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रामधारी सिंह 'दिनकर' | RAMDHARI SINGH 'DINKAR'

राष्ट्रीयता के अमर स्वर - रामधारी सिंह दिनकर

साहित्य की परिभाषा के सन्दर्भ में एक बात यह भी कही गई है कि ‘सहितस्य भावः साहित्यम्’ अर्थात् जिसमें सबके हित की भावना हो वह साहित्य है। शायद यही कारण है कि साहित्य में विश्व-प्रेम और लोक-मंगल की भावनाओं को पुष्ट करने का प्रयास होता रहा है। साहित्य का चिन्तन ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कीे मंत्र-भावना से अभिसिक्त होकर लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता रहा है।   
इस तरह हिन्दी-साहित्य के सृजन में भी एक सार्वभौम और आदर्शोन्मुख मूल्यों की प्रतिष्ठा के प्रयास की परम्परा दिखलाई पड़ती है। मगर इसका अर्थ यह नहीं कि हम केवल आदर्शों की धुन पर अन्तर्राष्ट्रीय मानवता की सरगम ही बजाते रहंे और अपने परिवेश में घटित सामाजिक, राजनैतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की समस्याओं की अनदेखी करते रहंे। यथार्थ के धरातल पर जनमानस की आँखों में तैरते प्रश्नों का समाधान ढूँढ़ना भी साहित्य-सृजन की प्रक्रिया की परिधि में आता है। समस्याओं से आँखें मूंद कर शुद्ध कविता की खोज करना और धरती की तपन को भूल कर कल्पना-लोक में विचरण करना यह कवि की विज्ञ-दृष्टि नहीं कही जा सकती है। 

सच पूछा जाए तो कवि जहाँ आदर्शों के प्रति समर्पित हो वहीं अपने आस-पास के परिवेश से भी कटा न रह कर यथार्थ को रूपायित करने में भी समर्थ हो, तभी उसकी रचना-धर्मिता की सार्थकता है। देश गुलामी की बेड़ियों से जकड़ा हो, राष्ट्र की अस्मिता चैराहे पर नंगी हो रही हो और जनमानस किसी द्वन्द्व से ग्रस्त हो, वैसी परिस्थिति में मूक-दर्शक बने रहना कवि का अभीष्ट नहीं होना चाहिए-इस चिन्तनधारा ने राष्ट्रीय भावनाओं को मुखर होने का पथ प्रशस्त किया। यह राष्ट्रीय भावना कहीं तो परिस्थिति से आवेष्टित रहती है तो कभी राष्ट्रीय उत्थान की कल्पना से ओत-प्रोत। इसलिए कुछ विद्वान् परिवेश एवं परिस्थिति से जन्मी राष्ट्रीयता को युद्ध या क्रान्ति की राष्ट्रीयता एवं सामान्य रूप से उपजी राष्ट्रीयता को शान्ति की राष्ट्रीयता से अभिहित करते रहे हैं। यह विदित है कि राष्ट्र मात्र भूमि का टुकड़ा नहीं होता है, उस पर रहने वाले व्यक्ति और उनकी संस्कृति भी इससे जुड़ी रहती है। डा0 सुधीन्द्र के अनुसार भूमि, भूमिवासी जन और जन-संस्कृति के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है। भारत केवल भूमि मात्र नहीं बल्कि हमारी मातृभूमि भी है।
इस तरह राष्ट्र उस जन-समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है जिनका एक अपना भू-भाग हो, उसकी अपनी संस्कृति हो, एक अपना रीति-रिवाज हो और भू-भाग के प्रति समर्पण की भावना हो। अपने भू-भाग की रक्षा, संस्कृति की रक्षा, एकता की रक्षा, परम्परा और इतिहास की रक्षा करने वाली जो भावधारा है, उसे हम राष्ट्रीयता के नाम से जानतेे हंै। राष्ट्रीयता सदैव देश की अस्मिता से जुड़ी रहती है, राष्ट्र-प्रेम की ध्वनि राष्ट्रीयता में सदैव मुखरित होती रहती है, चाहे वह यजुर्वेद का मन्त्र ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिताः’ हो अथवा भगवान् राम की वाणी ‘जननी जन्मभूमिष्च स्वर्गादपि गरीयसी’ हो, सब में राष्ट्र के प्रति असीम श्रद्धा एवं अटूट आस्था के भाव विद्यमान है, जिन्हें हम ‘राष्ट्रीयता’ शब्द से सम्बोधित कर सकते हैं। 

संस्कृत-साहित्य से लेकर भारत की विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता का यह उदात्त स्वर काव्य में प्रवाहित हुआ है। हिन्दी-साहित्य में चाहे वह अपभ्रंश काल हो, वीरगाथा काल हो, भक्ति काल हो, रीति काल हो या आधुनिक काल हो-सर्वत्र किसी-न-किसी रूप में राष्ट्रीयता का स्वरूप मुखरित होता हुआ दृष्टिगत होता है। भले ही कहीं-कहीं यह स्वर प्रच्छन्न रूप से है, कहीं सांकेतिक रूप में है तो कहीं काफी प्रबल आक्रामक रूप में भी है। आधुनिक काल में राष्ट्रीयता पर मुखर स्वर भारतेन्दु-युग में दिखलाई पड़ता है। इसके बाद यह चेतना विस्तृत आयाम लेती हुई नजर आती है और ‘दिनकर’ तक पहुँचते-पहुँचते इसके स्वरूप में प्रबल तेज उभर आता है। 

