Search

Wikipedia

Search results

कवयित्री महान - महादेवी वर्मा | Kaviyitri Mahaan - Mahadevi Verma

कवयित्री महान - महादेवी वर्मा

 
नाम- महादेवी वर्मा (अंग्रेजी- Mahadevi Verma)

जन्म- 26 मार्च 1907 ई.(प्रातः 8 बजे)

जन्म स्थान- फर्रुखाबाद 

माता- श्रीमती हेमरानी देवी

पिता- श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा

पितामह- श्री मेहताब राय उर्फ श्री बाँके बिहारी वर्मा 
पति-  डा0 रूपनारायण वर्मा

देहत्याग- 11 सितम्बर 1987 ई. ( रात 9 बजकर 45 मिनट)

देहत्याग के समय उम्र- 80 वर्ष (80 साल पांच महीना पन्द्रह दिन)

देहत्याग स्थान- इलाहाबाद 

अन्त्येष्टि स्थल- रसूलाबाद घाट, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश। 
महादेवी वर्मा जी का जीवन-परिचय और काव्य-परिचय दोनों को एक पंक्ति में अगर सहेजने का प्रयास किया जाय तो उन्हीं के शब्दों में ‘‘मैं नीर भरी दुःख की बदली‘‘ उस परिचय का पर्याय बन सकता है। शायद इसलिए अमृत राय जी ने उनके काव्य का परिचय-सूत्र खोजते हुए लिखा-‘‘महादेवी वर्मा ने स्वयं अपनी कविता में सबसे अच्छा परिचय दिया है-‘‘मैं नीर भरी दुःख की बदली‘‘। उनकी इसी एक पंक्ति को मन में रखे हुए आप उनके सम्पूर्ण काव्य-साहित्य का अवलोकन कर डालिए और आप तुरन्त जान लेंगे कि यही भाव शिराओं में बहने वाले रक्त के समान उनमें सर्वत्र प्रवाहित हो रहा है।’’
 
अमृत राय जी ने ‘नया साहित्य’ में महादेवी जी के काव्य का जो परिचय प्रस्तुत किया है उसमें निश्चय रूप से आँसुओं का शृंगार तो है मगर उसमें निराशावाद की गंध नहीं है और जीवन के प्रभात की अरुणाई का स्वर ‘बीती रजनी प्यारे जाग’ में स्पन्दित है।
 
महादेवी जी के काव्य-परिचय से पहले उनका जीवन-परिचय जान लेने पर बहुत कुछ स्वतः स्पष्ट होने लगता है। उनके जीवन की पगडंडियों पर कितने पथरीले चट्टान गड़े हुए मिले मगर उन्होंने उसकी परवाह नहीं की। समाज की विद्रूपता को भी मुँह चिढ़ा दिया। इसीलिए उनके व्यक्तित्व का परिचय देते हुए उनके समकालीन साहित्यकार श्री गंगाप्रसाद पाण्डेय को ‘आजकल’ में कहना पड़ा-‘‘महादेवी जी के व्यक्तित्व से तुलना करने के लिए हिमालय ही सबसे अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। उनके व्यक्तित्व का वही उन्नत और दिव्य रूप, वही विराट् और विशाल प्रसार, वही करुणा तथा तरलता और सबसे बढ़कर शुभ्र हास। यही तो महादेवी हैं।’’
 
26 मार्च 1907 को महापर्व होली के दिन उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा और श्रीमती हेमरानी के यहाँ एक पुत्री का जन्म हुआ। उस दिन की होली में उनके घर उल्लास का रंग उतर आया। पितामह श्री मेहताब राय उर्फ श्री बाँके बिहारी वर्मा की मन्नत पूरी हुई। माँ दुर्गा से उन्होंने पोती के लिए प्रार्थना की थी। महादेवी जी की माताजी धर्मपरायण महिला थीं और हिन्दी का संस्कार जबलपुर से वे यहाँ लायी थीं। इसी परिवेश में महादेवी जी का बचपन पलने लगा। महादेवी जी बचपन से ही तुकबन्दी करने लगीं। उन्हीं के शब्दों में-‘‘हमें याद है, हमारी माँ पूजा करती थी तो हमें अपने पास बिठा लेती थी। हमने एक दिन अपने नौकर से कहा, माँ ठाकुर जी को ठंडे पानी से नहलाती हैं। उन्हें ठंड लगती होगी। उसी पर एक तुक जोड़ी -
 
‘‘ठंडे पानी से नहलाती 
ठंडा चन्दन उन्हें लगाती
उनका भोग हमें दे जाती 
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।’’
 
महादेवी जी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर मिशन स्कूल में हुई। उस समय बाल-विवाह की प्रथा थी। बचपन में ही मात्र 7 वर्ष की अवस्था में शादी हो गई। वर भी दो-तीन साल बड़े होंगे। मगर बारात के दिन ही वर-वधू पक्ष में किसी बात को ले कर अनबन हो गई। फिर तो वधू की विदाई नहीं कराने का फतवा जारी हो गया। इधर महादेवी जी के दादाजी भी बिगड़ गये। इस छोटी-सी घटना का दर्द महादेवी जी जीवन-पर्यन्त ढोती रहीं। बाद में जब वे इलाहाबाद पढ़ने लगीं तो उनके पति डा0 रूपनारायण वर्मा ख्नवाबगंज, बरेली, सम्पर्क करने आये, मगर महादेवी जी ने शादी के प्रति अपनी अनमनस्कता दिखला कर उन्हें लौटा दिया।
 
