और वहाँ के प्रकाशक ‘गंगा पुस्तक माला’ के कार्यालय में कार्य करने लगे। इसके साथ ही ‘सुधा’ का सम्पादन भी करने लगे। सन् 1930 में ‘गंगा पुस्तक माला’ से ही ‘परिमल’ का प्रकाशन हुआ। हिन्दी-कविता ‘परिमल’ के नाम पर नक्षत्र-मंडल की आभा को ओढ़कर मुस्कराने लगी। कवि हृदय हिन्दी-साहित्य की अन्य विधाओं में भी झाँक कर उसे अपनी प्रतिभा से अलंकृत करने लगा। उपन्यास, कहानी, आलेख और संस्मरण की दुनिया में वे कीर्तिमान गढ़ने लगे। सर्वत्र वे चर्चा का विषय बन गये। हिन्दी-साहित्य में एक स्वर्णिम नाम के रूप में लोग इन्हें जानने लगे। युग-कवि अब अपने उफान पर था। 

इसी बीच पुत्री सरोज की शादी की बात चली। फिर एक बार समय साथ नहीं दिया। समाज का विकृत चेहरा सामने आने लगा। पुत्री के विवाह को लेकर चिंतित रहने लगे। आखिर हार कर कोलकाता में ही एक परिचित नवयुवक श्री शिवशेखर द्विवेदी से सरोज की शादी कर दी। कोई सामाजिक औपचारिकता नहीं थी। एक बार समय-चक्र फिर क्रूर हो उठा। शादी के करीब पाँच वर्ष बाद ही सन् 1935 में सरोज भी इस दुनिया से चल बसी। उसके इलाज के लिए कवि-सम्राट् पैसा भी नहीं जुटा सके। उनका हृदय विदीर्ण हो उठा। एक जगह  पर उन्होंने लिखा है-‘‘मुझे यह नहीं मालूम कि मैंने अपने पिछले जन्म में कौन-से पाप किये थे कि मेरे जन्म लेते ही मेरी प्यारी माँ स्वर्ग सिधार गईं। फिर पिता के प्रेम को भी पूरा-पूरा नहीं पा सका। मेरी पत्नी भी यौवन-काल में मुझे अकेला छोड़ कर चली गईं। अपनी निशानी एक पुत्र और एक पुत्री छोड़ गई । पुत्री भी युवावस्था प्राप्त करते-करते मुझसे कट गई।’’ सरोज के निधन से उनका हृदय घायल हो गया था।

निराला की साहित्य-साधना फिर भी चलती रही। उनके गद्य-पद्य की अनेक कालजयी कृतियाँ प्रकाश में आईं। ‘अनामिका’ और ‘परिमल’ के बाद ‘गीतिका’, ‘तुलसीदास’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘अणिमा’, ‘राम की शक्ति-पूजा’ जहाँ काव्य के आकाश में चमकने लगे वहीं उपन्यास के क्षेत्र में ‘अप्सरा’, ‘अलका’, ‘प्रभावती’, ‘निरुपमा’, ‘कुल्लीभाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ भी युग के हस्ताक्षर बन गए तथा कहानी-संग्रह में ‘लिली’, ‘सखी’, ‘देवी’ आदि और आलेख के क्षेत्र में ‘रवीन्द्र कविता-कानन’, ‘प्रबन्ध पद्य’, ‘प्रबन्ध प्रतिमा’ आदि भी प्रकाशित हो गये। यह काल-खंड सन् 1928 से सन् 1942 तक का रहा जब वे लखनऊ में रहकर साहित्य-सृजन करते रहे। मगर यहाँ भी वे स्थिर नहीं रह सके।

मित्रों के आग्रह पर साहित्यकारों के शहर इलाहाबाद में सन् 1942 में आ गये। यहाँ पर उस समय के स्थापित तथा प्रतिष्ठित साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी से भी मित्रता बढ़ी। पंत और प्रेमचन्द जी से तो पहले से मित्रता थी ही। इलाहाबाद में साहित्यकारों का जमघट इनके घर पर लगने लगा। कवि-सम्मेलन से लेकर काव्य-पाठ का दौर चलने लगा। कवि की वाणी, और धारदार हो गई। सामाजिक यथार्थवाद, स्वतन्त्रता आन्दोलन और सामाजिक विषमता के स्वर, और तेज होकर कवि की वाणी में मुखरित होने लगे। 