राष्ट्रीयता के नायक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चैहान, बालकृष्ण शर्मा नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी आदि की परम्परा में उदात्त राष्ट्रीय काव्य की सृष्टि करने वालों में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का नाम अग्रगण्य है। ‘दिनकर’ का ‘दिनकरत्व उनकी राष्ट्रीय कविताओं में चमक उठा है और इस लिए राष्ट्रीयता के अमर गायक के रूप में हिन्दी-साहित्य में उन्हें प्रतिष्ठित किया गया है।
‘दिनकर’ ने अपनी काव्य-रचना से जनमानस को झकझोरा है और राष्ट्रीयता की ओजपूर्ण वाणी में धरती-पुत्र को जागरण का दिव्य संदेश दिया है। सत्य कहा जाए तो ‘राष्ट्रीयता‘ का स्वर ‘दिनकर’ की पहचान बन गई है। ‘दिनकर’ के व्यक्तित्व का निरूपण करते हुए डा0 सावित्री सिन्हा ने कहा है- ‘‘दिनकर के व्यक्तित्व में धरती-पुत्र का आत्मविश्वास और दृढ़ता, साहित्यकार की अनुभूति-प्रवणता, दार्शनिकता का तत्त्व-चिन्तन तथा राजपुरुष का ओज और तेज है।’’ मन्मथनाथ गुप्त के शब्दों में-‘‘उनकी कविता में उनका इन्द्रधनुषी वर्ण-व्यक्तित्व प्रबल रूप से सामने आता है। उनके व्यक्तित्व से प्रभुत्व की आभा छिटकती है, स्वाभिमान और आत्मविश्वास की प्रबलता भी व्यंजित होती है। 

‘दिनकर’ की रचनाओं में उनके समकालीन कवियों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कुछ प्रभाव तो है ही, विशेषकर युगीन परिस्थितियों से भी वे काफी प्रभावित हैं। देश पराधीनता की आग में झुलस रहा था, अंग्रेजों का दमन-चक्र चरम सीमा पर सीना ताने खड़ा था, ऐसी परिस्थिति में क्रान्तिकारी रचनाओं का प्रस्फुटन ‘दिनकर’ की वाणी से स्वतः होने लगा। 

कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि ‘दिनकर’ की राष्ट्रीयता अन्तःस्फूर्त नहीं है बल्कि बाहर से आरोपित है। इस संदर्भ में वे ‘दिनकर’ की उक्ति को ही, जिसे उन्होंने ‘चक्रवाल’ की भूमिका में लिखा है, व्यक्त करते हैं-‘‘संस्कारों से मैं कला के सामाजिक पक्ष का प्रेमी अवश्य बन गया था, किन्तु मन मेरा भी चाहता था कि गर्जन-तर्जन से दूर रहूँ और केवल ऐसी ही कविताएँ लिखूँ जिनमें कोमलता और कल्पना का उभार हो। राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी होने का सुयश तो मुझे ‘हुंकार’ से ही मिला, किन्तु आत्मा मेरी अब भी ‘रसवन्ती’ में बसती है.......राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर से नहीं जन्मी, उसने बाहर से आकर मुझे आक्रान्त किया है।’’ इसलिए कुछ विद्वानों का मत है कि ‘दिनकर’ की राष्ट्रीयता आपद्धर्म की राष्ट्रीयता है या युद्ध-काल की राष्ट्रीयता है, यह उनकी आत्मा की ध्वनि नहीं है। किन्तु लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’ ने स्पष्ट रूप से अपने लेख ‘स्वराज्योत्तर दिनकर साहित्य’ में लिखा है-‘‘मैं दिनकर जी के इस आत्म-विश्लेषण को स्वीकार नहीं करता। 

राष्ट्रीयता उनकी आत्मा का प्रधान स्वर रहा है। इससे बचने का उन्होंने जो भी प्रयास किया है, वह बौद्धिक है। किन्तु संकट के समय मनुष्य बुद्धि नहीं , भावना के अधीन हो जाता है.....। भारत पर जब चीन ने आक्रमण किया, दिनकर जी के समस्त व्यक्तित्व पर राष्ट्रीयता अत्यन्त उग्र बनकर छा गई। इस तरह ‘दिनकर’ राष्ट्रीय चेतना के कवि हैं, ओज और पौरुष के कवि हैं तथा राष्ट्र के व्यावहारिक धर्म के गर्जन के कवि है। राष्ट्रीयता उनकी आत्मा का स्पन्दन है।

राष्ट्रीयता के इस अमर गायक की काव्य-कृतियों में रेणुका, सामधेनी, हुंकार, द्वन्द्वगीत, रसवन्ती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा और हारे को हरिनाम आदि प्रमुख हैं। यद्यपि ‘दिनकर’ की करीब तीस से अधिक पुस्तकें प्र्रकाशित हैं, मगर ‘दिनकर’ का तेज पूरी प्रखरता से रेणुका, सामधेनी, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा में जलता दृष्टिगत होता है जिसमें राष्ट्रीय-चेतना का मुखर स्वर सुनाई पड़ता है। राष्ट्रीयता के इस अमर गायक को सार्वदेशिक प्रसिद्धि उस समय मिली जब सन् 1933 में ‘हिमालय के प्रति’ नामक कविता में कवि ने हिमालय से कहा-
‘‘रे ! रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उसको स्वर्ग धीर !पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।।’’
इतना ही नहीं, हिमालय को एक तपस्वी यती के रूप में सम्बोधित करते हुए उन्होंने पुनः कहा -   
      
‘‘तू मौन त्याग, कर सिंह नाद, रे तपी ! आज तप का न काल।          नवयुग-शंखध्वनि जगा रही,तू जाग, जाग, मेरे विशाल।।’’
इसमें स्वातन्त्रय-युद्ध के लिए जागने का आह्वान है। दिनकर का यह जागरण-मन्त्र उस समय के नौजवानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया। कवि की वाणी उनके कण्ठ में गीत बनकर बस गई ।      
‘रेणुका’ दिनकर जी का प्रथम कविता-सग्रंह है, जिसका प्रथम संस्करण सन् 1935 में प्रकाशित हुआ था। इसकी पहली रचना ‘तांडव’ में ही जिस क्रान्तिपरक भावना का उद्रेक हुआ है, वह कवि के व्यक्तित्व में छिपे अंगार को रूपायित करता है। यथा - 
‘‘नाचो, अग्निखण्ड भर स्वर में, 