सन् 1919 में क्राॅस्थवेट गल्र्स काॅलेज, इलाहाबाद में आ गईं। वहीं से मिडिल और एंट्रेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। इसी काॅलेज के होस्टल में उनके कमरे में सुभद्रा कुमारी भी रहती थीं। वे उनके ननिहाल जबलपुर की रहने वाली थीं। दोनों भविष्य की कवयित्री थीं, जिसका अंकुर यहीं पर फूटने लगा था। सुभद्रा जी उनसे दो साल आगे थीं। दोनों सहेलियों में कविता रचने की होड़ लग जाती थी। हर आयोजन में दोनों पुरस्कृत होती थीं।
 
महादेवी जी ‘चिन्तन के क्षण’ में लिखती हैं-‘‘एक कविता पर मुझे चाँदी का एक कटोरा मिला। बड़ा नक्काशीदार, सुन्दर। उस दिन सुभद्रा नहीं गई थी। मैंने उनसे आकर कहा, ‘‘देखो यह मिला है’’। सुभद्रा ने कहा- ‘‘ठीक है, अब तुम एक दिन खीर बनाओ और मुझको इस कटोरे में खिलाओ!’’
 
इसी बीच आनन्द भवन इलाहाबाद, में बापू आये। उस दिन बापू के पास मैं गई तो अपना कटोरा भी लेती गई। मैंने निकाल कर बापू को दिखाया। मैंने कहा-‘‘कविता सुनाने पर मुझको यह कटोरा मिला है।’’ वे कहने लगे- ‘‘अच्छा, तो दिखा मुझे।’’ मैंने कटोरा उनकी ओर बढ़ा दिया तो हाथ में लेकर बोले- ‘‘तू देती है इसे?’’ अब मैं क्या कहती? मैंने दे दिया और लौट आयी। कितनी साफगोई है-इस कथन में। पता नहीं सुभद्रा जी ने खीर खायी या नहीं। मगर दोनों की मित्रता की मिठास बढ़ती गई। सुभद्रा जी वापस जबलपुर चली गईं और सुभद्रा कुमारी चैहान बन गईं-वीर रस की ओजस्वी कवयित्री।
 
महादेवी जी ने इधर सन् 1929 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी0ए0 की परीक्षा पास कीं। इसी समय बौद्ध-दर्शन के प्रति जिज्ञासा जगी। ग्रीष्मावकाश में नैनीताल में बौद्ध महास्थविर से मिलीं। बातचीत के क्रम में बौद्ध-गुरु एक काष्ठ-पट्टिका बीच में आँख के सामने रखे थे। पूछने पर पता चला कि वे स्त्री की ओर नहीं देखते हैं। महादेवी जी ने भिक्षुणी बनने का विचार त्याग दिया। उन्होंने कहा-‘‘इतना कमजोर आदमी मेरा गुरु नहीं हो सकता।’’ इसी समय बापू के सम्पर्क में आईं। प्रयाग के आस-पास नारी-शिक्षा के लिए कार्य करने लगीं। सामाजिक कार्यों की सहचरी बन गईं।
 
महादेवी जी की साहित्य-साधना छोटी अवस्था से ही चलने लगी थी। सन् 1922 से तो ‘चाँद’ में उनकी प्रौढ़ रचनाएँ भी छपने लगीं। सन् 1924 से सन् 1928 तक की लिखी कविताएँ [47 गीत]  ‘नीहार’ प्रथम काव्यकृति के रूप में सन् 1930 में आई। इसके बाद सन् 1932 में द्वितीय काव्यकृति ‘रश्मि’ अपने पैंतीस गीतों के कलेवर के साथ प्रकाश में आई। इसी वर्ष सन् 1932 में महादेवी जी ने प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम0ए0 किया। इसके बाद उन्होंने प्रयाग विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का कार्यभार सँभाला और प्रसिद्ध पत्रिका ‘चाँद’ का निःशुल्क सम्पादन भी करने लगीं। सन् 1930 में प्रयाग में उन्होंने अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन का आयोजन करके एक इतिहास रच दिया। हिन्दी-साहित्य के आकाश मेें एक देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति वे उभरने लगीं। अब प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी के नाम से हिन्दी-कविता को एक अलग पहचान मिलने लगी। सन् 1933 में प्रयाग में कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर का आगमन हुआ। महादेवी जी उनसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुईं।
 
छायावाद के चार सबल स्तम्भ- जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा उस समय के साहित्याकाश में प्रकाश बनकर छा गये। श्री विनयमोहन शर्मा जी के शब्दों में - ‘‘छायावाद ने महादेवी जी को जन्म दिया और महादेवी जी ने छायावाद को जीवन।’’ छायावादी साहित्य में महादेवी जी की भूमिका के बारे में ‘विचार और अनुभूति ’ में डा0 नागेन्द्र लिखते हैं- ‘‘महादेवी जी के काव्य में हमें छायावाद का शुद्ध अमिश्रित रूप मिलता है। छायावाद की अन्तर्मुखी अनुभूति, अशरीरी प्रेम जो बाह्य तृप्ति न पाकर अमांसल सौन्दर्य की सृष्टि करता है, मानव की प्रकृति के चेतन संस्पर्श, रहस्य चिन्तन, तितली के पंखों और पंखुड़ियों से चुराई हुई कला और इन सबके ऊपर स्वप्न-सा पूरा हुआ एक वायवी वातावरण- ये सभी तत्त्व जिसमेें घुले मिलते हैं, वह है महादेवी जी की कविता।’’
 