इलाहाबाद में लिखे गये ‘अपरा’, ‘नये पत्ते’, ‘बेला’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’, ‘गीतकुंज’ और ‘कवि श्री’ जहाँ काव्य-जगत् की एक धरोहर बन गए वहीं  कहानी के क्षेत्र में ‘चतुरी चमार’ और ‘सुकूल की बीबी’ का भी अग्रगण्य स्थान रहा। उपन्यास के क्षेत्र में इलाहाबाद से ही ‘चोटी की पकड़’ और ‘काले कारनामे’ प्रकाशित हुए। इसी काल-खंड में ‘पन्त और पल्लव’, ‘चाबुक’ और ‘चयन’ निबन्ध साहित्य की अमूल्य निधि बन गए। रामायण ख्विनय खंड, और ‘भारत में विवेकानन्द’ अनुवाद साहित्य में सर्वोपरि रहे। इस तरह इलाहाबाद में साहित्य-सृजन और प्रकाशन तो खूब हुआ  मगर ‘निराला’ का निरालापन भी बढ़ता गया। प्रकाशन से जो भी आय हो उसे किसी जरूरतमंद के बीच बाँट देना और अपने फटेहाल रहना उनके जीवन की नियति बन गई। किसी के दुःख-दर्द को अपने ऊपर ले लेना और स्वयं पीड़ा को ओढ़ लेना उनका सहज स्वभाव हो गया। वे युग के कबीर बन गये।  

साहित्यकारों में वे स्वाभिमान की शिक्षा देते थे। वे बंगाल में रह चुके थे और स्वामी विवेकानन्द तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रसंशक थे। कहा जाता है कि एक बार हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में अध्यक्षता कर रहे महात्मा गाँधी ने कह दिया था-‘‘हिन्दी में कौन है, जो रवीन्द्रनाथ टैगोर से टक्कर ले सकें ?’’इसके बाद जब गाँधी जी लखनऊ आये तो निराला जी उनसे आदरपूर्वक मिले और अपनी कई रचनाएँ सुनाने के बाद बोले- आप ने यह कैसे कह दिया कि हिन्दी में कौन है रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसा ?’’ ऐसे स्वाभिमानी थे निराला जी ।

उनकी फक्कड़ता और दानशीलता के बारे में भी कई कथाएँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि किसी प्रकाशक से मिली रायल्टी की रकम लेकर आ रहे थे। रास्ते में एक बुढ़िया भीेख माँग रही थी। उसे सारी रकम देकर बोले-‘‘माँ अब आगे से भीख मत माँगना।’’ यह थी उनकी दयालुता और सदाशयता।

इलाहाबाद में महादेवी वर्मा उनकी देख-रेख करने लगीं। उनकी अवढरदानी की भूमिका से वे भी परेशान हो जाती थी। महादेवी वर्मा जी के ही शब्दों में- ‘‘एक बार संयोग से उन्हें कहीं से तीन सौ रुपये मिले जो मेरे पास जमा करके उन्होंने मुझे खर्च का बजट बना देने का आदेश दिया।............अस्तु नमक से लेकर नापित तक और चप्पल से लेकर मकान के किराये का जो जो अनुमान-पत्र मैंने बनाया वह निराला जी को पसन्द आ गया। मुझे अपने अर्थशास्त्र के ज्ञान पर गर्व हुआ, पर दूसरे ही दिन से मेरे गर्व की व्यर्थता सिद्ध होने लगी।......तीसरे दिन तक उनका जमा किया हुआ रुपया दूसरों की मदद करने में समाप्त हो गया।........एक सप्ताह में मैंने समझ लिया कि यदि ऐसे अवढरदानी को न रोका गया तो वह मुझे भी अपनी स्थिति में पहुँचा कर दम लेंगे।’’ महादेवी जी की यह अनुभूति निराला जी के मानवीय पक्ष पर यथेष्ट प्रकाश डालती है। कई बार अपने सारे वस्त्र उन्होंने गरीबों को दे दिया और स्वयं एक लंगोटी पहने घर आ गये। कुछ लोग उन्हें विक्षिप्त की संज्ञा भी देने लगे। इतने महान् त्यागी पुरुष का इस प्रकार से आकलन करना हमारी सोच की संकीर्णता को ही चित्रित करता है। इसलिए निराला सामान्य व्यक्ति नहीं थे , वे तो महाप्राण थे।