फूँक-फूँक ज्वाला अम्बर में,    
अनिल-कोष, द्रुम-दल, जल-थल में, 
अभय विश्व के उर-अन्तर में,        
गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो, 
लगे आग इस आडम्बर में।’’
क्रान्ति और संघर्ष के इस काल में द्विधाग्रस्त होना क्लीवत्व का परिचायक है। जब देश की आजादी के लिए स्वातन्त्रय समर में कूदने का समय आ गया हो उस समय किसी सुविधाभोगी प्रवृत्ति के कारण द्विधाग्रस्त होना कवि को बिल्कुल अभीष्ट नहीं है। कवि ऐसी परिस्थिति में देश के नवयुवकों को द्विधापूर्ण मनःस्थिति का त्याग कर इस संघर्ष-समर में कूदने का आह्वान करता है। कवि की निर्भीक वाणी गूंज उठती है -
‘‘हिल रहा है धरा का शीर्ण मूल जल रहा दीप्त सारा खगोल, तू सोच रहा क्या अचल मौन? ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल, बोल।’’
मगर क्रान्ति ‘रेणुका’ में जहाँ राष्ट्रीयता की चिनगारी सुलगती हुई दिखलाई पड़ती है, वहीं हुंकार, सामधेनी, द्वंद्वगीत, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र और परशुराम की प्रतीक्षा में उनका प्रज्वलित रूप दृष्टिगत होता है, जिसमें प्रखर तेज है। यह तेज कहीं-कहीं आँखों में गड़ने लगता है मगर अपनी एक अलग पहचान भी छोड़ जाता है-वह पहचान जिसमें दिनकर का ‘दिनकरत्व’ जागता रहता है। 
‘हुंकार‘ में ‘दिनकर‘ की काव्य-रश्मियों में एक तीक्ष्णता का बोध होता है। ‘हुंकार‘ के ‘आमुख’ में जिन प्रतीकों का चित्रण किया गया है वे दिनकर की काव्य-चेतना को चित्रित करने में सर्वथा सक्षम हैं। वर्तमान के पल ने ही कवि को किसी शाश्वत दार्शनिक चिन्तन से विरत करके क्रान्ति-गीत गाने के लिए प्रेरित किया है। सामयिकता का स्वर सुनकर अपना सब कुछ बलिदान करने का संकल्प निश्चय ही राष्ट्रीयता की परिधि को पुष्टता प्रदान करता है। ‘हुंकार‘ की ‘आमुख’ कविता में यह प्रेरणाप्रद प्रसंग सुस्पष्ट हो चला है-
‘‘समय-ढूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये;
आज खोजते उन्हें बुलाने वर्तमान के पल आये?
शैल-शृंग चढ़ समय-सिन्धु के आर-पार तुम हेर रहे,
किन्तु ज्ञात क्या तुम्हें, भूमि का कौन दनुज पथ घेर रहे?
दो वज्रों का घोष, विकट संघात धरा पर जारी है,
वह्नि-रेणु चुन स्वप्न सजा लो, छिटक रही चिनगारी है।
रण की घड़ी, जलन की वेला, रुधिर-पंक में गान करो,
अपना साकल धरो कुण्ड में, कुछ तुम भी बलिदान करो।’’
‘हुंकार‘ में स्वयं कवि अपना परिचय स्पष्ट कर देता है-
‘‘सुनूँ क्या सिन्धु ! मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म का हुंकार हूँ मैं,
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का,
प्रलय-गाण्डीव की टंकार हूँ मैं।’’
युग की विभीषिका को कवि ने पहचाना और राष्ट्रीयता का शंखनाद करके राजनीतिक दासता का अन्त, आर्थिक विषमता का परिहार और मानवता को त्राण दिलाने के लिए अपनी अनुभूति की मार्मिकता से क्रान्ति का पथ प्रशस्त किया। ‘हुंकार‘  की कविताओं-असमय आह्वान, बसन्त के नाम पर, साधना और द्विधा, दिगम्बरी, विपथगा, स्वर्ग-दहन, हिमालय आदि में राष्ट्र की वेदी पर कवि अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को उत्सर्ग कर देता है। डाॅ0 श्रीमती उमा शुक्ल ने लिखा है- ‘‘जीवन के शाश्वत मूल्यों के साथ युगीन संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भी कवि का दायित्व है क्योंकि युगबोध से कटा साहित्य अतीत की श्रीवृद्धि भले ही कर ले पर मौलिकता का स्पर्श नहीं कर सकता। दिनकर जी ने हमेशा युगीन परिस्थितियों का डटकर सामना किया। उसके आगे कभी मस्तक न झुकाकर उन्होंने सीना तान कर आह्वान किया है। यदि हम उन्हें युग की पुकार का कवि कहें तो अत्युक्ति न होगी।’’ असमय आह्वान में कवि की वाणी इस भावोद्रेक से फूट पड़ती है --
‘‘फेंकता हूँ, लो , तोड़-मरोड़
अरी निष्ठुरे ! वीना के तार,
उठा चाँदी का उज्ज्वल शंख
फूँकता हूँ भैरव-हुंकार।’’
‘रेणुका‘ और ‘हुंकार‘ का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए डाॅ0 परमेश्वर भारती ने बड़ा सुन्दर लिखा है- ‘‘रेणुका में दिनकर की स्थिति उस अंगार की तरह है जो राख से ढका हुआ है किन्तु हुंकार में कवि की वाणी अत्यन्त ओज प्रदीप्त है। यहाँ उनका खून भभक उठा है।’’ इस तरह दिनकर की कविताओं में एक दाहक शक्ति है, कलात्मक ओज है और सबसे बढ़कर धरती की ज्वाला की प्रतिध्वनि है। इसलिए ‘विपथगा’ में कवि इस मिट्टी की आग से अम्बर में आग लगाने की बात करता है -
