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महर्षि सदाफलदेव Maharshi Sadafaldeo

अध्यात्म-मार्तण्ड - महर्षि सदाफलदेव

   
नामसद्गुरु सदाफलदेव जी महाराज [विज्ञानानन्द]
 
जन्म -  भाद्रकृष्ण चतुर्थी वि. सं. 1945 [25 अगस्त सन् 1888]
 
जन्म स्थान -  पकड़ी ग्राम, जिला- बलिया, उत्तर प्रदेश।

पिता- राजर्षि हनुमान जी राय बाबा स्कम्भ मुनि
माता- महारानी मुक्ति देवी
 
देह त्याग -  माघ शुक्ल नवमी वि.सं. 201011 फरवरी 1954 ]
 
देहत्याग स्थान -  झूँसीप्रयाग, इलाहाबाद।

अध्यात्म के क्षेत्र में आज बहुधा ऐसा दिखलाई पड़ता है कि किसी भी साधक, सन्त या महात्मा को एक छोटी-सी भी उपलब्धि हो जाती है तो उसे ही वह अध्यात्म-जगत् की अन्यतम उपलब्धि मान लेता है और अपने नाम के साथ जोड़कर उसे प्रचारित भी करने लगता है। अध्यात्म-विज्ञान इतना आसान नहीं है, जैसा कुछ लोग समझते हैं। हम थोड़ा विचार करें कि इस संसार के विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम कितना समय देते हैं और तब हमारी उपलब्धि कितनी होती है? एक वनस्पति-शास्त्र की पढ़ाई के लिए हमें वर्षों परिश्रम करना पड़ता है और तब हम ठेठ शब्दों में घास-पात के विज्ञान के बारे में थोड़ा-बहुत जान पाते हैं। इस छोटे से विषय की पूर्णता में जाने के लिए हमें शोध की जरूरत पड़ती है, तो भी पूरा ज्ञान मिलना इतना आसान नहीं है। मगर यह कैसी विडम्बना है कि जो परमात्मा सम्पूर्ण सृष्टि का नियामक है, जिसकी सत्ता से सारी सृष्टि संचालित हो रही है, जो सर्वाधार है, जो सर्वज्ञ है, जो कर्माध्यक्ष है, उस परमात्मा को जानने के लिए हमारे पास समय नहीं है और यदि थोड़ा समय है भी तो बिल्कुल प्रारम्भिक अवस्था पर ही हम पूर्णविराम लगा देते हैं।

अध्यात्म-विज्ञान में प्रवेश करने के लिए भी कुछ सामान्य पात्रताएँ चाहिए और इसी प्रारम्भिक पात्रता के लिए कुछ प्रारम्भिक पूजा-पाठ के विधान भी बनाये गये थे। इसी में स्नान करना, धूप-दीप दिखलाना, मन्त्र-पाठ करना, फूल-नैवेद्य अर्पित करना, प्रार्थना-वन्दना करना और फिर आगे बढ़कर ध्यान-साधना में प्रवेश करना आदि आते हैं। वस्तुतः ध्यान-साधना में प्रवेश करने के लिए और प्रारम्भिक पात्रताएँ निर्माण करने में इन पूजा-विधियों का किंचित् योगदान रहता है। मगर जब सद्गुरु के ज्ञान-प्रकाश में आन्तरिक साधना प्रारम्भ हो जाती है तो इन प्रारम्भिक पूजा-विधियों की उपयोगिता स्वतः कम हो जाती है। यह एक विडम्बना है कि बहुत से लोग जीवन-पर्यन्त इन्हीं प्रारम्भिक पूजा-विधियों और कर्मकांडों में उलझे रह जाते हैं और आन्तरिक साधना में प्रवेश ही नहीं कर पाते। 

कोई-कोई जब पूजा के आन्तरिक-पथ पर थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो जरा-सी उपलब्धि पर ही मंत्रमुग्ध हो उठते हैं और वहीं पर पूर्णविराम लगा देते हैं। कोई-कोई मनस्वी ही इस साधना-पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते जाते हैं और अपनी यात्रा को वहीं विराम देते हैं, जहाँ ज्ञान की पूर्णता होती है। वास्तव में ऐसे ही ब्रह्मनिष्ठ, आप्तकाम महर्षि सद्गुरु कहलाते हैं। ज्ञान के तत्त्वदर्शी ब्रह्मनिष्ठ महान् आत्मा को ही ‘सद्गुरु’ शब्द से विभूषित किया जाता है। ऐसे अध्यात्म के पूर्ण ज्ञाता सद्गुरु का मिलना ही आध्यात्मिक यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण सोपान बन जाता है।

महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ऐसे ही ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु थे, जिनका अवतरण भाद्रकृष्ण चतुर्थी वि0 सं0 1945 [25 अगस्त सन् 1888] को उत्तर प्रदेश के बलिया जिला अन्तर्गत पकड़ी ग्राम में पिता राजर्षि हनुमान जी राय बाबा स्कम्भ मुनि,  और माता श्रीमती स्व0, मुक्ति देवी के यहाँ हुआ। प्रसिद्ध सेंगर-वंशीय इस ऋषिकुल की उत्पत्ति महर्षि शृंगी से मानी जाती है, जिनके बारे में कहा जाता है कि राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ को उन्होंने ही करवाया था। महर्षि शृंगी की शादी राजा दशरथ के मित्र अंगदेश के राजा रोमपाद की कन्या से हुई थी। इसी शृंगी ऋषि और शान्ता से उत्पन्न सन्तति को सेंगर-वंश कहा गया है। महर्षि सदाफलदेव जी महाराज की पूर्व पीढ़ी में भी अनेक त्यागी सन्त-महात्मा हो चुके हैं। इनमें बाबा लालजी राव का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। इन्हीं बाबा लालजी राव की छठी पीढ़ी में महर्षि सदाफलदेव जी महाराज का अवतरण हुआ।
आपमें बचपन से ही साधु-प्रवृत्ति थी और छोटी अवस्था में ही गीता-रामायण का पाठ करने लगे थे। आप एक चैकी पर बैठ जाते थे और सभी लड़कों से कहते थे कि सब लोग हमें प्रणाम करें। एक छोटे बालक का इस प्रकार का स्वभाव निश्चय ही उनकी महानता को दर्शाता है। इतना ही नहीं स्वयं कथावाचक बनकर बच्चों के बीच कथा कहने का स्वाँग करते हुए प्रसाद भी बाँटते थे। लड़कों को लेकर कभी-कभी रामलीला भी करते थे। बाल्यावस्था में ही गाँव के एक शिव-मन्दिर में जाकर शिव-स्तोत्र का पाठ किया करते थे। वे भगवान् से प्रार्थना भी करते थे कि हे प्रभु! मुझे यथार्थ कर्तव्य कल्याण की ओर उन्मुख करें। एक बालक का ऐसा धार्मिक स्वभाव लोगों को अचरज में डाल देता था।

आप गाँव की प्राइमरी पाठशाला में पढ़ते थे मगर उनका सात्त्विक और अद्भुत व्यवहार देखकर शिक्षक भी दंग रह जाते थे। स्वामीजी मंत्रजाप करते-करते बेसुध भी हो जाते थे। उन्हें एक पूर्ण ज्ञान की तलाश थी, जिसके लिए उनके चेहरे पर बराबर एक रहस्यमय भाव विद्यमान रहता था। स्वामीजी जब 11 वर्ष के हुए तो उन्हें वेदों को पढ़ने की इच्छा हुई। इसके लिए वे काशी भी गये। मगर उस समय के रूढ़िवादी पंडितों ने उन्हें क्षत्रिय-कुल का जानकर वेद पढ़ाने से इन्कार कर दिया। उन्हें क्या पता था कि एक दिन यही बालक चारों वेदों का ब्रह्मविद्यापरक भाष्य लिखेगा ?