निराला जी के बारे में यह घटना काफी प्रसिद्ध हो चुकी थी कि जब उत्तर प्रदेश की सरकार ने निराला जी की एक पुस्तक पर 2100 रुपये ख्इक्कीस सौ, का पुरस्कार दिया तो अपनी आवश्यकता को किनारे करके उन्होंने अपने एक मित्र की विधवा के नाम पर वह रकम बैंक में जमा करवा दिया। निराला की सचमुच कोई बराबरी नहीं कर सकता।

निराला का कवि-हृदय किसी गरीब का दुःख देखकर पिघल उठता था और कभी-कभी जाड़े की रात में ठिठुरते व्यक्ति को फुटपाथ पर जाकर अपनी रजाई या अपना कम्बल ओढ़ा आते थे तथा अपने जाड़े में ठिठुरते रहते थे। वे हमेशा दूसरों के दुःख की चिन्ता में डूबे रहते थे- अपने सुख की तिलांजलि देकर। अभावग्रस्तता अब उनकी सहचरी बन गई थी।

निराला एक युग-कवि थे। उनकी कृति के बारे में विद्वानों के विचारों में भी एकरूपता नहीं हैं। कोई दार्शनिक कवि के रूप में उनकी प्रशस्ति करता है तो कोई उन्हें छायावाद और रहस्यवाद से जोड़ कर प्रफुल्लित होता है। किसी को उनकी कृति में यथार्थवादी रोमांटिकतावाद दिखलाई पड़ता है तो कोई उन्हें जनवादी बनाकर आत्म-सन्तुष्टि प्राप्त करता है। मेरी दृष्टि में ऐसे महान् कवि किसी एक विचार के खूँटे से अपने को बाँध कर नहीं चलते। उन्हें जब जो जैसा लगता है, उसे भावों में उतार देते हैं। 


इसलिए डा0 रामदरश मिश्र के शब्दों में निराला का कुछ सही मूल्यांकन दिखता है, जब वे कहते हैं- ‘‘निराला का जीवन संघर्षमय तथा लोक-सम्पृक्त रहा है। इसलिए स्वभावतः वे प्रेम-सौन्दर्य के बोध के साथ-साथ जीवन के अन्य अनुभवों को अपने में समेटे हुए हैं। .......लोक-जीवन में सुख-दुःख की यातना और संघर्ष को गहराई से उभारते हैं।’’

निराला अपने काव्य में सांस्कृतिक नवजागरण के पुरोधा हैं तो वे राष्ट्रीय चेतना के मुखर स्वर भी हैं। वे सामाजिक विषमता को देखकर विद्रोह की ज्वाला भी बन जाते हैं तो प्रकृति के सौन्दर्य से अभिभूत भी हो जाते हैं। कवि की संकेत भरी भाव-भंगिमा कभी हमें झकझोर कर रख देती हैं तो कभी हमें भाव-उद्रेक में रुला देती है। महाकवि अपनी पुत्री सरोज के निधन पर ‘सरोज-स्मृति’ में मानो अपनी कथा-व्यथा चन्द पंक्तियों में खोल कर रख देते हैं -

‘‘दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज जो नहीं कही!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण, 
कर, करता मैं तेरा तर्पण।’’

शायद जीवन-पर्यन्त ये पंक्तियाँ उनके साथ बँधी रही। दुःख ही उनके जीवन की कथा रही। मगर साहित्य-सृजन में वह बाधक नहीं बन सकीं।
कुछ सामान्य चिन्तक ऐसा मानते हैं कि जब देश स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ रहा था , उसमें निराला के स्वर ने अग्नि नहीं बरसायी मगर जो गहराई में जा कर कवि-कृति को देखते हैं तो उसमें राष्ट्रीयता की धधकती ज्वाला का दर्शन होता है। महाकवि की वाणी का हुंकार क्या किसी से कम है, जब वे लिखते हैं -

‘‘जागो फिर एक बार
समर सूर, क्रूर नहीं
काल चक्र में हो दबे
आज तुम राज कुँवर,
समर सरताज !
मुक्त हो सदा ही तुम
बाधा-विहीन बंध छंद ज्यों
डूबे आनन्द में सच्चिदानन्द रूप ।’’

