Search

Wikipedia

Search results

उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचन्द | Upanyaas Samraat - Munshi Premchand

उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचन्द


आज प्रेमचन्द की तुलना दुनिया के चोटी के साहित्यकार मोरित्ज, गोर्की, तुर्गनेव, चेखब और टॉल्स्टोय  आदि के साथ करते हुए हमें उन पर गर्व होता है। प्रेमचन्द की नाम-यात्रा धनपत राय से नवाब राय और फिर प्रेमचन्द पर आकर टिक जाती है और वह साहित्य के काल-पात्र में एक अनूठी स्मृति-धरोहर बन जाती है। हंगेरियन विद्वान् डॉ एवा अरादी ने उनकी तुलना ‘मोरित्ज‘ से की। एक बार बनारसी दास चतुर्वेदी ने उनसे पूछा- दुनिया का सबसे बड़ा कहानीकार आप किसे मानते हैं? प्रेमचन्द ने सहज ढंग से कहा- चेखब को ! और यह भी एक सुखद आश्चर्य ही है कि रूस के प्रसिद्ध विद्वान् ‘ए0 पी0 बरान्निकोव’ ने भी उनकी तुलना चेखब से की । सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ नामवर सिंह के शब्दों में - ‘‘1907 से 1936 तक के भारतीय जीवन का गहराई से किया गया चित्रण यदि किसी एक व्यक्ति में है-तो वे प्रेमचन्द हैं।’’ आचार्य केसरी कुमार के अनुसार- ‘‘पे्रमचन्द की कथा-यात्रा का अन्तिम सोपान है ‘कफन’ कहानी और ‘गोदान’ उपन्यास, जिसमें पूरा भारतीय समाज, पात्रता पा गया है। सत्य आरोपित न होकर घटित है। यह अपने आदर्श से नहीं स्वरूप से संवेद्य है।’’ सचमुच हिन्दी कहानी और उपन्यास जगत् में प्रेमचन्द का आविर्भाव एक युगान्तकारी घटना है। इसलिए आज भी प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट् और अमर कहानीकार के रूप में साहित्य-जगत् में प्रतिष्ठित हैं।

इस कालजयी महान् उपन्यासकार और कहानीकार की जीवन-यात्रा के कुछ मोड़ों को जानना भी आवश्यक है। 31 जुलाई 1880 को बनारस से चार मील दूर लमही ग्राम में पिता मुंशी अजायब लाल और माता श्रीमती आनन्दी देवी की चैथी सन्तान के रूप में जन्म। पिता ने प्यार से नामकरण किया ‘धनपत राय’ और ताऊ ने पुकार का नाम रखा ‘नवाब राय’। बचपन में मौलवी द्वारा फारसी तथा उर्दू की शिक्षा प्राप्त हुई। मात्र सात वर्ष की अवस्था में माता का निधन। विमाता घर में आई और उनका प्यार प्रेमचन्द को नहीं मिल सका। वे उन्हें चाची कह कर ही पुकारते रहे।

गोरखपुर मिशन स्कूल से आठवीं कक्षा पास करने के बाद 1895 में क्वींस काॅलेज वाराणसी में नामांकन और यहीं से 1898 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।  नौवीं में थे-तभी 1896 में शादी और तीन वर्षों के बाद 1899 में ही पिता जी का देहावसान। यह भी एक विचित्र-संयोग है कि उस समय के कई महान् पुरुषों  की शादी अल्प वय में ही हुई थी। भारतेन्दु जी की शादी 13 वर्ष की आयु में। महात्मा गाँधी की शादी 12 वर्ष की आयु में। प्रेमचन्द की शादी पन्द्रह वर्ष की आयु में हो गई थी। विमाता और पत्नी के सम्बन्धों में खटास ने प्रेमचन्द के जीवन को और दुःखमय बना दिया था।