स्वामी जी में बचपन से ही वैराग्य-भाव उदित होने लगा था। वे साधु-सन्तों की खोज में रहने लगे। कई सन्त-महात्माओं का दर्शन भी किए मगर तृप्ति नहीं हुई। उन्हें लगता था कि परमात्मा के नाम पर जो भी प्रारम्भिक पूजा-पद्धतियाँ समाज में प्रचलित हैं, वे परमात्मा-प्राप्ति के सही मार्ग नहीं हैं। परमात्मा की ओर बढ़ने के ये प्रारम्भिक सोपान हो सकते हैं। इसी उधेड़बुन में वे सत्यज्ञान की तलाश में सर्वत्र घूमने लगे। उनकी यह यात्रा तब तक जारी रही जब तक उन्हें पूर्ण सद्गुरु नहीं मिल गये। उन्हें सत्यज्ञान का मार्ग मिल गया। साथ ही उन्हें यह भी पता चल गया कि वे किस उद्देश्य से कहाँ से आये हैं? स्वामीजी को अपने अवतरण का यथार्थ ज्ञान हो गया। वे सद्गुरु-पद पर प्रतिष्ठित हो गए। मगर उनकी आध्यात्मिक यात्रा में कई उतार-चढ़ाव आये। उनका अवतरण ही अध्यात्म के शुद्ध ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए हुआ था।

अध्यात्म-मार्तण्ड महर्षि सदाफलदेव जी महाराज का अवतरण तो संसार के आध्यात्मिक कल्याण के लिए ही हुआ था। ईश्वरीय ज्ञानधारा को प्रकट करने के लिए ही मुक्तिधाम से आपका अवतरण इस धराधाम पर हुआ। इसलिए उन्होंने ‘स्वर्वेद‘ में इस स्थिति के बारे में संकेत देते हुए कहा-

मैं तो कुतूहल मात्र में, मुक्ति द्वार से आय। 
वही शब्द का द्वार है, चेतन चेतन जाय।। 
-स्वर्वेद 1/7/11
सद्गुरुदेव ने मुक्ति से संसार में आने का संकेत यहाँ दिया है। मुक्ति से आवृत्ति के ज्ञान का उन्हें विस्मरण नहीं है। इसी द्वार को चेतन-पथ कहते हैं, जिस द्वार से जीवात्मा जाकर चेतन परमात्मा को प्राप्त करता है। स्वामीजी उसी मुक्ति-द्वार से इस संसार में आये हैं। स्वर्वेद के भाष्यकार अनन्त श्री आचार्य धर्मचन्द्रदेव जी महाराज इस दोहे के भाष्य के अन्तर्गत लिखते हैं-‘‘योगियों में विशिष्ट ज्ञान रहता है। वे बौद्धिक ज्ञान से सत्य-सिद्धान्त का निरूपण नहीं करते। किसी भी सिद्धान्त का निरूपण सत्यद्रष्टा आनुभविक ज्ञानी ही करता है, जिसे समस्त तत्त्वों का निभ्र्रान्त ज्ञान है। जिन्हें अपने सिद्धान्त निश्चय करने के लिए तर्क, प्रमाण और बुद्धि के विचार की आवश्यकता हो जाती है, वे ऋषि नहीं हैं। ऋषि तत्त्वद्रष्टा अनुभवी ही होता है। इस पद में एक स्पष्ट तत्त्व प्रकट होता है कि मुक्तात्माएँ संसार के कल्याण के लिए प्रकट होती हैं और अध्यात्म का सन्देश जगजीवों को देकर वास्तविक परमानन्द को प्राप्त कराती हैं। मुक्ति से आवृत्ति का स्मरण ग्रन्थकार सद्गुरुदेव के विशेष ज्ञान का सूचक है। ऐसी ही आत्माएँ स्वयंसिद्ध सद्गुरु या अभ्याससिद्ध सद्गुरु होकर ब्रह्मविद्या का विमल उपदेश दे, जगजीवों को अमृत परमानन्द की प्राप्ति कराती हैं।’’ इस प्रकार स्वामीजी के अवतरण की पृष्ठ भूमि यहाँ स्पष्टतः दृष्टिगत होती है। इसी कड़ी में स्वामीजी आगे कहते हैं कि उस मुक्ति-द्वार सेे नीचे उतरने के ज्ञान का मुझे विस्मरण नहीं हुआ है। यह प्रभु की महिमा ही है कि अब तक वह ज्ञान मेरे अन्दर स्मरण होकर प्रकट हो रहा है।

वह ज्ञान बिसरा नहीं, स्मरण होय मोहि आय। 
यह महिमा प्रभु जानिये, भक्तन उर बस आय।।
- स्वर्वेद 1/7/12
शुद्ध प्रभु-भक्त ही इस महान् महिमा को समझ पायेंगे, जिसकी ओर सद्गुरुदेव ने यहाँ संकेत दिया है।
   
ऐसे महर्षि सदाफलदेव जी महाराज जिन्हें अपनी पूर्व-मुक्ति का भी ज्ञान था, फिर भी जब योग-साधना में प्रवृत्त हुए तो बहुत से सामान्य अनुभवों की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। विशेष अनुभव के रूप में शब्द और प्रकाश की अनुभूति होने पर भी उसे मायिक प्रकाश ही कहा और बराबर आगे के मार्ग की प्राप्ति के लिए अग्रसर होते रहे। वे चाहते तो योग के प्रारम्भिक अनुभवों को ही उपलब्धि मानकर अपने मत का प्रचार करने लगते, मगर ऐसा उन्होंने नहीं किया।

वे हमेशा परमात्म-ज्ञान की पूर्णता के लिए अग्रसर होते गए। उन्हें यह लगता था कि जो परमात्मा इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि की पहुँच के परे है, उसे उन्हीं के माध्यम से कैसे जाना जा सकता है? उनकी साधना की यात्रा सतत आगे बढ़ती रही।