एक जागरण का संदेश, स्वतन्त्रता का आह्वान, परतन्त्रता की पीड़ा, आत्मा की मुक्ति का शाश्वत चित्रण, सब कुछ तो इन पंक्तियों में समाहित है। निराला के काव्य में भारतीय दर्शन की भी अनुगूंज है। निराला की ‘तुम और मैं’ कविता में आत्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व की ही अभिव्यंजना है -

‘‘तुम तुंग-हिमालय शृंग
और मैं चंचल गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छ्वास
और मैं कान्त-कामिनी-कविता।’’

इस सृष्टि के संचालन में जो शक्ति कार्य कर रही है, वह रहस्यमयी है फिर भी कवि की दृष्टि उस ओर भी जाती है और उसकी ओर इंगित करते हुए वे बोल पड़ते हैं -

‘‘कौन तम के  पार? ख्रे, कह,
अखिल-पल के स्रोत, जल-जग,
गगन घन-घन धार  ख्रे, कह, ।’’

इस तरह निराला के चिन्तन में भारतीय संस्कृति की भाव-धारा प्रखरता के साथ प्रवाहित है। इसीलिए तो स्वामी विवेकानन्द की याद आते ही वे स्वयं कहने लगते हैं-‘‘मैंने स्वामी विवेकानन्द जी का सारा कार्य हजम कर लिया है। जब इस प्रकार की बात मेरे अन्तर से निकलती है तो समझो कि विवेकानन्द बोल रहे हैं।’’
निराला के काव्य में दर्शन के साथ सामाजिक चेतना के स्वर, और अधिक धारदार होकर मुखरित हुए हैं। सामाजिक दरिद्रता को दूर करने के लिए महाकवि अपनी ‘अर्चना’ में माँ से प्रार्थना करते हैं -

‘‘माँ अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-वास से वारो।
विपुल दिशा विधि शून्य वर्ग-जन,
व्याधि-शयन जर्जर मानव-मन,
ज्ञान गगन से निर्जर जीवन,
करुणा करो उतारो तारो।’’

उनकी ‘भिक्षुक’ कविता में सामाजिक दुर्गति का जो चित्र है वह पाठक को रुला देती है, हृदय सचमुच दो टूक हो जाता है।
‘‘वह आता-
दो टूक कलेजे को करता पछताता पथ पर आता ।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी-भर दाने को भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता-
दो टूक कलेजे को करता पछताता पथ पर आता।’’

एक भिक्षुक की दैन्यपूर्ण स्थिति का यह चित्र सारे समाज पर एक प्रहार भी करता है और उसे झकझोर कर कुछ सोचने के लिए विवश भी करता है। किसानों की पीड़ा से भी वे पूर्ण परिचित हैं। इसीलिए अपने ‘बादल राग’ में किसानों की व्यथा को चित्रित करते हुए कहते हैं -

‘‘जीर्ण बाहु है शीर्ण शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार!’’

किसानों को, गरीबों को सहारा देने के लिए कवि का मन छटपटा कर रह जाता है। ‘कुकुरमुत्ता’ में तो दलितों, शोषितों का दबा स्वर एक विद्रोह कर देता है-
‘‘अबे, सुन बे गुलाब,
भूल मत गर पायी खुशबू, रंगो आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट।
कितनों को तूने बनाया है गुलाम
माली कर रखा सहा या जाड़ा घाम।’’

गुलाब इतरा रहा कैपिटलिस्ट बनकर। समाज में भी ऐसा ही हो रहा है। महाकवि इलाहाबाद के पथ पर एक मजदूरिन को देखकर कह उठता है -
‘‘वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर ।
कोई न छायादार पेड़
वह किसके तले बैठी स्वीकार,
श्याम-तन भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्मरत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार ।’’

कवि की सामाजिक मानवीय चेतना इन पंक्तियों में साकार हो उठी है। भारत के हर कोने में आज भी वह पत्थर तोड़ती नजर आती है। अट्टालिकाओं के झरोखे से कुछ लोग उसे देखते रहते हैं-पर वह अपने कर्मनिष्ठ जीवन में स्वेद बिन्दुओं को पोछ-पोछ कर अपने दुर्भाग्य पर पछताती रहती है। आज भी जनतंत्र के प्रहरी उसके नाम को बेच कर खा रहे हैं।