पन्द्रह साल के धनपत राय पर पूरे परिवार का बोझ आ गया। मिशन स्कूल, चुनार गढ़ में मात्र 8 रुपये मासिक वेतन पर सरकारी अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। फिर 20 रुपये माहवार पर बहराइच जिला स्कूल में पाँचवें शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए। इसी समय से लेखन की ओर झुकाव हुआ। सन् 1901 में धनपत राय के नाम से ‘हम खुर्मा-ओ-हम सबाव’ उर्दू में लिखा, जिसका हिन्दी अनुवाद ‘प्रेमा’ के नाम से हुआ। 1902 में विद्यालय से अवकाश लेकर इलाहाबाद के गवर्नमेंट ट्रेनिंग स्कूल में दो वर्षीय कोर्स के लिए प्रविष्ट हुए। इसी बीच 1903 में ‘नवाब राय बनारसी’ के नाम से उर्दू पत्रकारिता में प्रवेश किए। सन् 1904 में इलाहाबाद माॅडल स्कूल के हेडमास्टर बने। कानपुर के प्रख्यात उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’ में लिखने लगे। 1909 में ‘जमाना’ में ही पहली कहानी ‘संसार का सबसे अनमोल रत्न’ धनपत राय के नाम से प्रकाशित हुई।

सन् 1908 में उर्दू-कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ नवाब राय के नाम से प्रकाशित। 1908 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह सम्पन्न हुआ। इसी वर्ष डिप्टी इन्सपेक्टर ऑफ स्कूल्स का पदभार महोबा में ग्रहण किया। ‘जमाना’ में ‘सोजे वतन’ का विज्ञापन भी छापा गया। इस ‘सोजे वतन’ में देशपे्रम से भरी पाँच कहानियाँ थी। अचानक एक दिन जिलाधीश की बुलाहट पर गये तो देखा कि उनके टेबुल पर ‘सोजे वतन’ की प्रतियाँ रखी थी। यहीं पर नवाब राय का भेद खुल गया । ‘सोजे वतन’ जब्त कर ली गई। ‘जमाना’ के प्रकाशक श्री दयानारायण निगम की सलाह पर ‘प्रेमचन्द’ के नाम से लिखने लगे  और यही छद्म नाम उनका वास्तविक साहित्यिक नाम बन गया।

पहली बार प्रेमचन्द  उपनाम से ‘जमाना’ में ही उनकी पहली हिन्दी- कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ छपी जिसने हिन्दी कहानी को एक नया आयाम दिया। सन् 1913 में पुत्री कमला का और 1916 में ज्येष्ठ पुत्र श्रीपत राय का जन्म। इसी बीच 1916 में इंटर की परीक्षा और 1919 में बी0ए0 की परीक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय से पास की। 1919 में दूसरे पुत्र मन्नू का जन्म। मगर साल भर बाद ही उसकी मृत्यु। 1921 में तीसरे पुत्र अमृत राय का जन्म। 1923 में सरस्वती प्रेस की स्थापना और कई पुस्तकों का प्रकाशन।

सन् 1916 से गोरखपुर के नार्मल स्कूल में सहायक शिक्षक के पद पर आये। यहीं पर उन्हें एक नये मित्र महावीर प्रसाद पोद्दार मिले, जिनकी कलकत्ते में हिन्दी पुस्तकों की एजेन्सी थी। यही महावीर प्रसाद पोद्दार जब कलकत्ता जाते थे तो प्रेमचन्द की कोई पुस्तक शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय को पढ़ने के लिए दिया करते थे। एक दिन जब वे शरत् बाबू से मिलने गए तो उनकी बैठक में टेबुल पर ‘सेवा-सदन’ रखी हुई थी और वे भीतर मकान में गये हुए थे। महावीर बाबू उस प्रति को अचानक ही उठाकर देखने लगे। तभी उनकी दृष्टि एक जगह ठहर गई। शरद बाबू ने उस पुस्तक के पन्ने पर पाश्र्व में एक जगह लिखा - ‘उपन्यास सम्राट्‘ और बस उसी समय से  प्रेमचन्द के साथ एक और उपनाम महावीर प्रसाद पोद्दार ने जोड़ दिया - ‘उपन्यास सम्राट्‘।