स्वामीजी प्रभु-प्राप्ति के मार्ग में अनवरत आगे बढ़ते जा रहे थे। इसी क्रम में जब एक सन्त-विशेष स्वामीजी को मिले हैं, तब आपको शान्ति मिली है और उस सन्त द्वारा बतलाई साधना को वृत्तिकूट आश्रम की पर्णकुटी के नीचे एक गुफा में करने लगे हैं। फिर यहाँ से आश्रम के दक्षिणी भाग स्थित बगीचे में गुफा में योगाभ्यास करने लगे। यहाँ पर जब अधिक लोग आने-जाने लगे तब फिर उस स्थान पर वि0 सं0 1963 [ई0स01906] में चले गये जिसे आज सभी वृत्तिकूट गुफा के नाम से जानते हैं। स्वामीजी की खपरैल गुफा हममें से बहुत लोगों ने प्रत्यक्ष देखी है। उसी स्थान पर आज पाँच तल्ला स्मृति-केन्द्र बना हुआ है, जिसके निचले भाग में अभी भी उस पुरानी गुफा का स्थान सुरक्षित है।

इस वृत्तिकूट की गुफा में अनवरत योगाभ्यास करने के पूर्व जब स्वामी जी इसके दक्षिणी दिशा की ओर स्थित बगीचे में साधनारत थे तो उस समय कुछ नामधारी साम्प्रदायिक व्यक्ति मान-प्रतिष्ठा के लिए ईर्ष्याग्रस्त हो गये। वे लोग प्रचार करने लगे कि यहाँ तो स्वामीजी ऐसी बातें बतलाते हैं, जिसका शास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं है। इस प्रकार वे लोग किसी शास्त्रज्ञ पंडित को खोजने लगे जो स्वामी जी से शास्त्रार्थ कर सके। उसी क्षेत्र में एक विद्वान् पंडित श्री जयन्त्री प्रसाद जी रहते थे, जिनके बारे में उधर के लोग जानते थे कि ये महान् विद्वान् पंडित हैं। अतएव विरोधी पक्ष ने उनके पास पहुँच कर उन्हें शास्त्रार्थ के लिए तैयार कर लिया। जब स्वामीजी के पास उनका सन्देश आया तो स्वामीजी ने सिर्फ इतना कहा कि न तो मैं इस शास्त्रार्थ के उद्देश्य से किसी के यहाँ जाता हूँ और न इसके लिए किसी को अपने यहाँ बुलाता हूँ। मगर इस बात की चर्चा पूरे क्षेत्र में फैल जाने से और इसका दुष्प्रचार होने से बचने के लिए अन्ततः स्वामीजी ने पंडित जी को उस बगीचे पर आने का आमन्त्रण दे दिया। विद्वान् पंडित श्री जयन्त्री प्रसाद जी अपने विद्यार्थियों के साथ पधारे और साथ में क्षेत्र की जनता भी काफी संख्या में उपस्थित हो गई।

स्वामीजी से वार्तालाप के क्रम में पंडित जी को भान हो गया कि ये वाचक ज्ञानी नहीं हैं, इनके पास तो अध्यात्म का अनुभवपरक दिव्य ज्ञान है। जहाँ अध्यात्म-ज्ञान का सूर्य है, वहाँ शास्त्रीय ज्ञान का दीपक भला कैसे ठहर सकता है? फिर तो स्वय पंडित जी ही स्वामीजी के वचनों को सुनकर मंत्रमुग्ध हो उठे। उन्होंने स्वामीजी की प्रशंसा में एक श्लोक बना कर भी दिया। सर्वत्र स्वामीजी की जय-जयकार होने लगी। ‘सत्यमेव जयते’ चरितार्थ हो गया। इसी घटना के बाद स्वामीजी पुनः आश्रम की गुहा पर योगाभ्यास करने आ गये। वृत्तिकूट की गुहा उनकी योग-प्रयोगशाला थी। वृत्तिकूट की इस पक्की गुहा में स्वामीजी आठों याम कपाट बन्द कर साधना-रत रहते थे। पकड़ी ग्राम के ही एक सन्त श्री रामसुभग सिंह उस समय स्वामीजी की सेवा में हाजिर रहते थे। आप स्वामीजी की गुफा की खिड़की पर कभी फलाहार या दूध आदि रख दिया करते थे। मगर स्वामीजी कभी ले लेते थे और कभी ऐसे ही छोड़ भी देते थे।

स्वामीजी इस वृत्तिकूट की गुफा में अखण्ड-समाधि की अवस्था में रहते थे और किसी को दर्शन भी नहीं देते थे। इस समाधि-अनुष्ठान में स्वामीजी नित्य ब्राह्मुहूर्त में 3 बजे नित्यक्रिया करके अपनी गुफा में चले जाते थे। कभी-कभी कई-कई दिनों तक समाधि में स्थित हो ब्रह्मानन्द में निमग्न रहते थे। उस समय आपकी अन्तर्वृत्ति सदैव गुरु-मंडल में ही रहती थी। अभी जिस स्थान पर समाधि है, उसके सामने और अगल-बगल में सुन्दर बाग लगा है, वहाँ पहले एक वट वृक्ष भी था।      

सद्गुरुदेव रात्रि में कभी-कभी इस वट वृक्ष के नीचे बैठकर परमानन्द में निमग्न हो जाते थे। इस अखण्ड-समाधि की अवस्था में स्वामीजी को बाहर की सुधि नहीं रहती थी और कभी-कभी तो आसन के नीचे सर्प भी पड़ा रहता था। ऐसी प्रचण्ड साधना और ऐसे नियमबद्ध सात्त्विक अनुष्ठान से सद्गुरुदेव योग-समाधि में निमग्न रहते थे। मगर अन्दर की ज्ञानधारा के प्रवाह में कुछ उद्विग्नता-सी होने लगी और उस अवस्था में आपको एक प्रकाश  की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसी स्थिति में वृत्तिकूट आश्रम पर एक विशेष शक्तिसम्पन्न पुरुष सन्त रूप में प्रकट हुए। इन्हीं सत्पुरुष को स्वामीजी अपना सद्गुरु और ब्रह्मविद्या का आचार्य बतलाते हैं। ब्राह्ममुर्हूत का समय था। सदगुरुदेव नित्यक्रिया से निवृत्त होकर लौट रहे थे। तभी वृत्तिकूट आश्रम पर एक सन्त सत्पुरुष प्रकट हुए और उन्होंने सद्गुरुदेव का गगन-कपाट खोल स्पष्ट रहस्य बतलाकर कृतार्थ कर दिया। सद्गुरुदेव को इस सत्पुरुष के दर्शन से अपार शान्ति मिली है। वे सन्त पुरुष स्वामीजी को यह भी बतलाये कि कोटि विघ्न आने पर भी गुहा-अनुष्ठान से बाहर नहीं आयेंगे। नियमानुसार गुहा में छः माह तक अनुष्ठान होता है और इस अवधि में कहीं बाहर आना-जाना नहीं रहता है। इस नियम को स्वामीजी भी जानते थे, मगर सन्त सत्पुरुष भी उन्हें इस बात की हिदायत दे गये कि आप गुहा में रहकर ही भजन करते रहेंगे, इससे बाहर न आयेंगे। यह समय वि0 सं0 1970 का यानी ई0 सन् 1914 के प्रारम्भ का है, जब सन्त सत्पुरुष का दर्शन हुआ है। अध्यात्म-जगत् में ऐसे सन्त सत्पुरुष का दर्शन विरले ही किसी को होता है। स्वामीजी जैसी महान् आत्मा को नित्य अनादि सद्गुरु ने दर्शन देकर कृतार्थ कर दिया। स्वामीजी की साधना को एक प्रकाश-स्तम्भ मिल गया।