‘‘मुझ विपथगामिनी को न ज्ञात, किस रोज किधर से आऊँगी,  
मिट्टी से किस दिन जाग क्रुद्ध अम्बर में आग लगाऊँगी।’’
कवि की सशक्त हुंकार-वाणी में राष्ट्रीय भावनाओं का पोषण करने के साथ-साथ सामाजिक विषमता के प्रति भी प्रबल आक्रोश है। सच कहा जाए तो राष्ट्रीयता किसी-न-किसी रूप में सामाजिकता से भी जुड़ी हुई है और सामाजिक संदर्भों को नकार कर राष्ट्रीयता के बिगुल-वादन से उसकी सम्पूर्णता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। यही कारण है कि राष्ट्रीयता के उदात्त स्वर में यत्र-तत्र ‘दिनकर’ की रचनाओं में सामाजिक वैषम्य का नग्न-चित्रण एवं उसके प्रति प्रबल आक्रोश भी दिखलाई पड़ता है। ‘हाहाकार’ कविता में कवि इन पंक्तियों के साथ अत्यन्त उग्र रूप में दिखलाई पड़ता है -
‘‘हटो व्योम के मेघ, पन्थ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, 
‘दूध, दूध’ ओ वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।’’
युग का स्वर भी ‘दिनकर’ की कविताओं में सशक्त रूप से मुखरित हुआ है। विशेषकर ‘सामधेनी’ में राष्ट्रीय परिस्थितियों के प्रति अत्यन्त सजग रहते हुए भी कवि अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश से भी प्रभावित दिखलाई पड़ता है। ‘सामधेनी’ में दिनकर की सन् 1941 से 1946 तक की कविताएँ मुख्यतः संग्रहित हैं और वे रचनाएँ उस समय की हैं जब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर युद्ध की ‘विभीषिका’ छायी हुई थी और राष्ट्र गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने के लिए प्रबल अंगड़ाई ले रहा था। इस राष्ट्रीयता संग्राम के यज्ञ में ‘दिनकर’ की कविताओं ने समिधा का कार्य किया और यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करने के लिए जो भी गीत उन्होंने लिखे उन्हें ‘सामधेनी’ से अभिहित किया गया। वेद की वे ऋचाएँ, जो अग्नि प्रज्वलित करने के लिए पढ़ी जाती थीं उन्हें सामधेनी कहा गया है और इस अर्थ में ‘दिनकर’ की ‘सामधेनी’ भी स्वातन्त्रय समर की अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए इस भाव को सार्थकता प्रदान करती है। कवि के शब्दों में --
‘‘सुलगती नहीं यज्ञ की आग, 
दिशा धूमिल, यजमान अधीर; 
पुरोधा-कवि कोई है यहाँ? 
देश को दे ज्वाला के वीर।’’
दिनकर युग-द्रष्टा भी हैं और इनकी जीवन दृष्टि दार्शनिक तटस्थता की नहीं है बल्कि सबल कर्मवाद की है। वे राष्ट्र के नवयुवकों को इसी कर्मवाद से प्रेरित होकर राष्ट्रीय-संग्राम में कूदने का आह्वान करते हैं। कवि के स्वर में नवयुवकों के प्रति एक सबल सन्देश सामधेनी में उभरा है - 
‘‘भुजाओं पर मही का भार फूलों-सा उठाए जा ,
कँपाए जा गगन को, इन्द्र का आसन हिलाए जा।।
जहाँ में एक ही है रौशनी, वह नाम की तेरे,
जमीं को एक तेरी आग का आधार है साथी।।’’
‘आग की भीख’ नामक कविता में देश की पीड़ा को शब्दों में बाँधते हुए दिनकर की कविता आग उगलने लगती हैं, जिसमें एक विस्फोट है, तूफान है -
‘‘हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।’’
‘‘उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ,
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।’’
मगर इसके साथ ही इस विस्फोट की ध्वनि के पास ही कवि आशा का दीप दिखाकर लक्ष्य-प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के लिए पथ प्रशस्त करता है। स्वतन्त्रता करीब है, बस थोड़ा और चलना है। मंजिल पर पहुँचने में अब अधिक दूरी नहीं है। ‘सामधेनी’ में कवि आश्वस्त करता है -
‘‘वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है, 
थक कर बैठ गए क्या भाई, मंजिल दूर नहीं है।’’