गोरखपुर में उनकी भेंट रघुनाथ सहाय फिराक से हुई। और वहीं उनका सम्पर्क लाहौर के रहने वाले ‘इम्तियाज अली ताज’ से भी हुई जिन्होंने प्रेमचन्द की अनेक रचनाओं का उर्दू में प्रकाशन किया। दोनों में पत्र-व्यवहार चलता रहा। दोनों एक-दूसरे के प्रशंसक भी बन गये । फिराक उस समय इलाहाबाद के म्योर कॉलेज के छात्र थे और छुट्टियों में गोरखपुर आने पर कहा करते थे- ‘‘प्रेमचन्द जी का घर मेरे लिए अपना ही दूसरा घर हो गया है।’’ यहीं से उनके जीवन में एक नया मोड़ आया।

1919 में जलियाँवाला बाग काण्ड में आप मर्माहत हो उठे। गाँधीजी का 1921 में गोरखपुर का दौरा हुआ। असहयोग आन्दोलन का रंग चढ़ने लगा और आपने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। 15 फरवरी 1921 को आपका इस्तीफा मंजूर हो गया। इस तरह करीब 20 वर्षों की नौकरी छोड़कर आप असहयोग आन्दोलन और चर्खे के प्रचार में जोर-शोर से लग गये। इसके बाद कानपुर में मारवाड़ी स्कूल में हेडमास्टर नियुक्त हो गये। मगर वहाँ से त्यागपत्र देकर 1922 में काशी विद्यापीठ में आ गये। 1923 में बनारस में ‘सरस्वती प्रेस’ की स्थापना की। सरस्वती प्रेस घाटे में चलने लगा। इसी बीच माधुरी के भी सम्पादक बने।

माधुरी के लिए पहली बार जैनेन्द्र जी ने अपनी कहानी भेजी तो प्रेमचन्द ने इसे यह लिख कर लौटा दिया कि कहीं यह अनुवाद तो नहीं है? मगर उनकी ही दूसरी कहानी ‘अंधों का भेद’ विशेषांक के लिए चुन ली गई और इसके साथ ही जैनेन्द्र जी से उनका सम्बन्ध प्रगाढ़ होता गया।

जयशंकर प्रसाद जी के प्रोत्साहन से उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका प्रारम्भ की, जिसका पहला अंक मार्च 1930 में निकला। ‘माधुरी‘ के सम्पादक-मंडल के सम्मानित सदस्य वे तब भी बने रहे। मगर ‘हंस’ का प्रकाशन भी शासकीय हस्तक्षेप के कारण 1932 में बन्द कर देना पड़ा। अब विनोदशंकर व्यास से उन्होंने ‘जागरण’ ले लिया। प्रेमचन्द जी के सम्पादकत्व में 22 अगस्त 1932 को  ‘जागरण’ का नया अंक निकला । ‘हंस’ का प्रकाशन भी पुनः दिसम्बर 1932 से निकलने लगा। वे बाम्बे भी गए। बाद में उनके उपन्यास पर सिनेमा भी बने। मगर बाम्बे उन्हें रास नहीं आया। वहाँ साहित्य की कोई पूछ नहीं थी। सब कुछ कृत्रिम और छिछला था। उन्होंने अपने एक पत्र में इन्द्रनाथ मदान को लिखा-‘‘सिनेमा में साहित्यिक व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है।’’ शायद उनका  यह मन्तव्य आज भी प्रासंगिक है। इसलिए वे 3 अप्रैल 1935 को मुम्बई से विदा होकर फिर बनारस आ गये।

जब वे ‘जागरण‘ के सम्पादक थे तो जैनेन्द्र जी ने हीरानन्द सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ख्जो उस समय जेल में थे, की दो कहानियाँ उनके पास भेजी। उन्होंने पूछा कि ये कहानियाँ तो अच्छी हैं मगर लेखक का नाम नहीं है। इसके लेखक आखिर कौन है? इस पर जैनेन्द्र जी ने कहा कि समझिए कि लेखक ‘अज्ञेय‘ है। उन दोनों कहानियों को ‘अज्ञेय’ के नाम से ही छाप दिया गया। बस यहीं से वात्स्यायन जी के नाम के आगे एक और उपनाम ‘अज्ञेय’ जुड़ गया। इस तरह अज्ञेय जी इस उपनाम को पाने के बाद प्रेमचन्द के और करीब आ गये।