इस तरह स्वामीजी की साधना जो सन् 1904 के प्रारम्भ से शुरू हुई सन् 1914 तक उस अवस्था को प्राप्त हुई जब स्वयं नित्य अनादि सद्गुरु को वृत्तिकूट आश्रम पर प्रकट होकर उन्हें आध्यात्मिक तत्त्वों का पूर्ण बोध कराना पड़ा। वृत्तिकूट गुहा-अनुष्ठान में पकड़ी गाँव के रामसुभग सिंह के साथ जो दो अन्य सेवक रहते थे-उनका नाम चेतन दास और राम रतन था। गुहा-अनुष्ठान में इन सेवकों की सेवा सदैव याद की जायेगी। स्वामीजी रचित स्वर्वेद में इस नित्य अनादि सद्गुरु के वृत्तिकूट आश्रम पर प्रकट होने की चर्चा जगह-जगह आयी है। जब नित्य अनादि सद्गुरु द्वारा स्वामीजी को सारा ज्ञान प्रदान कर दिया गया है और स्वामीजी को उस अजगुरु की प्रत्यक्ष जानकारी हो गई, तब स्वामीजी को यह अनुभव हुआ कि जब मैं बालापन में अभ्यास करण्ता था, तब भी यह सत्ता मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे आशीर्वाद दिया करती थीं। इस संदर्भ में सद्गुरुदेव ‘स्वर्वेद’ में लिखते हैं-

बालापन अभ्यास में, मम शिर अंगुल राख।
अमर पुरुष वह कौन है , तत्त्व वेत्ता यह भाख।। 
- स्वर्वेद 1/9/15
नित्य अनादि सद्गुरु का दर्शन होने पर और उनके द्वारा ब्रह्मज्ञान की समस्त धारा प्रवाहित कर देने पर स्वामीजी को स्मरण हो आया कि बाल्यकाल में योगाभ्यास करते समय मेरे शिर पर कोई अंगुली रखता था। उसी सद्गुरु की छत्र-छाया में आध्यात्मिक जीवन का विकास होता है और परम पुरुष का दर्शन तथा परमात्मा की प्राप्ति होती है। इस नित्य अनादि सद्गुरु जो सन्त रूप में वृत्तिकूट आश्रम पर प्रकट हुए थे, उनकी चर्चा करते हुए सद्गुरुदेव भाव-विह्वल हो उठते हैं और कहते हैं-

सन्त रूप सद्गुरु मिलै, शब्द के द्वार लखाय।
मैं बालक नासमझ था, महिमा समझ न पाय।।
वृत्तिकूट मम धाम पर, सद्गुरु दर्शन दीन।
मैं अज्ञान अबोध में, चरण पकड़ि नहिं लीन।।
-स्वर्वेद 1/6/47, 48
उक्त दोहों में सन्त रूप सद्गुरु के मिलने का और शब्द-द्वार चेतन लोक की प्राप्ति कराने के साथ-साथ वृत्तिकूट-धाम पर उनके दर्शन देने का स्पष्ट विवेचन है।

जब अध्यात्म के पथ पर प्रभु-प्राप्ति के लिए व्याकुलता की सीमा पार होने लगती है, आदि गुरु स्वयं प्रकट हो सारे अध्यात्म-रहस्यों को अनावृत्त कर दिव्य शान्ति प्रदान करते हैं।

स्वामीजी की आध्यात्मिक यात्रा पूर्णता की ओर बढ़ती जा रही थी। नित्य अनादि सद्गुरु की छत्र-छाया मिल चुकी थी। अब उनका कृपा-प्रसाद भी मिलता जा रहा था। नित्य अनादि सद्गुरु ने उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया था। अब उनकी लीला भी होने लगी थी।

इधर नित्य अनादि सद्गुरु प्रकट होकर सद्गुरुदेव को ज्ञान की पूर्णता देकर शान्ति प्रदान करते हैं और उधर एक और घटना घटित हो जाती है, जो स्वामीजी को महिमान्वित भी करती है और नित्य अनादि सद्गुरु के प्रति उनकी धारणा को और अधिक सुदृढ़ कर देती है। गुहा-अनुष्ठान-काल में किसी भी स्थिति में छः माह तक बाहर आना-जाना नहीं होता है, इस बात को स्वामीजी जानते थे, फिर भी सन्त सद्गुरु जब दर्शन दिए तो उन्होंने भी जोर देकर इस बात की ओर ध्यान दिलाया। वास्तव में कुछ विशेष लीला होने वाली थी। इसीलिए सन्त सत्पुरुष ने इस प्रकार की बातें सद्गुरुदेव से की। हुआ यह कि वृत्तिकूट आश्रम से करीब दस मील की दूरी पर एक खारी ग्राम है। इसी ग्राम में लोगों ने महर्षि सदाफलदेव जी महाराज को एक स्थान-विशेष पर बैठे हुए देखा । स्वामीजी छः माह के गुहा-अनुष्ठान में हैं, इसकी चर्चा उस क्षेत्र में चारों ओर फैल गई थी। कुछ लोगों को आशंका हुई कि गुहा-अनुष्ठान के समय आखिर स्वामीजी यहाँ कैसे आ गये? कुछ लोग जिज्ञासावश वृत्तिकूट आश्रम पर आ गये और सेवकों से पूछने लगे कि आपके स्वामीजी तो खारी ग्राम में बैठे हुए हैं। सेवक अवाक् रह गये। उन्होंने कहा कि हमारे स्वामीजी तो गुफा से कहीं बाहर गये ही नहीं हैं।

स्नान करने के बाद उनकी लंगोटी अभी भी सामने सूखने के लिए टंगी हुई है। बाहर इस प्रकार की बातचीत और सद्गुरुदेव के खारी में प्रकट होने की बात स्वामीजी गुफा के ऊपरी भाग में उस समय सुन रहे थे। उन लोगों की बातचीत सुनकर स्वामीजी अन्दर से खाँसे, जिसे सुनकर बाहर में लोगों को विश्वास हो गया कि सद्गुरुदेव जी गुफा के अन्दर ही हैं। अब तो खारी से आये व्यक्तियों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। स्वामीजी एक ही समय में गुफा में भी हैं और इसी समय खारी ग्राम में भी हैं, यह जानकर उन लोगों को सारी बातें एक अलौकिक चमत्कार जैसी लगीं। सद्गुरुदेव की जय-जयकार होने लगी। लोगों ने यही समझा कि महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ही अपनी योग-शक्ति से खारी ग्राम में भी प्रकट हो गये हैं। सब स्वामीजी की ही महिमा गाने लगे। स्वामीजी इस घटना को जानकर भाव-प्रवण हो उठे। नित्य अनादि सद्गुरु की ऐसी महती कृपा से वे भाव-विभोर हो गए। स्वामीजी जान गये कि नित्य अनादि सद्गुरु-सत्ता ने उनके रूप का चयन कर उसे अपने प्रकट होने का माध्यम बनाया है।