राष्ट्रकवि दिनकर की कविता में केवल क्रान्ति और विस्फोट ही नहीं है, उसमें जीवन-दर्शन का उदात्त स्वरूप भी है, जिसकी झलक ‘कुरुक्षेत्र’ में विशेष रूप से परिलक्षित होती है। राष्ट्रीय चेतना का भाव-प्रवाह ‘कुरुक्षेत्र’ से पहले लिखी गई शायद सभी कविताओं में किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है मगर ‘कुरुक्षेत्र’ में वे एक दार्शनिक और विचारक के रूप में ही प्रतिष्ठित हुए हैं। दिनकर ने अनेक समस्याओं का समाधान पाश्चात्य और भारतीय दर्शन के प्रकाश में ‘कुरुक्षेत्र’ में किया है मगर फिर भी उस समष्टि-चेतना के पाश्र्व में भी राष्ट्रीयता की अनुगूंज किंचित् सुनाई पड़ती है। जो न्याय को चुरा कर अन्याय का समर्थन करता है, वास्तव में युद्ध के लिए वही उत्तरदायी है। ‘कुरुक्षेत्र’ में यह दर्शन उभर कर आता है-
‘‘चुराता न्याय जो, रण को बुलाता भी वही है, 
युधिष्ठिर ! स्वत्व की अन्वेषणा पातक नहीं है।       
नरक उसके लिए, जो पाप को स्वीकारते हैं, 
न उनके हेतु, जो रण में उसे ललकारते हैं।’’ 
‘दिनकर‘ का समाज-धर्म यहाँ भी सोता नहीं है। मानवोचित गुणों का उद्रेक निश्चय ही वरेण्य है मगर जब राष्ट्र और समाज की बात उठती है तब वही सर्वोपरि बन जाता है -
‘‘व्यक्ति का है धर्म, तप, करुणा, क्षमा, 
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।’’
‘कुरुक्षेत्र‘ लिखने के बाद दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ लिखकर फिर एक बार ज्वलन्त सामाजिक प्रश्नों को उठाकर युगबोध को मुखर स्वर प्रदान किया है। इसकी भूमिका में कवि ने लिखा है- ‘‘यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है। कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इसका प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है।’’ इस नग्न सत्य को कवि ‘रश्मिरथी‘ में इस प्रकार प्रकट करता है- 
जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषण्ड। 
मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड।।’’
कर्ण के चरित्र के माध्यम से कवि ने समाज के तिरस्कृत एवं उपेक्षित व्यक्तियों के सामने एक आदर्श रखने का प्रयास किया है जिसमें व्यक्ति का चरित्रबल एवं कर्म-गुण ही प्रधान होंगे -
‘‘मैं उनका आदर्श, किन्तु जो तनिक न घबरायेंगे ।
निज चरित्रा-बल से समाज में पद विशिष्ट पायेंगे।।’’
कवि का दृष्टिकोण मानवतावादी होते हुए भी व्यक्ति के अन्दर छिपी शक्ति को जगाने की प्रेरणा देता है, जिसमें पुरुषार्थ का आह्वान है। 
‘‘मुसीबत को नहीं जो झेल सकता,
निराशा से नहीं जो खेल सकता,
पुरुष क्या, शृंखला को तोड़ करके,
चले आगे नहीं जो जोर करके।’’
‘दिनकर’ राष्ट्रीयता के गायक हैं मगर इसका यह अर्थ नहीं कि उनकी विश्व-प्रेम से सनी मानवतावादी दृष्टि नहीं है। कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि दिनकर का विचार-दर्शन दुविधा से ग्रस्त है और शुद्ध कविता की जगह सामयिक प्रवाह का प्रभाव उनपर अधिक है। मगर सत्य यह है कि कोई भी किसी विचार के खूँटे से सदैव बँधा नहीं रहता है, समय की नब्ज पर भी उसकी पकड़ होती है। विश्व-बन्धुत्व और जीवन की सरलता के प्रति वह अनभिज्ञ नहीं रहता है। यही कारण है कि दिनकर के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में एक बार श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा था-‘‘अंगारे जिस पर इन्द्रधनुष खेल रहे हैं। रेणुका, हुंकार, सामधेनी, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी में दहकते अंगारों का तेज है। इन्द्रधनुषी रंग रसवन्ती में छिटका था। उर्वशी में वह मध्याह्न सूर्य के उभार पर पहुँच गया है।’’
यह बात दूसरी है कि दिनकर की कविताओं में क्रांति का स्वर प्रधान है। स्वयं कवि ने ‘चक्रवाल’ की भूमिका में इसे स्वीकार किया है - ‘‘मैं समय का पुत्र हूँ और मेरा सबसे बड़ा कार्य यह है कि मैं अपने युग के क्रोध और आक्रोश को, अधीरता और बेचैनी को सबलता के साथ छन्दों में बाँध कर सबके सामने उपस्थित कर दूँ। मेरे पीछे और मेरे चारों ओर भारतीय मानवता खड़ी थी जो पराधीनता के पाश से छूटने को बेचैन थी।’’ और यही कारण है कि देश जब स्वतन्त्र हो गया तब दिनकर की कविताओं के स्वर में कुछ बदलाव स्पष्ट दिखलाई पड़ने लगा। यहाँ तक कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद राष्ट्रीयता का उपयोग समाप्त हो गया है, यह भाव ‘राष्ट्रदेवता का विसर्जन’ कविता में स्पष्ट परिलक्षित है-       
     