छायावाद का प्रतिबिम्ब पूरी तरह उनकी तृतीय कृति ‘नीरजा’ में [1931 से 1934 तक के 58 गीत] उभर कर सामने आया, जिसका प्रकाशन सन् 1934 में हुआ और इसी कृति पर उन्हें महात्मा गाँधी द्वारा इन्दौर साहित्य सम्मेलन के अवसर पर ‘सेकसरिया पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। इसी समय आपने बद्रीनाथ की पैदल यात्रा की। प्रकृति से उनका लगाव तो बचपन से ही था, इस यात्रा से प्रकृति से उनकी अन्तरंगता और बढ़ती गई।
 
सन् 1935 में जापान के राष्ट्रपति योन नोगूची कलकत्ता आये तो उनके सम्मान में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस कवि-सम्मेलन में श्री बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, श्री सोहनलाल द्विवेदी, श्री पद्यकान्त मालवीय, श्री भगवतीचरण वर्मा, रामकुमार वर्मा, रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ और श्रीमती महादेवी वर्मा जी भी उपस्थित थीं। इस कवि-सम्मेलन के बाद कलकत्ता से ही नोगूची के साथ ही सभी शान्ति-निकेतन जाकर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का दर्शन किए। महादेवी जी इस यात्रा से अत्यधिक प्रसन्न नजर आ रही थीं।
 
महादेवी जी को कविता के साथ ही चित्रकला का भी बेहद शौक था। वे अपने तो अकेली थीं, मगर उनका एक भरा-पूरा परिवार भी था, जिसमें सोना हिरनी, तोता, खरगोश, बिल्ली, चूहे, मैना, नीलकंठ और मोर आदि न जाने कितने जीव-जन्तु थे, जिनके साथ महादेवी जी का सहज स्नेह-सूत्र जुड़ा हुआ था। उनके घर पर जाने वाले इस नयनाभिराम दृश्य को देख कर मंत्रमुग्ध हो जाते थे। इन पशु-पक्षियों के प्रति महादेवी जी का सहज प्यार, ममता और करुणा सदैव झलकती रहती थी, जिसमें आत्मीयता की अभिव्यंजना थी।
 
सन् 1936 में उनकी चतुर्थ काव्य-कृति ‘सान्ध्य गीत’ [1934 से 1936 तक के 45 गीत] प्रकाशित हुई। इसमें प्रकृति का बिम्ब-चित्र अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ अभिव्यंजित हुआ है। सन् 1940 में उनकी चारों काव्य-कृतियाँ- नीहार, रश्मि, नीरजा और सान्ध्य-गीत को संकलित करके ‘यामा’ के रूप में प्रकाशित किया गया।

महादेवी जी के गद्य-लेखन में भी एक नवीन ओज संचरित हो रहा था। उन्होंने बहुत सुन्दर गद्य भी लिखा, जिसमें भावना का सहज स्फुरण था। इसी कड़ी में सन् 1941 में ‘अतीत के चलचित्र’, सन् 1942 में ‘शृंखला की कड़ियाँ’ और सन् 1943 में ‘स्मृति की रेखाएँ’ प्रकाश में आयी और काफी चर्चित भी हुई। उनकी गद्य-शैली इन कृतियों में इन्द्रधनुषी रंग लिये विहँस उठी। फिर उनकी एक सशक्त काव्यकृति ‘दीपशिखा’ [1936 से 1942 तक के 51 गीत] सन् 1942 में प्रकाशित हुई, जिसमें तपोमय जीवन की भास्वरता का सन्देश गुनगुना रहा था। अन्धकार को ललकारती उनकी ‘दीपशिखा’ शायद यह भी बतलाने से नहीं चूकती कि वे स्वयं ही एक ‘दीपशिखा’ हैं। ‘दीपशिखा’ उनकी पंचम और शायद सर्वोत्तम काव्यकृति है। इसमें महादेवी जी की चित्रकला और अधिक निखार पा गई। महादेवी जी की गद्य-रचना ‘स्मृति की रेखाएँ’ पर उन्हें सन् 1943 में ‘द्विवेदी पदक’ से सम्मानित किया गया। उन्हें सन् 1944 में हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के ‘मंगलाप्रसाद’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी साहित्य-साधना अब विविध विषयों की ओर उन्मुख होने लगी। उन्होंने ‘पथ के साथी’ [सन् 1956] कुल 7 रेखाचित्र,ए ‘क्षणदा’ [सन् 1956] कुल 12 निबन्ध,, ‘मेरा परिवार’ [सन् 1972] हिन्दी-जगत् को दिया। उन्होंने लेखन की दृष्टि से तो बहुत अधिक नहीं लिखा मगर जो लिखा वह हिन्दी-साहित्य की एक धरोहर बन गई। वे साहित्य और साहित्यकार की भी चिन्ता में निमग्न रहने लगीं। प्रयाग में गंगा किनारे रसूलाबाद में ‘साहित्यकार संसद’ के लिए भवन क्रय किया। यहाँ से अनेक साहित्यिक गतिविधियाँ चलायी जाने लगीं और अनेक साहित्यकारों का सम्मान भी किया गया। ‘साहित्यकार संसद’ की ओर से अखिल भारतीय लेखक-सम्मेलन, साहित्य-पर्व, प्रसाद-जयन्ती समारोह आदि अनेक सफल आयोजन सम्पन्न हुए। यहीं पर राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद के द्वारा ‘वीणा-मन्दिर’ का शिलान्यास हुआ। ‘साहित्यकार संसद’ के मुख-पत्र ‘साहित्यकार’ का प्रकाशन भी सन् 1955 में शुरू किया गया और श्री इलाचन्द्र जोशी के साथ इसका सम्पादन भी किया।
 