अन्त में अपनी कविता ‘अणिमा’ में कवि की करुणा जाग उठती है और ईश्वर से दीन-दुखियों की दया सुधारने के लिए प्रार्थना करते हुए कहते हैं-
‘‘दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु, तुम्हारी शक्ति अरुणा।’’

निराला छायावाद के युग-प्रवर्तक कवि भी कहे जाते हैं। छायावाद के चार महान स्तम्भ- प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा अपने युग की विभूति हैं। ‘छायावाद’ प्रकृति के मानवीकरण में युग-चेतना की अभिव्यक्ति है। छायावाद में भाषा और छन्द के क्षेत्र में भी नये प्रयोग हुए हैं। निराला जी के काव्य में छायावाद की झलक अपनी समग्रता के साथ विद्यमान है। ‘संध्या-सुन्दरी’ में वे लिखते हैं -

‘‘दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे धीरे धीरे।’’

‘‘कितना सजीव चित्रण है ‘संध्या सुन्दरी’ का। इसी तरह ‘जूही की कली’ भी कवि की पंक्तियों में जीवन्त हो उठती है -
‘‘विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल-कोमल-तनु तरुणी-जूही की कली
दृग बन्द किए, शिथिल-पत्रांक में।’’

निराला जी ने अपनी ‘बादल’ कविता में प्रकृति का चित्रांकन झूम-झूम कर किया है -

‘‘झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर
राग अमर अम्बर में भर निज रोर,
झर-झर निर्झर गिरि सर में
धर मरु तरु मर्मर सागर में,
सरित तड़ित गति चकित पवन में
मन में विजन गहन कानन में,
आनन-आनन  में रव घोर कठोर,
राग अमर अम्बर में भर नित रोर।’’

निराला जी स्वयं कहते हैं-‘‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है।’’ निराला ने मुक्त-छन्द में अनेक रचनाएँ की। उस समय के कई दिग्गज विद्वान् उनके इस मुक्त-छंद-विधान से सहमत नहीं थे। प्रारम्भ में कई रचनाएँ वापस आ गईं। निराला को इस स्थिति में खुद कहना पड़ा -

‘‘लिखता अबाध गति मुक्त छन्द, पर सम्पादकगण निरानन्द।
वापस कर देते पढ़ सत्वर, दो एक पंक्ति में दे उत्तर।।’’

निराला के मुक्त-छन्द में रचना-कौशल की नवीनता है मगर कुछ विद्वानों को इसमें दुरुहता दिखलाई पड़ती है तो कुछ को भाव समझने में अस्पष्टता का बोध भी होता है। कविता केवल गद्य की तरह अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उसमें भाव-प्रवाह का एक विधान भी होता है। इसलिए जिस तरह गद्य की भाषा सहज ढंग से समझ ली जाती है, वैसे काव्य की भाषा कुछ अर्थ अपने आस-पास भी रखती है, जिसे हमें समझना होता है। शायद कविता का यह एक गुण भी है। इस गुणात्मक बोध को दुरूहता की या अस्पष्टता की संज्ञा देना ठीक नहीं है।

निराला ने हिन्दी में नये छन्दों और नये लय-ताल के साथ ‘गीत’ भी लिखा, जिसमें नये विचारों की अभिव्यक्ति मुखरित हुई है। इन गीतों में नये बिम्बों का प्रयोग हुआ है। उनका गीत ‘वर दे, वीणा वादिनी वर दे’ में जहाँ एक ओर माँ सरस्वती का स्तुति-गान है, वहीं भारत माता को अज्ञान, दासता और अन्धकार से मुक्त करने का आह्वान भी है। सारे जग को जगमग कर देने की अभीप्सा है- इस गीत में -

‘‘वर दे, वीणा वादिनी वर दे!
प्रिय स्वतन्त्र रव अमृत-मन्त्र नव
भारत में भर दे !
काट बन्ध उर के बन्धन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।’’

वे गीत ही नहीं ‘नवगीत’ की भी नींव हैं। कहा जाता है कि ‘गीत’ का विकास ही ‘नवगीत’ में हुआ है। निराला जी का यह ‘गीत’ तो ‘नवगीत’ के सृजन का स्रोत है -