स्वामीजी की आँखों के सामने वह दृश्य घूम गया जब सन्त महापुरुष ने उनसे कहा था कि आप किसी भी परिस्थिति में गुहा-अनुष्ठान से बाहर नहीं आयेंगे। स्वामीजी समझ गये कि खारी में वे ही सत्पुरुष मेरी आकृति में प्रकट हो कर मेरा ही मान बढ़ाये हैं। उनकी उत्कट इच्छा हुई कि मैं भी नित्य अनादि सद्गुरु का दर्शन वहाँ जाकर करूँ। मगर उनकी कही हुई बात याद आ गई कि किसी भी विषम परिस्थिति में भी गुहा-अनुष्ठान से बाहर नहीं जाना है। सद्गुरुदेव जी के द्वारा जब लोगों को यह मालूम हुआ कि खारी में स्वामीजी के स्वरूप में जो व्यक्ति बैठे हैं, वे स्वयं नित्य अनादि सद्गुरु हैं तो सब स्वामीजी की महानता के गीत गाने लगे। खारी ग्राम का वह स्थान पूज्य बन गया है। आज उस स्थान पर एक ‘स्मृति स्थल’ बना हुआ है, जो उस घटना की याद दिलाता है। सद्गुरुदेव जी अज सद्गुरु की इस अहैतुकी कृपा से भाव-विभोर हो उठे। ‘स्वर्वेद’ में उन्होंने इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है-

सद्गुरु सुकृत देव जी, खारी प्रकटे आय।
चंचल मन अविचल किया, संशय दूर बहाय।।
-स्वर्वेद 1/6/46
इसका भाष्य करते हुए अनंत श्री आचार्य धर्मचन्द्रदेव जी महाराज लिखते हैं- ‘‘नित्य अनादि सद्गुरुदेव ने खारी गाँव में प्रकट होकर सर्व संशय नष्ट कर चंचल मन को स्थिर किया। संवत् 1970 विक्रमी फाल्गुन कृष्ण पक्ष ख्तदनुसार ई0स0 1914 का प्रारम्भ, में आश्रम वृत्तिकूट के समीप खारी गाँव में नित्य अनादि सद्गुरुदेव प्रकट हुए थे।.....सद्गुरु सुकृतदेव प्रथम वृत्तिकूट आश्रम पर दर्शन दे अपनी सहज कृपा-दृष्टि द्वारा ब्रह्मविद्या का विमल प्रकाश प्रदान कर खारी में जाकर सद्गुरु सदाफलदेव जी के स्वरूप में ही प्रकट हो गये हैं। उसी काल में ग्रंथकार सद्गुरुदेव के सर्वसंशय नष्ट हुए हैं और चंचल मन स्थिर होकर अपने चेतन-प्रकाश को प्राप्त किया है।’’

स्वामीजी इस असाधारण घटना के मर्म को जानते थे। नित्य अनादि सद्गुरु का स्वयं महर्षि सदाफलदेव जी महाराज के स्वरूप में ही प्रकट होना-एक आध्यात्मिक रहस्य का द्योतक है। सद्गुरु-पद को स्वीकृत करने के लिए एवं संसार के आचार्य, उपदेष्टा पद को पूर्ण प्रतिष्ठित करने के लिए नित्य अनादि सद्गुरुदेव महर्षि सदाफलदेव जी महाराज के स्वरूप में ही प्रकट हुए। इसीलिए इस रहस्य-भेद को रूपायित करते हुए स्वामीजी ‘स्वर्वेद’ में लिखते हैं-

मम स्वरूप में प्रकट भो, खारी में वह आय।
मम स्वरूप अभिमान क्या, यह रहस्य बतलाय।।
-स्वर्वेद 1/9/16  
 
स्वामीजी के स्वरूप में नित्य अनादि सद्गुरु का खारी में प्रकट होने से उन्हें अपार आनन्द की प्राप्ति हुई। उनका गुहा-अनुष्ठान का कार्य अबाध गति से चलता रहा। कहा जाता है कि सद्गुरुदेव का यह गुहा-अनुष्ठान कभी छः महीने का, कभी-कभी एक वर्ष का हुआ करता था। इस तरह वृत्तिकूट आश्रम की गुहा में नियमबद्ध रहकर स्वामीजी ने करीब 12 वर्षों तक कठोर साधना किया। यह अवधि करीब सन् 1904 से लेकर 1915 तक की है [वि0 सं0 1961 से वि0 सं0 1972 तक] जो करीब 12 वर्षों की अवधि होती है। इस वृत्तिकूट आश्रम की गुहा के अलावा अन्य एकान्त-प्रिय स्थानों पर भी स्वामीजी ने गुहा-अनुष्ठान की है। चित्रकूट से करीब 60 मील की दूरी पर स्थित हमीरपुर यमुना-बेतवा संगमतट पर भी स्वामीजी ने बहुत दिनों तक तपस्या की। इस स्थान पर करील वृक्षों का घना जंगल था और मोर पक्षियों से यह वन अत्यन्त सुशोभित लगता था। यहाँ पर भी स्वामी जी छः मास का अनुष्ठान किए थे।

बलिया जिले के ही ‘जवही’ स्थान पर जो गंगा के दीयर में है, स्वामीजी कुछ काल निवास किए थे। बलिया जिला अन्तर्गत बड़का खेत आदि विभिन्न स्थानों पर जो गंगातट पर है, आप तपस्यारत रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर करीब 17 वर्षों सत्रह वर्ष, की अनवरत साधना के पश्चात् और कई गुहा-अनुष्ठान के बाद आप पूर्णता को प्राप्त किए हैं और अध्यात्म-ज्ञान के सम्पूर्ण धरातल को स्पष्ट रूप से अपने भीतर उतार कर उस परम पुरुष परमात्मा के प्रकाश में परमानन्द को प्राप्त कर अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित हुए। अनंत श्री आचार्य धर्मचन्द्रदेव जी महाराज के शब्दों में - ‘‘.......ऐसे छः माह का या एक वर्ष का उनका गुहा-अनुष्ठान होता था। 

वृत्तिकूट की गुहा में नियमबद्ध 12 [बारह] वर्ष तक निवास किए। इसके बाद अनुष्ठान रूप में गंगा के तट पर बलिया जिले में एक स्थान ....है, वहाँ पर छः मास का अनुष्ठान हुआ था। यह अनुष्ठान प्रारम्भिक काल का था। इसके अतिरिक्त बुंदेलखंड में यमुना-बेतवा के संगम पर वन में छः मास का अनुष्ठान किए थे। वहाँ आज भी आपके प्रेमी-सत्संगी हैं। पुराने शिष्य तो कालवशात् नहीं रहे। यह समय संवत् 1972 विक्रमी [ई0सन् 1915] का है। ऐसे 17 वर्ष सत्रह वर्ष, के परिश्रम के पश्चात् यह अवस्था उन्हें प्राप्त थी।’’ 
[‘सदगुरुदेव कौन थे?’ पुस्तक के ‘सद्गुरुदेव जी का संस्मरण’ लेख से उद्धृत]
    