समय-चक्र घूमता जा रहा था और उसके साथ महादेवी जी का कार्य-क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा था। सन् 1952 में आप उत्तर प्रदेश सरकार मंे विधान-परिषद् की सम्मानित सदस्या बनीं। इसी क्रम में दिल्ली में स्थापित साहित्य-अकादमी की संस्थापक सदस्या आप सन् 1954 में बनीं। सन् 1956 में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया। सन् 1960 में वे सर्व सम्मति से प्रयाग महिला विद्यापीठ की कुलपति निर्वाचित हुईं। जहाँ कभी प्राचार्या थीं, वहाँ की कुलपति बनीं। यह उनकी प्रतिभा का सम्मान था।
 
महादेवी जी निरन्तर ऊँचाइयों को छूती जा रही थीं मगर अभिमान उन्हें स्पर्श तक नहीं कर पाया था। देश की स्थिति से वे खुश नहीं रहती थीं। सभी क्षेत्रों में नैतिक अवमूल्यन का दृश्य उन्हें पीड़ा पहुँचाता था। सन् 1962 में चीनी आक्रमण के समय हिमालय पर लिखित कविताओं और अन्य राष्ट्रीय कविताओं का संकलन ‘हिमालय’ में [सन् 1963] प्रकाशित कराया।
 
उन्हें राष्ट्र ने अनेक सम्मान प्रदान किया। लेखिका-संघ की ओर से तत्कालीन राष्ट्रपति डा0 राधाकृष्णन् द्वारा सन् 1963 में महादेवी जी का अभिनन्दन किया गया। भारतीय साहित्य परिषद् प्रयाग की ओर से कविवर सुमित्रानन्दन पंत द्वारा महादेवी जी के आवास पर बृहद् अभिनन्दन-ग्रंथ समर्पण किया गया। उनकी षष्ठि प्रवेश के उपलक्ष्य में भी सन् 1966 में सुमित्रानन्दन पंत की ओर से संस्मरण-ग्रंथ समर्पित किया गया।
 
भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें डी0लिट्0 की उपाधि से सम्मानित किया गया। इस क्रम में सर्वप्रथम विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन द्वारा सन् 1969 में, कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल द्वारा सन् 1977 में, दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली द्वारा सन् 1983 में और हिन्दू विश्वविद्यालय काशी द्वारा सन् 1984 में महादेवी जी को डि0लिट्0 की उपाधि से सम्मानित किया गया। महादेवी जी को पुरस्कार के रूप में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा संचालित ‘भारत भारती’ पुरस्कार ख्एक लाख रुपये का पुरस्कार,  सन् 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी द्वारा प्रदान किया गया। इस कड़ी में उन्हें भारतीय साहित्य का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार- ‘ज्ञान पीठ’ पुरस्कार ख्उस समय डेढ़ लाख रुपये का, उनकी काव्य-कृति ‘यामा और ‘दीपशिखा’ के संन्दर्भ में उस समय भारत के दौरे पर आयी ब्रिटिश प्रधान मंत्री श्रीमती मारगरेट थैचर के हाथों प्रदान किया गया।
 
महादेवी जी की कविता में संवेदना का तीव्र आवेग, आभ्यन्तर अनुभूति का स्पन्दन है। कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि महादेवी जी के प्रारम्भिक गीतों में आत्मानुभूति की सघनता है, और बाद में रचनाओं में चिन्तन का पुट भी गहराता गया है। मगर मुझे ऐसा लगता है कि उनके गीतों में ऐसा कोई स्पष्ट विभाजन-रेखा नहीं खींची जा सकती, बल्कि अनुभूति और चिन्तन तो उनकी रचनाओं में एक-दूसरे से गुंथे हुए मिलते हैं। हाँ, इतना जरूर है कि ‘नीहार’ से प्रारम्भ की गई उनकी काव्य-यात्रा में निरन्तर निखार आता गया है। नीरजा और सान्ध्य-गीत में आत्मानुभूति के साथ दार्शनिक चिन्तन भी प्रौढ़ता को प्राप्त कर निश्चित रूप से उन्हें महान् कवयित्री के रूप में प्रतिष्ठित करता है। फिर ‘दीपशिखा’ तक आते-आते महादेवी जी की कविता अन्तर्मुखी होकर भी बहुत कुछ कह जाती है और ‘गीत’ को सर्वोच्चता के सिंहासन पर बैठा देती है।
 
महादेवी जी के जीवन का सूनापन उनके गीतों में जीवन्त रूप से ध्वनित होता रहता है। इस सूनेपन में केवल नैराश्य का तिमिर नहीं है, उससे जूझने की जीजिविषा भी है। तभी कवयित्री बोल पड़ती है -
 
‘‘पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला
अन्य होंगे चरण हारे, 
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे।’’
- दीपशिखा 
 
पंथ भी अपरिचित था और प्राण भी अकेला, फिर साधना की यात्रा किस मनःस्थिति को लेकर आगे बढ़ती है, वह आगे की पंक्तियों में प्रतिबिम्बित है। निरन्तर संघर्षों से लड़ने का संकल्प ही तो महादेवी जी के जीवन का सत्व है। महादेवी जी के जीवन की उदासी जब अनुभूति की बाँध तोड़ कर बाहर आती है तो आँखों से शब्द बनकर झरने लगती है- अश्रु-कण के रूप में । तब वे बोल पड़ती हैं -
 
‘‘मैं नीर भरी दुःख की बदली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही  
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!’’
- सान्ध्य गीत 
 
इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद बरबस आँखों में आँसू उतर आते हैं। कैसा सुन्दर बिम्ब-विधान है। सारा आकाश बादल के लिए खुला है मगर उसका कोई अपना निश्चित स्थान नहीं है। बस उमड़ना-घुमड़ना और घूमते-घूमते ही मिट जाना। महादेवी जी के अन्तस् की पीड़ा इस कविता में निर्झरणी की तरह प्रवाहित हुई है फिर भी वे अपनी पीड़ा को ढँकती रही। शायद उनका दर्द ही उनकी दवा भी बन गया था। यह दर्द तो कवयित्री की इन पंक्तियों में और अधिक सघन हो उठता है, जब वे कहती हैं -
 
‘‘शून्य मेरा जन्म था 
अवसान है मुझको सबेरा
प्राण आकुल के लिए,
संगी मिला केवल अँधेरा।’’ 
 
मगर उनका उद्देश्य केवल इस अँधेरेपन पर रोना नहीं है। उन्होंने नारी-जीवन के अँधेरे को ही यहाँ रूपायित किया और उस अँधेरे की कारा को तोड़ने के लिए ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में उनका भाव धधक उठा है। उस समय नारी की समस्या पर इतने बेलाग ढंग से बात कहने के लिए भी साहस चाहिए था। महादेवी जी ने उस अदम्य साहस का परिचय दिया और उबल पड़ीं- ‘‘इस समय तो भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग-बिरंगे पक्षी पाल लेता है, उपयोग के लिए गाय या घोड़ा पाल लेता है, उसी प्रकार एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों के समान ही वह उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है।’’
 
महादेवी जी सचमुच एक दीपशिखा थीं- स्वयं जलकर ज्योति प्रवाहित करना। इसीलिए तो ‘दीपशिखा’ में उनके गीत बोल पड़ते हैं-
 
’‘तुम जलधि में नेह का मोती रचूँगीं सीप-सी मैं 
धूप-सा तन दीप-सी मैं।’’  
-दीपशिखा
 
सचमुच उनका जीवन एक दीपशिखा का ज्वलंत चित्र ही तो था। महादेवी जी के गीतों में दीप जलता है-अँधेरे से लड़ने के लिए। यह अँधेरा कहाँ नहीं है? हमारे जीवन में, हमारे समाज में, हमारे राष्ट्र में, और हर जगह यह प्रकाश को धुँधला करने में लगा हुआ है। जब इस राष्ट्र-मन्दिर का देवता ही अंधकार बन जायेगा तो फिर उसका श्राप हमें कहाँ ले जायेगा? यह अंधकार आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। अंधकार का यह देवता हमारे राष्ट्र को घुन की तरह खाये जा रहा है। राजनेताओं का नैतिक पतन और खुली लूट के किस्से कहाँ तक गिनाये जाये? इस अंधकार को मिटाने के लिए तो लपटों की माला चाहिए। महादेवी जी कहती हैं -
 
‘‘क्या कहते हो-अंधकार ही देव बन गया इस मन्दिर का ?
स्वस्ति ! समर्पित इसे करूँगी आज अघ्र्य अंगारक उर का - 
पर यह निज को देख सके औ देखे मेरा उज्ज्वल अर्चन   
इन साँसों को आज जला मैं लपटों की माला करती हूँ।’’ - 
 
सचमुच लपटों की माला बनाने की उनकी अद्भुत क्षमता है। कवयित्री का स्वधर्म इन पंक्तियों में जाग उठा है-अपनी पूरी अस्मिता के साथ। अंधकार अब अधिक देर तक देवता बनकर नहीं रह सकता।
 
कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि महादेवी जी वेदना की कवयित्री हैं। दीपक को प्रतीक मानकर उनके जलने की वेदना को अपनी आत्मानुभूति से जोड़कर उन्होंने जो चित्र खींचा है, वह निश्चय ही उनकी पीड़ा और अश्रु की कहानी कह जाता है। कवयित्री की वेदना इन शब्दों में प्रस्फुटित हो उठी है-
 
‘‘यह मंदिर का दीप, इसे नीरव जलने दो! 
सबकी अर्चित कथा, इसकी लौ में पलने दो!!’’ 
 
वह इस दीपक को सतत जलने देना चाहती हैं। वे चाहती हैं कि यह दीपक जल-जल कर प्रियतम का पथ आलोकित करता रहे। मगर कौन है महादेवी जी का प्रियतम ?
 
महादेवी जी का प्रियतम वह अव्यक्त सत्ता है जो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। वह कभी राम बनकर, कभी श्याम बनकर भी आता है। मीरा के गिरिधर गोपाल बिल्कुल व्यक्त हैं मगर महादेवी जी के प्रतीक में उभर कर आते हैं। इसीलिए वे फिर दीपक को ही प्रतीक बनाकर कहती हैं-
 
‘‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल  
प्रियतम का पथ आलोकित कर।’’
- नीरजा 
 
महादेवी जी का काव्य-संसार केवल वेदना तक ही सीमित नहीं है। उनमें रहस्यवाद भी आध्यात्मिक अँगड़ाइयाँ लेते हुए कई स्थलों पर सजीव रूप से चित्रित हुआ है। उस असीम का सुन्दर मन्दिर तो उनके जीवन में ही प्रतिबिम्बित हो उठा है -
 
‘‘क्या पूजा क्या अर्चन रे?    
उस असीम का सुन्दर मन्दिर मेरा लघुतम जीवन रे।
प्रिय-प्रिय अपने अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे।’’
- नीरजा      
 
इस वेदना में भी कितनी दार्शनिकता है? हम कह सकते हैं कि महादेवी जी की कविताओं में सत्य, शिव और सुन्दर का सहज सम्मिश्रण है।
 