प्रेमचन्द ने उस समय कितने ही नवयुवक लेखकों- जैनेन्द्र, अज्ञेय, अश्क, श्री राम शर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी आदि को न केवल प्रोत्साहन दिया बल्कि उनसे अन्तरंगता भी बढ़ायी। अपने जीवन के प्रारम्भिक चरण में वे आर्य- समाज से प्रभावित हुए तो जीवन के अन्तिम चरण में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ को भी प्रोत्साहन दिया। कुछ लोग उन्हें गाँधीवाद से जोड़ना चाहते थे तो कुछ साम्यवाद से भी। मगर वे किसी वाद से नहीं बँधे थे। प्रेमचन्द ने अपने युग का सही चित्रण और साहित्य को जीवन से जोड़ दिया। अपने साहित्य में जनसाधारण को प्रतिबिम्बित किया। भारतीय किसान की व्यथा का चित्रण जैसा प्रेमचन्द ने किया - वैसा किसी ने नहीं किया। मनुष्य के अन्दर जो भी सुन्दर, उदात्त और आनन्दमय है, साहित्य उसी का मूर्त रूप है और इसीलिए प्रेमचन्द का साहित्य सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् का पर्याय है। उनकी रचनाओं में यथार्थ और आदर्श का सुन्दर समन्वय है।

18 जून 1936 को मैक्सिम गोर्की के निधन पर आयोजित श्रद्धांजलि सभा में ‘आज’ के कार्यालय बनारस में अस्वस्थता के बावजूद गये। लौटने पर बीमारी बढ़ी। पत्नी के पूछने पर कि अस्वस्थ होने पर भी वहाँ क्यों गये-प्रेमचन्द ने धीरे से कहा- ‘‘गोर्की जैसा आदमी रोज-रोज तो मरता नहीं।’’ धीरे-धीरे बीमारी बढ़ती गई। बनारस से इलाज के लिए लखनऊ आये। दयानारायण निगम भी उन्हें देखने आये। हकीम की दवा से भी आराम नहीं हुआ। वे फिर बनारस आ गये।

1 अक्टूबर 1936 को निराला जी ने ‘भारत’ में एक लेख लिखकर प्रेमचन्द के स्वास्थ्य पर चिन्ता जतायी और अन्त में लिखा- हे भगवन् ! दो वर्ष और।’’ मगर शायद भगवान् ने उनकी बात नहीं सुनी। 7 अक्टूबर 1936 को जैनेन्द्र से ही आदर्शवाद पर बातें हुई। मगर 8 अक्टूबर 1936 की सुबह, मौत का पैगाम लेकर आ गई, और प्रेमचन्द ने सदा के लिए आँखें मूँद ली।

लमही खबर पहुँची। बिरादरी वाले भी आ गये। प्रेमचन्द जी का शव मणिकर्णिका घाट की ओर कुछ लोग ले जा रहे थे। रास्ते में लोग आपस में बातें कर रहे थे-‘किसी मास्टर जी की लाश है’। यह था-उस महान् लेखक के प्रति श्रद्धांजलि विवेक। उसी समय शान्तिनिकेतन में इस खबर को सुनकर रवीन्द्रनाथ टैगोर विचलित हो उठे। उन्होंने रुँधे स्वर में कहा-‘‘एक रतन था, वह भी खो गया।’’

प्रेमचन्द नहीं रहे मगर उनकी कृतियों में वे आज भी जीवित हैं। उनका साहित्य जन-जीवन की गीता है, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की त्रिवेणी है। उनके प्रमुख उपन्यास रंगभूमि, कर्मभूमि, निर्मला, सेवा-सदन, प्रेमाश्रम, कायाकल्प, प्रतिज्ञा, वरदान, गबन और गोदान उन्हें उपन्यास सम्राट् कहलाने के लिए काफी हैं। कहानी-संग्रह में मानसरोवर, सप्त सरोज, नव निधि, पाँच फूल, प्रेरणा, प्रेम-पूर्णिमा, प्रेम-प्रसून, पे्रम पचीसी, पे्रम प्रतिज्ञा आदि उन्हें अमर कहानीकार के रूप में आज भी प्रतिष्ठित करने में सक्षम है।