इस तरह अनंत श्री आचार्य धर्मचन्द्रदेव जी महाराज के द्वारा जगह-जगह पर स्वामीजी के योग-अनुष्ठान की चर्चा आयी है और उनकी सत्रह वर्षों की कठोर साधना का भी जिक्र किया गया है। वैसे तो स्वामीजी ने ज्ञान के जिस सर्वोच्च धरातल को प्राप्त किया उसके लिए हजारों वर्ष की साधना भी कम ही कही जायेंगी। अपने वैदिक और पौराणिक कथाओं में ऐसे ऋषि-मुनियों की चर्चा आयी है, जो हजारों वर्ष तपस्यारत रहे हैं। मगर उनके ज्ञान की उपलब्धि या तो किसी वरदान तक आकर ठहर गई है अथवा उन्हें कुछ रिद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं। स्वामीजी ने अध्यात्म के जिस सर्वोच्च शिखर को प्राप्त किया था- वहाँ पहुँचने के बहुत पहले ही रिद्धियाँ-सिद्धियाँ हाथ जोड़ कर खड़ी मिलती हैं। मगर अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने वालों के लिए इन रिद्धियों-सिद्धियों को त्याज्य कहा गया है। स्वामीजी भी इन्हें योग की उपलब्धि में बाधा मानते थे। इसीलिए स्वामीजी के पास जो शक्ति उपलब्ध हुई थी, वह योग-जगत् की श्रेष्ठतम उपलब्धि थी। स्वामीजी के पास अध्यात्म का श्रेष्ठतम ज्ञान और योग का श्रेष्ठतम ‘योग बल’ सहज में उपलब्ध था।
             
इस तरह सत्रह वर्षों की अनवरत साधना, गुहा-अनुष्ठान और नित्य अनादि सद्गुरु के दर्शन-प्रकाश में स्वामीजी महान् योगीश्वर, महान् प्रज्ञावान्, पूर्ण आनुभविक तत्त्ववेत्ता और अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित हुए हैं। उनका स्थान किसी योगी, मुनि, ऋषि, महात्मा आदि से भी बड़ा ‘सद्गुरु’ के पद पर है, जो अध्यात्म-जगत् के मार्तण्ड होते हैं। सचमुच स्वामीजी अध्यात्म-मार्तण्ड थे, जिनकी कृपा की किरणों से अनेक अध्यात्म-पिपासु, जिज्ञासु आत्माओं का उद्धार हुआ है, आज भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। आज अनेक लोग अपने को सद्गुरु तो कहते हैं मगर नित्य अनादि सद्गुरु-सत्ता का दर्शन तो दूर रहा, उनके नाम से भी वे परिचित नहीं हैं।

स्वामीजी चाहते तो बाल्यावस्था में ही मंत्र-जाप की उच्चतर भूमि जो उन्हें प्राप्त थी, उससे अपने को सबसे बड़ा मंत्रयोगी घोषित कर सकते थे। आसन-प्राणायाम की सिद्धता उन्हें जो युवावस्था में प्राप्त थी उससे वे चाहते तो अपने को सबसे बड़ा हठयोगी भी घोषित कर सकते थे। सिद्धि-विभूतियाँ जो उनके सामने हाथ जोड़े खड़ी रहती थी , उससे वे अपने को सबसे बड़ा सिद्ध पुरुष भी घोषित कर सकते थे। मगर उन्होंने कभी भी ऐसा नहीं किया।

बाद में स्वामीजी को नित्य अनादि सद्गुरु के दर्शन प्रयाग, झूँसी में, दण्डकवन आश्रम, बाँसदा [गुजरात] में, शून्यशिखर आश्रम [उत्तराखंड] में और अनेक अन्य स्थानों पर भी हुई। स्वामीजी समय-समय पर उस सत्ता के दर्शन से आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाते रहे।

वे सतत अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर की ओर बढ़ते गये । उन्होंने साधना की पूर्णता को प्राप्त करने के बाद ही प्रचार का संकल्प लिया। उन्होंने इस अद्भुत ज्ञान की आन्तरिक प्रक्रिया को वैदिक धरातल और सन्त-मत दोनों के आधार से सत्यापित किया और इसकी विधिवत् दीक्षा सुयोग्य जिज्ञासुओं को देने के लिए एक क्रम भी बनाया। योग की पाँच भूमियों का क्रम।

आज विहंगम सन्त-समाज के योग की जिन पाँच भूमियों की चर्चा होती है, वह स्वामीजी की विश्व के लिए एक अद्भुत आध्यात्मिक देन है। सारा विश्व उनके इस दिव्य ज्ञान के लिए सदा ऋणी रहेगा। अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर पर स्थित होकर स्वामी जी ने ‘स्वर्वेद’ नामक  आध्यात्मिक सद्ग्रन्थ की रचना की, जो अध्यात्म-जगत् की एक अनुपम धरोहर है। सन्तमत के सद्ज्ञान को दर्शाने के लिए एक ओर ‘बीजक भाष्य’ लिखा तो दूसरी ओर वेदविहित ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए ‘चतुर्वेदीय ब्रह्मविद्या भाष्य’ भी लिखा। वेद-मत और सन्त-मत की सादृश्यता को दर्शाने के लिए स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से कहा कि इन दोनों के तात्त्विक ज्ञान में कोई भेद नहीं है। वाचक-ज्ञानी ही भेद पैदा करते हैं। इसी तरह वैज्ञानिक खोजों को भी स्वामीजी ने चुनौती दी और सृष्टि-रचना के क्रम को भी अपने योगजन्य अनुभव के आधार पर प्रतिपादित करते हुए विज्ञान-जगत् को भी झकझोर दिया-

पूर्ण रूप मैं जानता, ब्रह्म चक्र विस्तार।
ब्रह्मविद्या गुढ़ तत्त्व है, सद्गुरु कृपा अपार।।
- स्वर्वेद 5/3/82
आखिर ब्रह्मविद्या तो समस्त विद्याओं की जननी है। ब्रह्मविद्या के अन्दर ही प्राकृतिक और आध्यात्मिक उन्नति के सारे साधन हैं।

स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से बतलाया कि ब्रह्मविद्या के दो भेद हैं- एक बाह्य तत्त्वज्ञान और दूसरा आभ्यन्तर भेद-साधन। स्वामी जी की वाणी है-

ब्रह्मविद्या दो भेद है, तत्त्व ज्ञान अभ्यास। 
प्रथम बोध तत्त्वन करे, अन्तर भेद समास।।
- स्वर्वेद 4/1/18
बाह्य तत्त्वज्ञान के रूप में प्रकृति, काल, आत्मा, सद्गुरु, अक्षर-ब्रह्म और परमाक्षर-ब्रह्म की पूर्ण व्याख्या स्वामीजी के सद्ग्रंथ ‘स्वर्वेद’ में आयी है। आभ्यन्तर भेद-साधन की प्रक्रिया का संकेत भी स्वर्वेद में जगह-जगह आया है। मगर साधना की भेद-युक्ति तो सद्गुरु से ही सीखनी पड़ती है।