महादेवी जी की वेदना केवल व्यष्टिपरक नहीं है वह समष्टिपरक भी है। सुख और दुःख की नियति सदैव एक-सी नहीं रहती। कहीं दुःख ही सुख का द्वार भी खोल देता है। जरा इस दृश्य को देखें -
 
सब आँखों के आँसू उजले, सबके सपनों में सत्य पला-
जिसने इसको ज्वाला सौंपी, उसने उसमें मकरंद भरा
आलोक लुटाता यह घुल-घुल, देता झर वह सौरभ बिखरा
दोनों संगी पथ एक किंतु, कब दीप खिला, कब फूल जला।’’
-दीपशिखा
 
कभी-कभी दीप भी खिल उठता है और फूल भी जल उठता है। एक व्यापक सत्य इन पंक्तियों में प्रतिध्वनित हुआ है। महादेवी जी का दर्शन उस अव्यक्त परमात्मा से मिलन की प्रतीक्षा करता है। जीवन की नश्वरता की नब्ज पकड़ कर महादेवी जी एक चिरन्तन सत्य को उद्भासित करती हुई कहती हैं-
 
विकसते मुरझाने को फूल 
उदय होता छिपने को चन्द। 
शून्य होने को भरते मेघ 
दीप जलता होने को मन्द।
यहाँ किसका अनन्त यौवन?
अरे अस्थिर छोटे जीवन!’’
- नीहार
 
यही तो जीवन का कटु सत्य है। फूल विकसित होकर मुरझायेगा ही । चन्द्रमा उदित होकर छिप जायेगा ही। मेघ बरस कर खाली हो जायेगा ही। दीप प्रज्वलित होकर बुझ जायेगा ही। सब क्षणिक है। जीवन भी क्षणभंगुर है। जीवन का एक दार्शनिक विवेचन इन पंक्तियों में प्रस्फुटित हुआ है।
 
महादेवी जी की काव्य-यात्रा ’नीहार‘ से प्रारम्भ होती है, जिसे उन्हांेने अपने छात्र-काल मंे मैट्रिक होने के पहले लिखा था। इस समय की रचनाएँ उनके जीवन की सत्रह से इक्कीस वर्ष की अवस्था में ही लिखी गई । इन प्रारम्भिक गीतों में वेदना का कौतूहल तो है ही इसमें एक जिज्ञासा का भाव भी अभिव्यंजित है। उन्होंने अपनी वेदना का प्रकृति-व्यापी अंकन भी बड़े सहज ढंग से किया है-
 
कितनी रातों की मैंने  
नहलायी है अँधियारी,
धो डाली है संध्या के
पीले सिन्दूर से लाली;
नभ के धुँधले कर डाले 
अपलक चमकीले तारे,     
इन आहों पर तैरा कर 
रजनी कर पार उतारे।
 
‘नीहार‘ में जगह-जगह कवयित्री की प्रारम्भिक अनुभूतियों के स्पन्दन हैं। नीहार के बाद ‘रश्मि’ कवयित्री का दूसरा काव्य-संकलन है जो सन् 1932 में प्रकाशित हुआ। इसमें उनके इक्कीस से चैबीस वर्ष की अवस्था में लिखे गये गीत हैं, जिनमें गुणात्मक बदलाव के साथ-साथ प्रतीक योजना और काल्पनिक चिन्तन में भी एक उझान है। महादेवी जी का ‘उलझन’ का एक बिम्ब देखें -
 
‘‘अलि कैसे उनको पाऊँ ?
वे आँसू बनकर मेरे,
इस कारण ढुल-ढुल जाते,
इन पलकों के बंधन में  
मैं बाँध-बाँध पछताऊँ।’’
 
महादेवी जी की काव्य-यात्रा का तीसरा पड़ाव है-‘नीरजा‘, जिसे उन्होंने चैबीस से सत्ताईस वर्ष की अवस्था में लिखा। यह कविता-संग्रह सन् 1934 में प्रकाशित हुआ। इसमें रूपात्मकता का विलक्षण रूप दृष्टिगत है। महादेवी जी ने संध्या का जो एक चित्र खींचा है, उसकी कलात्मक अनुभूति यहाँ द्रष्टव्य है -
 
‘‘मर्मर की सुमधुर नुपूर ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्यों की किंकिणि,
भर पद-गति में अलस तरंगिणि,
तरल रजत की धार बहा दे
मृदु स्थिति से सजनी। 
बिहँसती आ बसन्त-रजनी!’’
 
‘नीरजा‘ के प्रत्येक गीत में एक सुकुमार भावना का सृजन हुआ है। एक गीत ‘तुम सो जाओ मैं गाऊँ’ की स्नेहसिक्त आत्मीयता देखें-
 
‘‘तुम सो जाओ मैं गाऊँ। 
मुझको सोते युग बीते  
तुमको यों लोरी गाते, 
अब आओ मैं पलकों में 
स्वप्नों से सेज बिछाऊँ।’’ 
 
महादेवी जी का चैथा काव्य-संकलन ‘सान्ध्य गीत‘ [सन् 1936] है जिसे उन्होंने सत्ताईस से उनतीस वर्ष की अवस्था में लिखा है। इसमें पहले से अधिक सूक्ष्म कलात्मकता और प्रौढ़ता है। एक संध्याकालीन चित्र में अपने जीवन को उतार कर देखना निश्चय ही कवयित्री की कल्पना का एक सृजनात्मक स्वरूप है। इसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ द्रष्टव्य हैं:-
 
‘‘प्रिय! सांध्य गगन मेरा जीवन। 
यह क्षितिज बना धुँधला विराग,
नव अरुण अरुण तेरा सुहाग, 
छाया-सी काया वीतराग,  
सुधी-भीने स्वप्न रंगीले धन।’’
 