बाँधो न नाव  इस ठाँव, बन्धु,
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु।
यह घाट वहीं जिस पर हँस कर,
वह कभी नहाती थी धँस कर,
कँपते थे दोनों पाँव, बन्धु,
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु।

इस प्रकार निराला जी से ‘नवगीत’ को भी नई दिशा मिली। निराला हिन्दी-साहित्य में एक क्रान्तिकारी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए जो छायावाद, प्रयोगवाद और प्रगतिवाद के स्तम्भ बनकर भी कहीं बँधे नहीं। अपनी स्वच्छन्दता और मुक्त-छंद-विधान के बारे में वे स्वयं ‘परिमल’ में एक जगह कहते हैं -

‘‘मुक्त छन्द, सहज प्रकाशन वह मन का 
निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र’’

निराला केवल एक युग-कवि ही नहीं थे, वे एक महान् गद्यकार, एक निष्पक्ष आलोचक और एक स्वतन्त्र विचारक भी थे। निराला के उपन्यास और कहानी में गाँव का दुःख-दर्द समाया हुआ है। इसमें देशभक्ति और आत्मत्याग  की भावना भी मुखरित हुई है। उनके उपन्यास अप्सरा [1931] अलका [1933], निरुपमा [1936] , कुल्लीभाट [1939], चतुरी चमार [1941] बिल्लेसुर बकरिहा [1941] में जहाँ भारतीय गाँव ही केन्द्र-बिन्दु में हैं, वहीं उनके कहानी संग्रह में लिली [1933], सखी [1935], देवी [1945] तथा अन्य रचनाओं में भी गाँव का दर्द है।

इसके साथ ही सामाजिक अन्याय, सामन्ती व्यवस्था और औपनिवेशिक उत्पीड़न के चित्रण के साथ उनके प्रति विद्रोह के स्वर भी इन गद्य-रचनाओं में प्रखर रूप से मुखरित हुए हैं।

निराला के आलेख में समालोचना के तेज स्वर भी हैं मगर वे पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं। उनके अधिकांश लेखों में आधुनिक कविता के सिद्धान्तों का प्रतिपादन के साथ उस पर होने वाले प्रहारों का प्रतिकार भी है। महाकवि रवीन्द्र की कविता पर उनका आलेख जहाँ ज्ञानवर्द्धक था वहीं साहित्यकारों के लिए उत्साहवर्द्धक भी। अपने मित्र सुमित्रानन्दन पन्त के ‘पल्लव’ कविता-संग्रह की भूमिका भी उन्होंने लिखी। उन्होंने ‘महाभारत’ का संक्षिप्त रूप भी तैयार किया। उन्होंने कई सामाजिक और साहित्यिक लेख लिखे जो समय की शिला पर अपना पदचिन्ह छोड़ गए।

अब हिन्दी की सेवा करते करते यह युग-कवि कुछ थक-सा गया था। लगता था-जीवन की सांध्य-बेला की आहट कवि को मिल चुकी थी। इसलिए उनकी कविता के स्वर में अकेलापन उभर आया। उन्होंने ‘मैं अकेला’ में लिखा-

‘‘मैं अकेला
देखता हूँ आ रही,
मेरे दिवस की सांध्य बेला
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे
 चाल मेरी मन्द होती जा रही है।’’

फिर तो यह महाकवि रोग-शैय्या पर पड़ गया। कवि की पीड़ा बढ़ती गई । एक दिन तो अपने आत्मीय मित्र श्री ख्स्व0, जे0पी0 शुक्ला से उन्होंने कहा- ‘‘मैंने जिन्दगी भर बहुत दुःख झेला और लोग मुझे यह देख कर और दुःख देते रहे।........ये लोग मृत्यु के बाद भी मुझे बिना जलाये नहीं रखेंगे।........पर यदि मुझे जलाया ही जाये तो मेरी राख देश के चारों कोनों में बिखेर दी जाय। इसलिए नहीं कि लोग तिलक लगायें, वरन् इस हेतु कि लोग उसे अपने पैरों से खूब रौंदें, कुचलें पर हिन्दी को गलत मत समझें।’’ कितनी मर्मांतक पीड़ा है इन शब्दों में पढ़कर आत्मा विचलित हो उठती है। आँखों में आँसू बरबस उतर आते हैं।