‘‘खण्ड-प्रलय हो चुका, राष्ट्रदेवता! सिधारो,
क्षीरोदधि को अब प्रदाह जग का धोने दो,
महानाग फण तोड़ अमृत के पास झुकेगा, 
विषधर पर आसीन विष्णु-नर को होने दो।।’’
‘किसको नमन करूँ मैं’ कविता में भारत के जिस रूप को कवि ग्राह्य मान रहा है, वह भारतीय संस्कृति से ओत-प्रोत मानवतावादी चिन्तन का भारत है।
‘‘भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भू-मण्डल भर का है।
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्वर है।’’
देश की आजादी के बाद दिनकर को जिस भारत की आशा बनी थी उनका वह उत्साह भंग जब होने लगा तो कवि की वाणी एक बार फिर किसी विप्लवी विस्फोट की अभिव्यक्ति बनने लगी -- 
‘‘वज्र की दीवार जब भी टूटती है,
नींव की यह वेदना विकराल बनकर छूटती है। 
दौड़ता है दर्द की तलवार बनकर,
पत्थरों के पेट से नरसिंह ले अवतार।
काँपती है वज्र की दीवार।
- ख्नींव की हाहाकार , 
यही नहीं बल्कि जिस गाँधी ने सत्य और अहिंसा से स्वतन्त्रता लायी उसी के सम्बन्ध में कवि एक विस्फोटक संकेत देता है -
‘‘हठी! तुम्हारे पापों से 
फिर एक प्रलय छाने वाला है,
गाँधी ने भचाल किया 
तूफान वही लाने वाला है।’’
-काँटों का गीत,