अब महादेवी जी काव्य-यात्रा ‘दीपशिखा‘ [1942] में पाँचवें पड़ाव पर है जिसे उन्होंने उनतीस से पैंतीस वर्ष की उम्र में लिखा है। इसमें एक-से-एक प्रतीकों का प्रयोग विशिष्ट शब्दावलियों के साथ मुखरित हुआ है। फिर एक प्रतीक ‘घटा’ के मिटने का कवयित्री के गीत में उमड़ आता है।
 
‘‘मिट चली घटा अधीर 
चितवन तन श्याम रंग
इन्द्रधनेष भृकुटि भंग  
विद्युत का अंग राग  
दीपित मृदु अंग-अंग,  
उड़ता नभ में अछोर मेरा भव नीर चीर।’’
 
महादेवी जी का शब्द एकलयता के साथ निगूढ़ भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। कवयित्री की काव्य-यात्रा के पाँच पड़ाव निश्चय ही क्रमशः भावों की पूर्णता के द्योतक हैं। आत्मानुभूति के सूक्ष्मीकरण का क्रम इनमें आगे बढ़ता जाता है। प्रतीक और बिम्ब भी नये वस्त्र धारण कर सजे-सजाये दिखते हैं।
 
कुछ विद्वान् महादेवी जी की काव्य-भाषा में अस्पष्टता और दुरूहता को घटित होते देखते हैं तो कुछ उनके प्रतीकों की शब्द-सीमा को भी रेखांकित करते हैं। कुछ गिने-चुने प्रतीक बार-बार उनके गीतों मंे रूप बदलकर आते हैं। मगर ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है। कवयित्री की भाषा सहजता में जो बिम्ब-विधान रचती है, वह प्रतीकों के घरौंदे में उतर कर उसे सौंदर्य प्रदान करती है। इसमें कोई असहजता नहीं है। अमृत राय जी के शब्दों में-‘‘महादेवी जी की कविता की पंक्ति-पंक्ति आँसुओं से गीली है, यहाँ तक कि उनका एक ‘आँसुओं का देश’ ही, सबसे अलग है। उनकी सारी कविताओं को एक में पिरोने वाली लड़ी आँसुओं की लड़ी ही हो सकती है। उन्हें आँसुओं से मोह है और उनसे वे अपना शृंगार करती हैं, क्योंकि उन्हें अपनी व्यथा से मोह है।’’ शायद महादेवी जी के काव्य के प्रति इतना ही कह देना यथेष्ट नहीं है। उनके आँसुओं में भी एक ज्वाला है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कुल मिलाकर महादेवी जी से कविता ही गौरवान्वित हुई है।
 
महादेवी जी का गद्य-साहित्य ‘अतीत के चलचित्र’ [1941] से चल कर ‘शृंखला की कड़ियाँ’ [1942], ‘स्मृति की रेखाएँ’ [1943], ‘पथ के साथी’ [1956] ‘क्षणदा’ [1956] और ‘मेरा परिवार’ [1972] तक फैला हुआ है। उनके गद्य में एक उन्मुक्तता है। उनके गद्य में कहीं-कहीं विद्रोह की चिनगारी भी है। उनके रेखाचित्रों में उनका यह विद्रोही स्वर उभर आता है। उनके गद्य में भी स्वर संवेदना तो है मगर सामाजिक विद्रूपता के प्रति विद्रोह भी है। उनका गद्य-लेखन यथार्थ की भाव-भूमि पर खड़ा सर्जनात्मक सोच का जीवन्त नमूना है।
 
महादेवी जी ने अपनी रचना-धर्मिता के क्रम में कभी भी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। 1942 की जनक्रान्ति में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। गाँधी जी के नेतृत्व में राजनीति का भी हिस्सा बनीं। मगर हर जगह उन्होंने अपनी दृढ़ता और आदर्शवादिता को प्रश्रय दिया।
 
वे राजभाषा हिन्दी की प्रबल हिमायती थीं। सन् 1975 में नागपुर में  प्रथम ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ का आयोजन हुआ, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था-‘‘संस्कृति तब तक गूंगी रहती है जब तक राष्ट्र की अपनी वाणी नहीं होती, राष्ट्रभाषा नहीं होती।..............विश्व-चेतना जगाने से पहले अपने देश में राष्ट्र की चेतना जगायें।’’ अनेक केन्द्रीय और राज्य स्तर के मंत्रियों के बीच ऐसा चुभने वाला सत्य महादेवी जी ही कह सकती थीं।
 
देश में आपातकालीन लागू होने पर वे विचलित हो उठीं। उन दिनों उनके गले का आॅपरेशन हुआ था। फिर भी उमाकान्त मालवीय के शब्दों में- आपात स्थिति के दिनों की स्थिति उन्हें उद्वेलित कर देती है और वे कहने लगती हैं-‘‘उन दिनों मेरे गले का आॅपरेशन हुआ था। गनीमत थी, मेरा तो गला ही कटा हुआ था, देश की तो जबान ही काट ली गई थी। मुझे शिकायत है अपने समानधर्मा रचनाकारों से। कतिपय अपवादों को छोड़ कर हम परीक्षा की घड़ी में बुरी तरह असफल हुए हैं। हमारी भूमिका कमोवेश चारण की ही रही। हम केवल आरती ही सजाते रहे।’’ इन शब्दों की पीड़ा में छिपे विद्रोही स्वर को महादेवी जी के स्वातन्त्रय विचारों का प्रस्फुटन ही कह सकते हैं। कभी-कभी वे क्रान्तिरूपा भी बन जाती थीं। वे सदा भारतीय नवजागरण तथा मनुष्य की स्वतन्त्रता की पक्षधर रहीं।
 