महाकवि के रूप में अभी भी तरह-तरह की झूठी-सच्ची किंवदन्तियों की चर्चा आम लोगों में होती रहती थी। हवाएँ पहले भी उनके किस्से-कहानियों से गर्म रहती थी और अब उनके जीवन के अन्तिम पड़ाव पर वह थम नहीं रही थी।

कुछ लोग एक किस्सा सुनाते हैं कि एक बार पंडित श्रीराम शर्मा के साथ लखनऊ में रास्ते पर ही एक साँड़ से भिड़न्त हो गई। निराला भिड़ गये तो फिर साँड़ को ही भागना पड़ा। शर्मा जी तत्काल बोल उठे-‘‘कौन कहता है कि आप रहस्यवादी हैं या छायावादी हैं। आप तो बिल्कुल कायावादी हैं।’’

ऐसा ही एक और वाकया कहा जाता है कि जब वे लखनऊ के कैसर बाग स्टुडियों में फोटो खिंचवाने गये तो वहाँ दंड-बैठक करने लगे और फोटो ग्राफर हैरान हो गया। बहुत मान-मनौव्वल पर किसी तरह फोटो खिंचवाए।
निराला जी के सम्बन्ध में एक और वाकया महादेवी वर्मा के शब्दों में-

‘‘उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए निराला जी से पूछ बैठी थी कि आपको किसी ने राखी नहीं बाँधी?’’ इस पर निराला जी ने कहा था-‘‘कौन बहन हम जैसे भुक्खड़ को भाई बनायेगी?’’ लेकिन महादेवी जी से राखी बँधवाने वे हर वर्ष रक्षाबन्धन के दिन जरूर आते थे। वे शान से रिक्शे पर बैठकर आते थे। एक बार आते ही महादेवी से कहे-‘‘पहले दो रुपये उधार दो।’’ महादेवी दो रुपये देकर पूछीं-‘‘आखिर किसलिए ये रुपये चाहिए?’’ ’हँसते हुए निराला जी बोले-‘‘एक रुपया रिक्शा वाले को देने के लिए और एक रुपया तुम्हें राखी बँधाई देने के लिए।’’ महादेवी जी इस घटना को जीवन-पर्यन्त याद कर अपने भाई के भोलेपन पर हँसती भी थी और उनकी इस फक्कड़ स्थिति को देखकर उनकी आँखों में आँसू भी उमड़ आते थे।

कहा जाता है कि सन् 1947 में निराला जी के जीवन के 50 वर्ष पूरा होने पर आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी और डा0 राम विलास शर्मा के प्रयत्न से उनकी स्वर्ण जयन्ती मनाई गई तो उस अवसर पर बोलते हुए ‘दिनकर’ जी ने कहा था -‘‘रिश्ते में निराला जी प्रगतिवाद और प्रयोगवाद दोनों के पिता हैं। यह सुनते ही निराला जी मंच पर ही बोल उठे-‘‘तुम जो कह रहे हो, वह बात लोग लिखते क्यों नहीं ? ऐसी थी निराला जी की निश्छलता !

एक और घटना का जिक्र किया जाता है कि काशी नागरीप्रचारिणी की अर्द्ध शताब्दी पर जब वे कवि-सम्मेलन में गए तो किसी ने उनसे कह दिया कि आपकी परिस्थिति देखकर विशेष रूप से पारिश्रमिक दिया जायेगा। यह सुनते ही निराला जी उखड़ गये और कहने लगे कि मैं पारिश्रमिक के लिए नहीं आया हूँ । अब मैं पुरस्कार लूँगा तो एक हजार से कम नहीं। आखिर संयोजक के बहुत आग्रह पर भी उन्होंने कविता पाठ नहीं किया। ऐसे स्वाभिमानी थे निराला!