स्वराज्य-प्राप्ति के पूर्व दिनकर राष्ट्रीयता से बँधे नजर आते है मगर देश की आजादी के बाद उनका चिन्तन मानवतावादी और भारतीय संस्कृति के गुणों से ओत-प्रोत दिखलाई पड़ता है जिसमें युद्ध की नहीं बल्कि शान्ति की गुहार है। कवि की यह यात्रा शायद और लम्बी होती मगर देश पर चीनी आक्रमण के समय उत्पन्न जनता की क्रोध की ज्वाला को पीना क्रान्तिकारी कवि के लिए असह्य हो उठा और उस जनाक्रोश की आग को दिनकर ने कविता में बाँध कर एक बार फिर राष्ट्रीयता की गुहार का प्रबल वेग से ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में हुंकार किया। भारत का जन-मन जिस पराजय की पीड़ा से फुफकार उठा था और उसकी भावनाएँ जिस प्रकार आहत हुई थीं उसे कविता में बाँधना ‘दिनकर’ जैसे राष्ट्रीय कवि के ही वश की बात थी। एक बार फिर दिनकर की कविताओं में क्रान्ति का स्वर प्रधान हो उठा और राष्ट्रीयता पुनः समय की पुकार बन गई। राष्ट्र के हृदय में उठती बेचैनी और कसमसाहट को कवि ने एक प्रश्न के रूप में उछाला है -
‘‘गरदन पर किसका पाप वीर, ढोते हो,
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?’’
और इस प्रश्न का उत्तर भी ज्वालामुखी के लावे की तरह फूट पड़ता है और सीमा पर हारा हुआ सिपाही इस दास्तान को कारुणिक भाव से, मगर रोषपूर्वक प्रकट करता है -
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पड़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं। 
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का।    
सारी वसुन्धरा में गुरुपद पाने को ,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को,   
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे, 
अच्छे हैं अब, पहले भी बहुत भले थे। 
                                                       हम उस धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,                                                          शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।’’ 
एक सिपाही के माध्यम से देश की पराजय के कारणों का विश्लेषण करते हुए कवि की दृष्टि व्याप्त भ्रष्टाचार, कदाचार और शासकों की अकर्मण्यता पर विशेष रूप से केन्द्रित होती है। फौजी देश को विजय अवश्य दिलायेगा मगर शासकों को भी स्वच्छ प्रशासन और देशवासियों को अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए सम्बद्ध रहना होगा। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में कवि का आक्रोश उग्र हो उठा है -
‘‘हम देंगे तुमको विजय, हमें तुम बल दो 
दो शस्त्रा और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में 
हो जहाँ कहीं भी अनय उसे रोको रे ! 
यदि करे पाप शशि-सूर्य उन्हें टोको रे!
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को 
निर्बन्ध पंथ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।’’
कवि की ललकार एक बार फिर प्रलयंकर हो उठी है जब वह आह्वान करता है -
‘‘जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है, 
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है। 
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमें हैं तो दो बार नहीं मरना है।’’
यहाँ भारत का इतिहास एक बार करवट लेता हुआ दिखलाई पड़ता है। फिर हमारी शान्ति और धर्म-नीति हमें पराजय के द्वार पर घसीट लायी है। हमें फिर से भारत के बाहुबल को अपना आदर्श  बनाना होगा और केवल आत्मिक चिन्तन की प्रवंचना से अपने को मुक्त करना होगा। तभी यह देश अजेय बना रहेगा और हम जो चाहेंगे वह करने में सक्षम हो सकेंगे, इस आशय को स्पष्ट करते हुए कवि कहता है -
‘‘बाहों से हम अंबुधि अगाह थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे मेघ वहीं घहरेंगे।’’ 
कवि समाज के हर वर्ग को ललकारता है। कवि चिन्तक, योगी, यती, संन्यासी, किसान, मजदूर, राजा, व्यापारी सभी को रण में आने का आमंत्रण देता है। और इस परिस्थिति में आपद्धर्म का पालन करने एवं राष्ट्र-रक्षा के निमित्त विजय-मार्ग का अनुसरण करने के लिए उनसे उपेक्षा भी रखता है। कवि सबका आह्वान करते हुए ललकार उठता है -
‘‘चिन्तको, चिन्तना की तलवार गढ़ो रे! 
ऋषियो, कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे!
योगियो जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे!
बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे! 
है जहाँ कहीं भी तेज हमें पाना है! 
रण में समग्र भारत को ले जाना है!’’
इस राष्ट्र-धर्म की रक्षा के लिए आने वाला देवता ही परशुराम का प्रतीक है, जिसके एक हाथ में परशु और दूसरे में कुश है। वास्तव में यह ‘परशुराम’ एक विचारधारा का प्रतीक है जो राष्ट्रीयता से ओतप्रोत है और जिसका आगमन कवि को इस संकट की बेला में अभीष्ट है। राष्ट्रीय अपमान की रक्षा के लिए भारत में जन-जन के हृदय में जो तेज और शक्ति प्रकट होगी उसी के सम्मिलित रूप का नाम ‘परशुराम’ होगा। यही भारत का नया भाग्य-पुरुष बनेगा जो देश के स्वाभिमान के लिए मरने-मिटने को तैयार रहेगा।
‘‘गाओ, कवियो जयगान, कल्पना तानो,
आ रहा देवता जो, उसको पहचानो।
है एक हाथ में परशु, एक में कुश, 
आ रहा नये भारत का भाग्य-पुरुष।’’
दिनकर की राष्ट्रीयता ‘‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में बहुत उग्र हो उठती है। जब वे ‘अशोक’ और ‘गौतम बुद्ध’ को भी युद्ध के समर्थन में कुछ बोलने को मजबूर करते हुए कहते हैं -
‘‘पर्वत-पति को आमूल डोलना होगा, 
शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा,
असि पर अशोक को मुंड तोलना होगा, 
गौतम को जय-जयकार बोलना होगा।’’
वस्तुतः दिनकर की राष्ट्रीयता में एक महत्त्वपूर्ण दर्शन है और वह है उन भेड़ियों के लिए सबक सिखाने का जो अकारण ही किसी राष्ट्र के कंधों पर अपने पैने दाँत गड़ाने लगते हैं। जो विश्व-जनमत का भी आदर नहीं करते और अपने खूनी पंजों से शान्ति के पुजारी देश को भी आहत कर बैठते हैं। ऐसे जालिम लोगों के लिए देश को उग्र राष्ट्रवाद की ही जरूरत है जो इन दुश्मनों के खून से होली खेलने का संकल्प जगा सके और उनके रक्त से जननी जन्म-भूमि का शृंगार कर सके। इसीलिए तो कवि मात्र एक ही पंथ की ओर इंगित करता है-
‘‘एक ही पंथ, तुम भी आघात हनो रे।
मेषत्व छोड़ मेषंो, तुम व्याघ्र बनो रे। 
एक ही पंथ अब भी जग में जीने का। 
अभ्यास करो छागियों रक्त पीने का।’’ 
कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि इन पंक्तियों के माध्यम से दिनकर ने हिंसा को प्रतिष्ठित किया है और मानवतावाद को इससे ठेस पहुँची है। मगर यह एकांगी चिन्तन है। दिनकर का दृष्टिकोण इस संदर्भ में बिल्कुल साफ है जिसे कुरुक्षेत्र में भी जो मानवतावादी दर्शन का काव्य है उन्होंने स्पष्ट कहा है -