धीरे-धीरे महादेवी जी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। एक साथ कई बीमारियों का आक्रमण हो गया था। साहित्यकार दर्शनार्थ आ रहे थे। दीपशिखा अब निर्वाण की ओर जा रही थी। ‘बीन भी हूँ और तुम्हारी रागिनी भी हूँ’ की आवाज अब विश्व-वीणा के साथ तदाकार होने जा रही थी-‘‘विश्व-वीणा में मेरी आज, मिला लो यह अस्फुट झंकार।’’ और देखते-ही-देखते 11 सितम्बर 1987 की रात 9 बजकर 45 मिनट पर उन्होंने संसार से विदा ले ली-
 
यह विदा बेला,
अर्चना-सी, आरती-सी यह विदा बेला। 
 
उनकी विदा-बेला आ गई। हिन्दी-साहित्य का संसार मानो निःशब्द हो उठा। उनकी अन्त्येष्टि 12 सितम्बर 1987 को इलाहाबाद के रसूलाबाद घाट पर राजकीय सम्मान के साथ सम्पन्न हो गयी। तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरमन और प्रधान मंत्री राजीव गाँधी से लेकर छोटे-बडे़ राजनीतिज्ञों ने शोक-संवेदना प्रकट की। साहित्यकारों के शब्द आँसू बनकर बहने लगे।
 
‘धर्मयुग’ के सम्पादक डा0 धर्मवीर भारती ने अपनी शोक-संवेदना में कहा- ‘‘हिन्दी कविता की गीतात्मकता, वेदना और नारी गरिमा को महादेवी जी ने जिस ऊँचाई पर प्रतिष्ठित किया, वह अद्वितीय है।’’ वयोवृद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने कहा-‘‘छायावादी युग से लेकर आज तक वे हिन्दी-साहित्य के परिदृश्य पर छायी रहीं। अब उनके समान सुन्दर लिखने और बोलने वाले कभी-कभी ही जन्म लेते हैं।’’
 
प्रख्यात कथाशिल्पी कृष्णा सोबती ने कहा-‘‘यह एक बहुत बड़ी साहित्यिक परम्परा का अन्त है।’’ डा0 नामवर सिंह ने कहा- ‘‘महादेवी हिन्दी-साहित्य का स्वाभिमान थीं।’’ उस समय के साप्ताहिक ‘हिन्दुस्तान’ के सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी ने लिखा- ‘‘महादेवी एक ओर विशाल महासागर थीं दूसरी ओर अनन्त ऊँचाइयों के हिम-शिखर तो अपने व्यवहार में वे अत्यन्त ममतामयी, तरल और सरल सुवासित स्नेहयुक्त चन्दन।’’ हिमांशु जोशी ने लिखा-‘‘आने वाला इतिहास सच नहीं मानेगा कि ऐसी भी एक अद्भुत कवयित्री हुई थीं, कभी इस देश में! जिसे महाप्राण निराला ने कभी कहा था -
 
‘‘हिन्दी के विशाल मंदिर की वीणा-पाणी   
स्फूर्ति चेतना-रचना की प्रतिभा कल्याणी।’’
 
वह वीणा-पाणी महा चेतना में लीन हो गई। महादेवी जी की वह वाणी रह-रह कर कानों में आकर मानो कुछ कह जाती है-
 
‘‘जब असीम से हो जायेगा 
मेरी लघु सीमा का मेल,   
देखोगे तुम देव अमरता 
खेलेंगी मिटने का नीहार।’’ 
 
वह दीपशिखा सदा के लिए बुझ गयी। मगर उनकी कृति का दीप सदैव जलता रहेगा हिन्दी-प्रेमियों के हृदय में।
 
आज उस वाणी की प्रतिभा, शारदा का अवतार, कविता की साम्राज्ञी पर पचास से अधिक शोध-प्रबन्ध पी0एच0डी0 की उपाधि के लिए स्वीकार किए गए हैं। उन पर अभी भी अध्ययन और अनुसन्धान जारी है। मरणोपरान्त उन्हें सन् 1988 में पद्मविभूषण की भी उपाधि दी गई।
 
अन्त में डा0 रामकुमार वर्मा के श्रद्धा-सुमन से ही इस लेख का समापन करता हूँ-‘‘क्या वे चिरनिद्रा में लीन हो गईं? नहीं! वे जागरण की ज्योति में जगमगाती रहेंगी, क्योंकि वे ध्रुवतरिका हैं जो सदैव अटल और स्थिर है और अनेक वर्षों तक साहित्यिक ऋषि उनकी परिक्रमा करते रहेंगे।’’

इन्हें भी जानें 


1.अध्यात्म-मार्तण्ड-महर्षि सदाफलदेव
MAHARSHI SADAFALDEO JI MAHARAJ


















2.  विश्वविजेता - स्वामी विवेकानन्द
SWAMI VIVEKANANDA













3.  क्रांतिदर्शी महर्षि - स्वामी दयानन्द 
MAHARSHI DAYANAND SARASWATI











4.  राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
MAITHILISHARAN GUPTA











5साहित्यकारों के साहित्यकार - शिवपूजन सहाय
शिवपूजन सहाय












6. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला









7. उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचन्द
प्रेमचन्द

















Ref. Article source from Apani Maati Apana Chandan, Author- Sukhnandan Singh Saday. Keywords mahadevi verma, mahadevi verma jivan parichay, Mahadevi Verma Biography.