कहा जाता है कि महाकवि निराला और पं0 ज्योति प्रसाद ‘निर्मल’ में अक्सर नोंक-झोंक चलती रहती थी। एक दिन ‘निर्मल’ जी ने कहा कि अपने नाम के पहले ये ‘निर’ क्या लगा रखे हैं? निराला जी चुटकी लेते हुए बोले - ‘‘मेरे नाम के पहले ‘निर’ हट जायेगा तो भी मैं ‘आला’ रहूंगा, लेकिन आपके नाम के पहले ‘निर’ हट जायेगा तो फिर आप केवल ‘मल’ होकर रह जायेंगे।’’.... इस पर जोरों का ठहाका लगा।

एक और किस्सा मशहूर है कि मेरठ वाले एक बार महाकवि को तुलसी-जयन्ती के अवसर पर आमन्त्रित किए। उन्होंने शर्त रख दी कि जब मैं काव्य पाठ करूँगा तो सबको खड़ा हो जाना पड़ेगा। सभापति को भी खड़ा होना न पड़े इसके लिए इन्हीं को सभापति बना दिया गया। शर्त पूरी हो गयी।

इस तरह की कुछ सच्ची और कुछ सुनी-सुनाई तथा मन से बनाई गई बातें भी महाकवि के बारे में उछाली जाती रहीं मगर उसकी उन्हें चिन्ता नहीं थी। अपने पास कुछ नहीं रहने पर भी जो कुछ है वह सब दान दे देने वाला व्यक्ति ‘निराला’ को छोड़ कर कोई और नहीं हो सकता। निराला जी का निरालापन बढ़ता जा रहा था। अब उनकी मनःस्थिति भी ठीक नहीं चल रही थी। खान-पान में तो पहले भी वैष्णव नहीं थे। अब तो खान-पान पर भी कुछ ध्यान नहीं रहता था। सूर्य अस्ताचल की ओर भागा जा रहा था।

जीवन के अन्तिम दिन में कभी भिखारियों के बीच बैठे हुए, कभी सड़क पर फटेहाल कपड़ों में लिपटी एक आकृति को चलते हुए लोगों ने देखा और सन्न रह गये- अरे ! ये तो निराला जी हैं। रोग-शय्या पर पड़े तो चिकित्सा की भी पूरी व्यवस्था नहीं हो पायी। हिन्दी-साहित्य का वह सूर्य 15 अगस्त 1967 को सदा के लिए अस्त हो गया। अब सूर्यकान्त अँधेरे में कहीं खो गये। अपने देश के किसी महान् व्यक्ति के मरने के बाद उनकी महानता याद आती है। बड़े-बड़े लोगों के शोक-सन्देश आने लगे। तमाम चर्चित लोगों ने आँसू बहाये। प्रयाग के पावन तट पर पार्थिव शरीर जला दिया गया और प्रयाग की निराला-परिषद् द्वारा संगम में अस्थि-भस्म प्रवाहित कर दी गई। उनकी राख भी इस परिषद् द्वारा देश के कोने-कोने में पहुँचा दी गई-बिखेरने के लिए। महाकवि की अन्तिम इच्छा शायद पूरी हो गई-अस्थि भस्म के देशव्यापी विसर्जन से। महाकवि के करीबी मित्र सुमित्रानन्दन पन्त की ‘अनामिका के कवि’ में दी गई श्रद्धांजलि उस हिन्दी-साहित्य के सूर्य को नमन है -

‘‘छंद बद्ध ध्रुव तोड़ फाड़ कर पर्वत कारा
अचल रूढ़ियों की, कवि तेरी कविता धारा
मुक्त, अबाध, अमंद, रजत निर्झर-सी निःसृत,
गलित ललित आलोक शशि, चिर अकुलिष, अविजित,
स्फटिक शिलाओं से तूने वाणी का मन्दिर
शिल्पि, बनाया ज्योति-कलश निज यश का धर चिर
अमृत-पुत्र कवि, यशः काय, तव जरा मरण जित
स्वयं भारती से तेरी हृतंत्री झंकृत।’’

पंत की श्रद्धांजलि की ध्वनि पता नहीं महाकवि के कानों तक पहुँची या नहीं? वैसे ‘निराला’ जैसा महाकवि कभी मरता नहीं। उनकी ध्वनि में ‘ध्वनि’ कविता कुछ कानों में कह जाती है -

‘‘अभी न होगा मेरा अन्त!
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु दिगन्त
अभी न होगा मेरा अन्त!’’

सचमुच ‘निराला’ का कभी अन्त नहीं होने वाला है। जब तक हिन्दी- साहित्य जीवित रहेगा, ‘निराला’ भी जीवित रहेंगे-अपने साहित्य-सृजन के संसार के साथ। हिन्दी-साहित्य के प्राण ‘महाप्राण निराला’ युग-कवि के रूप में सदैव जीवित और पूजित रहेंगे।
Sukhnandan singh Saday
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