प्रेमचन्द की अन्तिम और अपूर्ण कृति ‘मंगल सूत्र’ है। शायद यह कोई नयी दिशा देता । नजीर बनारसी ने उनके बारे में लिखा -
‘‘पर्द था, पर्द से कारवाँ बन गया
एक था, एक से इक जहाँ बन गया,
ऐ बनारस तेरा एक मुश्ते गुबार
उठ के हमारे हिन्दोस्ताँ बन गया।
मरने वाले के जीने का अन्दाज देख,
देख काशी की मिट्टी एजाज देख।’’

सचमुच प्रेमचन्द के प्रति इससे बढ़कर श्रद्धांजलि के शब्द नहीं हो सकते। प्रेमचन्द सही मायने में भारत की आत्मा के प्रतीक बन गये थे। उनके व्यक्तित्व पर शब्दों का मुलम्मा चढ़ाने की कोई जरूरत नहीं। वे सदियों तक इसी तरह ‘उपन्यास सम्राट्’ और ‘अमर कहानीकार’ के रूप में श्रद्धा और विश्वास के साथ याद किये जाते रहेंगे।
यह भी कितने आश्चर्य की बात है कि वर्ष 1936 में ही प्रख्यात साहित्यकार मैक्सिम गोर्की और शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय का भी निधन हुआ। इसे विधि की विडम्बना कहें या एक संयोग मात्र।

सरल, स्पष्ट और जीवन्त शैली के स्रष्टा प्रेमचन्द हमलोगों के बीच नहीं रहे मगर आज भी प्रेमचन्द जीवित हैं- अपने साहित्य के माध्यम से, अपने पात्रों के माध्यम से, अपने संवादों के माध्यम से। आज भी होरी और धनिया में, रूपा और सोना में, सूरदास और पं0 दातादीन में वे भारतीय मानस के प्रतिनिधि वक्ता के रूप में हमें झकझोरते रहे हैं। जैनेन्द्र के शब्दों में- ‘‘प्रेमचन्द को मैं साहित्य-निर्माता से अधिक देश-निर्माता मानता हूँ। उनकी साहित्य-रचना का स्रोत देश-प्रेम और मानव-प्रेम है।’’

प्रेमचन्द ने अपने 36 वर्षों के साहित्यिक जीवन में करीब तीन सौ कहानियाँ, एक दर्जन उपन्यास, चार नाटक और अनेक निबन्धों के साथ विश्व के महान् साहित्यकारों की कुछ कृतियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया और उनकी यह साहित्य-साधना निश्चय ही उन्हें आज भी अमरता के शीर्ष-बिन्दु पर बैठाकर उनकी प्रशस्ति का गीत गाते हुए उन्हें आज भी ‘उपन्यास सम्राट्’ और कहानीकार की उपाधि से विभूषित कर रही है। प्रेमचन्द सही मायने में आज भी सच्ची भारतीयता की पहचान हैं।
 
 
Sukhnandan singh Saday
सुखनंदन सिंह सदय जी के अन्य आलेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें


1. विहंगम योग एक विहंगम दृष्टि  2. विहंगम योग एक वैज्ञानिक दृष्टि 

3. राष्ट्रभाषा हिन्दी अतीत से वर्त्तमान तक 

4. हिन्दी सेवा 

5. प्राकृतिक चिकित्सा एक सहज जीवन पद्धत्ति 

6. अध्यात्म और विज्ञान का यथार्थ 

7. आध्यात्मिक यात्रा

8 . हिन्दी में सब काम हो 

9.  हर दिन हिन्दी दिवस हो 
 


Ref. Article source from Apani maati Apana chandan, Author-Sukhnandan singh saday. picture source from Hindustantimes.com. keywords munshi premchand kon the, Upanyaas Samraat.