स्वामीजी ने ब्रह्मविद्या के ज्ञान को सर्वसुलभ बनाने के लिए पाँच कोटियों के उपदेश की व्यवस्था की। उन्होंने स्पष्ट रूप से बतलाया कि कोटि-भेद तो साधना की श्रेणियाँ हैं। बाहरी पूजा-पाठ में आगे बढ़ने का ही यह फल मिलता है कि आन्तरिक पूजा बतलाने वाले समर्थ सद्गुरु की प्राप्ति होती है। अब आन्तरिक पूजा-पाठ की कुछ प्रारम्भिक श्रेणियाँ हैं जिसमें आसन-प्राणायाम, मंत्र-जाप आदि आते हैं। इसलिए योग की प्रायः तीन श्रेणियाँ मानी जाती हैं-पहली योग और शरीर यानी पिपिल योग, दूसरी योग और मन यानी कपिल योग और तीसरी योग और आत्मिक चेतना यानी विहंगम योग। शरीर के आधार पर चलने वाली क्रियाएँ ‘पिपिल मार्ग’ हैं तो मन के आधार पर चलने वाली क्रियाएँ यानी मन को विभिन्न केन्द्रों पर रोकने का अभ्यास कपिल योग है और इससे भी आगे आत्मिक आधार से चलने वाली क्रिया विहंगम योग है। ब्रह्मविद्या का यही सर्वोच्च धरातल है। प्रारम्भ में तो सबको शरीर के योग से ही शुरू करना है मगर आगे बढ़ते हुए मन को विभिन्न केन्द्रों पर रोकने का अभ्यास और अन्त में आत्मिक चेतना को उस विभु-चेतना ख्परमात्मा, से जोड़ने का प्रयास ही योग का मुख्य लक्ष्य है। इस समस्त प्रक्रिया को सद्गुरु के ज्ञान-प्रकाश में करना नितान्त आवश्यक है। विहंगम योग की प्रारम्भिक तीन श्रेणियाँ [विहंगम योग की तीन भूमियाँ] प्रकृति-मंडल के अन्दर हैं और शेष दो भूमियाँ चेतन-मंडल में हैं। चेतन आत्मा से चेतन परमात्मा की प्राप्ति ही योग का अन्तिम उद्देश्य है। इसीलिए स्वामीजी ने कहा है-

परम पुरुष अरु आत्मा, सन्धि निरन्तर योग।
जड़ माया व्यापे नहीं, कभी न होय वियोग।।
- स्वर्वेद
यानी योग तो परम पुरुष और जीवात्मा के निरन्तर सम्बन्ध को कहते हैं,  जहाँ जड़-प्रकृति का प्रभाव नहीं रहता और न कभी दोनों (आत्मा-परमात्मा) का सम्बन्ध टूटता है। वास्तविक योग तो यहीं पर घटित होता है।
इस तरह स्वामीजी ने योग का सर्वोच्च धरातल हमें प्रदान किया और मानवमात्र के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक कल्याण के लिए एक  पूर्ण आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त किया। इस ब्रह्मविद्या विहंगम योग को ही स्वामी जी ने ‘सहज योग’ भी कहा। सहज योग की महत्ता बतलाते हुए उन्होंने कहा-

सहज योग एक योग है, सब योगन शिरताज।
प्रकृति असंग उड़ाव है, पिपिल कपिल गति त्याज।।
-स्वर्वेद
अध्यात्म के क्षेत्र में अद्भुत कार्य करते हुए स्वामीजी ने देश की स्वतन्त्रता के लिए भी अभूतपूर्व योगदान दिया और दानापुर छावनी में भाषण देने के लिए उन्हें दो वर्ष की सजा भी हुई। इसी तरह समाज-सुधार के क्षेत्र में भी स्वामीजी अग्रणी रहे। अस्पृश्यता-निवारण, हरिजनोद्धार, नारी-शिक्षा, सामाजिक जागरण तथा राष्ट्रभक्ति के अनेक कार्य सम्पादित करते हुए स्वामी जी ने धर्म के नाम पर पनपे अन्धविश्वासों और कुरीतियों पर भी कड़ा प्रहार किया। स्वामीजी एक महान् अध्यात्मवेत्ता, महान् राष्ट्रभक्त, महान् समाज-सुधारक और शान्ति के महान् पुजारी भी थे। मानवमात्र का मंगल ही उन्हें अभीष्ट था। स्वामीजी ने पैंतीस ग्रन्थों की रचना की जो जीवन के हर क्षेत्र में हमारे उत्थान का मार्ग प्रशस्त करते हैं। स्वामीजी हमेशा सत्य के पक्षधर रहे। उन्होंने हमेशा सत्यज्ञान का ही उपदेश दिया। सत्यकाम और सत्यसंकल्प के बल पर स्वामी जी अध्यात्म-जगत् के सूर्य के रूप में प्रकाशमान् हुए।

स्वामी जी ने सत्यज्ञान के प्रचार के बारे में स्पष्ट रूप से कहा -

मम सद्गुरु आदेश है, सत्य करो उपदेश  । 
भला बुरा जग मानई, सन्त चले निज देश।। 
- स्वर्वेद
 
सत्यज्ञान का उपदेश विश्व के सारे मानव के लिए करने के सम्बन्ध मंे स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से घोषणा की-  

भूमंडल संसार में, सद्गुरु का बहु धाम। 
ब्रह्मविद्या परचार सो, अन्तर गति सत्यनाम।।
- स्वर्वेद
संसार में बह्मविद्या प्रचार के अनेक केन्द्र बनेंगे, मगर वहाँ केवल सत्य ज्ञान का प्रचार होगा जो अध्यात्म की अन्तर्यात्रा का बोधक है। उन्होंने यह भी कहा कि ब्रह्मविद्या का ज्ञान तो सूर्य के समान प्रकाशमान् है-

भानु ज्योति के सामने, सर्व ज्योति ढँपि जाय।
ब्रह्मविद्या परकाश में, सर्व ज्ञान छिपि जाय।।
- स्वर्वेद 
आज विज्ञान की खोज ने बहुत से तथाकथित धर्म की नींव हिला दी है। अध्यात्म भी विज्ञान की खोजों से घबरा गया है। मगर महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ने विज्ञान को भी बौना साबित कर दिया। आज महान् खगोल वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंग संसार की उत्पत्ति का आदि कारण एक कम्प को मानते हैं, परन्तु वह कम्प जड़ का है या चेतन का, इस बारे में पूर्णतः आश्वस्त नहीं हैं। इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान के भी पहले की स्थिति मूल कारण के रूप में शायद एक बायब्रेशन है, जिसकी चर्चा अभी वैज्ञानिक खोजों में की जा रही हैं। मगर स्वामीजी ने अपने सद्ग्रंथ ‘स्वर्वेद’ में जिसकी रचना सन् 1938 के पहले ही पूर्ण हो गई थी, स्पष्ट रूप से लिखा --  
                       