‘‘छीनता हो स्वप्न कोई, और तू, 
त्याग तप से काम ले यह पाप है। 
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे, 
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।’’

‘चक्रवाल‘ में कवि के जो तेवर थे उसका दर्शन ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में और घनीभूत दिखलाई पड़ता है। ‘चक्रवाल’ की ‘दिगम्बरी’ कविता में तो कवि ईश्वर को भी चुनौती देते हुए इस सामाजिक विषमता के प्रति अत्यन्त उग्र आक्रोश अभिव्यक्त करता है --
‘‘जरा तू बोल तो सारी धरा हम फूँक देंगे, 
                                पड़ा जो पंथ में गिरि; कर उसे दो टूक देंगे।                              
कहीं कुछ पूछने बूढ़ा विधाता आज आया, 
कहेंगे हाँ तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया।’’
जो कवि ईश्वर को भी सामाजिक अन्याय के लिए क्षमा नहीं कर सकता वह भला विदेशी आक्रमण को कैसे बर्दाश्त कर सकता है? यही कारण है कि दिनकर के लिए आदर्श गढ़ना लक्ष्य नहीं है और न वे किसी आदर्श की आड़ में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति के इच्छुक हैं बल्कि वे राष्ट्रीय समस्या के लिए एक  जुझारू योद्धा के रूप में ही अपनी पहचान छोड़ जाते हैं। दिनकर ने जो कुछ भी लिखा उसमें सूर्य का तेज है, राष्ट्र के जागरण का मंत्र है और  सर्वत्र विजय का सिंहनाद है। कुल मिलाकर यही दिनकर का परिचय भी बन गया है। इसलिए ‘उर्वशी’ जैसे शृंगारिक कार्य में भी कवि अपने परिचय का एक प्रतीकात्मक सूत्र छोड़ जाता है - 
‘‘मर्त्यमानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूँ मैं। 
अन्धतम के भाल पर पावक जलाता हूँ, 
बादलों के सीस पर स्यन्दन चलाता हूँ।’’
दिनकर के साहित्य में यद्यपि अनेक भावों का मिश्रण है मगर राष्ट्रीयता का स्वर सर्वाधिक मुखर है। यह बात भी सही है कि राष्ट्रीयता की भाव-धारा के आस-पास ही अन्य भाव-रस भी कवि के हृदय में हिलोरें लेते प्रतीत होते हैं। विद्वान् लेखक शिवसागर मिश्र ने इस सम्बन्ध में कहा है- ‘‘उनके साहित्यिक दृष्टिकोण में अनेक भावों का सम्मिश्रण है। वास्तव में दिनकर जी ने आरम्भ से ही हिमालय के साथ-साथ गंगा, युधिष्ठिर के साथ-साथ रसवन्ती, धर्म के साथ-साथ नीलकुसुम और भीष्म पितामह के साथ-साथ उर्वशी के सपने देखे थे। एक सम्पूर्ण मनुष्य में जितने भी रस हो सकते हैं, दिनकर जी में वे सभी रस हिलकोरे लेते रहे। सम्पूर्ण साहित्यिकता को अपने में समेटे दिनकर कभी काल-युक्त रचनाओं से जुड़े तो कभी काल-मुक्त शाश्वत काव्य-कला के पास खड़े दिखलाई पड़ते हैं। यह वैविध्य ही दिनकर की विशेषता बन गया है।’’ 
दिनकर की कविताओं में राष्ट्र-वन्दना का स्वर है, अतीत का गौरव-गान है, नवनिर्माण का आह्वान है, क्रान्ति का उद्बोधन है, प्रगति की कामना है, आदर्शों के प्रति सजगता है, युग-चेतना का शंखनाद और युग-धर्म की आवाज है तथा सबसे बढ़कर राष्ट्रीयता का प्रबल उत्स है। डाॅ0 पुष्पा ठक्कर के शब्दों में-‘‘वास्तव में, दिनकर की कविता युगवाणी के रूप में स्वीकृत हुई और वे युग-कवि के रूप में मान्य हुए। वे युग-कवि हैं, समकालीन जीवन के कवि हैं, जन-जीवन के कवि हैं, धरती और धूल के कवि हैं, ज्वाला और तूफान के कवि हैं। यह ‘ज्वाला और तूफान’ दिनकर जी के स्वाभिमानी व्यक्तित्व का पर्याय-सा प्रतीत होने लगता है और यही कारण है कि राष्ट्र की गौरव-गरिमा जहाँ भी खंडित होती दिखलाई पड़ती है, कवि की ओजपूर्ण वाणी राष्ट्र के ठंडे रक्त को खौलाने का कार्य करने लगती है। दिनकर की काव्य-चेतना राष्ट्रीयता से भरी पड़ी है मगर लोक-मंगल की भावना से भी अभिभूत है। दिनकर की राष्ट्रीयता किसी संकीर्णता की परिधि में कैद नहीं है बल्कि विश्व-मानवता के लिए भी प्रेरणा का संदेश देने वाली है जिससे कवि को सर्वत्र प्रसिद्धि मिली है। कुल मिलाकर राष्ट्रीयता ही दिनकर के काव्य का शक्ति-केन्द्र बन गई है और वे राष्ट्रीयता के अमर गायक बन गए हैं । 
अन्त में अपनी स्वरचित कुछ पंक्तियों से उस राष्ट्रकवि का अभिनन्दन करते हुए इस लेख का समापन करता हूँ -
जिसकी कविता है धधक रही लेकर अक्षर ज्योति ललाम। 
उस राष्ट्रकवि के अग्नि-तेज को, है सादर शतशः प्रणाम।। 
हिन्दी-नभ में वह उदित हुआ, 
क्षितिज का चमका प्राच्य छोर; 
जिस ओर चरण वह डाल दिया
दब गया वहीं अम्बर-भूगोल। 
वाणी में ताप्तांगार लिये, 
शोणित में उसको दिया घोल; 
उस अक्षर की जो आग चली, 
जल उठी धरा, जल उठा व्योम।। 
जिसकी कविता द्युति दीपक से है, दीप्त राष्ट्र का हृदय-प्राण। 
उस राष्ट्रकवि के अग्नि-तेज को, है सादर शतशः प्रणाम।। 
बारदोली विजय से जो उभरा, 
रेणुका में भर जीवन का स्वर, 
रश्मिरथी, नीलकुसुम चढ़कर,
चमका बन काव्य गगन दिनकर। 
उन्मुक्त हृदय के मुक्त गीत, 
सब सामधेनी में गये सँवर, 
उज्ज्वल अतीत के स्वर्ण पृष्ठ, 
फिर कुरुक्षेत्रा में हुए मुखर।। 
सूरज का ब्याह रचा डाला चित् चक्रवाल चिन्तन उद्दाम। 
उस राष्ट्रकवि के अग्नि-तेज को, है सादर शतशः प्रणाम।। 
रसवंती पावन प्यार दिया, 
शुचि राष्ट्रधर्म हुंकार किया, 
रच परशुराम की प्रतीक्षा, 
अध कायर नीति कुठार किया। 
उर्वशी की पायल छम-छम में, 
धरती पर स्वर्ग उतार दिया। 
संस्कृति के चार अध्याय रचे
जीवन-दर्शन का सार दिया।।
जो हारे को हरिनाम दिया, जाने के पहले पुण्य धाम। 
उस राष्ट्रकवि के अग्नि-तेज को, है सादर शतशः प्रणाम।। 
रचना में उजली आग लिये, 
रेती के फूल अध खुले अधर, 
नयी काव्य भूमिका में गूंजित
कवि कर्म-चमन के सरस भ्रमर। 
सांस्कृतिक एकता यह अनेकता 
में एकता का सात्विक स्वर, 
है शुद्ध कविता की खोज वहाँ, 
जहाँ भाव छन्द बन हुए मुखर।। 
हिन्दी-नभ आँगन में गूँजित जिसकी रचना का सरस गान।
उस राष्ट्रकवि के अग्नि-तेज को, है सादर शतशः प्रणाम।। 
वह देशभक्ति का प्रभा-पुंज, 
वह राष्ट्रशक्ति का उद्गाता, 
धर समय-शिला पर चरण-चिह्न 
बन गया सूर वह युग-द्रष्टा। 
हो उठा व्योम विहँसित पाकर 
निज अंक धरा का वह सविता,
रो उठा देश खो कवि-मनीषी
हिन्दी-साहित्य सुधी-स्रष्टा।। 
हो गया तिरोहित भले काय, पर अमर धरा कीरति महान्। 
उस राष्ट्रकवि के अग्नि-तेज को, है सादर शतशः प्रणाम।। 
उस अग्नि-कवि को जिस पर इन्द्रधनुष की छाया थी, जो राष्ट्रीयता के अमर स्वर थे, उन्हें कोटिशः नमन!


Article source from Apani Maati Apana Chandan, Author- Sukhnandan Singh Saday. Keywords- Ramdhari Singh Dindak, Biography of Ramdhari singh Dinkar, Who is Ramdhari, Ramdhari ji kon the. Dinkar, Deenkar ji, Kavi samrat, kavi Ramdhari Singh Dinkar. रामधारी सिंह दिनकर, कवि रामधारी सिंह दिनकर.