कम्प सकल संसार में, यह किसका है कम्प। 
कौन देव क्यों कम्प है, विद्वन कहिये कम्प।।
- स्व0 2/4/1 
अक्षर माहीं कम्प है , माया योग विकाश। 
सृष्टि के प्रादुर्भाव है, अक्षर जग परकाश।। 
- स्व0 1/2/33  
यानी सृष्टि के मूल में जो कम्प है, वह अक्षर-ब्रह्म का ही कम्प है। इसी अक्षर-बह्म के कम्प से सृष्टि की मूल-प्रकृति में गति होती है और उसकी साम्यावस्था भंग होती है तथा सृष्टि का निर्माण तथा संचालन होता रहता है। उसी कम्प के गुप्त हो जाने से सृष्टि का प्रलय भी हो जाता है। इसके ऊपर एक और भी सत्ता है, जो अक्षर का भी संचालन करती मगर स्वयं निरपेक्ष है, अडोल है, अडिग है और उसे ही परमाक्षर (परमातमा) कहते हैं-

कशा अडिग अडोल है, कम्प नहीं है ताहिं।
जग में अक्षर कम्प है, अनुभव दर्शन माहीं।।
अन्त में स्वामी जी कहते हैं, उस निष्कम्प परमाक्षर को और अक्षर के कम्प को बौद्धिक धरातल पर नहीं समझ सकते हैं, इसका प्रत्यक्ष दर्शन साधन-अनुभव में होता है। इस तरह हम देखते हैं कि विहंगम योग के प्रणेता महर्षि सदाफलदेव जी महाराज एक पूर्ण तत्त्ववेत्ता हैं जो परमाणु से लेकर परमात्मा तक का सम्पूर्ण ज्ञान अपने अनुभव के आधार पर स्पष्ट रूप से बतलाते हैं।

आज विज्ञान इतना आगे बढ़ गया है, मगर सारी सुख-सुविधाएँ जिस विज्ञान रूपी जहाज पर रखी हैं, उसमें दिशासूचक यंत्र ही नहीं है। इस दिशासूचक यंत्र के बिना विज्ञान विनाश का कारण बन सकता है। आखिर दिशासूचक यंत्र आयेगा कहाँ से? स्वामीजी ने इस बारे में भी कहा है कि अध्यात्म और सत्संग की शक्ति ही दिशासूचक यंत्र का कार्य करेगी और विज्ञान को दिशा-बोध देगी।

भवसागर नर देह का, दिशा प्रदर्शक यंत्र। 
सत्संगति सब मूल है, सब ज्ञानन पर मंत्र।।
- स्वर्वेद
 
आज विज्ञान को भी इस बात को समझने की जरूरत है कि अध्यात्म के बिना यह विनाशकारी बनकर रह जायेगा। अध्यात्म को भी शुद्ध तत्त्वज्ञान के प्रकाश में विज्ञान को दिशा-बोध देना होगा। इसी में विश्व का कल्याण है।

विश्व-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होकर ही स्वामीजी ने हमें विश्वमानवता का संदेश दिया। सभी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानवमात्र को सम्बोधित करते हुए स्वामीजी ने कहा -

अधिकार मानव जाति इसके, प्रेम धारा जिन बहा। 
जिज्ञासुपन से देउँ शिक्षा, करि परीक्षा रत रहा।।
-वन्दना 
यानी ब्रह्मविद्या का अधिकारी सम्पूर्ण मानवजाति है। केवल हृदय में प्रेम चाहिए। धर्म के नाम पर विभेद पैदा करने वालों के प्रति यह एक चेतावनी भी है।

इसी प्रकार समाज में नारी-अधिकार को भी समान दर्जा देते हुए स्वामी जी ने उन्हें भी समान रूप से साधन करने का अधिकार दिया और स्पष्ट रूप से कहा -

नर नारी साधन करें, दोनों एक प्रकार। 
विधि निषेध कोइ है नहीं, केवल प्रेम अधार।।
- स्वर्वेद 
स्वामीजी ने विश्व के समस्त मानवों के लिए सुख-शान्ति की कामना करते हुए कहा -

‘‘विश्व शान्ति नाम मंगल, परम गुरु को ध्याइए।
वर्ग द्वंद्व अशान्ति दुर कर, भाव भेद मिटाइए।।’’
उनके इस मंगल-गान में सारे भेद-भावों को मिटाकर सुख-शान्ति की स्थापना का संकेत है।  

इस तरह महर्षि सदाफलदेव जी महाराज अध्यात्म की गंगा के गोमुख बनकर अपने ज्ञान को इस धराधाम पर उतार लाये और धर्म के नाम पर पनपे अन्धविश्वासों, कुरीतियों, मिथ्या कर्मकांडों की भर्त्सना करते हुए शुद्ध तत्त्वज्ञान से लोगों को परिचित कराया। अपने जीवन के एक-एक क्षण को उन्होंने मानवता के कल्याण में लगा दिया।

प्रयाग के झूँसी की तपोभूमि में आपने माघ शुक्ल नवमी वि0 सं0 2010 (सन् 1954) को महाकुम्भ के अवसर पर योगासन में बैठकर अपने शरीर का परित्याग कर दिया। अपने देहत्याग के उपरान्त स्वामीजी ने अक्षर-मंडल से आकाशवाणी करके सबको चैंका दिया। स्वामीजी ने आकाशवाणी द्वारा ही कहा-‘‘मैं यहाँ हूँ जहाँ से शब्द हो रहा है। अक्षर-मंडल से वाणी हो रही है।’’ मृत्यु-कला का ज्ञान योगी को होता है।

स्वामीजी की समाधि झूँसी-धाम पर ही बनी हुई है। आज भी अनेक भक्त-शिष्य उस समाधि पर माथा टेक कर आध्यात्मिक ऊर्जा अर्जित करते हैं। यह समाधि देश-विदेश के लाखों अनुयायियों की श्रद्धा का केन्द्र है। स्वामीजी अध्यात्म-जगत् के सूर्य हैं और सूर्य को किसी से ऊर्जा लेने की जरूरत नहीं रहती है। कोई भी पावर-प्लांट सूर्य को अपनी ऊर्जा देने में समर्थ नहीं है। इसी परिप्रेक्ष्य में इस महान् ज्ञान में किसी प्रकार का जोड़-घटाव अपेक्षित नहीं है। यह तो ‘पूर्णमिदं’ है अध्यात्म का। किसी वाचक-प्रदर्शन से इस आन्तरिक दर्शन को नहीं मिलाया जा सकता। स्वामीजी योग-व्योम के दिनकर हैं और अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर हैं। आज के इस वैश्विक बाजार के युग में भी स्वामीजी का ज्ञान किसी विज्ञापन की भाषा का मोहताज नहीं है। ज्ञान के ऊपर किसी आवश्यक ग्राहक-सन्तुष्टि का लेबल लगाने की भी जरूरत नहीं है। शुद्ध जिज्ञासु को तो स्वतः इस ज्ञान के प्रकाश में सन्तुष्टि मिल जायेगी। स्वामीजी निसन्देह अध्यात्म-मार्तण्ड हैं और उनकी आध्यात्मिक यात्रा युगों तक मानवमात्र के कल्याणार्थ मार्गदर्शन करती रहेगी। ऐसे अध्यात्म-मार्तण्ड मनीषी को शत-शत नमन!


Ref. Article source from Apani Maati Apana Chandan, Author-Sukhnandan Singh Saday, picture source from Vihangamyoga.org, and other ref. from Swarveda. keywords Sadguru Sadafaldeo Ji Maharaj, Maharshi Sadafaldeo ji maharaj.